तुलसी चौरा/1
शंकरमंगलम विश्वेश्वर शर्मा के परिवार में बुधवार और शुक्रवार के बीच भला ऐसा क्या घट गया है? हो सकता है इसका मूल कारण रवि का वह पत्र हो जो पैरिस से लिखा गया था। पं॰ विश्वेश्वर शर्मा इस बीच जाने क्या-क्या सोच गए थे। पर अब क्या करेंगे वे? बेटे की इस जिद को कैसे मान लें वह? लोग बाग भला क्या कहेंगे...ऐसी ही जाने कितनी ऊल जलूल बातें जेहन में घूम गयीं।
अब तो उन्हें लगता है, रवि को पैरिस भिजवाकर भूल की। वेणु काका की सलाह पर अखबारों में जो वैवाहिक विज्ञापन देना चाहते थे, उसकी तो अब जरूरत ही नहीं रही। साहबजादे ने कुछ गुँजाइश बचा रखी हो, तब न! सब कुछ तो खत्म हो गया है अब!
इसी शुक्रवार की ही तो बात है, स्थानीय संवाददाता विज्ञापन लेने आया तो वे सफाई से टाल गए बोले ‘फिर देख लेते हैं। ऐसी भी क्या जल्दी मची है।’ अपना कहा खुद को झूठ लगा।
जबकि बुधवार को, उसे स्वुद ही कहलवा भेजा था। सारा हिसाब भी
लगा लिया था। पर शुक्रवार के आते-आते सब कुछ पलट गया।...
एजेन्ट भी बेचारा दुखी हो गया होगा उसका कमीशन जो मारा गया।
यह एजेन्ट आस-पास के शहरों से विज्ञापन बटोर कर भिजवाया
करता। खैर, नुकसान तो हो ही गया उसका।
वेणु काका से पूछकर ही तो तैयार किया था, वह वैवाहिक विज्ञापन। कितनी आकर्षक पंक्तियाँ गढ़ी थीं उन्होंने 'यूरोप के शहर में, कुछ वर्ष तक रहकर, स्वदेश लौट रहे, उच्च शिक्षा प्राप्त बत्तीस वर्षीय कौशिक गोत्रीय युवक के लिए वधू की आवश्यकता है। सुन्दर, सुशील और मृदुभाषिणी कन्या के माता पिता संपर्क करें। लड़की कम से कम बी॰ ए॰ पास हो। फोटो सहित पूर्ण विवरण भेजें।'
एक प्रति पैरिस भी भिजवायी गयी। वेणु काफा की ही सलाह पर तो भिजवाया था।
वेणु काका के बेटा सुरेश, पैरिस स्थित यूनेस्को में अच्छे पद पर कार्यरत हैं। सुरेश पहले यू. एन. ओ. न्यूयार्क में था। फिर तबादले पर पैरिस चला आया। तब से पैरिस में सपरिवार रहता रहा था। जाने कितनी बार लिखता रहा वेणु काका और उनकी बेटी को। चार पाँच महीने पहले तो हवाई टिकट ही भिजवा दिए थे। वेणु काका और उनकी बिटिया को हार कर जाना ही पड़ा। वे लोग लौटे, तो विश्वेश्वर शर्मा के पास रवि की खबर भी लाए।
वेणु काका ने जब सारी बातें बतायीं, शर्मा जी को विश्वास नहीं हुआ। हालांकि वेणु काका ने सूचना देते वक्त पूरी सतर्कता बरती थी। उसमें शिकायत का लहजा कतई नहीं था।
'मैं तो खालिस तुम्हें आगाह करना चाहता था। अब गुस्से में,
उसे उल्टा सीधा कुछ मत लिख बैठना, समझे। आजकल के लौंडों
को लिखते वक्त भी खूब सोचना पड़ता है। कहीं यह मत लिख बैठना
कि काका कह रहे थे कि वहाँ किसी फिरंगिन के चक्कर में पड़े हो।
बस इतना लिखना कि इस बार छुट्टियों में जब घर आओगे तो
सोचता हूँ, तुम्हारा ब्याह कर दूँ। देखते हैं क्या उत्तर आता है।' शर्मा
जी ने दो सप्ताह पहले, इसी आशय का एक पत्र डाल दिया था।
बृहस्पतिवार की सुबह, बेटे का एक संक्षिप्त पर तीखा उत्तर आ गया।
इन्हें लगा जैसे रवि ने हड़बड़ी में उत्तर दिया है।
'बाऊ जी, वैवाहिक विज्ञापन देने की कोई आवश्यकता नहीं है। उसे रोक लीजिए। मैं जानता हूँ, बेणु काका और दीदी ने यहाँ का सारा समाचार आएको दे ही दिया होगा। मैं नहीं जानता कि आपने सब कुछ समझ बूझकर लिखा है, या फिर अनजाने में ही लिख डाला है। मेरा उत्तर यही है, और रहेगा। कैमिल से मैं प्यार करता हूँ। वह भी मुझसे प्यार करती है। उसके बिना मैं जी नहीं सकता। यह सच है। मुझे लगता है, अगर कैमिल को मैं सुविधा के लिए कमली कहूँ, तो आपको जरूर अच्छा लगेगा। वह भी भारत आना चाहती है, और आप लोगों से मिलना चाहती है। इस बार मैं कमली को साथ लाना चाहता हूँ।"
लक्ष्मी सा चेहरा है उसका, सोने सा रंग। अम्मा से कहिएगा कि उसके लिये चाँद सी बहू ला रहा हूँ। कमली भी, अम्मा से बहुत कुछ सीखना चाहती है। मुझे भरोसा है, आप या अम्मा उसे कुछ नहीं कहेंगे। समझ लीजिए यह मेरा अनुरोध है।
याद है, बचपन में आप जब मुझे संस्कृत काका पढ़ाया करते थे, तो 'गांधर्व विवाह' की परिषाभा स्पष्ट करते हुए आपने कहा था कि जिस विवाह में न देने वाला हो, न लेने वाला पर दो व्यक्ति परस्पर एक दूसरे को चाहें। तन और मन दोनों से एकाकार हों वही गंधर्व विवाह है।....आपने यह भी कहा था कि यह विवाह सर्वश्रेष्ठ होता है। आज मैं वह सब आपको याद भर दिलाना चाहता हूँ।
यहाँ बैठे-बैठे मैं इस वक्त आपकी और अम्मा की मनःस्थिति का अंदाज लगा सकता हूँ।
कुमार की पढ़ाई कैसी चल रही है। पारू को मेरा प्यार पहुँचा दीजिए। कहिए कि उसकी फ्रैंच भाभी उनसे मिलना चाहती है।
बेणु काका और बसंती वी को मेरी याद कहें बसँती यहाँ कमली
से खूब घुल मिल गयी थी। मेरे आने की सूचना उन्हें भी दे दें।
शर्मा जी ने इस पत्र को जाने कितनी बार दोहरा डाला होगा। कामाक्षी अलग से जान खाती रही।
'ऐसा क्या लिख दिया है, उसने? हमें भी तो कुछ बताइए।'
'तुम चुपा जाओ अब। साफ-साफ बता दूँ, तो सारा मोहल्ला इकट्ठा कर डालोगी। फिर...‘छोड़ो। मुँह मत खुलवाओ।'
'तो क्या आप सोचते हैं, मैं चिट्ठी पढ़वा नहीं सकती? अरे, पारू से पढ़वा लूँगी। नहीं तो शाम को कुमार आयेगा उसी से पढ़वाय लेंगे।'
उन्होंने पत्र को सँदूक में बंद कर दिया। सँदूक की चाबी अंटी में ही बँधी रहती है। वैसे कामाक्षी उनके इस दो टूक जवाब से ही कुछ अंदाजा लगा चुकी होगी। कहने को कह भी देते पर इधर वह कुछ ऊँचा सुनने लगी है। एकबार लो वे ऊँची आवाज में कहना शुरू किया था, फिर जुबान काट ली थी। खैर, कामाक्षी ने भी जिद नहीं की, यह अच्छा ही हुआ।
शंकरमंगलम का अग्रहारम आम अग्रहारों की तरह ही है। आपसी खींचातानी, उठापटक, बैर भाव, ईष्र्या-द्वेष सब है वहाँ। बुजुर्गों की पुरातन कट्टरता, जातिगत भेदभाव, नये लड़कों का शहर की ओर पलायन, दलगत राजनीति, खेत खलिहान के झगड़े, आगजनी― सब कुछ वैसा ही है जैसा किसी भी गाँव में होता है।
यूँ आज का आम भारतीय गाँव, पुराने मूल्यों का पक्षधर भी कहाँ रहा? नये मूल्यों के प्रति सहजता भी नहीं रहती वहाँ। न पुराने का मोह छूट पाता है न नये बदलते मूल्यों को ही वे अपना पाते हैं। लिहाजा एक त्रिशंकु की-सी स्थिति बनी रहती है। धर्म- अधर्म, न्याय-अन्याय, लालच, ईर्ष्या, चोरी, दोस्ती, जुएबाजी-पूजा पाठ, तंबाकू-कथा पुराण, गरीबी-संपन्नता―ऐसी कितनी ही बेमेल बातों का पिटारा है, यह गाँव। यही क्यों? शायद हर गाँव...। और फिर यदि गाँव उपजाऊ क्षेत्र में हो, तो फिर पूछना ही क्या। एक के बाद एक समस्यायें। कोई अंत ही नहीं। शंक रमंगलम की जमीन बेहद उपजाऊ है। तिस पर अगस्त्य नदी, कभी सूखने का नाम नहीं लेती। सोना उगलने वाली धरती। गाँव से निकलकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जीने वालों में वेणु काका के बेटे सुरेश का नाम सबसे पहले लिया जाता है। हालांकि इस गाँव के कई लोग अच्छे उद्योगों में लगे हैं, कुछ ऊँचे सरकारी ओहदों पर हैं, कुछेक कम्पनी के प्रबन्धक भी हैं, पर सुरेश के बाद शर्मा जी का बेटा रवि ही है, जिसे सम्मान हासिल हुआ है। चार पाँच वर्ष पहले रवि ने जब इस नौकरी के लिये आवेदन भिजवाया था, तो उसने कल्पना भी नहीं की थी कि यह नौकरी उसे मिलेगी।
फ्रांस स्थित एक विश्वविद्यालय में 'प्रोफेसर ऑफ इंडियन स्टडीज- एंड ओरियंटल लैंगबेज डिपार्टमेंट' के रिक्त पद के लिये वह विज्ञापन 'इंजियन काउंसिल फाँर कल्चरल रिलेशन्स' की ओर से दिया गया था। अनिवार्य योग्यताओं में पी. एच. डी. के अतिरिक्त तमिल, संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी और फ्रेंच के विशेष ज्ञान की आवश्यकता पर बल दिया गया था। रवि के पास ये तमाम योग्यताएँ थीं। एक साल की बेकारी में, उसने फ्रेंच की कक्षाओं में जाना शुरू कर दिया था। वहीं डिप्लोमा तब काम आ गया।
दिल्ली में हुए इन्टरव्यू में कुल छह लोग आये थे। दो तो उम्र की वजह से रह गये। बाकी बचे लोगों में किसी को फ्रेंच का ज्ञान नहीं था, किसी को संस्कृत का सो खारिज कर दिया गया। बाजी मार ली, रवि ने।
शुरू में शर्मा जी हिचकिचाए, पर जो मासिक आय वहाँ मिल रही थी, उसकी तो कल्पना तक भारत में नहीं की जा सकती थी। लिहाजा बेटे को भिजवाने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था। रवि की विदेशी नौकरी का संक्षिप्त इतिहास यही है। शर्मा जी ने आज की इस समस्या पर विचार करते हुए इस इतिहास को भी मन ही मन दोहरा डाला। उन्हें लगा, कि इससे पहले कि वे कोई निर्णय लें, वेणु काका से सलाह करना जरूरी है।
रवि का पत्र लेकर वे काका के घर चले गए। काका घर पर नहीं थे। बसंती बैठक में ईब्स बीकली पढ़ रही थी।
शर्मा जी को देखते ही उठ खड़ी हुई, ‘आइए काकू, बाबा बाहर गए हैं। लौटते ही होंगे। बैठिए....।’
‘ठीक है, बिटिया। बाबा को आने दो। पर तुमसे भी बातें करनी हैं, कुछ जरूरी।’
‘बस, अभी आयी। माँ से कह कर पहले काँफी तो बनवा लूँ।’
'काँफी के चक्कर में काहे पड़ गयी, बिटिया। हम तो बस, अभी पीकर आये हैं।’
‘तो क्या हुआ? मुझे भी पीनी है। तो क्या आप साथ नहीं देंगे?’
‘अरे क्यों नहीं। तू कहे, और मैं न मानूँ?’
बसंती हँसती हुई भीतर चली गयी। काकी कभी सामने नहीं पड़ती।
गांव की यह आदत अभी भी बरकरार है। बसंती और काकी के बीच एक पूरी पीढ़ी का अंतराल है।
काकी, शर्मा जी के सामने कम ही पड़ती। पर बसंती? शर्मा जी के सामने बैठती ही नहीं बल्कि उनसे किसी भी विषय पर धड़ल्ले से चर्चा करती, हँसती, बतियाती।
‘क्यों काका? रवि का कोई पत्र आया?’
‘हाँँ, बिटिया। इसी पर बात करने आया हूँ।’
‘काहिए, काका? क्या लिखा है?’
शर्मा जी ने रवि का पत्र उसकी और बढ़ा दिया। बसंती ने
पत्र पढ़कर उन्हें लौटा दिया। ‘कमली सचमुच बहुत प्यारी लड़की
है।’ यह वाक्य उसकी जुबान तक आते-आते रुक गया। पर जाने
क्या सोचकर अपने को रोक लिया।
पता नहीं, काका कैसी मनःस्थिति में यहाँ आए हों। जल्दबाजी में कुछ कह देना बुद्धिमानी नहीं।
भीतर से काकी ने आवाज लगाई। बसंती दो गिलास़ो में काँफी ले आयी।
दोनों ने चुपचाप काँफी पी। इस बीच कोई बातचीत नहीं हुई। शर्मा जी ने ही बात शुरू की, मैंने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि ऐसा होगा।
‘ऐसा क्या गलत हो गया, काका?’
‘अब और क्या बाकी रह गया।’
‘देखिए काका, मेरी मानिए! चुपचाप दोनों को लिख दीजिए कि वे यहाँ आ जाएँ। मैंने और बाबा ने तो वहीं भाँप लिया था। हमें लगा, कि आपको किसी तरह का संदेह न रह जाए, इसलिए वैवाहिक विज्ञापन वाली बात सुझाई थी। अब तो रवि ने स्वयं ही सब कुछ स्वीकार कर लिया है।’
‘क्यों बिटिया, बुरा न मानो तो एक बात कहूँ।’
‘क्या है काकू?’
‘कुछ लोग कहते हैं, कि ये फिरंगिनें पैसे के लालच में हिन्दुस्तानी लड़कों को फँसाती हैं। फिर पैसे झटककर चलती बनती है। तुम तो उस लड़की को जानती हो, मिली भी हो। रवि यहाँ आये, हमें इसमें कौन एतराज हो सकता है। यहाँ आ जाएँ तो उस लड़की से बातें करके देख लेना।’
‘क्या बात करूँगी काकू?’
‘वही पैसे वाली बात! और कौन सी?’
‘शायद आप गलत समझ रहे हैं। कमली वैसी लड़की नहीं है। रवि पर तो जान देती है, वह लड़की। पैसा तो उसके लिये मामूली बात हैं, काका। वह करोड़पति बाप की इकलौती बेटी है। पैरिस और फ्रैंच रिवेरों में उसके पिता के कई होटल हैं। लाखों के वाइन यार्ड हैं। अपने शंकरमंगलम जैसे दस शंकरमंगलम वे खड़े-खड़े खरीद डालें।’
शर्मा जी चुप लगा गए, समझ में नहीं आया क्या कहें।
‘कुछ देर के मौन के बाद फिर बोले, तुम्हारा भाई भी तो वहीं है न। उसे लिखकर देंखे? क्या कुछ हो सकेगा?’
आखिर आप चाहते क्या हैं, काका?
‘सोच रहा था कि उनके रवाना होने के पहले ही सुरेश उन लोगों से मिल लेता। तुम ही बताओ बिटिया? यह कैसे संभव हो सकता है?’ ‘मेरी तो समझ में ही नहीं आता काका कि मैं आपको क्या जवाब दूँ। इस समस्या पर उनका दृष्टिकोण बिल्कुल दूसरा होता है। जो लोग यहाँ से जाकर वहाँ बस गये हैं, उनमें भी यही उदारता, पर्सिसिवनेस आ ही जाती है। अगर सुरेश को इसके बारे में बता भी दिया जाए तो वह तुरन्त कहेगा, ‘यह तो अच्छी बात है। रवि बहुत भाग्यशाली है?’ ऐसा है काका कि इस समस्या को आप जिस दृष्टि से देख रहे हैं, वह उनकी समझ से परे है। अगर वे समझ भी लें, तो उनकी दुनिया की मान्यताएँ अलग हैं, काका!
‘पर बिटिया, लोगबाग क्या कहेंगे? थूकेंगे नहीं हम पर कि शंकर- मंगलम व्याकरण शिरोमाणि कुप्पुस्वामी शर्मा का पोता फिरंगिन को भगा लाया। हमारे संस्कार, हमारी परम्परा सब कुछ कैसे छूटे, बिटिया? कल हमें कुछ हो जाए, तो क्रिया कर्म भी तो उसी को तो करना है ना!’
इलने में ही बेणु काका भीतर आ गए।’ अरे! शर्मा जी आइए!’ शर्मा जी ने सविस्तार सारी बातें फिर से बताई। पत्र भी पढ़वा दिया। वेणु काका हँस दिये। बोले, वाह पठ्ठा बया खूब याद दिला रहा है, गंधर्व विवाह की।’
शर्मा जी ने सहमते हुए सुरेश के माध्यम से अपने बेटे का मन
टोहने का सुझाव भी दिया।
‘नहीं, शर्मा, यह असंभव है। वहाँ तो कोई भी किसी की निजी जिंदगी में दखल नहीं देता। सुरेश तो शादी ब्याह के बाद दिल्ली से वहाँ पहुँचा था। पहले न्यूयार्क रहा, फिर पैरिस। अगर वह भी वहाँ छड़ा ही गया होता तो हो सकता है, मेरी स्थिति भी तुम्हारी जैसी हो गयी होती। हो सकता है, एक अमेरिकी या फ्रैंच बहू होती, और मैं विरोध तक न कर पाता।’
वेणु काका तो शर्मा जी का बोझ कम करना चाहते थे। वे शर्मा जी के भीतर की शंका, उनका भय बखूबी समझ रहे थे। शर्मा जी का परिवार वैदिक कर्मकांडी पंडितों का रहा है। शर्मा जी स्वभाव से भले ही अच्छे हों, पर हैं, दकियानूस। बचपन में ही वेद शास्त्रों का अध्ययन कर चुके थे। पीढ़ी-दर-पौड़ी वेदों का अध्ययन उनके यहाँ होता रहा था। गाँव के कई धार्मिक, नैतिक मसलों पर शर्मा के परिवार की ही सलाह ली जाती। उत्तरी दक्षिणी और बीच के मोहाल में अद्वैत मठ के आचार्य के विशेष प्रतिनिधि थे। इस कारण उनकी प्रतिष्ठा जो थी सो थी ही, साथ ही श्रीमठ के लिए दान आदि जुटाने का काम भी उन्हें ही सौंपा गया था। बेटे के इस विवाह का प्रभाव उनकी प्रतिष्ठा पर पड़ेगा, यह वह समझ रहे थे। वेणु काका की समझ में बात आ गयी। ‘मैं तो सोच रहा था कि किसी तरह इसे रोक लूँगा। तभी तो मैंने इस पत्र के बारे में किसी से चर्चा नहीं की।’
‘अब तो काकू, ऐसा सोचना ही छोड़ दो। कमली को अब अलग करके देखना नामुमकिन है। मैं जब पैरिस में कमली से विदा ले रही थी, तो उसने बहुत प्यार से एक अलबम भेंट में दी थी। अगर आप बुरा न मानें तो दिखा दूँ?’
भीतर की तमाम नफरत के बावजूद, कहीं न कहीं उस फिरंगिन
को देखने की इच्छा तो थी ही। बेटे की पसंद को वे देखना भी
चाहते थे। पर अपनी इस प्रबल इच्छा को कैसे प्रकट करते। लिहाजा चुप्पी साध गये।
‘अरे, काकू को दिखा दो न। देख लें वे भी’ वेणु काका बोले। फिर शर्मा को देखकर मुस्कुरा दिए। ‘शर्मा सोचो तो, मन में अगर थोड़ा भी छल कपट होता तो क्या वह अलबम भेंट में देती? फ्रैंच लोग होते ही हैं, इतने आत्मीय। और आपके रवि की यह जो कमली है न, अद्भुत लड़की है। उससे तो दिन भर बातें की जा सकती हैं। अंग्रेजी में एक कहावत है। ‘फ्रांस ईज नाट एक कंट्री बट एन आयडिया’―उस पर पूरी तरह चरितार्थ होती है।’
देणु काका के मुँह से कमली की प्रशंसा सुनकर शर्मा जी सोचने लगे। बसंती ने भी खासी तारीफ ही की थी। अब काका भी! शर्मा जी को एक बात साफ समझ में आ गयी। कमली और रवि को अलगाने में इन लोगों से कोई मदद उन्हें नहीं मिल सकती।
उन्हें याद आया कि काका बातों-बातों में ‘रवि की बो’ कहते हुए अटक गये थे। शायद पत्नी कहना चाहते रहे हों और उनका लिहाज कर रुक गये हों। क्या पता वहाँ थे लोग अँगूठी-वगूँठी बदलकर पति पत्नी ही बन गये हों, और यहाँ ये टापते ही रह जाएँ।
बसंती के अलबम ला कर दी। पहला चित्र बर्फ पर फिसलते रवि और उस फिरंगिन का था।
बसंती ने कहा, ‘यह चित्र स्विट्जरलैंड का है। जब वे दोनों वहाँ घूमने गये थे...।’
‘शर्मा जी, फोटो देखकर यह मत समझ लें कि लड़की सिर्फ घूमने फिरने वाली तितली है। आप सारा यूरोप छान डालें, ऐसी बुद्धिमान लड़की नहीं मिलेगी। फ्रैंच के अलावा जर्मन, अंग्रेजी भी जानती है। रवि से संस्कृत, तमिल और हिन्दी भी सीख रही है!’
शर्मा ने अगला पृष्ठ पलटा।
‘यह बेनिस में लिया गया है। इटली में इसे तैरता शहर कहते