दुखी भारत/२९ पैग़म्बर के वंशज
उनतीसवाँ अध्याय
'पैग़म्बर के वंशज'
मिस मेयो की पुस्तक से यह प्रकट होता है कि 'पैग़म्बर के वंशज, भारत की राजनैतिक उन्नति के विरोधी हैं; और वे ब्रिटिश सरकार के इतने अधिक भक्त हैं कि वे हिन्दुओं से, उनके राजनैतिक आन्दोलनों के कारण घृणा करते हैं'। इसलिए उसने मुसलमानों की प्रशंसा की है और बुद्धिमानी के साथ उनकी किसी प्रकार की समालोचना नहीं की। उसने उन मुसलमान नेताओं के व्याख्यानों से उद्धरण दिये हैं जो हिन्दुओं के विरोधी हैं। हिन्दू-मुसलिम-वैमनस्य भारतवर्ष में अँगरेज़ों के लिए सर्वोत्तम अस्त्र है। उन्हीं पर ब्रिटिश-शासन की नींव जमी है। परन्तु यह कहना कि मुसलमान जाति ही भारत की स्वतंत्रता के विरुद्ध है, उसकी बुद्धि और देश-भक्ति पर इतना घोर कलङ्क लगाना है कि हम यहाँ दिसम्बर १९२७ में भिन्न भिन्न महासभाओं और अधिवेशनों में दिये गये मुसलमान नेताओं के व्याख्यानों से कुछ बड़े बड़े उद्धरण दे देना अनुचित नहीं समझते।
श्रीयुत मुहम्मद अली जिन्ना एक देशभक्त मुसलमान नेता हैं। वे सरकार-द्वारा मुडीमैन कमेटी के सदस्य नियुक्त हुए थे। यह कमेटी १९२४ ईसवी में सुधारों की कारगुज़ारी की जाँच करके विवरण उपस्थित करने के लिए बनाई गई थी। इसके पश्चात् वे सरकार-द्वारा स्कीन-कमेटी के सदस्य नियुक्त किये गये थे। इस कमेटी को सेना में भारतीय अफ़सर भर्ती करने के प्रश्न पर विवरण उपस्थित करने का कार्य्य सौंपा गया था। इस प्रकार उन्हें सरकार भी एक प्रभाव-शाली मुसलमान नेता स्वीकार करती है। ताहम बड़ी व्यवस्थापिका सभा में और उसके बाहर भी विदेशी शासन के विरुद्ध उन्होंने वैसे ही दृढ़ विचार प्रकट किये हैं जैसा कि कोई राष्ट्रवादी हिन्दू कर सकता है। अपनी पुस्तक के ३०७ वें पृष्ट पर मिस मेयो लिखती है कि उसने पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त के अनेक बड़े लोगों से बातें की हैं। आश्चर्य इस बात का है कि उसने किस भाषा में बातें की। क्योंकि उस प्रान्त में बहुत कम ऐसे बड़े लोग हैं जो अँगरेज़ी बोल सकते हैं। अस्तु, यह एक साधारण बात है। वह कहती है––'इस सम्बन्ध में सबके विचार समान प्रतीत हुए। इस समय समस्त प्रान्त सन्तुष्ट है और किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं चाहता।' परन्तु अखिल भारतीय मुसलिम लीग में प्रतिवर्ष सीमा-प्रान्त में विशेष सुधार की माँग का प्रस्ताव पास होता है। १९२६ ईसवी की बड़ी व्यवस्थापिका सभा में एक इसी प्रकार का प्रस्ताव उपस्थित किया गया था और पास भी हो गया था। मिस मेयो ने जिस 'प्रतिनिधि' का अपनी पुस्तक में उल्लेख किया है उसके मुँह से भी यह कहलाया है कि––'यदि अँगरेज़ जाते हैं......तो तुरन्त यह देश नरक का रूप धारण कर लेगा। सबसे पहले बङ्गाली और उसकी समस्त जाति इस संसार से मिटा दी जायगी।' कोई बुद्धिमान् व्यक्ति ऐसी बात नहीं कह सकता था क्योंकि 'बङ्गाली और उसकी समस्त जाति' भारतवर्ष में ब्रिटिश के आने से हज़ारों वर्ष पूर्व भी विद्यमान थी। वार्तालाप निम्नलिखित शब्द-रत्नों के साथ समाप्त होता है––'परन्तु बिना अँगरेज़ों की सहायता के ऐसे हिन्दुओं के अतिरिक्त जिन्हें हम अपना गुलाम बना कर रखें और कोई हिन्दू भारतवर्ष में नहीं रह सकता।'
बेशक, मिस मेयो को अपने संवाददाता से––यदि वास्तव में कोई ऐसा संवाददाता मांस और रुधिर का हो या कभी रहा हो, क्योंकि उसने कोई नाम नहीं दिया है––यह पूछने का ध्यान नहीं आया कि अँगरेज़ों के आने से पूर्व युगों तक हिन्दू स्वतंत्र मनुष्य की भाँति जीवन व्यतीत करने की कैसी व्यवस्था करते थे? इससे भी अधिक उपयुक्त प्रश्न यह है कि हिन्दुओं ने पश्चिमोत्तर-प्रान्त ही नहीं, काबुल और कन्धहार भी, जो पूर्ण रूप से मुसलमाने के देश में हैं और अफगानिस्तान के राजा के राज्य में हैं, किस प्रकार जीतने की और उन पर शासन करने की व्यवस्था की थी। १८४९ ईसवी में पञ्चाब के ब्रिटिश राज्य में मिलाने के समय में सब प्रान्त सिक्खों के अधीन थे। इन प्रान्तों में सिक्खों के नाम पर अनेक बड़े बड़े नगर बसे हैं। उनमें एक हरिपुर है, जो भारत के उस भाग में समस्त अफ़ग़ान जनता के हृदय में भय उत्पन्न कर देनेवाले हरिसिंह के नाम पर बसाया गया था। हमें पूरा विश्वास है कि यह समस्त वक्तव्य स्वयं मिस मेयो के मस्तिष्क की उपज है; या नहीं तो किसी अँगरेज़ अफसर ने, उसकी आँख में धूल झोंकने के लिए अथवा यह सिद्ध करने के लिए कि भारतवर्ष में हिन्दुओं को छोड़ कर शेष सब ब्रिटिश शासन को पसन्द करते हैं, उसकी पुस्तक में जुड़वा दिया होगा।
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सर इब्राहिम रहमतुल्ला बम्बई के एक मुसलमान नेता हैं। वे एक बड़े व्यापारी हैं और बम्बई की व्यवस्थापिका सभा के कई वर्ष सदस्य रह चुके हैं। पहले वे सरकार द्वारा नामज़द किये गये थे, परन्तु जब सभापति के निर्वाचन का क़ानून व्यवहार में आने लगा तब भी वे सर्वसम्मति उस पद के लिए निर्वाचित हुए थे। अखिल भारतवर्षीय औद्योगिक और व्यापारिक महासभा के गत अधिवेशन में, जो दिसम्बर १९२७ के अन्तिम सप्ताह में मद्रास हुआ था, सभापति की हैसियत से उन्होंने ब्रिटेन के 'भारतवासियों के संरक्षक होने के' दावे पर विचार किया था और कहा था––
"जब ऐसा दावा है तब यह विचार करना उचित होगा कि 'संरक्षकों' ने गत डेढ़ सौ शताब्दियों में अपने पूर्णाधिकार के समय में अपने कर्तव्य का पालन कैसे किया?......यदि ब्रिटेन एक ऐसा संरक्षक निकला जिसका कोई अपना स्वार्थ न हो और जो भारतवासियों की भलाई का हृदय से इच्छुक हो तो यह उसके लिए बड़ी प्रशंसा की बात होगी। यदि उसके दीर्घ संरक्षण में भारत को सुख और संतोष प्राप्त हुआ हो तो निःसन्देह उसका इस देश के साथ सम्बन्ध स्थापित होना ईश्वरीय कृपा का फल समझा जायगा। इसलिए अब प्रश्न यह है कि क्या ब्रिटेन स्वार्थ-रहित संरक्षक सिद्ध हुआ है और क्या उसके दीर्घ सम्बन्ध से इस देश के निवासियों को आर्थिक दृष्टि से सुख और सन्तोष प्राप्त हुआ है। जिसने देश के सार्वजनिक जीवन में कोई भी दिलचस्पी ली है, उसे इस प्रश्न का एक ही उत्तर मिलेगा। और वह उत्तर यह है कि ब्रिटेन का आदि से अन्त तक प्रथम ध्येय यह रहा है कि भारतीय बाज़ार उसके हाथ में रहे ताकि उसके माल की बिक्री हो। उसने अपनी राजनैतिक शक्ति का केवल इसी ध्येय की उन्नति के लिए प्रयोग किया है। हमें बतलाया गया है कि पुरुषार्थी व्यापारियों का वह छोटा दल, जो भारतवर्ष में आया था, केवल लाभदायक व्यापार करना चाहता था। उन्हें जो राजनैतिक शक्ति प्राप्त हुई उसका ईस्ट इंडिया कम्पनी इसी काम के लिए प्रयोग करती थी। यह सत्य है कि १८५८ के साल में ब्रिटेन के ताज ने भारतवर्ष के शासन को अपने हाथ में ले लिया था। प्रश्न यह है कि क्या ब्रिटिश ताज के शासन का उत्तरदायित्व ग्रहण कर लेने पर देश की आर्थिक स्थिति में कुछ परिवर्तन हुआ? कहने को तो जो शक्ति ईस्ट इंडिया कम्पनी के संचालकों में केन्द्रीभूत थी वह पार्लियामेंट को सौंप दी गई थी परन्तु व्यवहार में ईस्ट इंडिया कंपनी के सञ्चालकों का स्थान भारत-मंत्री ने ग्रहण कर लिया था। यह बोर्ड अब 'सेक्रेटरी आफ़ स्टेट इन कौसिल' के नाम से पुकारा जाता है; और अब तक भारतीय कर और कोष पर शासन करता है। भारत में जो अँगरेज़ अफ़सर शासन कार्य कर रहे हैं, उन्हें इस बोर्ड की आज्ञा माननी पड़ती है। वास्तविक स्थिति क्या है? इसका एक ज्वलन्त उदाहरण अभी हाल ही में देखने में आया है। भारत सरकार के अर्थ-सचिव सर बैसिल ब्लैकेट को, जिनकी अर्थशास्त्र में बड़ी प्रसिद्धि है, 'बोर्ड आफ़ डाइरेक्टर्स के सामने रिज़र्व बैंक-सम्बन्धी वाद-विवाद पर अपने विचार उपस्थित करने के लिए स्वयं जाना पड़ा। भारत-सरकार तार-द्वारा प्रार्थनाएँ करते करते थक गई पर भारतवासिये की आवश्यकतानुसार इस बोर्ड से भारत के लिए एक रिज़र्व बैंक स्थापित करने का अधिकार न प्राप्त कर सकी। लन्दन में स्थापित ज्वाइंट-स्टाक कम्पनियों के बोर्ड आफ़ डाइरेक्टर्स का जो व्यवहार प्रायः समुद्रपार के कारखानों के साथ होता है वहीं भारत जैसे विशाल देश के साथ भी किया गया। समुद्रपार का मैनेजर हेडक्वार्टर में बोर्ड और उसके हिस्सेदारों को––जो इस परिस्थिति में ब्रिटेन के बैंकर होते हैं––वह संतोष दिलाने के लिए बुलाया जाता है कि जिस नीति के लिए सिफारिश की जा रही है वह कंपनी के हित में है। क्या कोई बात इससे भी अधिक स्पष्ट रूप से यह सिद्ध कर सकती है कि 'पवित्र संरक्षण का दावा' आँसू पोंछना-मात्र है, और इस देश में जिस नीति पर काम होता है उसके निश्चय करने में अँगरेज़ बैंकरों और व्यवसाचियों का प्रबल हाथ नहीं रहता?"
सर इब्राहिम भारत ले अँगरेजों की अर्थ-नीति के उतने ही कड़े समालोचक हैं जितने कि 'बङ्गाली और उनकी जाति'। वे ठीक ही कहते हैं:––
"भारतवर्ष की आर्थिक उन्नति को दृष्टि में रखते हुए कृषि, उद्योग, व्यापार, करेंसी, एक्सचेंच और राज्यकोष, इन सबकी एक साथ या पृथक् पृथक् जाँच होनी चाहिए। आप यह देखेंगे कि केवल एक कमीशन के अतिरिक्त सरकार द्वारा जितने भी जाँच कमीशन नियुक्त किये गये सबके सभापति योरपियन थे और बहुमत भी उन्हीं का था। जो नीति भारत की आर्थिक समस्याओं के लिए उपयुक्त हो सकती है, वह भारतवासियों-द्वारा नहीं बल्कि अँगरेज़ों द्वारा निर्धारित की जाती है। और यह स्वाभाविक ही है कि जो शिक्षा उन्हें मिली है उसके अनुसार वे प्रत्येक समस्या पर इसी दृष्टिकोण से विचार करेंगे कि इसका ब्रिटेन पर क्या प्रभाव पड़ेगा।"
आर्थिक स्थिति की जाँच करने के लिए जिस कमीशन में एक भारतीय सभापति नियुक्त हुआ था वह स्वयं सर इब्राहिम का कमीशन था। भारतवर्ष की कर सहन करने की शक्ति पर विचार करते हुए सर इब्राहिम लिखते हैं:––
"यह तर्क उपस्थित किया गया है कि जब से ब्रिटिश लोग आये हैं तब से भारतवर्ष की विशेष उन्नति हुई है और इस समय इसके पास जितना धन है उतना पहले नहीं था। यह मान लिया जाय कि, जहाँ तक रुपये का सम्बन्ध है, भारत की दशा पूर्व की अपेक्षा अच्छी है तो भी यह स्मरण रखना चाहिए कि जीवन-निर्वाह का व्यय यथेष्ट रूप से बढ़ गया है, रुपये की खरीदने की शक्ति घट गई है, बचत के रुपये एकत्रित करके किसी ने विशेष धन संग्रह नहीं किया, और जनता में दरिद्रता बढ़ गई है। वस्त्र जो कि जीवन की आवश्यकताओं में से एक है युद्ध के पूर्व औसत दर्जे पर प्रतिमनुष्य १८ गज़ के हिसाब से इस्तेमाल किया जाता था। अब यह घट कर केवल १० गज़ प्रति मनुष्य हो गया है। यदि परिस्थिति भिन्न होती तो वर्तमान कर के अनुसार लाभ में कमी नहीं हो सकती थी। फिर इसमें क्या आश्चर्य की बात है कि सरकारी व्यय को कम करने के लिए लगातार पुकार मच रही है। मैं यह स्वीकार करता हूँ कि इस ओर प्रयत्न किया गया है परन्तु विशेष सफलता नहीं हुई। कमी करने के प्रश्न पर विचार करते समय हमारे सामने बार बार यही प्रश्न उपस्थित किया जाता है कि शासन का यंत्र सब प्रकार से पूर्ण होना चाहिए। और इस पूर्णता की जाँच करना भी अधिकारियों के ही हाथ में है। इस पूर्णता की पुकार के फल-स्वरूप बड़ी हानि हुई है। यह विदित होना चाहिए कि कोई देश उतनी ही पूर्णता प्राप्त कर सकता है जितनी उसके पास व्यय करने की शक्ति हो। इसलिए यह प्रश्न उठता है कि क्या भारत की आर्थिक शक्ति ऐसी है कि वह अपने ऊपर लादे गये पूर्णता के इस आदर्श को सँभाल सकता है? कोई किसी देश पर किसी समय तक के लिए पूर्णता का ऐसा आदर्श नहीं रख सकता जो उस देश की साधन-शक्ति से बाहर हो। एक सभ्य सरकार का मुख्य कत्तव्य यह है कि वह लोगों की कर सहन करने और उन्नति के लिए धन देने की शक्ति को बढ़ाने के लिए उस देश के आर्थिक साधनों को दृढ़ करे।"
सर इब्राहिम ने अपने स्पष्ट और बहुत बड़े भाषण को अँगरेज़ों से निम्नलिखित प्रार्थना करते हुए समाप्त किया था:-
"अँगरेज़ लोग भारतवर्ष में लोकोपयोगी कार्य्य करने या अपने स्वास्थ्य के लाभ के लिए नहीं पाते। मैं उनसे यह प्रार्थना करूँगा कि वे 'भारतवर्ष को 'एक पवित्र धरोहर' कहने का बहाना छोड़ दें और स्पष्ट रूप से यह स्वीकार कर लें कि वे इस देश में अपने व्यापारिक स्वाथों को सिद्ध करने के लिए हैं। मैं लार्ड अरविन से प्रार्थना करूँगा कि वे भारत की याधिक समस्या पर उसी उत्साह के साथ विचार करें जिससे उन्होंने लाई लायड के साथ ब्रिटेन की समस्या पर किया था। और जिन बातों पर वहाँ ज़ोर दिया था उन्हीं को लेकर भारतवर्ष के लिए एक नीति निर्धारित कर दें। मैं उनसे यह भी प्रार्थना करूँगा कि वे व्यापारिक भारतवर्ष के चुने चुने विद्वानों को, भारत को वश में रखने की ब्रिटेन की वास्तविक नीति को प्रकट करने और सम्मिलित शक्ति से भारत की उन्नति का उपाय सोचने के लिए, आमन्त्रित करें।"
इससे पाठकों को मालूम हो जायगा कि ब्रिटिश शासन के सम्बन्ध में हिन्दुओं और सर इब्राहिम रहमतुल्ला जैसे उदार, शिक्षित और नर्मदल के मुसलमान नेता के विचारों में विशेष अन्तर नहीं है।
अभी हाल में १९१९ के सुधारों की सफलता आदि के सम्बन्ध में जांच करने के लिए सरकार द्वारा जो सायमन कमीशन नियुक्त हुआ है, उसके प्रति मुसलमानों का जो भाव है उससे भी ब्रिटिश सरकार के प्रति उनके भावों का बड़ा सुन्दर प्रदर्शन हो जाता है। प्रायः समस्त अखिल भारतीय मुसलमान नेता, जिनकी कि देश के सार्वजनिक जीवन में गणना है, सायमन कमीशन का बहिष्कार करने में हिन्दू नेताओं के साथ हैं। अखिल भारतीय सुसलिम लीग ने, जिसका अधिवेशन ३० दिसम्बर १९२७ ईसवी को कलकत्ते में हुआ था, इस सम्बन्ध में एक प्रस्ताव भी पास किया था। विपक्ष में केवल दो वोट थे। इस अधिवेशन के सभापति मौलवी मुहम्मद याकब बनाये गये थे, जो बड़ी व्यवस्थापिका सभा के उप-सभापति भी हैं। कमीशन में बिलकुल अँगरेज़ों को रखने की नीति के विरुद्ध आपने बड़ा जोरदार भाषण दिया था।
इसकी प्रतिद्वन्द्विता में इन्हीं तिथियों पर एक सभा लाहौर में की गई थी। इस सभा को भी अखिल भारतीय मुसलिम लीग का अधिवेशन घोषित किया गया था। इसके सभापति लाहौर के सर मुहम्मद शफ़ी बनाये गये थे। इस सभा में कमीशन का बहिष्कार न करने के लिए मामूली बहुमत से एक प्रस्ताव पास हो जाने की घोषणा कर दी गई थी। अल्पमतवालों ने फिर से वोट गिने जाने के लिए आवाज़ उठाई पर उसे अस्वीकार कर दिया गया। इस घोषित किये गये अल्पमतवालों के नेताओं-श्रीयुत्त मुहम्मद आलम एम॰ एल॰ सी॰, अब्दुलकादिर (पंजाब खिलाफ़त कमेटी के सभापति) अफज़लहक़ एम॰ एल सी॰, मज़हरअली अज़हर और मुहम्मद शरीफ ने समाचार-पत्रों में अपना एक वक्तव्य प्रकाशित कराया है। उसमें उन्होंने सभापति के अनौचित्यों की शिकायत की है और यह सिद्ध किया है कि दोनों मोर के वोट क़रीब क़रीब बराबर थे। परन्तु इस उन्नति के विरोधी और राजभक्त' सभापति ने भी अपने व्याख्यान में कहा था:---
"भीतरी मामलों में भारतमन्त्री का हाथ होना राज्य-प्रबन्ध के हित में अच्छा नहीं है। सर शफी की राय में इस सम्बन्ध में भारत-लरकार को स्वतंत्र कर देना चाहिए। केन्द्रीय और प्रान्तीय राज्य-प्रबन्ध में शीघ्र किये जाने योग्य सुधारों के सम्बन्ध में अपनी सम्मतियों को विस्तारपूर्वक वर्णन करते हए आपने कहा कि सरकार के विदेशीय और राजनैतिक विभागों को एक सदस्य की देख-रेख में कर देना चाहिए; भारतीय मंत्रिमण्डल में सेना-"विभाग के लिए एक सिविलियन मेम्बर की वृद्धि होनी चाहिए, और वायसराय की कार्य्यकारिणी समिति के सदस्यों की संख्या बढ़ाकर ८ कर देनी चाहिए जिनमें ४ भारतीय हों। आपने यह भी कहा कि केन्द्रीय शासन में दत्त-विभागों के लिए निर्वाचित प्रतिनिधियों में से एक या कई सदस्य नियुक्त होने चाहिएँ? और उन्हीं पर इन विभागों के शासन का उत्तरदायित्व रहना चाहिए। प्रान्तों के दोहरे शासन के सम्बन्ध में सर मुहम्मद मे कहा कि अब दिलबहलाव के लिए प्रयोग करना बन्द कर देना चाहिए और उन्हें फिर एकई रूप प्रान्तीय शासन के सिद्धान्त पर श्रा जाना चाहिए।" मिस मेयो का हृदय भङ्ग करने के लिए इतना यथेष्ट होना चाहिए: क्योंकि उसने यह सोचा था कि मुसलमान 'अच्छे लड़के हैं और शासन के वर्तमान यन्त्र में कोई परिवर्तन नहीं चाहते। अब हम हिन्दू-मुसलिम दङ्गने के सम्बन्ध में, जिनका खूब विज्ञापन किया गया है और जिनकी खूब चर्चा हुई है, कुछ सम्मतियाँ उपस्थित करेंगे। बड़ी व्यवस्थापिका सभा के उपसभापति मौलवी मुहम्मद याक़ूब ने अखिल भारतवर्षीय मुसलिम लीग में सभापति की हैसियत से भाषण देते हुए निम्नलिखित विचार प्रकट किये थे:-
"हिन्दू-मुसलिम दङ्गों पर विचार करते हुए मैं किसी को दोष नहीं देना चाहता। परन्तु हमारे पैगम्बर हमें रास्ता बता गये हैं। उस पाकज़ात के मदीना के यहूदियों के साथ कुछ देने और कुछ लेने के भाव से किये गये समझौते के अनुसार हमें अपने प्राचरण को नियमित करना चाहिए। मेल का अर्थ यह न होगा कि एक जाति को दूसरी जाति खा जायगी। हमें एक सम्मिलित हिन्दू परिवार की भांति अपने घर में बैठकर आपस में बटवारा कर लेना चाहिए। ऐसे कार्य्य से बाह्य संसार हमारा आदर करेगा। पर यदि हम कानून की शरण लेंगे और एक तीसरे व्यक्ति से निर्णय करावेंगे तो संसार हमें अपने पूर्वजों के पवित्र नाम पर धब्बा लगाने का अपराधी ठहरावेगा (करतल ध्वनि) मैं समझता हूँ कि उदार और शिक्षित मुसलमानों में प्रतिशत ऐसे है जिन्हें मदरास-कांग्रेस का निर्णय स्वीकार होगा।"
दूसरे मुसलमान नेता सर अली इमाम ने, जो ब्रिटिश इंडियन केबिनट के सदस्य रह चुके थे, मुसलिम लीग के वार्षिक अधिवेशन में बहिष्कार का प्रस्ताव रखते हए निम्नलिखित विचार प्रकट किया थे:-
"इसके पश्चात् सर अली इमाम (बिहार) ने विषय-निर्धारिणी समिति की ओर से बहिष्कार का प्रस्ताब उपस्थित किया जिसे सभापति ने उस दिन के प्रातःकाल का मुख्य प्रस्ताव घोषित किया। यह इस प्रकार था:-'अखिल भारतवर्षीय मुसलिम लीग बलपूर्वक इस बात की घोषणा करती है कि शाही कमीशन और उसकी घोषित कार्य-प्रणाली भारतवासियों के स्वीकार करन योग्य नहीं है। इसलिए यह निश्चय करती है कि समस्त देश के मुसलमानों को किसी अवस्था में और किसी रूप में कमीशन से कोई सम्बन्ध न रखना चाहिए।' जातियों और श्रेणियों के उचित और कानूनी स्वत्वों को स्वीकार किया जाय और उनकी रक्षा की गारंटी दी जाय. तथा जिसमें भीतर शान्ति और बाहर शेष संसार के साथ मैत्री का भाव हो। भारतवासी यह चाहते हैं कि उन्हें अपने देश में वही स्थान और वही अधिकार प्राप्त हों जो स्वतंत्र जातियों को अपने देश में प्राप्त रहते हैं। उनकी मांग न इससे कम है न अधिक। यदि यह साम्राज्य के अन्तर्गत प्राप्त हो सकता है तो हमें उससे सम्बन्धविच्छेद करने की इच्छा नहीं है परन्तु यदि साम्राज्य हमें अपने ध्येय पर पहुँचने से रोकता है तो उससे सम्बन्ध-विच्छेद कर लेने में हमें जरा भी सङ्कोच न होगा। महात्मा गान्धी के शब्दों में, हमारा मूलमन्त्र यह होना चाहिए कि 'यदि सम्भव हो तो साम्राज्य के भीतर यदि आवश्यक हो तो उससे पृथक्।'
"हमारे मार्ग में जो कठिनाइयाँ हैं उनको मैं कम नहीं कहता: वे बहुत हैं। परन्तु उतनी भयङ्कर कोई नहीं हैं जितनी कि एक अकेली साम्राज्यवाद की स्वेच्छाचारिता और खूब धन बटोरने की लालच से उत्पन्न होने वाली कठिनाई। इन्हीं दोनों बातों से श्राज संसार में दुख और अशान्ति की वृद्धि हो रही है। साम्राज्यवाद की प्यास बुझाने के लिए, कच्चे माल पर एकाधिपत्य रखने के लिए, योरप के कारखानों को चलाने के लिए और उनके द्वारा तैयार किया गया माल मनमाने तौर से बेचने के लिए, बड़े बड़े राष्ट्रों को उनकी स्वतंत्रताओं से वञ्चित किया जाता है और साम्राज्यों की रचना होती है।........
"राजनीतिज्ञ लोग 'सभ्यता-प्रचार और गौराङ्ग महाप्रभु के उत्तरदायित्व' का ढोंग रचते हैं और खूब नमक मिर्च लगा कर इन विषयों को उपस्थित करते हैं। परन्तु दक्षिणी अफ्रीका में साम्राज्यवाद के महान नेता सेसिल रोड्स ने इन बातों के खोखलेपन को जितनी अच्छी तरह प्रकट कर दिया था उतनी अच्छी तरह किसी और ने नहीं किया। उसने कहा था-'शुद्ध लोक-सेवा स्वयं अच्छी वस्तु है परन्तु उसके साथ ५ प्रतिशत लाभ भी हो तो वह बहुत अधिक अच्छी है।' साम्राज्यवाद के महान् पुजारी जोसेफ शेम्बरलेन और भी आगे बढ़े। उन्होंने कहा-'साम्राज्य व्यापार है। और हमें जितने प्राहक प्राप्त हुए हैं या प्राप्त होंगे उनमें भारतवर्ष सर्वोत्तम और सबसे अधिक मूल्यवान् है।' योरप की इस लोक-सेवारूपी डकैती का इतिहास कांगो से कैटन तक रक्त और कैश में लिखा हुआ है। सरकार की कड़ी नीति, करोड़ों भूक मनुष्यों के संरक्षण का सृष्टता-पूर्ण दावा और योरप की युद्ध के पूर्व की सङ्गीत-मण्डली को छिपाने के लिए राष्ट्र-संघ के नाम से विख्यात नवाविष्कृत लबादा; ये सब उसी साम्राज्यवाद के भिन्न भिन्न स्वरूप हैं। जब तक ये भयानक सिद्धान्त प्रचलित रहेंगे तब तक मानवीय दुःख दृढ़ता के साथ बने ही रहेंगे। इस विश्वव्यापिनी विपत्ति का उपाय भारतवर्ष के हाथ में है, क्योंकि यही साम्राज्यवाद के भवन की कुञ्जी है। भारत स्वतन्त्र हुआ कि यह सारी इमारत ढही। स्वतन्त्र भारत एशिया की स्वतंत्रता और विश्व-शान्ति की सर्वोत्तम गारंटी है।............"
ब्रिटिश शासन के प्रति हिन्दू राजनीतिज्ञों का भाव इससे किस बात में