ज्ञानयोग/८. जगत् (बहिर्जगत्)
८. जगत्
( बहिर्जगत् )
सुन्दर पुष्पराशि चारों ओर सुगन्ध फैला रही है, प्रभात का सूर्य अत्यन्त सुन्दर रक्तवर्ण होकर उदित हो रहा है। प्रकृति नाना प्रकार के विचित्र रंगो से सजकर शोभायमान हो रही है, समस्त जगत्ब्रह्माण्ड सुन्दर है, और मनुष्य जब से पृथ्वी पर आया है तभी से इसका भोग कर रहा है। पर्वतमालाये गम्भीर भावव्यंजक एवं भय उत्पन्न करनेवाली हैं, प्रबल वेग से समुद्र की ओर बहने वाली नदियाँ, पदचिन्हों से रहित मरु देश, अनन्त असीम सागर, तारो से भरा आकाश, ये सभी गम्भीर भावों से पूर्ण और भयोद्दीपक है—फिर भी मनोहर हैं। प्रकृति शब्द से कही जानेवाली सभी सत्ताये अति- प्राचीन, स्मृति-पथ के अतीत काल से मनुष्य के मन के ऊपर कार्य कर रही है, वे मनुष्य की विचारधारा के ऊपर क्रमशः प्रभाव बढ़ा रही है और इस प्रभाव की प्रतिक्रिया रूप में क्रमशः मनुष्य के हृदय में यह प्रश्न उठ रहा है कि यह सब क्या है और इसकी उत्पत्ति कहाँ से हुई? अति प्राचीन मानव-रचना वेद के प्राचीन भाग में भी 'इसी प्रश्न की जिज्ञासा हम देखते है। यह सब कहाँ से आया? जिस समय अस्ति, नास्ति कुछ भी नहीं था, जब अन्धकार अन्धकार से ढँका हुआ था तब किसने इस जगत का सृजन किया? कैसे किया? कौन इस रहस्य को जानता है? आज तक यही प्रश्न चला आ रहा है। लाखो बार इसका उत्तर देने की चेष्टा की गई है, किन्तु फिर भी लाखों बार उसका उत्तर पुनः देना पड़ेगा। ये सभी उत्तर भ्रमपूर्ण हो, ऐसी बात नहीं है। प्रत्येक उत्तर में कुछ न कुछ सत्य अवश्य है―कालचक्र के साथ साथ इस सत्य का भी क्रमशः बल बढ़ेगा। मैने भारत के प्राचीन दार्शनिको के निकट इस प्रश्न का जो उत्तर संग्रह किया है, उसको आजकल के मानवीय ज्ञान के साथ मिला कर आपके सामने रखने की चेष्टा करूँगा।
हम देखते है कि इस प्राचीनतम प्रश्न के कई विषय पहले से ही विदित थे। प्रथम तो―"जब अस्ति नास्ति कुछ भी नहीं था"― इस प्राचीन वैदिक वाक्य से प्रमाणित होता है कि एक समय जगत् नही था―ये ग्रह नक्षत्र, हमारी धरती माता, सागर, महासागर, नदी, शैलमाला, नगर, ग्राम, मानवजाति, अन्य प्राणी, उद्भिद, पक्षी, यह अनन्त प्रकार की सृष्टि, एक समय था जब यह नहीं थी―यह बात पहले से ही मालूम थी। क्या हम इस विषय में निःसन्देह है? यह सिद्धान्त किस प्रकार प्राप्त हो गया यह समझने की हम चेष्टा करेगे। मनुष्य अपने चारो ओर क्या देखता है? एक छोटे से उद्भिद को ही लीजिये। मनुष्य देखता है कि उद्भिद धीरे धीरे मिट्टी को हटा कर उठता है, अन्त में बढ़ते बढ़ते एक विशाल वृक्ष हो जाता है, फिर वह मर जाता है―केवल बीज छोड़ जाता है, मानो वह घूम फिर कर एक वृत्त को पूरा करता है। बीज से ही वह निकलता है, फिर वृक्ष हो जाता है और उसके बाद फिर बीज में ही परिणत हो जाता है। पक्षी को देखिये, किस प्रकार वह अण्डे में से निकलता है, सुन्दर पक्षी का रूप धारण करता है, कुछ दिन जीवित रहता है, अन्त में मर जाता है, और छोड़ जाता है अन्य कई अण्डे अर्थात् भविष्य के पक्षियों के बीज। तिर्यग्जातियों के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार होता है और मनुष्य के सम्बन्ध में भी। प्रत्येक पदार्थ के ही जैसे कुछ बीज होते है, कुछ मूल उपादान होते है, कुछ सूक्ष्म आकार से लेकर स्थूल से स्थूलतर होते जाते है। कुछ समय तक ऐसे ही चलता है, फिर उसी सूक्ष्म रूप में जा कर उनका लय हो जाता है। वृष्टि की एक बूँद जिसके भीतर इस समय सुन्दर सूर्यकिरणे खेल रही है, वायु के सहारे बहुत दूर जाकर पर्वत पर पहुँचता है, वहाँ बर्फ में परिणत हो जाता है, फिर जल बन जाता है और सैकड़ों मील की यात्रा करके अपने उत्पत्तिस्थान समुद्र में पहुँच जाता है। हमारे चारो ओर स्थित समस्त प्रकृति का यही नियम है; और हम जानते है कि आजकल बर्फ की चट्टाने और नदियाँ बड़े बड़े पर्वतों क ऊपर क्रिया कर रही है, वे धीरे धीरे और निश्चित रूप से उन्हें (पर्वतों को) घिस रही है, घिस कर उन्हे बालू कर रही है, वही बालू समुद्र में जाकर गिर रही है― समुद्र के अन्दर स्तर पर स्तर जम रही है, अन्त में वह पहाड़ की भाँति सख्त हो जाती है और भविष्य में वही पर्वत बन जायगी। फिर वह पिस कर बालू बन जायगी―बस यही क्रम है। बालुका से इन पर्वतमालाओं की उत्पत्ति है और बालुका में ही इनकी परिणति है। बड़े बड़े नक्षत्रों के सम्बन्ध में भी यही बात है; हमारी यह पृथ्वी भी नीहारिकामय एक विशेष पदार्थ (Nebulae) से प्रारम्भ होकर क्रमशः शीतल होती गई, अन्त में हमारे निवास करने की भूमि के रूप में एक विशेष आकृति की धरणी बन गई। भविष्य में यह और भी शीतल होते होते नष्ट हो जायगी, खण्ड खण्ड हो जायगी, धूल हो जायगी, और फिर उसी मूल नीहारिकामय सूक्ष्म रूप में परिणत हो जायगी। प्रतिदिन हमारी आँखों के सामने यही हो रहा है, स्मृति के अतीत काल से ही यह हो रहा है। यही मनुष्य का समस्त इतिहास है, प्रकृति का इतिहास है, जीवन का इतिहास है।
यदि यह सत्य हो कि प्रकृति अपने सभी कार्यों में समप्रणालीबद्ध (Uniform) है और आज तक किसी ने भी इसका खण्डन नहीं किया कि एक छोटा सा बालू का कण जिस प्रणाली और नियम से सृष्ट होता है, प्रकाण्ड सूर्य, तारे, यहाँ तक कि सम्पूर्ण जगत्ब्रह्माण्ड की सृष्टि में भी वही प्रणाली, वही एक नियम है; यदि यह सत्य हो कि एक परमाणु जिस कौशल से बनता है, समस्त जगत् भी उसी कौशल से बनता है; यदि यह सत्य हो कि एक ही नियम समस्त जगत् में प्रतिष्ठित है तो प्राचीन वैदिक भाषा में हम कह सकते हैं, "एक ढेला मिट्टी को जान कर हम जगत्ब्रह्माण्ड में जितनी मिट्टी है उस सबको जान सकते है।" एक छोटे से उद्भिद को लेकर उसके जीवनचरित की आलोचना करके हम जगत्ब्रह्माण्ड का स्वरूप जान सकते हैं। बालू के एक कण की गति का पर्यवेक्षण करके हम समस्त जगत् का रहस्य जान सकेगे। अतएव ऊपर की हुई आलोचना के परिणाम को जगत्ब्रह्माण्ड के ऊपर प्रयोग करके हम यही देखते है कि सभी वस्तुओं का आदि और अन्त प्रायः एक सा होता है। पर्वत की उत्पत्ति बालुका से, और बालुका में ही उसका अन्त है; वाष्प से नदी बनती है और फिर वाष्प हो जाती है; बीज से उद्भिद होता है और फिर बीज बन जाता है; मानव जीवन मनुष्य के जीवाणु रूपी बीज से आता है और फिर जीवाणु में ही चला जाता है। नक्षत्र-पुञ्ज, नदी, ग्रह, उपग्रह सब नीहारिका-अवस्था से बनते है और फिर उसी अवस्था में लौट जाते है। इससे हम क्या सीखते है? सीखते यही हैं कि व्यक्त अर्थात् स्थूल अवस्था कार्य है; सूक्ष्म भाव उसका कारण है। सभी दर्शनों के जनक स्वरूप महर्षि कपिल बहुत दिन पहले प्रमाणित कर चुके है, "नाशः कारणलयः।"
यदि इस मेज़ का नाश हो जाय तो यह केवल अपने कारण रूप मे लौट जायगी--वह सूक्ष्म रूप भी उन परमाणुओं मे बदल जायगा जिनके मिश्रण से यह मेज़ नामक पदार्थ बना था। मनुष्य जब मर जाता है तो जिन पञ्च भूतों से उसके शरीर का निर्माण हुआ था उन्ही मे उसका लय हो जाता है। इस पृथ्वी का जब ध्वंस हो जायगा तब जिन भूतों को मिलाकर इसका निर्माण हुआ था उन्ही मे वह फिर परिणत हो जायगी। इसी को नाश अर्थात्
कारणलय कहते है। अतएव हमने सीखा कि कार्य और कारण अभिन्न है-भिन्न नहीं; कारण ही विशेष रूप धारण करने पर कार्य कहलाता है। जिन उपादानो से इस मेज़ की उत्पत्ति हुई वे ही कारण हैं और मेज़ कार्य; और वे ही कारण मेज़ के रूप मे वर्तमान है। यह गिलास भी कार्य है--इसके कई कारण थे, वे ही कारण इस कार्य मे हम अब भी वर्तमान देख रहे है। 'गिलास' (कॉच) नामक कुछ पढार्थ और उसके साथ साथ बनानेवाले के हाथों की शक्ति ये दोनों कारण--निमित्त और उपादान ये दोनों कारण--मिलकर गिलास नामक यह आकार बना है। ये दोनों ही कारण वर्तमान हैं। जो शक्ति किसी यंत्र के चक्र मे थी वह संयोजक
(Adhesive) शक्ति के रूप में वर्तमान है--उसके न रहने पर गिलास के छोटे छोटे खण्ड पृथक् होकर गिर जाते--और यह 'गिलास' काँच रूप उपादान भी वर्तमान है। गिलास केवल इन सूक्ष्म कारणो की एक भिन्न रूप मे परिणति मात्र है एवं यही गिलास यदि तोड़कर फेक दिया जाय तो जो शक्ति संहति (Adhesive Power) के रूप मे इसमे वर्तमान थी, वह फिर लौट कर अपने उपादान मे मिल जायेगी, और गिलास के छोटे छोटे टुकड़े फिर अपना पूर्व रूप धारण कर लेगे और तब तक उसी रूप मे रहेगे जब तक फिर एक नया रूप धारण न कर लेगे।
अतएव हमने देखा कि कार्य सभी कारण से भिन्न नहीं होता। वह तो उसी कारण का पुनः आविर्भाव मात्र है। उसके बाद हमने सीखा कि ये सब छोटे छोटे रूप, जिन्हे हम उद्भिद अथवा तिर्यग्जाति अथवा मानव जाति कहते है वे सव अनन्त काल से उठते गिरते, घूमते फिरते आ रहे है। बीज से वृक्ष हुआ, वृक्ष फिर बीज होता है, फिर वह एक वृक्ष बनता है, वह फिर बीज होता है, फिर उससे वृक्ष बनता है--इसी प्रकार चल रहा है, इसका कहीं अन्त नहीं है। जल की बूॅदे पहाड़ पर गिर कर समुद्र मे जाती है, फिर वाष्प होकर उठती है--फिर पहाड़ पर पहुॅचती हैं और नदी मे लौट आती हैं। उठता है, गिरता है, गिरता है, उठता है--इसी प्रकार युगो का चक्र चल रहा है। समस्त जीवन का यही नियम है–-समस्त अस्तित्व जोहम देखते, सोचते, सुनते और कल्पना करते है, जो कुछ भी हमारे ज्ञान की सीमा के भीतर है, वह सब इसी प्रकार चल रहा है, ठीक जैसे मनुष्य के शरीर में श्वास-प्रश्वास अतएव समस्त सृष्टि इसी प्रकार चल रही है। एक तरंग उठती है, एक गिरती है, फिर उठती है, फिर गिरती है। प्रत्येक तरंग के साथ एक अवनति है, प्रत्येक अवनति के साथ एक तरंग है। समस्त ब्रह्माण्ड में समप्रणाली होने के कारण एक ही नियम चलेगा। अतएव हम देखते हैं कि समस्त ब्रह्माण्ड एक समय अपने कारण में लय होने को बाध्य है; सूर्य, चन्द्र, ग्रह, तारे, पृथ्वी, मन, शरीर, जो कुछ भी इस ब्रह्माण्ड में हैं, सभी पदार्थ अपने सूक्ष्म कारण मे लीन अथवा तिरोभूत होगे, अपाततः विनष्ट होंगे। वास्तव मे वे सब अपने कारण मे सूक्ष्म रूप मे रहेगे। वे फिर उससे बाहर निकलेगे और पृथिवी, चन्द्र, सूर्य, यहाॅ तक कि समस्त जगत् की सृष्टि होगी।
इस उत्थान और पतन के सम्बन्ध में और भी एक विषय जानने का है। वृक्ष से बीज होता है। किन्तु वह उसी समय फिर वृक्ष नहीं हो जाता। उसको कुछ विश्राम अथवा अति सूक्ष्म अव्यक्त कार्य के समय की आवश्यकता होती है। बीज को कुछ दिन तक मिट्टी के नीचे रह कर कार्य करना पड़ता है। उसे अपने आप को खण्ड खण्ड कर देना होता है तथा एक प्रकार से अपनी अवनति करनी होती है और इसी अवनति से उसकी फिर उन्नति होती है। अतएव इस समस्त ब्रह्माण्ड को ही कुछ समय अदृश्य अव्यक्त भाव से सूक्ष्म रूप में कार्य करना होता है, जिसे प्रलय अथवा सृष्टि के पूर्व की अवस्था कहते हैं, उसके बाद फिर सृष्टि होती है। जगत के इस प्रवाह के एक बार प्रकाशित होने को--अर्थात् सूक्ष्म रूप में परिणति, कुछ दिन तक उसी अवस्था में स्थिति, फिर आविर्भाव--इसी को कल्प कहते हैं। समस्त ब्रह्माण्ड इसी प्रकार कल्पो से चला आ रहा है। प्रकाण्ड ब्रह्माण्ड से लेकर उसके अन्तर्गत प्रत्येक परमाणु तक सभी वस्तुये, इसी प्रकार तरंगाकर मे चलती है।
अब एक जटिल प्रश्न उपस्थित होता है--विशेषतः आजकल की दृष्टि से। हम देखते हैं कि सूक्ष्म रूप धीरे धीरे व्यक्त हो रहे है; क्रमशः स्थूल से स्थूलतर होते जा रहे है। हम देख चुके है कि कारण और कार्य अभिन्न है--कार्य केवल कारण का रूपान्तर मात्र है। अतएव यह ब्रह्माण्ड शून्य मे से उत्पन्न नहीं हो सकता। किसी कारण के बिना वह नहीं आ सकता, इतना ही नहीं, कारण ही कार्य के भीतर सूक्ष्म रूप में वर्तमान है। तब यह ब्रह्माण्ड किस वस्तु से उत्पन्न हुआ है? पूर्ववर्ती सूक्ष्म ब्रह्माण्ड से। मनुष्य किस वस्तु से उत्पन्न होता है? पूर्ववर्ती सूक्ष्म रूप से। वृक्ष कहाॅ से आया? बीज से। समस्त वृक्ष बीज मे वर्तमान था--वह केवल व्यक्त हो गया है। अतएव यह जगत्ब्रह्माण्ड अपनी ही सूक्ष्मावस्था से उत्पन्न हुआ है। अब वह केवल व्यक्त हो गया है। वह फिर अपने सूक्ष्म रूप मे जायगा, फिर व्यक्त होगा। इस प्रकार हम देखते है कि सूक्ष्म रूप व्यक्त होकर स्थूल होता जाता है जब तक कि वह स्थूलता की चरम सीमा पर नहीं पहुॅचता; चरम सीमा पर पहुॅच कर वह फिर उलट कर सूक्ष्म होने लगता है। यह सूक्ष्म से आविर्भाव होना, क्रमशः स्थूल मे परिणत होते जाना--मानो यह केवल उसके अंशो की अवस्थाओं में परिवर्तन होना है--इसी को आजकल 'क्रमविकासवाद' कहते है। यह बिल्कुल सत्य है, सम्पूर्ण रूप से सत्य है; हम अपने जीवन में ही इसको देखते है; किसी भी विचारशील व्यक्ति के इन क्रमविकासवादियों के साथ विवाद की कोई सम्भावना नहीं है। किन्तु हमे एक और भी विषय जानना पड़ेगा--वह यह है कि प्रत्येक क्रमविकास के पूर्व एक क्रमसङ्कोच की प्रक्रिया वर्तमान रहती है। बीज वृक्ष का जनक अवश्य है, परन्तु एक और वृक्ष उसी बीज का जनक है। बीज ही वह सूक्ष्म रूप है जिसमे से बृहत् वृक्ष निकला है, और एक दूसरा प्रकाण्ड वृक्ष इस बीज मे क्रमसङ्कुचित रूप में वर्तमान है। सम्पूर्ण वृक्ष इसी बीज मे विद्यमान है। शून्य मे से कोई वृक्ष उत्पन्न नही हो सकता, किन्तु हम देखते है कि वृक्ष बीज से उत्पन्न होता है और विशेष प्रकार के बीज से विशेष प्रकार का ही वृक्ष उत्पन्न होता है, दूसरा वृक्ष नही होता। इससे सिद्ध होता है कि उस वृक्ष का कारण यही बीज है केवल यही बीज है; और इसी बीज में सम्पूर्ण वृक्ष रहता है। पूरा मनुष्य इसी जीवाणु के भीतर है, और यही जीवाणु धीरे धीरे अभिव्यक्त होकर मानवाकार में परिणत हो जाता है। समस्त ब्रह्माण्ड सूक्ष्म ब्रह्माण्ड में रहता है। सभी कुछ कारण मे अपने सूक्ष्म रूप मे रहता है। अतएव 'क्रमविकास' वाद स्थूल से और स्थूल रूप मे क्रमप्रकाश है--यह बात सत्य है। यह बिलकुल सत्य है; किन्तु इसके साथ ही यह भी समझना होगा कि प्रत्येक क्रमविकास के पूर्व क्रमसङ्कोच की एक प्रक्रिया रहती है; अतएव जो क्षुद्र अणु बाद मे महापुरुष हुआ, वह वास्तव मे उसी महापुरुष के क्रमसंकोच की एक अवस्था है, यही बाद मे महापुरुष-रूप में क्रमविकास को प्राप्त हो जाता है। यदि यही बात सत्य है तो फिर क्रमविकासवादियों (Followers of Darwin's Evolution) के साथ हमारा कोई विवाद नहीं है, कारण, हम क्रमशः देखेंगे कि यदि वे लोग इस क्रमसकोच की प्रक्रिया को स्वीकार करते हैं तब वे धर्म के नाशक न हो कर उसके प्रबल सहायक हैं। अब तक हमने देखा कि शून्य से किसी वस्तु की उत्पत्ति हुई इस हिसाब से सृष्टि नही हो सकती। सभी वस्तुये अनन्त काल से हैं और अनन्त काल तक रहेगी। केवल तरंगो की भाँति एक बार उठती है, फिर एक बार गिरती है। एक बार सूक्ष्म अव्यक्त रूप में जाना, फिर स्थूल व्यक्त रूप मे आना, समस्त प्रकृति में यह क्रमविकास और क्रमसंकोच की क्रिया चल रही है। अतएव समस्त ब्रह्माण्ड प्रकाशित होने के पूर्व अवश्य ही क्रमसङ्कुचित अथवा अव्यक्त अवस्था मे था, अब वह विभिन्न रूपो मे व्यक्त हुआ है--फिर क्रमसङ्कुचित होकर अव्यक्त रूप धारण करेगा। उदाहरण स्वरूप एक क्षुद्र उद्भिद का जीवन लीजिये। हम देखते है कि दो वस्तुये मिलकर इसको एक अखण्ड वस्तु के रूप मे प्रतीत कराती है--उसकी उत्पत्ति और विकास तथा उसका क्षय और विनाश। ये दोनों मिल कर ही उद्भिद-जीवन नामक इस एकत्व का निर्माण करते हैं। इस उद्भिद-जीवन को प्राणशृंखला की
एक कड़ी मानकर हम सभी वस्तुओं को एक प्राणप्रवाह कह कर कल्पना कर सकते हैं जिसका आरम्भ जीवाणु के रूप मे और अन्त पूर्ण मानव के रूप में है। मनुष्य इसी शृखला की एक कड़ी है; और--जिस प्रकार क्रमविकासवादी लोग कहते हैं--नाना प्रकार के वानर और अन्य छोटे छोटे प्राणी एवं उद्भिद इस प्राणशृंखला की अन्यान्य कड़ियाॅ हैं। अब जिस छोटे से टुकड़े से हमने आरम्भ किया था उससे लेकर इस समस्त को एक प्राणप्रवाह कह कर कल्पना करो और प्रत्येक क्रमविकास के पूर्व जो क्रमसङ्कोच की क्रिया विद्यमान है--इस नियम को यहाॅ लगाने से हमें स्वीकार करना पड़ेगा कि अति क्षुद्र जन्तु से लेकर सर्वोच्च पूर्णतम मनुष्य पर्यन्त सम्पूर्ण श्रेणी अवश्य ही किसी अन्य वस्तु का क्रमसकोच होगी। किसका क्रमसकोच होगी? यही प्रश्न है। कौन-
सा पदार्थ क्रमसङ्कुचित हुआ था? क्रमविकासवादी लोग कहेंगे कि तुम्हारी ईश्वर सम्बन्धी धारणा भूल है। कारण, तुम लोग कहते हो कि चैतन्य ही जगत् का स्रष्टा है किन्तु हम प्रतिदिन देखते हैं कि चैतन्य बहुत वाद मे आता है। मनुष्य अथवा उच्चतर जन्तुओं में ही हम चैतन्य को देखते है किन्तु इस चैतन्य का जन्म होने से पूर्व इस जगत् मे लाखो वर्ष बीत चुके है। जो भी हो, आप इन क्रमविकासवादियों की बातों से डरिए मत, आपने अभी जो नियम आविष्कृत किया है उसका प्रयोग करके देखिये--क्या सिद्धान्त बनता है? आपने तो देखा ही है कि बीज से ही वृक्ष का उद्भव है और बीज मे ही परिणति। इसलिये आरम्भ और परिणाम समान हुये। पृथ्वी की उत्पत्ति उसके कारण से है और कारण मे ही उसका विलय है। सभी वस्तुओं के सम्बन्ध मे यही बात है--हम देखते हैं कि आदि और अन्त दोनो समान हैं। इस शृंखला का अन्त कहाॅ है? हम जानते हैं कि आरम्भ जान लेने पर हम अन्त भी जान सकते हैं। इसी प्रकार अन्त जान लेने पर आदि भी जाना जा सकता है। इस समस्त 'क्रमविकासशील' जीवप्रवाह को--जिसका एक छोर जीवाणु है, दूसरा पूर्ण मानव--इस समष्टि को, एक ही वस्तु है ऐसा समझ लो। इस श्रेणी के अन्त में भी हम पूर्ण मानव को देखते हैं, अतएव आदि में भी वह होगा ही-यह निश्चित है। अतएव यह जीवाणु अवश्य ही उच्चतम चैतन्य की क्रमसंकुचित अवस्था है। आप इसको स्पष्ट रूप से भले ही न देख सके किन्तु वास्तव में वही क्रमसंकुचित चैतन्य ही अपने को अभिव्यक्त कर रहा है और इसी प्रकार अपने को अभिव्यक्त करता रहेगा जब तक वह पूर्णतम मानव के रूप मे अभिव्यक्त न हो जायगा। यह तत्व गणित के द्वारा निश्चित रूप से प्रमाणित किया जा सकता है। यदि शक्तिसातत्य का नियम (Law of conservation of energy) सत्य प्रमाणित होगया तो यह बात जरूर माननी पड़़े़ेगी कि यदि तुम किसी यंत्र मे पहले से किसी शक्ति का प्रयोग न करो तो उससे तुम कोई काम प्राप्त नहीं कर सकोगे। एजिन मे पानी व कोयले के रूप मे जितनी शक्ति का प्रयोग होगा ठीक उसी हद तक तुम्हें उसमे से काम मिल सकता है, उससे जरा भी कम या अधिक नही। मैने अपनी देह मे वायु, खाद्य और अन्यान्य पदार्थों के रूप मे जितनी शक्ति का प्रयोग किया है उतनी ही हद तक कार्य करने मे मै समर्थ होऊॅगा। केवल उन शक्तियों ने अपना रूप बदल डाला है। इस विश्वब्रह्माण्ड में जड़ का एक परमाणु या शक्ति का एक क्षुद्र अंश भी हम घटा या बढ़ा नहीं सकते। यदि ऐसा ही हो तो यह चैतन्य क्या चीज़ है? यदि वह जीवाणु मे वर्तमान न होगा तो यह मानना पड़़ेगा कि उसकी उत्पत्ति जरूर आकस्मिक होगी--किन्तु फिर साथ ही साथ हमे यह भी स्वीकार करना होगा कि असत् (कुछ नहीं) से सत् (कुछ) बना है, लेकिन यह है बिल्कुल असंभव। इसलिए यह बात निस्सन्देह प्रमाणित होती है कि जैसा हम दूसरे विषयों में देखते है कि जहाॅ आरम्भ होता है वहीं अन्त भी होता है। केवल कभी वह अव्यक्त रह जाता है, कभी व्यक्त होता है। इसी प्रकार वे पूर्ण मानव मुक्त पुरुष, देव मानव जो प्रकृति के नियमो से बाहर है, जिन्होंने सब कुछ पार कर लिया है, जिन्हें इस जन्ममृत्यु के मार्ग से आना जाना नहीं पड़ता, जिन्हे ईसाई सिस्ट-मानव, बौद्ध बुद्ध-मानव और योगी मुक्त पुरुष कहते है वे पूर्ण मानव ही इस शृंखला का एक
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छोर है और वे ही क्रमसकुचित होकर उसके दूसरे छोर मे जीवाणु के रूप मे प्रकट होते है।
अब यह आलोचना की जाय कि इस ब्रह्माण्ड के कारण के सम्बन्ध मे क्या सिद्धान्त है। इस जगत का अन्तिम परिणाम क्या है? क्या चैतन्य ही वह नही है? ससार की सब से आखिरी वस्तु है चैतन्य। फिर जब क्रमविकासवादियों के मतानुसार यह चैतन्य सृष्टि की शेष वस्तु बनी तो फिर चैतन्य ही सृष्टि का नियन्ता, सृष्टि सृजन का कारण होगा। जगत के विषय में मानव की सर्वश्रेष्ट धारणा क्या हो सकती है? मानव यही धारणा कर सकता है कि जगत का एक भाग दूसरे भाग से सम्बन्धित है और जागतिक प्रत्येक वस्तु मे ज्ञान की क्रिया का विकास है। प्राचीन उद्देश्यवाद (Design Theory) इसी धारणा का अस्फुट आभास है। हम जड़वादियों के साथ यह मानने को तैयार है कि चैतन्य ही जगत की शेष वस्तु है--सृष्टिक्रम मे यही है शेष विकास, परन्तु साथ ही साथ हम यह भी कहते है कि यह शेष विकास हो तो आरम्भ मे भी यही वर्तमान था। जड़वादी कह सकते है, अच्छा, यह तो ठीक है किन्तु मनुष्य जाति के जन्म के पहले जो लाखो वर्ष व्यतीत हुए थे उस समय तो ज्ञान का कोई अस्तित्व नही था। इस बात का उत्तर हम यों देगे कि हॉ, व्यक्त रूप मे चैतन्य नहीं था, लेकिन अव्यक्त रूप मे इसकी उपस्थिति जरूर थी और यह तो एक मानी हुई बात है कि पूर्ण मानव रूप में प्रकाशित चैतन्य ही है सष्टि का अन्त। फिर आदि क्या है? आदि भी चैतन्य है। पहले वही चैतन्य क्रमसकुचित होता है, अन्त मे वही फिर क्रमविकसित होता है। अतएव इस जगतब्रह्माण्ड मे जो ज्ञानराशियाॅ अब अभिव्यक्त हो रही है वे अवश्य ही केवल उसी क्रमसंकुचित सर्वव्यापी चैतन्य की अभिव्यक्ति है। इसी सर्व-व्यापी विश्वजनीन चैतन्य का नाम है ईश्वर। उसको किसी भी नाम से पुकारो यह निश्चित है कि आदि में वही अनन्त विश्वव्यापी चैतन्य था। वही विश्वजनीन चैतन्य क्रम- संकुचित हुआ था। फिर वही अपने को क्रमशः अभिव्यक्त कर रहा है जब तक कि वह पूर्ण-मानव या ख्रिस्ट-मानव या बुद्ध-मानव मे परिणत न हो। तब वह फिर निजी उत्पत्ति के स्थान पर लौट आता है। इसलिए सभी शास्त्र कहते है, "हम उनमे जीवित है, उनमें ही रहकर चलते है, उनमे हमारी सत्ता है।" इसीलिए फिर शास्त्र कहते है, "हम ईश्वर से आये है, फिर उनमे ही लौट जायेगे।" विभिन्न परिभाषाओ से मत डरो, परिभाषा से अगर डर जाओ तो तुम लोग दार्शनिक नहीं बन सकोगे। ब्रह्मवादी इस विश्वव्यापी चैतन्य को ही ईश्वर कहते है।
कई लोगो ने कई बार मुझसे पूछा है, "आप क्यो इस पुराने 'ईश्वर' (God) शब्द का व्यवहार करते है? इसका उत्तर यह है कि पूर्वोक्त विश्वव्यापी चैतन्य समझाने के लिए जितने शब्दो का व्यवहार किया जा सका है उनमे यही सर्वोत्तम है। उससे अच्छा और कोई शब्द नहीं मिल सकता है, क्योंकि मानवो की सारी आशाये और सुख उसी एक शब्द मे केन्द्रीभूत हैं। अब इस शब्द को बदल डालना असंभव है। जब बड़े बड़े साधु महात्माओ ने ऐसे शब्दो को चुन लिया था तो वे ज़रूर इनका तात्पर्य अच्छी तरह समझते थे। धीरे धीरे जब समाज में भी उन शब्दों का प्रचार होता गया तो अज्ञ लोग उन शब्दो का व्यवहार करने लगे। इसका परिणाम यह हुआ कि शब्दों का महत्व घटने लगा। युगो से ईश्वर शब्द प्रयुक्त होता आया है। सर्वव्यापी एक चैतन्य का भाव एंव जो क्या कुछ महान तथा पवित्र है इसी शब्द मे निहित है। यदि कोई निर्बोध इस शब्द का व्यवहार करने कि लिये राजी न हुआ तो हमे भी उसकी बात मान लेनी पड़ेगी? दूसरा कोई आकर कहेगा, "मेरे द्वारा नियोजित यह शब्द अच्छा है इसे स्वीकार करो," फिर तीसरा आयेगा, अपना एक शब्द लेकर। यदि यही क्रम चलता रहा तो ऐसे बेकार शब्दो का कोई अन्त न होगा। इसीलिए मै कह रहा हूॅ कि उस पुराने शब्द का ही व्यवहार करो, लेकिन मन से कुसंस्कारों को दूर कर इस प्राचीन महान शब्द के अर्थ को ठीक तरह से समझ कर उसका और भी उत्तम रूप से व्यवहार करो। यदि तुम लोग भाव-साहचर्य-विधान (Law of Association of ideas) का तात्पर्य समझ जाओ तो तुम्हे पता चलेगा कि इस शब्द से कितने ही महान एव ओजस्वी भावो का संयोग है, लाखो मनुष्यो ने इस शब्द का व्यवहार किया है, करोड़ो आदमियों ने इस शब्द की पूजा की है और जो कुछ सर्वोच्च व सुन्दरतम है, जो कुछ युक्तियुक्त, प्रेमास्पद या मानवी भावो मे महान और सुन्दर है, वही इस शब्द से सम्बन्धित है। अतएव यह सव भावनाओ का उद्दीपक है, इसलिए उसका त्याग करना नितान्त असभव है। जो भी हो, यदि मै आप लोगों को केवल यह कहकर समझाने की चेष्टा करता कि ईश्वर ने जगत की सृष्टि की है तो आप लोगो को उसका कोई अर्थ नहीं सूझता। फिर भी इन सब विचारो के बाद हम उसी प्राचीन पुरुष के पास ही पहुँचे। तो हमने अब क्या देखा? हमे यह अनुभव हुआ कि जड़, शक्ति, मन, चैतन्य या दूसरे नामो से परिचित विभिन्न जागतिक शक्तियाँ उसी विश्वव्यापी चैतन्य के ही प्रकाश है। जो कुछ तुम देखते हो, सुनते हो या अनुभव करते हो सब उन्ही की रचनाये हैं, उन्हीं के परिणाम है। इस कथन से और भी ठीक होगा यदि हम कहे, ये सब प्रभु स्वयं ही है। सूर्य और ताराओ के रूप में वे ही उज्ज्वल भाव से विराजते है, वे ही जननी है, धरणी है और समुद्र भी है। वे ही बादलो के रूप में बरसते है, वे ही फिर वह पवन है जिससे हम साँस ले सकते है, वे ही शक्ति बनकर हमारे शरीर में कार्य कर रहे है। वे ही भाषण है, भाषणदाता है, फिर सुनने वाले भी है। वे ही यह सच है जिस पर मैं खड़ा हूँ, फिर वे ही वह आलोक है जिससे मै तुम्हे देख पाता हूँ; ये सब वे ही है। वे जगत के उपादान व निमित्त कारण हैं, क्रम- सकुचित होकर वे ही अणु का रूप लेते हैं, फिर वे ही क्रमविकसित होकर ईश्वर बन जाते है। वे ही धीरे धीरे अवनत होते है और पर- माण का आकार प्राप्त करते है, फिर समय होते ही अपने रूप में अपने को प्रकाशित करते है और यही जगत का रहस्य है। "तुम्ही पुरुष हो, तुम्ही स्त्री हो, यौवन की चपलता से भरे हुए भ्रमणशील नवयुवक भी भी तुम हो, फिर तुम बुढापे में लाठी के सहारे कदम बढ़ाते हो, तुम ही सब वस्तुओ में हो, हे प्रभु तुम ही सब हो।" जगत-प्रपच की केवल इसी व्याख्या से मानवयुक्ति, मानवबुद्धि परितृप्त होती है। साराश यह कि हम उनसे जन्म लेते है, उन्हीं में जीवित रहते है और उन्ही में लौट जाते है।
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यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।