तितली - उपन्यास - जयशंकर प्रसाद  (1934) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद

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2.

धामपुर एक बड़ा ताल्लुका है। उसमें चौदह गांव हैं। गंगा के किनारे-किनारे उसका विस्तार दूर तक चला गया है। इन्द्रदेव यहीं के युवक जमींदार थे। पिता को राजा की उपाधि मिली थी।

बी.ए. पास करके जब इन्द्रदेव ने बैरिस्टरी के लिए विलायत-यात्रा की, तब पिता के मन में बड़ा उत्साह था।

किंतु इन्द्रदेव धनी के लड़के थे। उन्हें पढ़ने-लिखने की उतनी आवश्यकता न थी, जितनी लंदन का सामाजिक बनने की!

लंदन नगर में भी उन्हें पूर्व और पश्चिम का प्रत्यक्ष परिचय मिला। पूर्वी भाग में। पश्चिमी जनता का जो साधारण समुदाय है, उतना ही विरोधपूर्ण है, जितना कि विस्तृत पूर्व और पश्चिम का। एक ओर सुगंध जल के फव्वारे छूटते हैं, बिजली से गरम कमरों में जाते ही कपड़े उतार देने की आवश्यकता होती है; दूसरी ओर बरफ और पाले में दूकानों के चबूतरों के नीचे अर्ध-नग्न दरिद्रों का रात्रि-निवास।

इन्द्रदेव कभी-कभी उस पूर्वी भाग में सैर के लिए चले जाते थे।

एक शिशिर रजनी थी। इन्द्रदेव मित्रों के निमंत्रण से लौटकर सड़क के किनारे, मुंह पर अत्यंत शीतल पवन का तीखा अनुभव करते हुए, बिजली के प्रकाश में धीरे-धीरे अपने मेस' की ओर लौट रहे थे। पल के नीचे पहंचकर वह रुक गए। उन्होंने देखा-कितने ही अभागे, पुल की कमानी के नीचे अपना रात्रि-निवास बनाए हुए, आपस में लड़-झगडु रहे हैं। एक रोटी पूरी ही खा जाएगा!—इतना बड़ा अत्याचार न सह सकने के कारण जब तक स्त्री उसके हाथ से छीन लेने के लिए अपनी शराब की खुमारी से भरी आखों को चढ़ाती ही [ १४ ]रहती है, तब तक लड़का उचककर छीन लेता है। चटपट तमाचों का शब्द होना तुमुल युद्ध के आरंभ होने की सूचना देता है। धौल-धप्पड़, गाली-गलौज, बीच-बीच में फूहड़ हंसी भी सुनाई पड़ जाती है।

इन्द्रदेव चुपचाप वह दृश्य देख रहे थे सोच रहे थे—इतना अकूत धन विदेशों से ले आकर भी क्या इन साहसी उद्योगियों ने अपने देश की दरिद्रता का नाश किया? अन्य देशों की प्रकृति का रक्त इन लोगों की कितनी प्यास बुझा सका है?

सहसा एक लंबी-सी पतली-दुबली लड़की ने पास आकर कुछ याचना की। इन्द्रदेव ने गहरी दृष्टि से उस विवर्ण मुख को देखकर पूछा—क्यों, तुम्हारे पिता-माता नहीं हैं?

पिता जेल में हैं, माता मर गई है।

और इतने अनाथालय?

उनमें जगह नहीं!

तुम्हारे कपड़े से शराब की दुर्गंध आ रही है। क्या तुम...

'जैक' बहुत ज्यादा पी गया था, उसी ने कै कर दिया है। दूसरा कपड़ा नहीं जो बदलूं; बड़ी सर्दी है। कहकर लड़की ने अपनी छाती के पास का कपड़ा मुट्ठियों में समेट लिया।

तुम नौकरी क्यों नहीं कर लेती?

रखता कौन है? हम लोगों को तो वे बदमाश, गिरह-कट, आवारा समझते हैं। पास खड़े होने तो...

आगे उस लड़की के दांत आपस में लड़कर बजने लगे। वह स्पष्ट कुछ न कह सकी।

इन्द्रदेव होंठ काटते हुए क्षण-भर विचार करने लगे। एक छोकरे ने आकर लड़की को धक्का देकर कहा—जो पाती, सब शराब पी जाती है। इसको देना—न देना सब बराबर है।

लड़की ने क्रोध से कहा—जैक! अपनी करनी मुझ पर क्यों लादता है? तू ही मांग ले; मैं जाती हूं।

वह घूमकर जाने के लिए तैयार थी कि इन्द्रदेव ने कहा—अच्छा सुनो तो, तुम पास के भोजनालय तक चलो, तुमको खाने के लिए, और मिल सका तो कोई भी दिलवादूंगा।

छोकरा 'हो-हो-हो!' करके हंस पड़ा। बोला—जा न शैला। आज की रात तो गर्मी से बिता ले. फिर कल देखा जाएगा।

उसका अश्लील व्यंग्य इन्द्रदेव को व्यथित कर रहा था; किंतु शैला ने कहा—चलिए।

दोनों चल पड़े। इन्द्रदेव आगे थे, पीछे शैला। लंदन का विद्युत-प्रकाश निस्तब्ध होकर उन दोनों का निर्विकार पद-विशेप देख रहा था। सहसा घूमकर इन्द्रदेव ने पूछा-तुम्हारा नाम 'शैला' है न?

'हां' कहकर फिर वह चुपचाप सिर नीचा किए अनुसरण करने लगी।

इन्द्रदेव ने फिर ठहरकर पूछा—कहां चलोगी? भोजनालय में या हम लोगों के मेस में?

'जहां कहिए' कहकर वह चुपचाप चल रही थी। उसकी अविचल धीरता से मन-ही-मन कुढ़ते हुए इन्द्रदेव मेस की ओर ही चले।

उस मेस में तीन भारतीय छात्र थे। मकान वाली एक बुढ़िया थी। उसके किए सब काम होता न था। इन्द्रदेव ही उन छात्रों के प्रमुख थे। उनकी सम्मत से सब लोगों ने शैला' [ १५ ]________________

को परिचारिका-रूप में स्वीकार किया। और, जब शैला से पूछा गया, तोउसने अपनी स्वाभाविक उदार दृष्टि इन्द्रदेव के मुंह पर जमाकर कहा यदि आप कहते हैं तो मुझे स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है। भिखमंगिन होने से यह बुरा तो न होगा। इन्द्रदेव अपने मित्रों के मुस्कुराने पर भी मन-ही-मन सिहर उठे। बालिका के विश्वास पर उन्हें भय मालूम होने लगा। तब भी उन्होंने समस्त साहस बटोरकर कहा-शैला, कोई भय नहीं, तुम यहां स्वयं सुखी रहोगी और हम लोगों की भी सहायता करोगी। मकान वाली बुढिया ने जब यह सुना, तो एक बार झल्लाई। उसने शैला के पास जाकर, उसकी ठोढ़ी पकड़कर, आंखें गड़ाकर, उसके मुंह को और फिर सारे अंग को इस तीखी चितवन से देखा, जैसे कोई सौदागर किसी जानवर को खरीदने से पहले उसे देखता हो। किंतु शैला के मुंह पर तो एक उदासीन धैर्य आसन जमाए था, जिसको कितनी ही कुटिल दृष्टि क्यों न हो, विचलित नहीं कर सकती। बुढिया ने कहा—रह जा बेटी, ये लोग भी अच्छे आदमी हैं। शैला उसी दिन से मेस में रहने लगी। भारतीयों के साथ बैठकर वह प्राय: भारत के देहातों, पहाड़ी तथा प्राकृतिक दृश्यों के संबंध में इन्द्रदेव से कतहलपर्ण प्रश्र किया करती। बैरिस्टरी का डिप्लोमा मिलने के साथ ही इन्द्रदेव को पिता के मरने का शोकसमाचार मिला। उस समय शैला की सांत्वना और स्नेहपूर्ण व्यवहार ने इन्द्रदेव के मन को बहुत-कुछ बहलाया। मकान वाली बुढिया उसे बहुत प्यार करती, इन्द्रदेव के सद्व्यवहार और चारित्र्य पर वह बहुत प्रसन्न थी। इन्द्रदेव ने जब शैला को भारत चलने के लिए व शैला भी भारत चली आई। इन्द्रदेव ने शहर के महल में न रहकर धामपुर के बंगले में ही अभी रहने का प्रबंध किया। अभी धामपुर आए इन्द्रदेव और शैला को दो सप्ताह से अधिक न हुए थे। इंग्लैंड से ही इन्द्रदेव ने शैला को हिंदी से खूब परिचित कराया। वह अच्छी हिंदी बोलने लगी थी। देहाती किसानों के घर जाकर उनके साथ घरेल बातें करने का चसका लग गया था खाट पर बैठकर वह बड़े मजे से उनसे बातें करती, साड़ी पहनने का उसने अभ्यास कर लिया था और उसे फबती भी अच्छी। शैला और इन्द्रदेव दोनों इस मनोविनोद से प्रसन्न थे। वे गंगा के किनारे-किनारे धीरेधीरे बात करते चले जा रहे थे। कृषक-बालिकाएं बरतन मांज रही थीं। मल्लाहों के लड़के अपने डोंगी पर बैठे हुए मछली फंसाने की कटिया तोल रहे थे। दो-एकबड़ी-बड़ी नावें, माल से लदी हुईं, गंगा के प्रशांत जल पर धीरे-धीरे संतरण कर रही थीं। वह प्रभात था! शैला बड़े कुतूहल से भारतीय वातावरण में नीले आकाश, उजली धूप और सहज ग्रामीण शांति का निरीक्षण कर रही थी। वह बातें भी करती जाती थी। गंगा की लहर से सुंदर कटे हुए बालू के नीचे करारों में पक्षियों के एक सुंदर छोटे-से झुंड को विचरते देखकर उसने उनका नाम पूछा! इन्द्रदेव ने कहा ये सुर्खाब हैं, इनके परों का तो तुम लोगों के यहां भी उपयोग होता समर्थन किया। इन्द [ १६ ]________________

है। देखो, ये कितने कोमल हैं। यह कहकर इन्द्रदेव ने दो-तीन गिरे हुए परों को उठाकर शैला के हाथ में दे दिया। ‘फाइन'!-नहीं-नहीं, माफ करो इन्द्रदेव! अच्छा, इन्हें कहूं कोमल। सुंदर!—कहती हुई, शैला ने हंस दिया। शैला! इनके लिए मेरे देश में एक कहावत है। यहां के कवियों ने अपनी कविता में इनका बड़ा करुण वर्णन किया है। गंभीरता से इन्द्रदेव ने कहा। क्या . इन्हें चक्रवाक कहते हैं। इनके जोड़े दिन-भर तो साथ-साथ घूमते रहते हैं, किंतु संध्या जब होती है, तभी ये अलग हो जाते हैं। फिर ये रात-भर नहीं मिलने पाते। कोई रोक देता है क्या? प्रकृति; कहा जाता है कि इनके लिए यही विधाता का विधान है। ओह। बड़ी कठोरता है।—कहती हुई शैला एक क्षण के लिए अन्यमनस्क हो गई। कुछ दूर चुपचाप चलने पर इन्द्रदेव ने कहा-शैला। हम लोग नीम के पास आ गए। देखो, यही सीढ़ी है; चलो देखें, चौबे क्या कर रहा है। पालना नहीं-नहीं-पालकी तो पहुंच गई होगी इन्द्रदेव। यह भी कोई सवारी है? तुम्हारे यहां रईस लोग इसी पर चढ़ते हैं— आदमियों पर। क्यों? बिना किसी बीमारी के! यह तो अच्छा तमाशा है! —कहकर शैला ने हंस दिया। अब तो बीमारों के बदले डॉक्टर ही यहां पालकी पर चढ़ते हैं शैला! लो, पहले तुम्हीं सीढ़ी पर चढ़ो। ___दोनों सीढ़ी पर चढ़कर बातें करते हुए बनजरिया में पहुंचे। देखते हैं, तो चौबेजी अपने सामान से लैस खड़े हैं। शैला ने हंसकर पूछा-चौबेजी! आप तो पालकी पर जाएंगे? मुझे हुआ क्या है। रामदीन को आज बिना मारे मैं न छोडूंगा। सरकार! उसने बड़ा तंग किया। मुझे गोद में उठाकर पालकी पर बिठाता था। छावनी पर चलकर उस बदमाश छोकरे की खबर लूंगा। बरा क्या करता था? मेरे कहने से वह बेचारा तो तम्हारी सेवा करना चाहता था और तुम चिढ़ते थे। अच्छा, चलो तुम पालकी में बैठो।— इन्द्रदेव ने कहा। फिर वही—पालकी में बैठो! क्या मेरा ब्याह होगा? ठहरो भी, तुम्हारा घुटना तो टूट गया है न। तुम चलोगे कैसे? तेल क्या था, बिल्कुल जादू! मेम साहब ने जो दवा का बॉक्स मेरे बटुए में रख दिया था-वही, जिसमें सागूदाना की-सी गोलियां रहती हैं—मैं खोल डाला। एक शीशी गोली खा डाली। न गुड तीता न मीठा–सच मानिए मेम साहब। आपकी दवा मेरे-जैसे उजड्डों के लिए नहीं। मेरा तो विश्वास है कि उस तेल ने मुझे रातभर में चंगा कर दिया। मैं अब पालकी पर न चढूंगा। गांव-भर में मेरी दिल्लगी राम-राम!! शैला हँस रही थी। इन्द्रदेव ने कहा-चौबे! होमियोपैथी में बीमारी की दवा नहीं होती, दवा की बीमारी होती है। क्यों शैला! इन्द्रदेव! तुमने कभी इसका अनुभव नहीं किया है। नहीं तो इसकी हंसी न उड़ाते। [ १७ ] अच्छा, चलो उस लड़की को तो बुलावें। वह कहां है? उसे कल कुछ इनाम नहीं दिया। बड़ी अच्छी लड़की है। झोपड़ी में से लठिया टेकते हुए बुड्ढा निकल आया। उसके पीछे बंजो थी। शैला ने दौड़कर उसका हाथ पकड़ लिया, और कहने लगी-ओह! तुम रात को चली आईं, मैं तो खोज रही थी। तुम बड़ी नेक,...!

बंजो आश्चर्य से उसका मुंह देख रही थी। इन्द्रदेव ने कहा-बुड्ढे। तुम बहुत बीमार हो न? हां सरकार! मुझे नहीं मालूम था, रात को आप...

उसका सोच मत करो। तुम कौन कहानी कह रहे थे—रात को बंजो को क्या सुना रहे थे? मुझको सुनाओगे, चलो छावनी पर।

सरकार; मैं बीमार हूं। बुड्ढा हूं। बीमार हूं।

शैला ने कहा ठीक इन्द्रदेव, अच्छा सोची। इस बुड्ढे की कहानी बड़ी अच्छी होगी। लिवा चलो इसे। बंजो तुम्हारी कहानी हम लोग भी सुनेंगे। चलो।

इन्द्रदेव ने कहा—अच्छा तो होगा।

चौबेजी ने कहा—अच्छा तो होगा सरकार! मैं भी मधुवा को साथ लिवा चलूंगा। शायद फिर घुटना टूटे, तेल मलवाना पड़े और इन गायों को भी हांक ले चलूं, दूध भी—

सब हँस पड़े; परंतु बुड्ढा बड़े संकट में पड़ा। कुछ बोला नहीं; वह एकटक शैला का मुंह देख रहा था। एक अपरिचित! किंतु जिससे परिचय बढ़ाने के लिए मन चंचल हो उठे। माया-ममता से भरा-पूरा मुख!

बुड्ढा डरा नहीं, वह समीप होने की मानसिक चेष्टा करने लगा। साहस बटोरकर उसने कहा—सरकार! जहां कहिए, वहीं चलूं।