तुलसी चौरा
ना॰ पार्थसारथी, अनुवादक डॉ॰ सुमित अय्यर

कानपुर: साहित्य सदन, पृष्ठ १९ से – २८ तक

 


हैं। पैरिस से जेनिवा, रोम सभी स्थानों को रेल से ही जाया जा सकता है। बाबा के साथ मैं भी गयी थी। पता है काकू, वे लोग रोम को रोमा कहते हैं। अगला पृष्ठ! शर्मा जी की उँगलियाँ काँपने लगी। वेणु काका उन्हें उत्साहित करने लगे।

'पैरिस में जब मैं उससे सौंदर्य लहरी' की चर्चा कर रहा था, तो मुझसे जाने क्या-क्या सवाल करने लगी। पर मैं ठहरा निपट अनाड़ी। मैंने तो कह दिया कमली से, कि भई यह सब अपने भावी ससुर से पूछ लेना। वे संस्कृत के प्रकांड पंडित हैं।'

'क्यों? रवि ही बतला देता!' शर्मा जी की आवाज में कटुता थी।

वेणु काका हतोत्साहित नहीं हुए। शर्मा जी के मन की कटुता को करने की एक कोशिश और की।

'कमली की विनम्रता, सौम्यता, देखकर तो शक होता है कि क्या सचमुच वह इतने बड़े बाप की बेटी है। इतना प्यारा स्वभाव है उसका।'

शर्मा जी ने खटाक् से अलबम बन्द किया और उठ गये। 'मन ठीक नहीं है, किसी दिन फिर आऊँगा। कहकर चलने लगे। बसंती और काका ने उन्हें किसी तरह समझा बुझाकर बिठाया।

पंडित जी को लगा, इस मामले में रवि को वेणु काका और बसंती का पूरा सहयोग मिल रहा है।

उन्हें शान्त करने के लिए बातों का रुख बदलना जरूरी लगा। वेणु काका ने कहा, 'नहरिया के पास वाले नारियल के बाग को बटाई के लिए उठाया या नहीं! इस साल लगता है, नारियल, आम और कटहल की अच्छी उपज रहेगी।'

'न, अभी कहीं बात जमी नहीं। अच्छा आदमी नहीं मिला।, न हुआ कुछ तो सोचता हूँ, एक चौकीदार रख लूँगा और खुद काम देख लूँगा।'

'और ये मठ वाले खेत! इनका क्या करेंगे?'

'अब उसके लिए तो किसी से बात तय करनी ही होगी। खेती की
बात और है, बागों की और। खेत बटाई में आसानी में उठ जाएँगे।'

'दक्खिनी मोहल्ले के शंकरसुमन ने, सुना है बिटिया के ब्याह के लिए खेत समेत बाग भी बेच डाले! कुछ पता है?'

'हाँ, सुना तो मैंने भी हैं।'

थोड़ी देर इधर उधर की बातों में शर्मा जी को लगाकर वेणु काका ने पुरानी बात फिर छेड़ दी।

'अब आप गुस्से में रवि को उलटा सीधा मत लिखिए। खुले मन से काम ले लो फिर। वैसे आप समझदार हैं आपको बताने की जरूरत नहीं है।'

आप तो महापंडित हैं, ज्ञानी हैं।

'पर आप मेरी समस्याओं के बारे में भी तो सोचिए। मुझे तो गाँव वालों और मठाधिकारियों को भी तो जवाब देना होगा। और लोगों को तरह मैं सीना फुला कर नहीं चल सकता। यह मत भूलिये काका, कि रवि के अलावा भी, मेरे दो बच्चे और है। गाँव वालों के बारे में लो आप लोग जानते ही हैं। कोई धरम करम की बात हो, तो कोई साथ नहीं देता, पर एक आदमी पर थूकना हो, तो साले सब एक हो जाएँगे। अच्छी बातें तो समझ में नहीं आयेंगी, बुराइयों को उछालेंगे। बाज वक्त तो अच्छी बातें भी उन्हें बुरी नजर आती हैं। ऐसे लोग है कि बस....!'

तुम्हारी बात से मैं इन्कार नहीं करता, शर्मा पर रवि का मन? उसे क्यों दुखायेंगे आप? फूल सा मन है, उसका।'

शर्मा जी चुप रहे। अलबम को उठाकर फिर पलटने लगे। वेणु काका बसंती को देखकर आँखों में ही हँस दिए। बसंती ने अपनी कमेंट्री फिर चालू कर दी....।

'यह जनेवा की झील है। किनारे पर घंटों खड़े रहो, वक्त का पता ही नहीं चलता, मुझे यह जगह बहुत पसन्द है काकू!'

एक आग का चित्र था। बड़े-बड़े फूलों वाले बाग में कमली
और रवि दोनों ही थे।

'यह फूल कौन सा है। बिटिया? इतना बड़ा और इतना सुन्दर.....'

'इसे टुलिप कहते हैं। हालैंड में बहुत होते हैं काकू। वहाँ तो इसके फूलने के मौसम में टुलिप उत्सव ही मनता है।'

अगला पृष्ठ!

'यह क्या है? कोई खंडहर लगता है। महल का चित्र है क्या?'

'अग्रो-पोलिस है। ग्रीस की राजधानी एवेन्स में यह मशहूर स्थल है।'

'मतलब यह हुआ कि दोनों पूरा यूरोप घूम आये।'

'अकेले ही तो घूमे होंगे वहाँ? क्यों?'

वेणु काका और बसंती समझ नहीं पा रहे थे कि पंडित जी का यह प्रश्न सहजता से भरा था या के कुछ उगलवाने की चालाकी पर उतर आये थे।

एक सधे हुए नाविक की तरह उन्हें बातचीत की नाव आगे धीमे धीमे खेनी पड़ी। शर्मा जी के गुस्से का झंझावात कभी भी उठ सकता था। पंडित शर्मा जी, फिर कहीं उठ कर न निकल पड़ें, इसकी पूरी सतर्कता बरती जा रही थी।

आशा के विपरीत रवि की बातचीत पंडित जी ने स्वयं छोड़ दी थी, पर क्या पता बातचीत का रुख किस ओर निकल जाए। यह खटका उन्हें लगातार बना रहा। यही वजह थी कि कुछ प्रश्नों से वे कतरा रहे थे। पर उन्हें लगा, वे बच नहीं सकते, पंडित जी बातचीत के इसी ओर आगे बढ़ाना चाहते हैं।

उन्हें देखकर बोले, 'चलो, यह मूर्खता कर बैठा, मान लिया।

पर उसका परिवार? उसके घरवाले नहीं मना करते? आप ही तो कह रहे थे कि उसका बाप करोड़पति है ...।'

'काका, वहाँ के लोग रोकने का अधिकार नहीं रखते। पढ़े लिखे
युवकों को अपनी जिंदगी चुनने की पूरी स्वतन्त्रता है वहाँ। वहाँ तयशुदा शादियां, जिन्हें माता पिता तय करते हैं, बहुत कम होती है।'

'तुम तो कह रही थी कि वह करोड़पति बाप की बेटी है। तो उन्हें क्या अपनी इज्जत हैसियत का भी ख्याल नहीं?'

'वै यहाँ के धनिकों की तरह नहीं होते। उन्हें चौबीसों घंटे अपने पैसे का गुमान नहीं रहता। पैसा वहाँ सुविधा भोग के लिए है, वरदान नहीं। कितनी लड़कियाँ हैं जिन्होंने नीग्रो लड़कों से प्रेम विवाह किया है। ऐसी शादियों का भी विरोध नहीं होता। ऐसी शादियाँ परिवार में मनमुटाव नहीं लातीं। वहाँ दुराव छिपाव जैसा कुछ नहीं है। लड़कियाँ इतनी साहती और ईमानदार होती हैं कि प्रेमी को ले जा कर माता पिता के सामने खड़ा कर दें। कमली तो, इंडियन स्टडीज, फेकल्टी के अन्तर्गत रवि से इन्डोलोजी पढ़ रही थी। वहीं से वह रवि को चाहने लगी। यह बात उसने खुद मुझे बतायी थी।'

'अब कोई कुछ भी कह ले। क्या होगा इससे बिटिया? मेरी तो मति मारी गयी थी। न भेजता इस लौंडे को फ्रांस, न यह दिन देखना पड़ता।'

'कमाल करते हैं, शर्मा जी। थोड़ी देर बाद कहेंगे कि काश इसे पैदा ही न किया होता...'

वेणु काका हँस दिये धीमे से।

कुछ देर के मौन के बाद शर्मा जी ने ही बातों का सूत्र फिर से जोड़ दिया।

'अब आप लोग ही बताइए, क्या करना होगा मुझे। इस पत्र का उत्तर दूँ या न दूँ। मैं नहीं चाहता कि वे यहाँ आएँ। अब न कहने की भी हिम्मत नहीं पड़ती।'

'अरे, पेट जाये बेटे को भला कोई आने से रोकता है क्या? अब ऐसा उसने क्या कर डाला, कि आप बेहाल हो रहे हैं?' 'अभी तक तो नहीं हुआ काका। अब लगता है, हो जाऊँगा?'

'आप ऐसी ऊल जलूल बातें क्यों करते हो शर्मा जी? ईश्वर की कृपा से आप को कुछ नहीं होगा। जो होगा उसकी इच्छा से ही होगा। बस इतना अनुरोध जरूर करूँगा कि कुछ दिनों के लिए मन शांत रखें।' देणु काका ने प्यार भरे स्वर में कहा।

'रवि बहुत दिनों के बाद लौट रहा है। आप अपना मन शांत कर लें। हमारी भारतीय परम्परा परिवार के बंधनों को महत्व देती है। इस बात की तारीफ वे लोग करते हैं। हम संयुक्त परिवार की बात कहते हैं, ये बंधन, यह आपसी स्नेह, उन लोगों के लिये अपूर्व अनुभव है। उनके सामने बाप बेटे एक दूसरे के खिलाफ खड़े होंगे तो, सोचिए कैसा लगेगा? वे लोग अभी बातें ही कर रहे थे कि बसँती ने सड़क की ओर देखते हुए कहा,' 'काकू, पारू शायद आपको ढूँढ़ती हुई आ रही है।'

शर्मा जी ने सड़क की ओर देखा। बसंती बाहर निकल आयी।

'बाऊ भूमिनाथपुरम वाले मामा जी आए हैं। कह रहे थे लगन पत्र तैयार करना है। एक घंटे में आकर ले जाएँगे।'

'कौन?' रामस्वामी...? अरे हाँ, भूल ही गया था। आज संझा भूमिनाथपुरम वरीच्छ में जाना है।'

'तो क्या हुआ? यहाँ से भूमिनाथपुरम कौन बहुत दूर है। नदी पार ही तो है। सूरज ढलने लगे तो निकल लीजिए घर से।' वेणु काका ने कहा। शर्मा जी की लड़की पार्वती लहँगा चुनरी पहनी थी। मुश्किल से बारह की उम्र होगी, पर तीन चार साल अधिक की ही लगती है। भरी हुई देह, सुन्दर नाक नक्श, एक दम साफ रंग। काले घुँघराले बाल। एक बार कोई देख ले, दुबारा जरूर देखना चाहेगा।

'क्यों री, स्कूल छूट गया क्या अभी तो छूटने में वक्त है।' बसँती ने पूछा 'चार, पाँच टीचर छुट्टी पर हैं, दीदी। इसलिये आखिरी पीरियड छूट गया।' बसंती ने उसे अपनी देह से सटा लिया और भीतर ले गयी।

'इस साल इसका स्कूल फाइनल हो जाएगा,' कुमार का बी॰ ए॰ में पहला साल है। कालेज जाने के लिये रोज बीस मील की यात्रा करनी पड़ती है। रोज उसे लौटते सात साढ़े सात हो जाते हैं। बेटी को तो नहीं पढ़ाऊँगा। बस स्कूल फाइनल कर ले, फिर व्याह दूँगा।'

'गांव में ही कोई कालेज हो तो पढ़ा सकते हैं। लड़कियाँ बाहर पढ़ने जाएँ, यह कुछ ठीक नहीं लगता। फिर कस्बे के एक मात्र कालेज में भी लड़के लड़कियाँ साथ-साथ पढ़ते हैं। आपको वह अच्छा नहीं लगेगा।'

'मुझे क्या अच्छा लगता है, क्या बुरा, यह तो बाद की बात है। विद्या ज्ञान और विनय का संबर्द्धन करे, यह जरूरी है। पर देखता हूँ, इधर विद्या अज्ञान और उद्दंडता को ही बढ़ाती है। हर एक छात्र अपने को फिल्मी नायक समझने लगा है और छात्रा अपने को नायिका से कम नहीं समझती। आप ही बताइये, गलत कह रहा हूँ?'

'पर आपकी बात सुनने वाला यहाँ है कौन? लोग आपको दकियानूस कहकर मखौल बनाएँगे।'

'बस यही तो नहीं होता। बस आप ही ऐसा कहते हैं। हमारे यहाँ पुस्तकालय के इरैमुडिमणि है न, वह भी मेरी बातों से सहमत है। उनका कहना है, कि आज की युवा पीढ़ी भविष्य की चिंता नहीं करती, श्रम का महत्व नहीं समझती, बस नकली और क्षणिक सुख सुविधाओं में ही लिप्त है। वह न शारीरिक श्रम के योग्य है न मानसिक। बस एक त्रिशंकु की स्थिति में जी रहे हैं ये लड़के। यह बहुत ही घातक स्थिति है।'

'कौन? देवशिखामणि नाडार? यह तो मेरे लिये आश्चर्य की बात है कि आप दोनों के विचार एक हैं।'

'खैर जो भी हो। हम लोगों में कई मतभेद हैं पर कुछ मुद्दों पर दोनों की सोच एक सी है। वह ईमानदार है, परोपकारी है, एकदम
पारदर्शी है सहज और सरल।'

'आप इतने निष्ठावान आस्तिक हैं और वह घोर तार्किक! आप उसकी इतनी तारीफ जो कर रहे हैं....।

'क्यों, क्या नास्तिक ईमानदार नहीं हो सकते?'

'हाँ, हाँ ठीक है। आप अपनी बात भूल गए और मैं भी बातों में उलझ गया। यह आस्तिक नास्तिक वाली चर्चा फिर कभी फुर्सत में करेंगे। फिलहाल हम अपनी असली बात पर आ जाएँ।

शर्मा जी वेणु काका के पास आकर धीमे से बोले, 'इस साहब- जादे ने जो गुल खिलाया है, मुझे तो लग रहा है, बिटिया के लिये कहीं भी बात तय करने में मुश्किल हो जाएगी। कुमार की तो कोई फिक्र नहीं। लड़का है। शादी में विलंब भी जाए तो कोई चिंता नहीं। उसकी पढ़ाई के दो साल अभी बाकी हैं। पर बेटी के लिये चिंता तो करनी होगी नं। एक परिवार में पुरुषों के द्वारा किये जाने वाली एक-एक गलती की सजा उस परिवार के स्त्रियों की ही तो भुगतनी पड़ती है? तिस पर जहाँ लड़कियाँ सयानी हों...।'

'आपने फिर वही बात उठा ली। देखिए! रवि ने ऐसा अनर्थ नहीं किया है, कि आपका परिवार ही बरबाद हो जाए। यह बीसवीं शताब्दी है। इस शताब्दी में, हवाई यात्रा, रेल यात्रा, चुनाव, प्रजातंत्र एवं समाजवाद की तरह प्यार करना भी उतनी ही आम बात हो गयी है।'

'पर काका, शंकरमंगलम जैसी जगह के लिये यह खास बात है। खासतौर पर हमारे खानदान में। अब तो लगता है, पारू की पढ़ाई अधूरी ही छुड़वा दूँ, और झटपट कहीं बात तय कर दुँ। इससे पहले की साहबजादे फिरंगिन के साथ यहाँ आकर नंगा नाच मचाएँ, इस लौंडिया को उसके घर भिजवा दूँ।'

'यह गुड्डे गुड़ियों का ब्याह तो है नहीं। जरा सी बच्ची है, उसकी पढ़ाई छुड़वा कर उसका ब्याह रचा देंगे आप? क्यों यार, मन में
माया मोह भी नहीं बचा?'

'बाल विवाह कोई नयी बात तो नहीं है। हमारी और आपकी शादी भी तो ऐसी ही हुई थी।'

'तो? क्या यह गलती इन लोगों के साथ भी दोहरायी जाएगी? कोई मजबूरी तो है नहीं!'

'न! मैं तो यह कह रहा था, कि साइबजादे की करतूत देखकर तो वही मन में आता है कि…।

'बस बस! अब ऐसी बातें सोचना भी मत! आगे की सोचो। सबसे पहले तो उसे एक पत्र लिखो। फिर उन लोगों के ठहरने की व्यवस्था शुरू करो…।'

'क्या करूँ?'

'फ्रेंच लोगों के लिये प्रायदेसी बहुत जरूरी है। यूँ तो सभी विदेशी प्रायदेसी को महत्व देते हैं, पर फ्रेंच लोगों का दिल बहुत नरम होता है। उनके तौर तरीके, उठने बैठने की नजाकत और नफासत देखते ही बनती है। शंकरमंगलम के अग्रहारम में बीचों बीच स्थित आपका पुश्तैनी घर तो धर्मशाला लगता है। एक ही बैठक है नीचे, ऊपरी तल्ले पर एक बड़ा कमरा। स्नानघर भी नहीं है। और तो और कुँए के पास नहाने की व्यवस्था भी नहीं है। आप और पंडिताइन दोनों ही नदी में नहा आते हैं। अब तो आपका रवि भी यहाँ नहाने में कतरायेगा उसको तो स्नानघर की आदत पड़ गयी होगी।'

'तो क्या अब उन दोनों के लिये नया घर बनवाऊँ? शर्मा जी घबराये।'

'मेरा मतलब यह नहीं था। ऊपर एक कमरा और बनवा लीजिए। भूल जाइए कि यह सब आप कमली के लिये कर रहे हैं। अब तो आपके बेटे के लिये भी यह सब जरूरी हो गया होगा। मेरा बेटा सुरेश दो महीने के लिए जब आया था, तब मैंने पूरे घर की
मरम्मत करा डाली थी। अगर बात झूठी लग रही हो, तो चलिए दिखा देता हूँ।

शर्मा जी को लेकर बेणु काका भीतर जाने लगे, पार्वती सामने पड़ गयी।

'बाऊजी, मैं घर जा रही हूँ। आप जल्दी आ जाइए।'

भूमिनाथपुरम बाले मामा जी आएँगे तो उन्हें बिठा लूँगी। पार्वती चली गयी।

'बसंती, ऊपर वाली चाबी ले आना बिटिया। तुम्हारे काकू को दिखा दें।'

बसंती ने चाबी लाकर दी। विदेश में जा वसा बेटा हर माह मोटी रकम भिजवाता तो है ही, पर साथ ही साथ वेणु काका की पुश्तैनी जायदाद भी अच्छी खासी है। सुरेश इकलौता बेटा है, इधर बसंती भी एक मात्र लड़की। बसंती का पति बम्बई स्थित प्रतिष्ठित कम्पनी में सेल्स मैनेजर है। इस कम्पनी के उत्पाद बस्तुओं की खपत मध्य पूर्व देशों में अधिक है, इसलिए अक्सर इस सिलसिले में वे इन देशों के दौरे पर रहते हैं। उनका दौरा जब महीनों तक खिंचता बसंती यहीं माता पिता के साथ रहती। विवाह के कई-साल हो गए, पर बाल बच्चे नहीं हुए। बेटे और दामाद दोनों की सुविधाओं का ख्याल करते हुए बेणु काका ने ऊपर कमरों से लगे बाथरूम बनवा दिये थे। ऊपर की मंजिल से नीचे आने के लिये दो सीढ़ियाँ थीं। एक पिछवाड़े उतरती थी, दुसरी आगे। बालकनी में कई गमले सजा दिए गये थे। शर्मा जी ने घूम कर कमरे देखे फिर बोले, 'खैर, आपकी बात और है। कभी बेटा, तो कभी दामाद आना जाना लगा ही रहता है। पर यहाँ तो एक दिन की नौटंकी के लिये सिर मुड़ाने वाली बात हो जाएगी न। आपने तो इधर इलायची वाला इस्टेट भी खरीद लिया है। लोग बाग इस सिलसिले में आपके पास आते जाते रहेंगे। यह तो आप जैसे लोगों के लिए है, जिनके यहाँ चार
लोगों का आना लगा रहता है।

'यार शर्मा, बस यही चालाकी तो नहीं रास आती। मेरी जरूरत के बारे में आपको प्रमाणपत्र देने की कोई आवश्यकता नहीं। मैं तो सुझाव दे रहा था, पर आप हैं कि सुन ही नहीं रहे।'

बसंती ने टोक कर कहा, 'अगर काकू को कोई आपत्ति न हो, तो कमली और रवि यही रह लेंगे। मुझे भी बम्बई लौटने में माह दो माह लगेंगे। तब तक कमली का साथ भी दे दूँगी। आप तो कर्म- कांडी आदमी हैं, और काकी भी नेम, अनुष्ठान छूतपात मानती हैं। बल्कि काकी तो इस मामले में आपसे भी दो हाथ आगे हैं। अब ऐसे में आने वाले भी परेशान हों, और आप भी…।'

शर्मा जी ने कोई उत्तर नहीं दिया। पर काका ने बसंती के इस सुझाव की जी खोलकर तारीफ की।

'वाह, क्या सुझाव है? हमें क्यों नहीं सूझा? अच्छा है, वे लोग यहीं रह लेंगे। शर्मा के रुपये भी बच जायेंगे और मेहनत भी! क्यों शर्मा……?'

शर्मा ने कोई उत्तर नहीं दिया। वे सोच में डूबे हुए थे। बसंती ने झट एरोग्राम का लिफाफा उन्हें पकड़ा दिया।

'अब आप भूमिनाथपुरम के लिए निकलेंगे, कल डाक की छुट्टी है। एरोग्राम न खरीदेंगे, न लिखेंगे,। बस इसी में दो पंक्तियाँ लिख डालिए। मैं खुद डाल आती हूँ।'

उसका स्वर अनुरोध भरा था। पहले तो वे कुछ हिचकिचाए फिर उनका मन कुछ पिघल गया।

'पन हो, तो दे दो बिटिया। मैं तो लाया ही नहीं।'

वेणु काका ने झट कमीज की जेब से पेन निकाल लिया। शर्मा जी के भीतर का उफनता आक्रोश उनकी पंक्तियों में उतर आया। 'चि. रवि को आर्शीवाद तुम्हारा पत्र मिला। विज्ञापन रुकवा लिया है।