तितली - उपन्यास - जयशंकर प्रसाद  (1934) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद

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क्यों बेटी! तुमने सोच-विचार लिया? -कोठरी के बाहर बैठे हुए रामनाथ ने पूछा। भीतर से राजकुमारी ने कहा-बाबाजी, हम लोग इस समय ब्याह करने के लिए रुपए कहां से लावें? रुपयों से ब्याह नहीं होगा बेटी! ब्याह होगा मधुबन से तितली का। तुम इसे स्वीकार कर लो; और जो कुछ होगा मैं देख लूंगा। मैं अब बूढ़ा हुआ, तितली को तुम लोगों की स्नेहछाया में दिए बिना मैं कैसे सुख से मरूंगा? अच्छा, पर एक बात और भी आपने समझ ली है? क्या मधुबन, तितली के साथ गृहस्थी चलाने के लिए, दुःख-सुख भोगने के लिए तैयार है? वह अपनी सुध-बुध तो रखता ही नहीं। भला उसके गले एक बछिया बांधकर क्या आप ठीक करेंगे? ___ सुनो बेटी, दस बीघा तितली के, और तुम लोगों के जो खेत हैं-सब मिलाकर एक छोटी-सी गृहस्थी अच्छी तरह चल सकेगी। फिर तुमको तो यही सब देखना है, करना है, सब संभाल लोगी। मधुबन भी पढ़ा-लिखा परिश्रमी लड़का है। लग-लपटकर अपना घर चला ही लेगा। ___मधुबन से भी आप पूछ लीजिए। वह मेरी बात सुनता कब है। कई बार मैंने कहा कि अपना घर देख, वह हंस देता है, जैसे उसे इसकी चिंता ही नहीं। हम लोग न जाने कैसे अपना पेट भर लेते हैं। फिर पराई लड़की घर में ले आकर तो उसी तरह नहीं चल सकता? तुम भूलती हो बेटी! पराई लड़की समझता तो मैं उसके ब्याह की यहां चर्चा न [ ५१ ]________________

चलाता। मधुबन और तितली दोनों एक-दूसरे को अच्छी तरह पहचान गए हैं। और तितली पर तुमको दया ही नहीं करनी होगी, तुम उसे प्यार भी करोगी। उसे तुमने इधर देखा है? नहीं, अब तो वह बहुत दिन से इधर आती ही नहीं। आज मेम साहब के साथ वह भी नहाने गई है। शैला का नाम तो तुमने सुना होगा? वही जो यहां के जमींदार इन्द्रदेव के साथ विलायत से आई है। बड़ी अच्छी सुशील लड़की है। वह भी मेरे यहां संस्कृत पड़ती है। तुम चलकर उन दोनों से बात भी कर लो और देख भी लो। ___ अच्छा, मैं अभी आती हूं। __ मैं भी चलता हूं बेटी! मधुबन उनके संग नहीं है। मल्लाह को तो सहेज दिया हे। तो चलूं! रामनाथ नहाने के घाट की ओर चले। राजकुमारी भी रामदीन की नानी के साथ गंगा की ओर चली। ___ अभी वह शेरकोट से बाहर निकलकर पथ पर आई थी कि सामने से चौबेजी दिखाई पड़े। राजकुमारी ने एक बार बूंघट खींचकर मुडते हुए निकल जाना चाहा। किंतु चौबे ने सामने आकर टोक ही दिया-भाभी हैं क्या? अरे मैं तो पहचान ही न सका! दख में सब लोग पहचान लें, ऐसा तो नहीं होता। राजकुमारी ने अनखाते हए कहा। अरे नहीं-नहीं! मैं भला भूल जाऊंगा? नौकरी ठहरी। बराबर सोचता हूं कि एक दिन शेरकोट चलूं पर छुट्टी मिले तब तो। आज मैंने भी निश्चय कर लिया था कि भेंट करूंगा ही। चौबेजी के मुंह पर एक स्निग्धता छा गई थी; वह मुस्कराने की चेष्टा करने लगे। किंतु मैं नहाने जा रही हूं। अच्छी बात है, मैं थोड़ी देर में आऊंगा।—कहकर चौबेजी दूसरी ओर चले गए, और राजकुमारी को पथ चलना दूभर हो गया! कितने बरस पहले की बात है! जब वह ससुराल में थी, विधवा होने पर भी बहुत-सा दुख, मान-अपमान भरा समय वह बिता चुकी थी। वह ससुराल की गृहस्थी में बोझ-सी हो उठी थी। चचेरी सास के व्यंग्य से नित्य ही घड़ी-दो-घड़ी कोने में मुंह डालकर रोना पड़ता। सब कुछ सहकर भी वहीं खटना पड़ता। ससुराल के पुरोहितों में चौबेजी का घराना था। चौबे प्राय: आते-जाते-वैसे ही, जैसे घर के प्राणी; और गांव के सहज नाते से राजकुमारी के वह देवर होते-हंसने-बोलने की बाधा नहीं थी। राजकुमारी के पति के सामने से ही यह व्यवहार था। विधवा होने पर भी वह छूटा नहीं। उस निराशा और कष्ट के जीवन में भी कभी-कभी चौबे आकर हंसी की रेखा खींच देते। दोनों के हृदय में एह सहज स्निग्धता और सहानुभूति थी। दिन-दिन वहीं बढ़ने लगी। स्त्री का हृदय था; एक दुलार का प्रत्याशी उसमें कोई मलिनता न चौबे भी अज्ञात भाव से उसी का अनुकरण कर रहे थे। पर वह कुछ जैसे अंधकार में चल रहे थे। राजकुमारी फिर भी सावधान थी! एक दिन सहसा नियमित गालियां सुनने के समय जब चौबे का नाम भी उसमें मिलकर भीषण अट्टहास कर उठा, तब राजकुमारी अपने मन में न जाने क्यों वास्तविकता [ ५२ ]________________

को खोजने लगी। वह जैसे अपमान की ठोकर से अभिभूत होकर उसी ओर पूर्ण वेग से दौड़ने के लिए प्रस्तुत हुई, बदला लेने के लिए और अपनी असहाय अवस्था का अवलम्ब खोजने के लिए। किंतु वह पागलपन क्षणिक हो रहा। उसकी खीझ फल नहीं पा सकी। सहसा मधुबन को संभालने के लिए उसे शेरकोट चले आना पड़ा। वह भयानक आधी क्षितिज में ही दिखलाई देकर रुक गई। चौबे नौकरी करने लगे राजा साहब के यहां, और राजकुमारी शेरकोट के झाडू और दीए में लगी—यह घटना वह संभवत: भूल गई थी; किंतु आज सहसा विस्मृत चित्र सामने आ गया। राजकुमारी का मन अस्थिर हो गया। वह गंगाजी के नहाने के घाट तक बड़ी देर से पहुंची। शैला और तितली नहाकर ऊपर खड़ी थीं। बाबा रामनाथ अभी संध्या कर रहे थे। राजकुमारी को देखते ही तितली ने नमस्कार किया और शैला से कहा-आप ही हैं, जिनकी बात बाबाजी कर रहे थे? शैला ने कहा—अच्छा! आप ही मधुबन की बहन हैं? जी। __ मैं मधुबन के साथ पड़ती हूं। आप मेरी भी बहन हुईं न!– शैला ने सरल प्रसन्नता से कहा। राजकुमारी ने मेम के इस व्यवहार से चकित होकर कहा—मैं आपकी बहन होने योग्य हूं? यह आपकी बड़ाई है। क्यों नहीं बहन! तुम ऐसा क्यों सोचती हो? आओ, इस जगह बैठ जाएं। अच्छा होगा कि तुम भी स्नान कर लो, तब हम लोग साथ ही चलें। नहीं, आपको विलंब होगा।—कहकर राजकुमारी विशाल वृक्ष के नीचे पड़े हुए पत्थर की ओर बड़ी। शैला और तितली भी उसी पर जाकर बैठी। राजकुमारी का हृदय स्निग्ध हो रहा था। उसने देखा, तितली अब वह चंचल लड़की न रही, जो पहले मधुबन के साथ खेलने आया करती थी। उसकी काली रजनी-सी उनींदी आंखें जैसे सदैव कोई गंभीर स्वप्न देखती रहती हैं। लंबा छरहरा अंग, गोरी-पतली उंगलियां. सहज उन्नत ललाट, कछ खिंची हई भौंहे और छोटा-सा पतले-पतले अधरोंवाला मुख–साधारण कृषक-बालिका से कुछ अलग अपनी सत्ता बता रहे थे। कानों के ऊपर से ही बूंघट था, जिससे लटें निकली पड़ती थीं। उसकी चौड़ी किनारे की धोती का चंपई रंग उसके शरीर में घुला जा रहा था। वह संध्या के निरभ्र गगन में विकसित होने वाली अपने ही मधुर आलोक से तुष्ट—एक छोटी-सी तारिका थी। राजकुमारी, स्त्री की दृष्टि से, उसे परखने लगी; और रामनाथ का प्रस्ताव मन-हीमन दुहराने लगी। शैला ने कहा-अच्छा, तुम कहीं आती-जाती नहीं हो बहन! कहां जाऊं? तो मैं ही तुम्हारे यहां कभी-कभी आया करूंगी। अकेले घर में बैठे-बैठे कैसे तुम्हारा मन लगता है? बैठना ही तो नहीं है! घर का काम कौन करता है? इसी में दिन बीतता जा रहा है। [ ५३ ]________________

देखिए, यह तितली पहले मधुबन के साथ कभी-कभी आ जाती थी, खेलती थी। अब तो सयानी हो गई है। क्यों री, अभी तो ब्याह भी नहीं हुआ, तू इतनी लजाती क्यों है?— घूमकर जब उसने तितली की ओर देखकर यह बात कही, तो उसके मुख पर एक सहज गंभीर मुस्कान—लज्जा के बादल में बिजली-सी—चमक उठी। शैला ने उसकी ठोढ़ी पकड़कर कहा—यह तो अब यहीं आकर रहना चाहती है न, तुम इसको बुलाती नहीं हो, इसीलिए रूठी हुई है। तितली को अपनी लज्जा प्रकट करने के लिए उठ जाना पड़ा। उसने कहा—क्यों नहीं आऊंगी। बाबा रामनाथ ऊपर आ गए थे। उन्होंने कहा—अच्छा, तो अब चलना चाहिए। फिर राजकुमारी की ओर देखकर कहा—तो बेटी, फिर किसी दिन आऊंगा। राजकुमारी ने नमस्कार किया। वह नहाने के लिए नीचे उतरने लगी, और शैला तितली के साथ रामनाथ का अनुसरण करने लगी। गंगा के शीतल जल में राजकुमारी देर तक नहाती रही, और सोचती थी अपने जीवन की अतीत घटनाएं। तितली के ब्याह के प्रसंग से और चौबे के आने-जाने से नई होकर वे उसकी आंखों के सामने अपना चित्र उन लहरों में खींच रही थीं। मधुबन की गृहस्थी का नशा उसे अब तक विस्मति के अंधकार में डाले हए था। वह सोच रही थी_क्या वही सत्य था? इतने दिन जो मैंने किया, वह भ्रम था! मधुबन जब ब्याह कर लेगा, तब यहां मेरा क्या काम रह जाएगा? गृहस्थी! उसे चलाने के लिए तो तितली आ ही जाएगी। अहा! तितली कितनी सुंदर है! मधुबन प्रसन्न होगा। और मैं...? अच्छा, तब तीर्थ करने चली जाऊंगी। उह! रुपया चाहिए उसके लिए कहां से आवेगा? अरे जब घूमना ही है, तो क्या रुपए की कमी रह जाएगी? रुपया लेकर करूंगी ही क्या? भीख मांग कर या परदेश में मजूरी करके पेट पालूंगी। परंतु आज इतने दिनों पर चौबे! उसके हृदय में एक अनुभूति हुई, जिसे स्वयं स्पष्ट न समझ सकी। एक विकट हलचल होने लगी। वह जैसे उन चपल लहरों में झूमने लगी। रामदीन की नानी ने कहा—चलो मालकिन, अभी रसोई का सारा काम पड़ा है, मधुबन बाबू आते होंगे। राजकुमारी जल के बाहर खीझ से भरी निकली। आज उसके प्रौढ़ वय में भी व्ययविहीन पवित्र यौवन चंचल हो उठा था। चौबे ने उससे फिर मिलने के लिए कहा था। वह आकर लौट न जाए। वह जल से निकलते ही घर पहुंचने के लिए व्यग्र हो उठी। शेरकोट में पहुंचकर उसने अपनी चंचल मनोवृत्ति को भरपूर दबाने की चेष्टा की, और कुछ अंश तक वह सफल भी हुई; पर अब भी चौबे की राह देख रही थी। बहुत दिनों तक [ ५४ ]________________

राजकुमारी के मन में यह कुतूहल उत्पन्न हुआ था कि चौबे के मन में वह बात अभी बनी हुई है या भूल गए। उसे जान लेने पर वह संतुष्ट हो जाएगी। बस; और कुछ नहीं। मधुबन! नहीं, आज वह संध्या को घर लौटने के लिए कह गया है। तो फिर, रसोई बनाने की भी आवश्यकता नहीं। वह स्थिर होकर प्रतीक्षा करने लगी। किंतु...बहुत दिनों पर चौबेजी आवेंगे, उनके लिए जलपान का कुछ प्रबंध होना चाहिए। राजकुमारी ने अपनी गृहस्थी के भंडार-घर में जितनी हांडियां टटोलीं, सब सूनी मिलीं। उसकी खीझ बढ़ गई। फिर इस खोखली गृहस्थी का तो उसे अभी अनुभव भी न हुआ था। आज मानो वह शेरकोट अपनी अंतिम परीक्षा में असफल हुआ। राजकुमारी का क्रोध उबल पड़ा। अपनी अग्निमयी आंखों को घुमाकर वह जिधर ही ले जाती थी. अभाव का खोखला मंह विकृत रूप से परिचय देकर जैसे उसकी हंसी उड़ाने के लिए मौन हो जाता। वह पागल होकर बोली—यह भी कोई जीवन है। क्या है भाभी! मैं आ गया!—कहते हुए चौबे ने घर में प्रवेश किया। राजकुमारी अपना बूंघट खींचते हुए काठ की चौकी दिखाकर बोली—बैठिए। ____ क्या कहूं, तहसीलदार के यहां ठहर जाना पड़ा। उन्होंने बिना कुछ खिलाए आने ही नहीं दिया। सो भाभी! आज तो क्षमा करो, फिर किसी दिन आकर खा जाऊंगा। कुछ मेरे लिए बनाया तो नहीं? राजकुमारी रुद्ध कंठ से बोली नहीं तो, आए बिना मैं कैसे क्या करती! तो फिर कुछ तो... ___नहीं आज कुछ नहीं! हां, और क्या समाचार है। कुछ सुनाओ।—कहकर चौबे ने एक बार सतृष्ण नेत्रों से उस दरिद्र विधवा की ओर देखा। सुखदेव! कितने दिनों पर मेरा समाचार पूछ रहे हो, मुझे भी स्मरण नहीं; सब भूल गई हूं। कहने की कोई बात हो भी। क्या कहूं। भाभी! मैं बड़ा अभागा हूं। मैं तो घर से निकाला जाकर कष्टमय जीवन ही बीता रहा हूं। तुम्हारे चले आने के बाद मैं कुछ ही दिनों तक घर पर रह सका। जो थोड़ा खेत बचा था उसे बंधक रखकर बड़े भाई के लिए एक स्त्री खरीदकर जब आई, तो मेरे लिए रोटी का प्रश्न सामने खड़ा होकर हंसने लगा। मैं नौकरी के बहाने परदेश चला। मेरा मन भी वहां लगता न था। गांव काटने को दौड़ता था। कलकत्ता में किसी तरह एक थियेटर की दरबानी मिली। मैं उसके साथ बराबर परदेश घूमने लगा। रसोई भी बनाता रहा। हां, बीच में मैं संग होने से हारमोनियम सीखता रहा। फिर एक दिन बनारस में जब हमारी कंपनी खेल कर रही थी, राजा साहब से भेंट हो गई। जब उन्हें सब हाल मालूम हुआ, तो उन्होंने कहा तुम चलो, मेरे यहां सुख से रहो। क्यों परदेश में मारे-मारे फिर रह हो? तब मैं राजा साहब का दरबारी बना। उन्हें कभी कोई अच्छी चीज बनाकर खिलाता, ठंडाई बनाता और कभीकभी बाजा भी सुनाता। मेरे जीवन का कोई लक्ष्य न था। रुपया कमाने की इच्छा नहीं। दिन बीतने लगे। कभी-कभी, न जाने क्यों, तुमको स्मरण कर लेता। जैसे इस संसार में... राजकुमारी के नस-नस में बिजली दौड़ने लगी थी। एक अभागे युवक का जो सब ओर से ठुकराए जाने पर भी उसको स्मरण करता था।—रूप उसकी आंखों के सामने विराट [ ५५ ]________________

होकर ममता के आलोक में झलक उठा। वह तन्मय होकर सुना रही थी, जैसे उसकी चेतना सहसा लौट आई। अपनी प्यास बढ़ाकर उसने पूछा—क्यों सुखदेव! मुझे क्यों? ___ न पूछो भाभी! अपने दुख से जब ऊबकर मैं परदेस की किसी कोठरी में गांव की बातें सोचकर आह कर बैठता था, तब मुझे तुम्हारा ध्यान बराबर हो आता। तुम्हारा दुख क्या मुझसे कम है? और वाह रे निष्ठुर संसार! मैं कुछ कर नहीं सकता था? वह क्यों? सुखदेव! बस करो। वह भूख समय पर कुछ न पाकर मर मिटी है। उसे जानने से कुछ लाभ नहीं। मुझे भी संसार में कोई पूछने वाला है, यह मैं नहीं जानती थी; और न जानना मेरे लिए अच्छा था। तुम सुखी हो। भगवान सबका भला करें। भाभी? ऐसा न कहो। दो दिन के जीवन में मनुष्य मनुष्य को यदि नहीं पूछता-स्नेह नहीं करता, तो फिर वह किसलिए उत्पन्न हुआ है। यह सत्य है कि सब ऐसे भाग्यशाली नहीं होते कि उन्हें कोई प्यार करे. पर यह तो हो सकता है कि वह स्वयं किसी को प्यार करे. किसी के दुख-सुख में हाथ बंटाकर अपना जन्म सार्थक कर ले। सुखदेव नाटक में जैसे अभिनय कर रहा था। राजकुमारी ने एक दीर्घ निःश्वास लिया। वह निःश्वास उस प्राचीन खंडहर में निराश होकर घूम आया था। वह सिर झुकाकर बैठी रही। सुखदेव की आंखों में आंसू झलकने लगे थे। वह दरबारी था, आया था कुछ काम साधने; परंतु प्रसंग ऐसा चल पड़ा कि उसे कुछ साफ-साफ होकर सामने आना पड़ा। उसकी चतुरता का भाव परास्त हो गया था। अपने को संभालकर कहने लगा तो फिर मैं अपनी बात न कहूं? अच्छा, जैसी तुम्हारी आज्ञा। एक विशेष काम से तुम्हारे पास आया हूं। उसे तो सुन लोगी? तुम जो कहोगे, सब सुनूंगी, सुखदेव! तितली को तो जानती हो न! जानती हूं क्यों नही; अभी आज ही तो उससे भेंट हुई थी। और हमारे मालिक कुंवर इंद्रदेव को भी? क्यों नहीं। यह भी जानती हो कि तुम लोगों के शेरकोट को छीनने का प्रबंध तहसीलदार ने कर लिया है? राजकुमारी अब अपना धैर्य न संभाल सकी, उसने चिढ़कर कहा—सब सुनती हूं जानती हूं तुम साफ-साफ अपनी बात कहो। __ मैंने तहसीलदार को रोक दिया है। वहां रहकर अपनी आंखों के सामने तुम्हारा अनिष्ट होते मैं नहीं देख सकता था। किंत एक काम तम कर सकोगी? __ अपने को बहुत रोकते हुए राजकुमारी ने कहा—क्या? किसी तरह तितली से इंद्रदेव का ब्याह करा दो और यह तुम्हारे किये होगा! और तुम लोगों से जो जमींदार के घर से बुराई है, वह भलाई में परिणत हो जाएगी। सब तरह का रीति-व्यवहार हो जाएगा। भाभी! हम सब सुख से जीवन बिता सकेंगे। जकुमारा निश्चेष्ट होकर सुखदेव का मुंह देखने लगी; और वह बहत-सी बात सोच रही थी। थोड़ी देर पर वह बोली—क्यों, मेम साहब क्या करेंगी? [ ५६ ]________________

उसी को हटाने के लिए तो। तितली को छोड़कर और कोई ऐसी बालिका जाति की नहीं दिखाई पड़ती, जो इंद्रदेव से ब्याही जाए; क्योंकि विलायत से मेम ले आने का प्रवाद सब जगह फैल गया है। ___ कुछ देर तक राजकुमारी सिर नीचा कर सोचती रही। फिर उसने कहा—अच्छा, किसी दूसरे दिन इसका उत्तर दूंगी। उस दिन चौबे विदा हुए। किंतु राजकुमारी के मन में भयानक हलचल हुई। संयम के प्रौढ़ भाव की प्राचीर के भीतर जिस चारित्र्य की रक्षा हुई थी, आज वह संधि खोजने लगा था। मानव-हृदय की वह दुर्बलता कही जाती है। किंतु जिस प्रकार चिररोगी स्वास्थ्य की संभावना से प्रेरित होकर पलंग के नीचे पैर रखकर अपनी शक्ति की परीक्षा लेता है, ठीक उसी तरह तो राजकुमारी के मन में कुतूहल हुआ था-अपनी शक्ति को जांचने का। वह किसी अंश तक सफल भी हुई, और उसी सफलता ने और भी चाट बढ़ा दी। राजकुमारी परखने लगी थी अपना स्त्री का अवलम्ब, जिसके सबसे बड़े उपकरण हैं यौवन और सौंदर्य। आत्मगौरव, चारित्र्य और पवित्रता तक सबकी दृष्टि तो नहीं पहुंचती। अपनी सांसारिक विभूति और संपत्ति को संभालने की आवश्यकता रखने वाले किस प्राणी को, चिंता नहीं होती? शस्त्र कुंठित हो जाते हैं, तब उन पर शान चढ़ाना पड़ता है। किंतु राजकुमारी के सब अस्त्र निकम्मे नहीं थे। उनकी और परीक्षा लेने की लालसा उसके मन में बड़ी। उधर हृदय में एक संतोष भी उत्पन्न हो गया था। वह सोचने लगी थी कि मधुबन की गृहस्थी का बोझ उसी पर है। उसे मधुबन की कल्याण-कामना के साथ उसकी व्यावहारिकता भी देखनी चाहिए। शेरकोट कैसे बचेगा, और तितली से ब्याह करके दरिद्र मधुबन कैसे सुखी हो सकेगा? यदि तितली इंद्रदेव की रानी हो जाती और राजकुमारी के प्रयत्न से, तो वह कितना... वह भविष्य की कल्पना से क्षण-भर के लिए पागल हो उठी। सब बातों में सुखदेव की सुखद स्मृति उसकी कल्पनाओं को और भी सुंदर बनाने लगी। बुढ़िया ने बहुत देर तक प्रतीक्षा की; पर जब राजकुमारी के उठने के, या रसोई-घर में आने के. उसके कोई लक्षण नहीं देखे तो उसे भी लाचार होकर वहां से टल जाना पड़ा। राजकुमारी ने अनुभूति भरी आंखों से अपनी अभाव की गृहस्थी को देखा और विरक्ति से वहीं चटाई बिछाकर लेट गई। धीरे-धीरे दिन ढलने लगा। पश्चिम में लाली दौड़ी, किंतु राजकुमारी आलस भरी भावना में डुबकी ले रही थी। उसने एक बार अंगड़ाई लेकर करारों में गंगा की अधखुली धारा को देखा। वह धीरे-धीरे बह रही थी। स्वप्न देखने की इच्छा से उसने औखें बंद की। मधुबन आया। उसने आज राजकुमारी को इस नई अवस्था में देखा। वह कई बरसों से बराबर, बिना किसी दिन की बीमारी के, सदा प्रस्तुत रहने के रूप में ही राजकुमारी को देखता आया था। किंतु आज? वह चौंक उठा। उसने पूछा राजो! पड़ी क्यों हो? वह बोली नहीं। सुनकर भी जैसे न सुन सकी। मन-ही-मन सोच रही थी। ओह, इतने दिन बीत गये! इतने बरस! कभी दो घड़ी की भी छुट्टी नहीं। मैं क्यों जगाई जा रही हूं। [ ५७ ]________________

इसीलिए न कि रसोई नहीं बनी है। तो मैं क्या रसोई-दारिन हूं। आज नहीं बनी—न सही। मधुबन दौड़कर बाहर आया। बुढ़िया को खोजने लगा। वह भी नहीं दिखाई पड़ी। उसने फिर भीतर जाकर रसोई-घर देखा। कहीं धुएं या चूल्हा जलने का चिन्ह नहीं। बरतनों को उलट-पलट कर देखा। भूख लग रही थी। उसे थोड़ा-सा चबेना मिला। उसे बैठकर मनोयोग से खाने लगा। मन-ही-मन सोचता था—आज बात क्या है? डरता भी था कि राजकुमारी चिढ़ न जाय! उसने भी मन में स्थिर किया—आज यहां रहूंगा नहीं। ___मधुबन का रूठने का मन हुआ। वह चुपचाप जल पीकर चला गया। राजकुमारी ने सब जान-बूझकर कहा हूं। अभी यह हाल है तो तितली से ब्याह हो जाने पर तो धरती पर पैर ही न पड़ेंगे। विरोध कभी-कभी बड़े मनोरंजक रूप में मनुष्य के पास धीरे से आता है और अपनी काल्पनिक सृष्टि में मनुष्य को अपना समर्थन करने के लिए बाध्य करता है—अवसर देता है —प्रमाण ढूंढ़ लाता है और फिर; आंखों में लाली, मन में धृणा, लड़ने का उन्माद और उसका सुख-सब अपने-अपने कोनों से निकलकर उसके हां-में-हां मिलाने लगते हैं। गोधूली आई। अंधकार आया। दूर-दूर झोपड़ियों में दीये जल उठे। शेरकोट का खंडहर भी सांय-सांय करने लगा। किंतु राजकुमारी आज उठती ही नहीं। वह अपने चारों ओर और भी अंधकार चाहती थी!