तितली - उपन्यास - जयशंकर प्रसाद  (1934) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद

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सहसा एक दिन इन्द्रदेव को यह चेतना हुई कि वह जो कुछ पहले थे, अब नहीं रहे! उन्हें पहले भी कुछ-कुछ ऐसा भान होता था कि परदे पर एक दूसरा चित्र तैयारी से आने वाला है; पर उसके इतना शीघ्र आने की संभावना न थी। शैला के लिए वह बार-बार सोचने लगे थे। उसकी क्या स्थिति होगी, यही वह अभी नहीं समझ पाते थे। कभी-कभी वह शैला के संसर्ग से अपने को मुक्त करने की भी चेष्टा करने लगते—यह भी विरक्ति के कारण नहीं, केवल उसका गौरव बनाने के लिए। उनके कुटुंब वालों के मन में शैला को वेश्या से अधिक समझने की कल्पना भी नहीं हो सकती थी। यह प्रच्छन्न व्यंग्य उन्हें व्यथित कर देता था। उधर शैला भी इससे अपरिचित थी—ऐसी बात नहीं। तब भी इन्द्रदेव से अलग होने की कल्पना उसके मन में नहीं उठती थी। इसी बीच में उसने शहर में जाकर मिशनरी सोसाइटी से भी बातचीत की थी। उन लोगों ने स्कूल खोलकर शिक्षा देने के लिए उसे उकसाया। __किंतु उसने मिशनरी होना स्वीकार नहीं किया। इधर वह बाबा रामनाथ के यहां हितोपदेश पढ़ने भी जाती थी अर्थात् इन्द्रदेव और शैला दोनों ही अपने को बहलाने की चिंता में थे। वे इस उलझन को स्पष्ट करने के लिए क्या-क्या करने की बातें सोचते थे, पर एक-दूसरे से कहने में संकुचित ही नहीं, किंतु भयभीत भी थे; क्योंकि इन्द्रदेव के परिवार में घटनाएं बड़े वेग से विकसित हो रही थीं। किसी भी क्षण में विस्फोट होकर कलह प्रकट हो सकता था। इमली के पेड़ के नीचे आरामकुर्सियों पर शैला और इन्द्रदेव बैठकर एक-दूसरे को चुपचाप देख रहे थे। प्रभात की उजली धूप टेबल पर बिछे हुए रेशमी कपड़ों पर, रह-रहकर तड़प उठती थी, जिस पर धरे हुए फूलदान के गुलाबों में से एक भीनी महक उठकर उनके वातावरण को सुगंधपूर्ण कर रही थी। इन्द्रदेव ने जैसे घबराकर कहा-शैला क्या! तुम कुछ देख रही हो? सब कुछ। किंतु इतने विचारमूढ़ क्यों हो रहे हो? यही समझ में नहीं आता। तुम्हारी वह कल्पना सफल होती नहीं दिखाई देती। इसी का मुझे दुःख है। किंतु अभी हम लोगों ने उसके लिए कुछ किया भी तो नहीं। कर नहीं सकते। यह मैं नहीं मानती। तुमको कुछ मालूम है कि तुम्हारे संबंध में यहां कैसी बातें फैलाई जा रही हैं? हां! मैं रात-रात को घूमा करती हूं जो भारतीय स्त्रियों के लिए ठीक नहीं। मैं रामनाथ के यहां संस्कृत पढ़ने जाती हूं। यह भी बुरा करती हूं। और, तुमको भी बिगाड़ रही हूं। यही बात न? अच्छा, इन बातों के किसी-किसी अंश पर देखती हूं कि तुम भी अधिक ध्यान देने लगे हो। नहीं तो इतना सोचने-विचारने की क्या आवश्यकता थी? मैं इतना ही नहीं। मैं अब इसलिए चिंतित हूं कि अपना और तुम्हारा संबंध स्पष्ट कर दूं। यह ओछा अपवाद अधिक सहन नहीं किया जा सकता। किंतु मैं अभी उस प्रश्न पर विचारने की आवश्यकता ही नहीं समझती!– शैला ने [ ४८ ]________________

ईषत् हंसी से कहा। क्यों? तुम्हारे संसर्ग से जो मैंने सीखा है, उसका पहला पाठ यही है कि दूसरे मुझको क्या कहते हैं, इस पर इतना ध्यान देने की आवश्यकता नहीं। पहले मुझे ही अपने विषय में सच्ची जानकारी होनी चाहिए। मैं चाहती हूं कि तुम्हारी जमींदारी के दातव्य विभाग से जो खर्च स्वीकृत हुआ है, उसी में मैं अपना और औषधालय का काम चलाऊं। बैंक में भी कुछ काम कर सकू तो उससे भी कुछ मिल जाया करेगा और मेरी स्वतंत्र स्थिति इन प्रवादों को स्वयं ही स्पष्ट कर देगी। बात तो ठीक है— इन्द्रदेव ने कुछ सोचकर धीरे-से कहा। पर इसके लिए तुमको एक प्रबंध कर देना पड़ेगा। पहले मैंने सोचा था कि गांव में कई जगह कर्म-केंद्र की सष्टि हो सकती है। भिन्न-भिन्न शक्ति वाले अपने-अपने काम में जट जाएंगे। किंतु अब मैं देखती हूं कि इसमें बड़ी बाधा है, और मैं उन पर इस तरह नियंत्रण न कर सकूँगी। इसलिए बैंक और औषधालय, ग्राम सुधार और प्रचार-विभाग, सब एक ही स्थान पर हों। तो ठीक है! शेरकोट में ही सब विभागों के लिए कमरे बनवाने की व्यवस्था कर दो न! किंतु इसमें मैं एक भूल कर गई हूं। क्या उसके सुधारने का कोई उपाय नहीं है? भूल कैसी? कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो जान-बूझकर एक रहस्यपूर्ण घटना को जन्म देते हैं। स्वयं उसमें पड़ते हैं और दूसरों को भी फंसाते हैं। मैं भी शेरकोट को बैंक के लिए चुनने में कुछ इस तरह मूर्ख बनाई गई हूं। इन्द्रदेव ने हंसते हए कहा मैं देख रहा हं कि तुम अधिक भावनामयी होती जा रही हो। यह संदेह अच्छा नहीं। शेरकोट के लिए तो मां ने सब प्रबंध कर भी दिया है। अब फिर क्या हुआ? शेरकोट एक पुराने वंश की स्मृति है। उसे मिटा देना ठीक नहीं। अभी मधुबन नाम का एक युवक उसका मालिक है। तहसीलदार से उसकी कुछ अनबनहै, इसलिए यह... मधुबन! अच्छा तो मैं क्या कर सकता हूं। तुम बैंक न भी बनवाओ, तो होता क्या है। अब तो वह बेचारा उस शेरकोट से निकाला ही जाएगा। __तुम एक बार मां से कहो न! और नीलवाली कोठी की मरम्मत करा दो, इसमें रुपए भी कम लगेंगे, और... _ निलवाली कोठी!—आश्चर्य से इन्द्रदेव ने उसकी ओर देखा। हां, क्यों? अरे वह तो भूतही कोठी कही जाती है। जहां मनुष्य नहीं रहते वहीं तो भूत रह सकेंगे? इन्द्रदेव! मैं उस कोठी को बहुत प्यार करती हूं। कब से शैला?— हंसते हुए इन्द्र ने उसका हाथ पकड़ लिया। इन्द्र। तुम नहीं जानते। मेरी मां यहीं कुछ दिनों तक रह चुकी है। इन्द्रदेव की औखें जैसे बड़ी हो गईं। उन्होंने कुर्सी से उठ खड़े होकर कहा—तुम क्या [ ४९ ]कह रही हो ? बैठो और सुनो । मैं वही कह रही हूं जिसके मुझे सच होने का विश्वास हो रहा है। तुम इसके लिए कुछ करो। मुझे तुमसे दान लेने में तो कोई संकोच नहीं। आज तक तुम्हारे ही दान पर मैं जी रही हूं ; किंतु वहां रहने देकर मुझे सबसे बड़ी प्रसन्नता तुम दे सकते हो । और , मेरी जीविका का उपाय भी कर सकते हो । शैला की इस दीनता से घबराकर इन्द्रदेव ने कुर्सी खींचकर बैठते हुए कहा शैला ! तुम काम - काज की इतनी बातें करने लगी हो कि मुझे आश्चर्य हो रहा है। जीवन में यह परिवर्तन सहसा होता है; किंतु यह क्या ! तुम मुझको एक बार ही कोई अन्य व्यक्ति क्यों समझ बैठी हो ? मैं तुमको दान दूंगा ? कितने आश्चर्य की बात ! यह सत्य है इन्द्रदेव ! इसे छिपाने से कोई लाभ नहीं । अवस्था ऐसी है कि अब मैं तुमसे अलग होने की कल्पना करके दुखी होती हूं किंतु थोड़ी दूर हटे बिना काम भी नहीं चलता । तुमको और अपने को समान अंतर पर रखकर , कुछ दिन परीक्षा लेकर , तब मन से पूछंगी । क्या पूछोगी शैला कि वह क्या चाहता है। तब तक के लिए यही प्रबंध करना ठीक होगा । मुझे काम करना पड़ेगा , और काम किए बिना यहां रहना मेरे लिए असंभव है। अपनी रियासत में मुझे एक नौकरी और रहने की जगह देकर मेरे बोझ से तुम इस समय के लिए छुट्टी पा जाओ, और स्वतंत्र होकर कुछ अपने विषय में भी सोच लो । शैला बड़ी गंभीरता से उनकी ओर देखते हुए फिर कहने लगी - हम लोगों के पश्चिमी जीवन का यह संस्कार है कि व्यक्ति को स्वावलंब पर खड़े होना चाहिए। तुम्हारे भारतीय हृदय में , जो कौटुम्बिक कोमलता में पला है, परस्पर सहानुभूति की - सहायता की बड़ी आशाएं , परंपरागत संस्कृति के कारण , बलवती रहती हैं ।किंतु मेरा जीवन कैसा रहा है, उसे तुमसे अधिक कौन जान सकता है! मुझसे काम लो और बदले में कुछ दो । अच्छा , यह सब मैं कर लूंगा ; पर मधुबन के शेरकोट का क्या होगा ? मैं नहीं कहना चाहता । मां न जाने क्या मन में सोचेंगी । जबकि उन्होंने एक बार कह दिया , तब उसके प्रतिकूल जाना उनकी प्रकृति के विरुद्ध है। तो भी तुम स्वयं कहकर देख लो । यह मैं नहीं पसंद करती इन्द्रदेव ! मैं चाहती हूं कि जो कुछ कहना हो , अपनी माताजी से तुम्हीं कहो । दूसरों से वही बात सुनने , पर जिसे कि अपनों से सुनने की आशा रहती है मनुष्य के मन में एक ठेस लगती है । यह बात अपने घर में तुम आरंभ न करो। देखो शैला । वह आरंभ हो चुकी है, अब उसे रोकने में असमर्थ हूं। तब भी तुम कहती हो , तो मैं ही कहकर देखूगा कि क्या होता है । अच्छा तो जाओ, तुम्हारे हितोपदेश के पाठ का यही समय है न ! वाह ! क्या अच्छा तुमने यह स्वांग बनाया है । शैला ने स्निग्ध दृष्टि से इन्द्रदेव को देखकर कहा - यह स्वांग नहीं है, मैं तुम्हारे समीप आने का प्रयत्न कर रही हूं- तुम्हारी संस्कृति का अध्ययन करके । __ अनवरी को आते देखकर उल्लास से इन्द्रदेव ने कहा - शैला ! शेरकोट वाली बात अनवरी से ही मां तक पहुंचाई जा सकती है । शैला प्रतिवाद करना ही चाहती थी कि अनवरी सामने आकर खड़ी हो गई। उसने कहा - आज कई दिन से आप उधर नहीं आई हैं । सरकार पूछ रही थीं कि .. . [ ५० ] अरे पहले बैठ तो जाइए। -कुर्सी खिसकाते हुए शैला ने कहा, मैं तो स्वयं अभी चलने के लिए तैयार हो रही थी।

अच्छा

हां, शेरकोट के बारे में रानी साहिबा से मुझे कुछ कहना था। मेरे भ्रम से एक बड़ी बुरी बात हो रही है, उसे रोकने के लिए...

क्या?

मधुबन बेचारा अपनी झोंपड़ी से भी निकाल दिया जाएगा। उसके बाप-दादों की डीह है। मैंने बिना समझे-बूझे बैंक के लिए वही जगह पसंद की। उस भूल को सुधारने के लिए मैं अभी ही आने वाली थी।

__मधुबन! हां, वही न, जो उस दिन रात को आपके साथ था, जब आप नील-कोठी से आ रही थीं? उस पर तो आपको दया करनी ही चाहिए-कहकर अनवरी ने भेद-भरी दृष्टि से इन्द्रदेव की ओर देखा।

इन्द्रदेव कुर्सी छोड़ उठ खड़े हुए।

शैला ने निराश दृष्टि से उनकी ओर देखते हुए कहा-तो इस मेरी दया में आपकी सहायता की भी आवश्यकता हो सकती है। चलिए।