तितली/1.3
चारों ओर ऊंचे-ऊंचे खंभों पर लंबे-चौड़े दालान, जिनसे सटे हुए सुंदर कमरों में सुखासन, उजली सेज, सुंदर लैंप, बड़े-बड़े शीशे, टेबिल पर फूलदान, अलमारियों में सुनहरी जिल्दों से मढ़ी हुई पुस्तकें—सभी कुछ उस छावनी में पर्याप्त है। आस-पास, दफ्तर के लिए, नौकरों के लिए तथा और भी कितने ही आवश्यक कामों के लिए छोटे-मोटे घर बने हैं। शहर के मकान में न जाकर, इन्द्रदेव ने विलायत से लौटकर यहीं रहना जो पसंद किया है, उसके कई कारणों में इस कोठी की सुंदर भूमिका और आसपास का रमणीय वातावरण भी है। शैला के लिए तो दूसरी जगह कदापि उपयुक्त न होती। छावनी के उत्तर नाले के किनारे ऊंचे चौतरे की हरी-हरी दूबों से भरी हुई भूमि पर कुर्सी का सिरा पकड़े तन्मयता से वह नाले का गंगा में मिलना देख रही थी। उसका लंबा और ढीला गाउन मधुर पवन से आंदोलित हो रहा था। कुशल शिल्पी के हाथों से बनी हुई संगमरमर की सौंदर्य-प्रतिमा-सी वह बड़ी भली मालूम हो रही थी। दालान में चौबेजी उसके लिए चाय बना रहे थे। सांयकाल का सूर्य अब लाल बिंब ________________
मात्र रह गया था, सो भी दूर की ऊंची हरियाली के नीचे जाना ही चाहता था। इन्द्रदेव अभी तक नहीं आए थे। चाय ले जाने में चौबेजी और सुस्ती कर रहे थे। उनकी चाय शैला को बड़ी अच्छी लगी। वह चौबेजी के मसाले पर लटू थी। रामदीन ने चाय की टेबिल लाकर रख दी। शैला की तन्मयता भंग हुई। उसने मुस्कुराते हुए, इन्द्रदेव से कुछ मधुर सम्भाषण करने के लिए, मुंह फिराया; किंतु इन्द्रदेव को न देखकर वह रामदीन से बोली—क्या अभी इन्द्रदेव नहीं आए हैं? नटखट रामदीन हँसी छिपाते हुए एक आंख का कोना दबाकर होंठ के कोने को ऊपर चढ़ा देता था। शैला उसे देखकर खूब हँसती, क्योंकि रामदीन का कोई उत्तर बिना इस कुटिल हंसी के मिलना असंभव था! उसने अभ्यास के अनुसार आधा हंसकर कहा—जी, आ रहे हैं सरकार! बड़ी सरकार के आने की... बड़ी सरकार? हां, बड़ी सरकार! वह भी आ रही हैं। कौन है वह? बड़ी सरकारदेखो रामदीन, समझाकर कहो। हंसना पीछे। बड़ी सरकार का अनुवाद करने में उसके सामने बड़ी बाधाएं उपस्थित हुईं; किंतु उन सबको हटाकर उसने कह दिया—सरकार की मां आई हैं। उनके लिए गंगा-किनारे वाली छोटी कोठी साफ़ कराने का प्रबंध देखने गए हैं। वहां से आते ही होंगे। आते ही होंगे? क्या अभी देर है? रामदीन कुछ उत्तर देना चाहता था कि बनारसी साड़ी का आंचल कंधे पर से पीठ की ओर लटकाए: हाथ में छोटा-सा बेग लिये एक संदरी वहां आकर खड़ी हो गई। शैला ने उसकी ओर गंभीरता से देखा। उसने भी अधिक खोजने वाली आंखों से शैला को देखा। दृष्टि-विनियम में एक-दूसरे को पहचानने की चेष्टा होने लगी; किंतु कोई बोलता न था। शैला बड़ी असुविधा में पड़ी। वह अपरिचित से क्या बातचीत करे? उसने पूछाआप क्या चाहती हैं? आने वाली ने नम्र मुस्कान से कहा—मेरा नाम मिस अनवरी है। क्या किया जाए, जब कोई परिचय कराने वाला नहीं तो ऐसा करना ही पड़ता है। मैं कुंवर साहब की मां को देखने के लिए आया करती हूं। आपको मिस शैला समझ लूं? ___जी—कहकर शैला ने कुर्सी बढ़ा दी और शीतल दृष्टि से उसे बैठने का संकेत किया। उधर चौबेजी चाय ले आ रहे थे। शैला ने भी एक कुर्सी पर बैठते हुए कहा-आपके लिए भी... अनवरी और शैला आमने-सामने बैठी हुई एक-दूसरे को परखने लगी। अनवरी की सारी प्रगल्भता धीरे-धीरे लुप्त हो चली। जिस गर्मी से उसने अपना परिचय अपने-आप दे दिया था, वह चाय के गर्म प्याले के सामने ठंडी हो चली थी। शैला ने चाय के छोटे-से पात्र से उठते हुए धुएं को देखते हुए कहा—कुंवर साहब की मां भी सुना, आ गई हैं? ________________
मुझे तो नहीं मालूम, मैं अपनी मोटर से यहीं उतर पड़ी थी। उनके साथ ही आती; पर क्या करूं, देर हो गई। किसी को पूछ आने के लिए भेजिएगा? मुझे तो आपसे सहायता मिलनी चाहिए मिस अनवरी शैला ने हंसकर कहाआपके कुंवर साहब आ जाएं, तो प्रबंध... अरे शैला! यह कौन... ___ इन्द्रदेव! तुम अब तक क्या कर रहे थे-कहकर शैला ने मिस अनवरी की ओर संकेत करते हुए कहा—आप मिस अनवरी... फिर अपने होठ को गर्म चाय में डुबो दिया, जैसे उन्हें हंसने का दंड मिला हो। इन्द्रदेव ने अभिनंदन करते हुए कहा-मां जब से आईं, तभी से पूछ रही हैं, उनकी रीढ़ में दर्द हो रहा है। आपकी उनसे भेंट नहीं हुई क्या? जी नहीं; मैंने समझा, यहीं होगी। फिर जब यहां चाय मिलने का भरोसा था, तो थोड़ा यहीं ठहरना अच्छा हुआ—कहकर अनवरी मुस्कराने लगी। इन्द्रदेव ने साधारण हंसी हंसते हुए कहा—अच्छी बात है, चाय पी लीजिए। चौबेजी आपको वहां पहुंचा देंगे। ____तीनों चुपचाप चाय पीने लगे। इन्द्रदेव ने कहा—चौबे! आज तुम्हारी गुजराती चाय बड़ी अच्छी रही। एक प्याला ले आओ, और उसके साथ और भी कछ... चौबे सोहन-पापड़ी के टुकड़े और चायदानी लेकर जब आए, तो मिस अनवरी उठकर खड़ी हो गई। इन्द्रदेव ने कहा—वाह, आप तो चली जा रही हैं। इसे भी तो चखिए। शैला ने मुस्कुराते हुए कहा—बैठिए भी, आप तो यहां पर मेरी ही मेहमान होकर रह सकेंगी। हां, इसको तो मैं भूल गई थी—कहकर अनवरी बैठ गई। चौबेजी ने सबको चाय दे दी, और अब वह प्रतीक्षा कर रहे थे कि कब अनवरी चलेगी। पर अनवरी तो वहां से उठने का नाम ही न लेती थी। वह कभी इन्द्रदेव और कभी शैला को देखती, फिर संध्या की आने वाली कालिमा की प्रतीक्षा करती हुई नीले आकाश में आंख लड़ाने लगती। उधर इन्द्रदेव इस बनावटी सन्नाटे से ऊब चले थे। सहसा चौबेजी ने कहा—सरकार! वह बुड्ढा आया है, उसकी कहानी कब सुनिएगा? मैं लालटेन लेता आऊं? . फिर अनवरी की ओर देखते हुए कहने लगे अभी आपको भी छोटी कोठी में पहुंचाना होगा। अनवरी को जैसे धक्का लगा। वह झटपट उठकर खड़ी हो गई। चौबेजी उसे साथ लेकर चले। इन्द्रदेव ने गहरी सांस लेकर कहा—शैला! क्या इन्द्रदेव? मां से भेंट करोगी? चलूं? अच्छा, कल सवेरे!