ज्ञानयोग/२. माया
२. माया
(लन्दन में दिया हुआ भाषण)
माया शब्द प्रायः आप सभी ने सुना होगा। इसका व्यवहार साधारणतः कल्पना, कुहक अथवा इसी प्रकार के किसी अर्थ में किया जाता है, किन्तु यह इसका वास्तविक अर्थ नहीं है। मायावाद रूप एक स्तम्भ पर वेदान्त की स्थापना हुई है, अतः उसका ठीक ठीक अर्थ समझ लेना आवश्यक है। मैं तुमसे तनिक धैर्य की अपेक्षा रखता हूँ, क्योंकि मुझे बड़ा भय है कि कहीं तुम उसे (माया के सिद्धान्त को) ग़लत न समझ लो।
वैदिक साहित्य में कुहक अर्थ में ही माया शब्द का प्रयोग देखा जाता है। यही माया शब्द का सबसे प्राचीन अर्थ है। किन्तु उस समय वास्तविक मायावाद-तत्त्व का उदय नहीं हुआ था। हम वेद में इस प्रकार का वाक्य देखते हैं―"इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते," अर्थात् इन्द्र ने माया द्वारा नाना रूप धारण किये। यहाँ पर माया शब्द इन्द्रजाल अथवा उसी के समान अर्थ में व्यवहृत हुआ है। वेदों के अनेक स्थलों में माया शब्द इसी अर्थ में व्यवहृत हुआ देखा जाता है। इसके बाद कुछ काल तक माया शब्द का व्यवहार एकदम लुप्त हो गया। किन्तु इसी बीच तत्प्रतिपाद्य जो अर्थ या भाव था वह क्रमशः परिपुष्ट हो रहा था। इसके बाद के समय में एक प्रश्न देखा जाता है, "हम जगत् के गुप्त रहस्य को क्यों नहीं जान पाते है?" और इसका इस प्रकार निगूढ़ भाव व्यञ्जक उत्तर प्राप्त होता है:― "हम सब व्यर्थ जल्पना करते है, हम इन्द्रिय-सुख से परितृप्त होने वाले और वासनापर है, अतएव इस सत्य को नीहारावृत करके रखते हैं"―"नीहारेण प्रावृता जल्प्या चासुतृप उकथशासश्चरन्ति![१] यहाँ पर माया शब्द का व्यवहार तो बिलकुल ही हुआ नहीं, किन्तु इससे यही भाव प्रकट होता है कि हमारी अज्ञता का जो कारण निर्धारित हुआ है वह इस सत्य और हमारे बीच कुज्झटिका के समान वर्तमान है। अब इसके बहुत समय के बाद, अपेक्षाकृत आधुनिक उपनिषदों में माया शब्द का फिर आविर्भाव देखने में आता है। किन्तु इसी बीच में इसका प्रभूत रूपान्तर हो चुका है; उसके साथ कई नये अर्थ संयोजित हो गये है; नाना प्रकार के मतवाद प्रचारित और पुनरुक्त हुये है; और अन्त में माया विषयक धारणा एक स्थिर रूप प्राप्त कर चुकी है। हम श्वेताश्वतर उपनिषद् में पढ़ते हैं―"मायान्तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनन्तु महेश्वरम्।"―माया को ही प्रकृति समझो और मायी को महेश्वर जानो। भगवान शंकराचार्य के पूर्ववर्ती दार्शनिक पण्डितों ने इसी माया शब्द का विभिन्न अर्थों में व्यवहार किया है। मालूम होता है, बौद्धों ने भी माया शब्द या मायावाद को कुछ रञ्जित किया है। किन्तु बौद्धों ने इसको प्रायः विज्ञानवाद[२]
(Idealism) में परिणत कर दिया था और माया शब्द इसी अर्थ
में साधारणतः आजकल व्यवहृत होता है। हिन्दू लोग जब जगत् को "मायामय" बताते है तब साधारण मनुष्य के मन में यही भाव उदय होता है कि "जगत् कल्पना मात्र है।" बौद्धो की इस प्रकार की व्याख्या का कुछ आधार है; कारण, एक श्रेणी के दार्शनिक पहले बाह्य जगत् के अस्तित्व में बिलकुल ही विश्वास नहीं करते थे। किन्तु वेकान्त में वर्णित माया का अन्तिम निश्चित स्वरूप,―विज्ञानवाद, बास्तववाद† (Realism) अथवा किसी प्रकार का मतवाद नहीं है। हम क्या हैं, और अपने चारो ओर हम क्या देखते है, इस सम्बन्ध में प्रकृत घटना का यह सहज वर्णनमात्र है। मैं आपसे पहले ही कह चुका हूँ कि जिनके अन्तःकरण से वेद निकले उनकी चिन्ताशक्ति मूल तत्व की खोज में तथा आविष्कार में ही लगी हुई थी। इन सब तत्त्वों का विस्तृत अनुशीलन करने के लिए मानों उन्हें अवसर ही नहीं मिला और उन्होने इसकी आवश्यकता भी नहीं समझी। वे तो वस्तु-मात्र के अन्तरतम प्रदेश में पहुँचने के लिये ही व्यग्र थे। ऐसा जान पड़ता है मानो उस पार उन्हें कोई बुला रहा था। अत: वे ठहर नहीं सकते थे। वस्तुतः उपनिपदो में इधर उधर बिखरी हुई आधुनिक विज्ञान की विषयीभूत विशेष प्रतिपत्ति बहुधा भ्रमात्मक होते हुये भी उनके मूल तत्वो के साथ विज्ञान के मूल तत्वो का कोई प्रभेद नहीं है। यहाँ पर एक दृष्टान्त दिया जाता है। आधुनिक विज्ञान का ईथर (Ether) अथवा आकाशविषयक नवीन तत्व उप- निषदो में विद्यमान है। यह आकाश-तत्व आधुनिक वैज्ञानिकों के
†जगत् केवल हमारे मन की अनुभूतिमात्र नहीं है, उसकी वास्तविक सत्ता है, इस मत को वास्तववाद या Realism कहते हैं। ईथर की अपेक्षा अधिक परिपुष्ट रूप से पाया जाता है। किन्तु वह मूल तत्त्व में ही पर्यवसित था। वे लोग इस आकाशतत्त्व के कार्य की व्याख्या करते समय बहुत से भ्रमो में पड़ गये थे। जगत् की सम्पूर्ण जीवनी शक्ति जिसका विभिन्न विकास मात्र है वही सर्वव्यापी जीवनी शक्ति-तत्व वेद में―उसके ब्राह्मणांश में ही प्राप्त हो जाता है। संहिता के एक बड़े मंत्र में समस्त जीवनी शक्ति के विकासक प्राण की प्रशंसा की गई है। इसी सम्बन्ध में आप लोगों में से कुछ को यह जानकर आनन्द होगा कि आधुनिक योरोपीय वैज्ञानिको के सिद्धान्तो के सदृश इस पृथिवी के जीवो की उत्पत्ति का सिद्धान्त वैदिक दर्शनों में पाया जाता है। आप सभी निश्चय ही जानते है कि जीव अन्य ग्रहों से संक्रामित होकर पृथ्वी पर आता है, ऐसा एक मत प्रचलित हैं। जीव चन्द्रलोक से पृथ्वी पर आता है, किसी किसी वैदिक वैज्ञानिक का यही स्थिर मत है।
मूल तत्त्व के सम्बन्ध में हम देखते है कि उन्होने व्यापक साधारण तत्त्वो की छानबीन में अतिशय साहस और आश्चर्यजनक निर्भीकता का परिचय दिया है। बाह्य जगत् से इस विश्व-रहस्य के मर्म को निकालने में उन्हे यथा सम्भव उत्तर मिला। और, इस प्रकार उन्होने जितने मूल तत्त्वो का आविष्कार किया था उससे जगत् के रहस्य की ठीक मीमांसा जब नहीं हो सकी, तब, आधुनिक विज्ञान की विशेष प्रतिपत्ति भी उसकी मीमांसा में अधिक सहायक न हो सकेगी, यह निश्चित है। यदि प्राचीन काल में आकाशतत्त्व विश्वरहस्य को भेदने में समर्थ नहीं हुआ तब उसका विस्तृत अनुशीलन भी हमें सत्य की ओर अधिक अग्रसर नहीं कर सकता। यदि यह सर्वव्यापी प्राणतत्त्व विश्वरहस्य के उद्घाटन में असमर्थ रहा तो उसका विस्तृत अनुशीलन निरर्थक है; कारण, वह विश्वतत्त्व के सम्बन्ध में कोई परिवर्तन नहीं कर सकता। मैं यह कहना चाहता हूँ कि तत्त्वा- नुशीलन में हिन्दू दार्शनिक आधुनिक विद्वानों की भाँति ही एवं कभी कभी उनसे भी अधिक साहसी थे। उन्होने इस प्रकार के अनेक सुविस्तृत साधारण नियमो का आविष्कार किया है जो आज भी बिलकुल नवीन है, और उनके ग्रन्थो में इस प्रकार के अनेक मत विद्यमान है जो कि वर्तमान विज्ञान आज भी मतवाट के रूप में भी प्राप्त नहीं कर सका। दृष्टान्त रूप से दिखलाया जा सकता है कि वे केवल आकाशतत्त्व पर पहुँच कर ही सन्तुष्ट अथवा थकित नहीं हो गये, किन्तु उन्होने और भी आगे बढ़कर समष्टि मन की भी एक सूक्ष्मतर आकाश के रूप में कल्पना की है एवं उसके भी ऊपर एक अधिकतर सूक्ष आकाश को प्राप्त किया है। किन्तु इससे कुछ भी मीमांसा नहीं हुई। रहस्य का उत्तर देने में ये सब तत्त्व समर्थ नहीं है। संसार के सम्बन्ध में व्यर्थ का ज्ञान कितनी ही दूर तक विस्तृत क्यों न हो जाय, इस रहस्य का उत्तर न दे सकेगा। मन में आता है, मानों कुछ थोड़ा बहुत हमे मालूम हो गया है, कुछ सहस्र वर्ष और प्रतीक्षा करने पर इसकी मीमांसा हो जायगी। वेदान्तवादियों ने मन की ससीमता को निःसंशय ही प्रमाणित किया है, अंतएव वे उत्तर देते है, "नहीं, सीमा से बाहर जाने की हमारी शक्ति नहीं है। हम देश, काल, निमित्त के बाहर नहीं जा सकते।" जिस प्रकार कोई भी अपनी सत्ता का उल्लंघन नहीं कर सकता उसी प्रकार देश और काल के नियम ने जो सीमा का बन्धन स्थापित कर दिया है उसको अतिक्रमण करने की क्षमता किसी में नहीं है। देश-कालनिमित्त सम्बन्धी रहस्य को खोलने का प्रयत्न ही व्यर्थ है, क्योकि इसकी चेष्टा करते ही इन तीनो की सत्ता स्वीकार करनी होगी। तब यह किस प्रकार सम्भव है? और ऐसा होने पर जगत् के अस्तित्ववाद का क्या रूप रहेगा?―"इस जगत् का अस्तित्व नहीं है।" जगत् मिथ्या है―इसका अर्थ क्या है? इसका यही अर्थ है कि उसका निरपेक्ष अस्तित्व नहीं है। मेरे, तुम्हारे और अन्य सब के मन के साथ इसका केवल आपेक्षिक अस्तित्व है। हम पाँच इन्द्रियों द्वारा जगत् को जिस रूप में प्रत्यक्ष करते है, यदि हमारे एक इन्द्रिय और होती तो हम इससे अधिक कुछ नवीन प्रत्यक्ष करते और इससे भी अधिक इन्द्रिय सम्पन्न होने पर हम इसे और भी विभिन्न रूपों में देख पाते। अतएव इसकी सत्ता नहीं है―वह अपरिवर्तनीय, अचल, अनन्त सत्ता इसकी नहीं है। किन्तु इसको अस्तित्वशून्य नहीं कहा जा सकता, कारण इसकी वर्तमानता है और इसके साथ मिलकर ही हमे कार्य करना होगा। यह सत् और असत् का मिश्रण है।
सूक्ष्म तत्वो से लेकर जीवन के साधारण दैनिक स्थूल कार्यों तक पर्यालोचन करने पर हम देखते है कि हमारा सम्पूर्ण जीवन ही सत् और असत् इन दोनो विरुद्ध भावो का सम्मिश्रण है। ज्ञान के क्षेत्र में भी यह विरुद्ध भाव दिखाई पड़ता है। ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्य जिज्ञासु होने से ही समस्त ज्ञान प्राप्त कर लेगा; किन्तु दो चार पग चलने के बाद ही एक ऐसा अभेद्य व्यवधान देखने में आता है जिसको अतिक्रमण करना मनुष्य के वश के बाहर है। उसके सभी कार्य एक वृत्ताकार परिधि के अन्दर घूमते रहते हैं जिसको वह कभी लॉघ नहीं सकता। उसके अन्तरतम एवं प्रियतम रहस्य मीमांसा के लिये उसे दिन रात उत्तेजित तथा आह्वान करते है परन्तु इसका उत्तर देने में वह असमर्थ है, कारण कि वह अपनी बुद्धि की सीमा का उल्लंघन नहीं कर सकता। फिर भी वासनाएँ उसके अन्तर में प्रबल वेग से उठती रहती हैं; किन्तु इस उत्तेजना का दमन ही एक मात्र मड्गलकर पथ है, यह भी हम अच्छी तरह जानते हैं। हमारे हृत्पिण्ड का प्रत्येक स्पन्दन प्रत्येक निःश्वास के साथ हमें स्वार्थपर होने का आदेश करता है। दूसरी ओर एक अमानुषी शक्ति कहती है कि निःस्वार्थता ही एक मात्र मड्गल का साधन है। जन्म से लेकर प्रत्येक बालक सुखाशावादी (Optimist) होता है; वह केवल सुख के ही स्वप्न देखता है। युवावस्था में वह और भी अधिक आशावादी हो जाता है। मृत्यु, पराजय अथवा अपमान नाम की भी कोई वस्तु है यह बात किसी युवक की समझ में आना कठिन है। अब वृद्धावस्था आती है। जीवन केवल एक ध्वसराशि हो जाता है, सुख के स्वप्न आकाश में विलीन हो जाते है और वृद्ध लोग निराशावादी हो जाते हैं। इसी प्रकार हम प्रकृति से ताड़ित होकर आशाशून्य, सीमा तथा गन्तव्य-ज्ञान से शून्य होकर एक ध्रुव से दूसरे ध्रुव की ओर दौड़ते रहते हैं। ललितविस्तार में लिखे हुए बुद्ध चरित का एक प्रसिद्ध गीत इस सम्बन्ध में मुझे याद आता है। वर्णन इस प्रकार है कि बुद्धदेव ने मनुष्यों के परित्राता के रूप में जन्म ग्रहण किया, किन्तु जब राजप्रासाद की विलासिता में वे आत्मविस्मृत होने लगे तब उनको जगाने के लिये देवकन्याओं ने एक गीत गाया था जिसका मर्मार्थ इस प्रकार है,―"हम एक प्रवाह में बहते चले जा रहे हैं, हम अविरत रूप से परिवर्तित हो रहे है―कहीं निवृत्ति नहीं है, कहीं विराम नहीं है।" इसी प्रकार हमारा जीवन विराम नहीं जानता, अविरत चलता ही रहता है। अब उपाय क्या है? जिनके पास खाने पीने की प्रचुर सामग्री है वे सुखाशावादी हो जाते है और कहते हैं, "भय उत्पन्न करनेवाली दुःख की बाते मत कहो, क्लेश की बात मत सुनाओ।" उनके पास जाकर कहो―"सभी मंगल है।" वे कहेगे, "हम तो निरापद है ही; यह देखो, कितनी सुन्दर अट्टा- लिकाओं में हम वास करते है, हमे शीत का कोई भय नहीं है। अतएव हमारे सम्मुख यह भयावह चित्र मत लाना।" किन्तु दूसरी ओर देखिये, शीत और अनाहार से कितने ही लोग मर रहे है। जाओ उन्हे जाकर शिक्षा दो कि 'सभी मड्गल है।' किन्तु यह, जो इस जीवन में भीषण क्लेश पा रहा है, वह तो सुख, सौन्दर्य और मंगल की बात सुनेगा ही नहीं, वह कहता है, “सभी को भय दिखाओ, मैं जब रो रहा हूँ तो और सब कैसे हँसेगे? मैं तो अपने साथ सभी को रुलाऊँगा; कारण कि जब मैं दुःख से पीड़ित हूँ तो सभी दुःख से पीड़ित हो, इसीसे मेरी शान्ति होगी।" हम इसी प्रकार सुखाशाबाद से निराशावाद की ओर चले जाते है। इसके बाद मृत्युरूप भयावह व्यापार आता है―सारा संसार मृत्यु के मुख में चलता जा रहा है; सभी मरते जा रहे है। हमारी उन्नति, हमारे व्यर्थ के आडम्बर पूर्ण कार्यकलाप, समाज-संस्कार, विलासिता, ऐश्वर्य, ज्ञान―मृत्यु ही सब की एक मात्र गति है। यही सर्वस्व है, यही सुनिश्चित है। नगर के नगर बनते और बिगड़ते जाते है। साम्राज्यो के उत्थान और पतन होते है, ग्रहादिक खण्ड खण्ड होकर धूलि के समान चूर्ण बन कर विभिन्न ग्रहो के वायु-प्रवाह में इधर उधर विक्षिप्त होते रहते है। इसी प्रकार अनादिकाल से चलता आ रहा है। इस सब का लक्ष्य क्या है? मृत्यु ही सब का लक्ष्य है, मृत्यु जीवन का लक्ष्य है, सौन्दर्य का लक्ष्य है, ऐश्वर्य का लक्ष्य है, शक्ति का लक्ष्य है, और तो और, धर्म का भी लक्ष्य है। साधु और पापी दोनों मरते है, राजा और भिक्षुक दोनों मरते है, सभी मृत्यु को प्राप्त होते हैं। तब भी जीवन के प्रति यह विषम ममता विद्यमान है। हम क्यो इस जीवन की ममता करते है? क्यो हम इसका परित्याग नहीं कर पाते? यह हम नहीं जानते। यही माया है।
माता बड़े यत्न से सन्तान का लालन पालन करती है। उसका समस्त मन, समस्त जीवन मानो इसी सन्तान के लिये है। बालक बड़ा हुआ, युवावस्था को प्राप्त हुआ और शायद दुश्चरित्र एवं पशु होकर प्रतिदिन अपनी माता को मारने पीटने लगा, किन्तु माता फिर भी पुत्र पर मुग्ध है। जब उसकी विचारशक्ति जागृत होती है तब वह उसे अपने स्नेह के, आवरण में ढक कर रखती है। किन्तु वह नहीं जानती कि यह स्नेह नहीं है; एक अपरिज्ञेय शक्ति ने उसके स्नायु-मण्डल पर अधिकार कर लिया है। वह इसे दूर नहीं कर सकती। वह कितनी ही चेष्टा क्यों न करे, इस बन्धन को तोड़ नहीं सकती। यही माया है।
हम सभी कल्पित सुवर्ण लोमो* की खोज में दौड़ते फिरते है। सभी के मन में होता है कि यह हमारा ही प्राप्तव्य है; किन्तु
*सुवर्ग लोम (Golden Fleece):―ग्रीक पौराणिक साहित्य की कथा है कि ग्रीस के अन्तर्गत संसाली देश में राजवंशी आथामास की पत्नी नेफ़ेल के गर्भ से फ्रिक्सस नामक पुत्र और हेल नाम की कन्या ने जन्म लिया। कुछ दिन के बाद नेफ़ेल की मृत्यु होने पर आयामास ने कैडमस की कन्या ईनो के साथ विवाह किया। ईनो ने सपत्नी की सन्तान के प्रति विद्वेष होने के कारण नाना, उनमे से कितने मनुष्य इस संसार में जीवित है? सभी ज्ञानी लोग समझते हैं कि इस सुवर्ण लोम को प्राप्त करने की उनकी दो करोड़ में एक से अधिक सम्भावना नहीं है; तथापि प्रत्येक मनुष्य उसके लिये कठोर प्रयत्न करता है; किन्तु अधिकांश किसी को कुछ प्राप्त नहीं होता; यही माया है।
इस संसार में मृत्यु रात दिन गर्व से मस्तक ऊँचा किये धूम रही है; हम सोचते है कि हम सदा जीवित रहेगे। किसी समय राजा युधिष्ठिर से यह प्रश्न पूछा गया कि "इस पृथ्वी पर अत्यन्त आश्चर्य की बात क्या है?" राजा ने उत्तर दिया था, "नित्य ही लोग चारों ओर मर रहे हैं किन्तु जो जीवित है वे समझते है कि वे कभी मरेगे ही नहीं।" यही माया है।
प्रकार से अपने पति को फ्रिक्सस की देवताओ को बलि चढ़ा देने से सहमत किया। किन्तु बलिदान के पूर्व ही फ्रिक्सस की स्वर्गीया माता की आत्मा उनके सम्मुख आविर्भूत हुई और एक सुवर्ग लोम युक्त मेढे को उनके निकट लाकर उनको उस पर चढ़ कर समुद्र पार भाग जाने का आदेश देने लगी। मार्ग में उसकी बहिन हेल गिर कर डूब गई―फ्रिक्सस ने कृष्ण सागर की पूर्व दिशा में कलचिस नामक स्थान में उतर कर वहाँ के जिउस देवता को उसी मेंढे की बलि चढ़ा कर उसकी खाल को मार्स ( मंगल ) देवता के कुञ्ज में टाँग दिया। एक दैत्य उसकी रखवाली के लिये नियुक्त हुआ। कुछ दिन बाद इस सुवर्ग लोम की खाल को लाने के लिये आयामास का भतीजा जैसन उसके प्रतिद्वन्द्वी पेलियस द्वारा नियुक्त किया गया और वह आर्गो नामक एक बड़े जहाज में अनेक प्रसिद्ध वीर पुरुषों सहित बैठ कर नाना प्रकार के बाधा-विघ्नो को पार करता हुआ उक्त सुवर्ण लोम के लाने में सफल हुआ। ग्रीक पुरागों में यह कथा Argonautic Expedition नाम से विख्यात है।
२ हमारी बुद्धि, ज्ञान, जीवन, प्रत्येक घटना में यही विषम विरुद्ध भाव दिखाई पड़ता है। सुख दुःख का और दुःख सुख का अनुगामी हो रहा है। सुधारक आते है और किसी जाति के दोषों को दूर करने का प्रयत्न करते है, किन्तु इसी बीच में किसी दूसरी दिशा में वीस हजार दोष उस सुधार से पहले ही उठ खड़े होते है। पतनो- न्मुख जीर्ण अट्टालिका की भाँति एक स्थान पर जीर्णोद्धार करते करते दूसरे स्थान पर जीर्णता आक्रमण कर देती है। भारतीय स्त्रियों के बालविधवा हो जाने के दोष को दूर करने के लिये हमारे सुधारक लोग चीत्कार तथा प्रचार कर रहे है। किन्तु पाश्चात्य देशों में अविवाहित रहना ही प्रधान दोष माना जाता है। एक स्थान पर अविवाहिताओ का कष्ट दूर करने में सहायता करनी होगी तो दूसरे स्थान पर विधवाओं का कष्ट मिटाने का यत्न करना होगा; शरीर में पुरानी बातव्याधि के समान शिरःस्थान से हटाने पर यह कमर आदि का आश्रय, ले लेती है, वहाँ से हटाने पर पैरौ का आश्रय ढूँढती है।
कोई कोई दूसरों की अपेक्षा अधिक धनवान हो गये है― विद्या, सम्पत्ति और ज्ञानानुशीलन केवल उन्हीं की सम्पत्ति हो गये हैं। ज्ञान कितना महत्तर और मनोहर है, ज्ञानानुशीलन कितना सुन्दर है! यह केवल कुछ लोगों के हाथ में है। कितनी भयानक बात है। अब सुधारक आये और सर्वसाधारण में इस ज्ञान का विस्तार करने लगे। इससे जनसाधारण एक प्रकार से कुछ सुखी हुए अवश्य, किन्तु ज्ञानानुशीलन जितना ही अधिक होने लगा, शारीरिक सुख शायद उतना ही अन्तर्हित होने लगा। अब कौन से मार्ग का अव- लम्बन किया जाय?―क्योकि सुख के ज्ञान से ही तो दुःख का ज्ञान होता है। हम लोग जो थोड़ासा सुख भोग रहे है, अन्य कहीं पर उससे उतना ही दुःख उत्पन्न हो रहा है। सभी वस्तुओ की यही अवस्था है। युवकगण शायद इस बात को न समझ पायें। किन्तु जिन्होने संसार में बहुत दिन बिताये है, जिन्होने बहुतसी यंत्रणाये भोगी है वे इस बात को समझ सकेगे। यही माया है। दिन रात ये समस्त व्यापार संघटित हो रहे है, किन्तु इनकी ठीक प्रकार से मीमांसा करना असम्भव है। इस प्रकार यह सब जो हो रहा है उसका कारण क्या है? इस विषय में वास्तव में न्यायसंगत कोई प्रश्न ही नहीं हो सकता; अतएव इस प्रश्न का उत्तर भी असम्भव है। इसका कारण जाना नहीं जा सकता। उत्तर देने से पहले इसका तात्पर्यबोध ही नहीं होगा, यह क्या है यह हम नहीं जान सकते। हम इसे एक क्षण को भी स्थिर नहीं रख सकते—प्रति क्षण यह हमारे हाथ से निकलता रहता है। हम सब अन्धे यंत्रो के समान परिचालित हो रहे हैं। यद्यपि हमने कभी कभी निःस्वार्थ भाव से जो कार्य किया है, परोपकार की जो चेष्टा की है उसे स्मरण करके कह सकते है, 'क्यो, यह कार्य तो हमने समझ बूझ कर, सोच विचार कर किया था।' किन्तु वास्तव में हम उन कार्यों को किये बिना रह ही नहीं सकते थे, इसी कारण उन्हे किया था। मुझे इसी स्थान पर खड़े हो कर आप लोगो को भाषण द्वारा उपदेश देना पड़ रहा है और आप लोगो को बैठ कर इसे सुनना पड़ रहा है, यह भी हम लोग बिना किये रह नहीं सकते इसीलिये कर रहे है। आप घर लौट जायेंगे, शायद कुछ लोग थोड़ी बहुत शिक्षा भी प्राप्त करेगे, दूसरे शायद मन में कहेगे, यह आढमी व्यर्थ ही बक रहा है। मैं भी घर चला जाऊँगा और सोचूँगा कि मैने आज भाषण दिया। यही माया है। अतएव इस संसार की गति के वर्णन का नाम ही माया है। साधारणतया लोग यह बात सुन कर भयभीत हो जाते है। हमें साहसी होना पड़ेगा। अवस्था के विषय को छिपाने से रोग का प्रति- कार नहीं होगा। कुत्तो से पीछा किये जाने पर जिस प्रकार खरगोश अपने मुँह को टाँगों में छिपा कर अपने को निरापद समझता है, उसी प्रकार हम लोग भी आशावादी अथवा निराशावादी होकर ठीक उस खरगोश के समान कार्य करते है। यह रोगमुक्ति की औषधि नहीं है।
दूसरी ओर सांसारिक जीवन की प्रचुरता, सुख और स्वच्छन्दता भोगने वाले इस मायावाद के सम्बन्ध में बड़ी आपत्तियाँ उठाते है। इस देश में, इंग्लैण्ड में निराशावादी होना बहुत कठिन है। सभी मुझसे कहते है―जगत् का कार्य कितने सुंदर रूप से चल रहा है, जगत् कितना उन्नतिशील है! किन्तु वे अपने जीवन को ही अपना जगत् समझते है। एक पुराना प्रश्न उठता है―ईसाई धर्म ही एक मात्र धर्म है। कारण, ईसाई धर्म को मानने वाली सभी जातियाँ समृद्धिशाली है। इस प्रकार की युक्ति से तो यह सिद्धान्त स्वयं ही भ्रामक सिद्ध हो जाता है। अन्य जातियो का दुर्भाग्य ही तो ईसाई जातियों की समृद्धि का कारण है, क्योकि एक का सौभाग्य दूसरो के शोणित द्वारा शोषण के बिना नहीं बनता। तो जब समस्त पृथिवी ईसाई धर्म को ही मानने लगेगी तब भक्ष्य स्वरूप इतर जातियो का नाश करने वाली ईसाई जाति स्वयं ही दरिद्र हो जायगी। अतः इस युक्ति ने अपना ही खण्डन कर दिया। उद्भिज पशुओ के लिये अन्न स्वरूप है, मनुष्य पशुओ का भोक्ता है, और सब से अधिक गहित कार्य यह है कि मनुष्य एक दूसरे का, दुर्बल बलवान् का भक्ष्य बन रहा है। यही हाल सर्वत्र विद्यमान है। यही माया है। इस रहस्य की आप क्या मीमांसा करते है? हम प्रतिदिन ही नई नई युक्तियाँ सुनते है। कोई कहते है, अन्त में सब का कल्याण होगा। इस प्रकार की सम्भावना अत्यन्त संदेहास्पद होने पर भी हम ने स्वीकार कर ली। किन्तु इस पैशाचिक उपाय से मंगल होने का कारण क्या है? पैशाचिक रीति को छोड़ कर क्या मंगल द्वारा ही मंगलसाधन नहीं हो सकता? वर्तमान मनुष्यो की सन्तान सुखी होगी; किन्तु उससे हमे क्या फल मिलेगा जिसके लिये हम इस समय ये भयानक यन्त्रणाये भोग रहे है? यही माया है। इसकी मीमांसा नहीं है। सुना जाता है कि दोषों का क्रमश: धीरे धीरे दूर होता जाना क्रमविकासवाद ( Darwin's Evolution ) की एक विशेषता है; संसार से दोष का इस प्रकार क्रमश: दूर हो जाने पर अन्त में केवल मंगल ही मंगल रह जायगा। सुनने में तो बड़ा अच्छा लगता है। इस संसार में जिसके पास सब वस्तुओ का प्राचुर्य है, जिन्हे प्रतिदिन कठोर यन्त्रणा सहनी नहीं पड़ती, जिन्हे क्रमविकास के चक्र में पिसना नहीं पड़ता, उन लोगों के दम्भ को इस प्रकार के सिद्धान्त बढ़ा सकते है। सचमुच ही उनके लिये ये सिद्धान्त अत्यन्त हितकर और शान्तिप्रद हैं। साधारण जनसमूह यन्त्रणा भोगा करे—इनकी क्या हानि है? वे सत्र मारे जायें―इसके लिये ये सोच विचार क्यों करे? ठीक बात है, किन्तु यह युक्ति आदि से अन्त तक भ्रमपूर्ण है। प्रथम तो, ये लोग विना किसी प्रमाण के ही धारणा कर लेते हैं कि संसार में अभिव्यक्त मंगल और अमंगल का परिणाम एकदम निर्दिष्ट है। दूसरे, इससे भी अधिक दोपयुक्त धारणा यह है कि मंगल का परिमाण तो क्रमवृद्धि- शील है और अमंगल निर्दिष्ट परिमाण में विद्यमान रहता है। अतएव ऐसा समय आयेगा कि जब अमंगल का अंश इसी प्रकार क्रमविकास के द्वारा घट जाने पर अन्त में बिलकुल नष्ट हो जायगा और केवल मंगल ही विराजित रहेगा―यह कहना बड़ा सरल है। किन्तु क्या यह प्रमाणित किया जा सकता है कि अमंगल का परिमाण निर्दिष्ट रहता है? क्या अमंगल की भी क्रमशः वृद्धि नहीं हो रही है? एक जंगली मनुष्य है जो मनोवृत्तियों के परिचालन से सर्वथा अनभिज्ञ है, एक पुस्तक भी नहीं पढ़ सकता, हस्तलिपि किसे कहते हैं, उसने कभी सुना भी नहीं; आज रात को उसके बीस टुकड़े कर दो, कल वह स्वस्थ हो उठेगा। धार धरा हुआ अस्त्र उसके शरीर में घुसा कर बाहर निकाल लो, फिर भी वह अच्छा हो जायगा; किन्तु हम अधिक सभ्य होने पर भी मार्ग में चलते हुए ठोकर खाते ही मर जाते हैं।
मशीनों के द्वारा धन आदि सुलभ हो रहा है; उन्नति और क्रमविकास की वृद्धि हो रही है; किन्तु एक व्यक्ति धनी हो जायगा इसलिये लाखों मनुष्यों को पीसा जा रहा है―एक व्यक्ति धनवान बने इसलिये सहस्रों मनुष्य दरिद्र से दरिद्रतर हो रहे हैं―संख्यातीत मनुष्य के वंशज क्रीतदास बनाये जा रहे हैं। जगत् की धारा ही ऐसी है। जो मनुष्य पशुवत् हैं उनके समस्त सुखभोग इन्द्रियों में ही सीमित हैं। उनके दुख और सुख इन्द्रियों के भीतर ही सन्निविष्ट हैं। यदि उसे पर्याप्त भोजन नहीं मिलता अथवा उसे कोई शारीरिक रोग या कष्ट होता है तो वह अपने को अभागा समझता है। इन्द्रियों में ही उसके सुख-दुःख का उत्थान और पर्यवसान हो जाता है। इस प्रकार के व्यक्ति की जब उन्नति होती रहती है तो उसके सुख की सीमा के विस्तार के साथ ही साथ उतने ही परिमाण में उसके दुःख की भी वृद्धि होती जाती है। जंगली मनुष्य ईर्ष्या के वश में होना नहीं जानता, कचहरी में जाना नहीं जानता, वह नियमित कर देना नहीं जानता, समाज द्वारा निन्दित होना नहीं जानता, पैशाचिक मानव-प्रकृति से उत्पन्न जो भीषण अत्याचार एक दूसरे के हृदय के गुप्त से गुप्त भावों का अन्वेषण करने में लगा हुआ है उसके द्वारा वह दिन रात पर्यवेक्षित होना नही जानता। वह नहीं जानता कि भ्रान्तज्ञान से सम्पन्न गर्वित मानव किस प्रकार पशु से भी सहस्त्र गुना पैशाचिक स्वभाव वाला हो जाता है। इसी प्रकार हम जिस समय इन्द्रियपरायणता से उन्मुक्त होने लगते हैं, हमारी सुखानुभव की उच्चतर शक्ति की वृद्धि के साथ साथ यन्त्रणानुभव की शक्ति की भी पुष्टि होती है। स्नायुमण्डल और भी सूक्ष्म होकर अधिक यन्त्रणा के अनुभव में समर्थ हो जाता है। सभी समाजों में यह बात दिन प्रति दिन प्रत्यक्ष होती जाती है कि साधारण मूर्ख मनुष्य तिरस्कृत होने पर अधिक दुःखी नहीं होता किन्तु अधिक प्रहार होने पर दुःखी हो जाता है। सभ्य पुरुष एक बात भी सहन नहीं कर सकते। उनका स्नायुमण्डल इतना सूक्ष्म भावग्राही हो गया है। उनकी सुखानुभूति सहज हो गई है इसीलिये उनका दुःख भी बढ़ गया है। दार्शनिक पण्डितों का क्रमविकास-वाद इसके द्वारा अधिक समर्थित नहीं होता। हम अपनी सुखी होने की शक्ति को जितना ही बढ़ाते हैं, हमारी यन्त्रणा-भोग की शक्ति उसी परिमाण में बढ़ जाती है। मेरा विनीत मत यही है कि हमारी सुखी होने की शक्ति यदि समयुक्तान्तर श्रेणी के नियम (Arithmetical Progression) से बढ़ती है तो दूसरी ओर दुःखी होने की शक्ति समगुणितान्तर श्रेणी (Geometrical Progression)*के नियम से बढ़ेगी। जंगली मनुष्य समाज के सम्बन्ध में अधिक नहीं जानता। किन्तु हम उन्नतिशील लोग जानते है कि हम जितन ही उन्नत होगे, हमारी सुख और दुःख के अनुभव करने की शक्ति उतनी ही तीव्र होगी। हममे से तीन चौथाई मनुष्य जन्म से ही जो पागल रहते है यह प्रायः सभी जानते है। यही माया है।
अतएव, हम देखते है कि माया संसार-रहस्य की व्याख्या करने के निमित्त कोई विशेष मतवाद नहीं है। संसार में घटनाये जिस प्रकार होती रही हैं, माया उन्हीं का वर्णन मात्र है। विरुद्ध भाव ही हमारे अस्तित्व की भित्ति है; सर्वत्र इन्हीं भयानक विरुद्ध भावों के बीच में से होकर हम चलते हैं। जहाँ मगल है वहीं अमगल रहता है। जहाँ अमंगल है वहीं मंगल है। जहाँ जीवन है मृत्यु वहीं छाया की भाँति उसका अनुसरण कर रही है। जो हँस रहा है उसीको रोना पड़ेगा; जो रो रहा है वह भी हँसेगा। यह क्रम बदल नहीं सकता। हम लोग अवश्य ही ऐसे स्थान की कल्पना कर सकते है जहाँ केवल मड्गल ही रहेगा, अमड्गल रहेगा नहीं; जहाँ हम केवल हँसेंगे, रोयेगे नहीं। किन्तु जब तक ये सब कारण समान रूप से विद्यमान हैं तब तक इस प्रकार का संघटन स्वयं ही असम्भव है। जहाँ हमें हँसाने की शक्ति विद्यमान है वहीं रुलाने की भी शक्ति प्रच्छन्न रूप से विद्यमान है; जहाँ सुख उत्पन्न करने वाली शक्ति विद्यमान है दुःख देने वाली शक्ति भी वही छिपी हुई है।
*समयुक्तान्तर श्रेणी नियम जैसे ३।५।७।९ इत्यादि, यहाँ पर प्रत्येक परवर्ती अपने पूर्ववर्ती अङ्क से दो दो अधिक है। समगुणितान्तर जैसे ३।६।१२।२४ इत्यादि यहाँ पर प्रत्येक परवर्ती अङ्क अपने पूर्ववर्ती अड्डू का दुगुना है। अतएव वेदान्त-दर्शन आशावादी अथवा निराशावादी नहीं है। वह तो दोनो ही वादों का प्रचार करता है; सारी घटनाये जिस प्रकार होती है वह उसे उसी रूप में ग्रहण करता है; अर्थात् उसके मत में यह संसार मड्गल और अमड्गल, सुख और दुःख का मिश्रण है; एक को बढ़ाओ, दूसरा भी साथ साथ बढ़ेगा। केवल सुख का संसार अथवा केवल दुःख का संसार होही नहीं सकता। इस प्रकार की धारणा ही स्वतःविरोधी है। किन्तु इस प्रकार का मत व्यक्त करके और इस विश्लेषण के द्वारा वेदान्त ने यही एक- महारहस्य का मर्म निकाला है कि मड्गल और अमड्गल ये दो एक- दम विभिन्न सत्तायें नहीं है। इस संसार में ऐसी एक भी वस्तु नहीं है जिसे एकदम मंगल जनक या एकदम अमड्गल जनक कहा जा सके। एक ही घटना जो आज शुभ जनक मालूम पड़ती है, कल अशुभ मालूम पड़ सकती है। एक ही वस्तु जो एक व्यक्ति को दुःखी करती है दूसरे को सुखी बना सकती है। जो अग्नि बच्चे को जला देती है, वही अनशन से जर्जर व्यक्ति के लिये उत्तम खाद्यान्न भी पका सकती है। जिस स्नायुमण्डल के द्वारा दुःख का ज्ञान हमारे अन्दर प्रवेश करता है, सुख का ज्ञान भी उसी के द्वारा हमे मिलता है। अमड्गल का निवारण करने का एक मात्र उपाय मड्गल का निवारण ही है, अन्य कोई उपाय नहीं है―यह निश्चित है। मृत्यु का निवारण करने के लिये जीवन का निवारण करना पड़ेगा। मृत्युहीन जीवन और असुख-हीन सुख ये बातें अपनी ही विरोधी हैं, इनमे कोई सत्य नहीं है। कारण, दोनो ही एक ही वस्तु का विकास हैं। कल जो शुभदायक लगता था आज वह वैसा नहीं लगता। जब हम विगत जीवन की आलोचना करते है, विभिन्न युगो के समस्त आदर्शों की आलोचना करते है, तभी इस बात की सत्यता दिखाई पड़ती है। एक समय था जब कि सुन्दर तेजस्वी घोड़ो की जोड़ी को हॉक कर चलाना ही मेरा आदर्श था, अब वह भावना नहीं होती। बचपन में सोचता था कि अमुक मिठाई प्रस्तुत कर लेने पर मैं पूर्ण सुखी होऊँगा। कभी सोचता था, स्त्री-पुत्र से युक्त तथा प्रचुर धनसम्पन्न होने पर सुखी होऊँगा। अब वे सब लड़कपन की बाते सोच कर हँसी आती है। वेदान्त कहता है कि जिन समस्त आदर्शों का अबलम्बन करते हुए, अपने शारीरिक व्यक्तित्व का परिहार करने में, हममे भय का सञ्चार होता है, समय आने पर उन्ही आदर्शों को देखकर हम हँसेंगे। सभी अपनी अपनी देह की रक्षा करने में व्यग्र है। कोई भी इसका परित्याग करने की इच्छा नहीं करता। इस देह की ययेच्छ समय तक रक्षा कर लेने पर हम अत्यन्त सुखी होगे, हम सब इसी रूप में सोचते है। किन्तु समय आने पर यह बात भी याद करके हम हँसेगे। अतएव, यदि हमारी वर्तमान अवस्था सत् भी नहीं है, असत् भी नहीं है―किन्तु दोनो का संमिश्रण है, असुख भी नहीं है, सुख भी नहीं है―किन्तु दोनो का ही संमिश्रण है, इस प्रकार का विषम विरुद्ध भाव जब उत्पन्न हुआ तब वेदान्त की आवश्यकता क्या है? अन्यान्य दर्शनशास्त्र तथा धर्ममतादिको की भी क्या आवश्यकता है? विशेषतः शुभ कर्म आदि करने का ही क्या प्रयोजन है? यही प्रश्न मन में उठता है, कारण, लोग यही पूछेगे कि यदि शुभ कर्म करने का यत्न करने पर अमंगल रहता ही है एव सुखोत्पादन का यत्न करने पर पर्वत के समान असुख की राशि उपस्थित हो जाती है तब फिर इस यत्न की आवश्यकता ही क्या है? इसका उत्तर यह है कि―पहले तो दुःख को दूर करने के लिये तुम्हे कर्म करना पड़ेगा; कारण, स्त्रयं सुखी होने का यही एक मात्र उपाय है। हममे से प्रत्येक अपने अपने जीवन में शीघ्र या देरी में इस बात की यथार्थता को समझ लेते है। तीक्ष्णबुद्धि लोग कुछ शीघ्र और मन्दबुद्धि लोग कुछ देर में इसे समझ सकते हैं! मन्दबुद्धि लोग उत्कट यन्त्रणा भोगने के बाद तथा तीक्ष्ण- बुद्धि लोग थोड़ी यन्त्रणा पाने के बाद ही इसे समझ जाते है। दूसरे, यद्यपि हम जानते है कि यह जगत् केवल सुखपूर्ण हो, दुःख न रहे―ऐसा समय कभी भी न आयेगा, तथापि हमे यही कार्य करना होगा। यदि दुःख बढ़ता जाता है तो भी हम उस समय अपना कार्य करेगे। ये दोनो शक्तियाँ ही जगत् को जीवित रखेगी; अन्त में एक दिन ऐसा आयेगा कि जब हम स्वप्न से जागेगे एवं इस मिट्टी के पुतले का बनाना बन्द कर देगे। सचमुच हम चिरकाल मिट्टी के पुतले बनाने में लगे है। हमे यह शिक्षा लेनी होगी; और यह शिक्षा प्राप्त करने में बहुत देर लगेगी।
वेदान्त कहता है―अनन्त ही सान्त हो गया है। जर्मनी में इसी भित्ति के ऊपर दर्शन-शास्त्र-रचना की चेष्टा की गई थी। इंग्लैण्ड में अब भी इस प्रकार की चेष्टा चल रही है? किन्तु इन सब दार्शनिको के मत का विश्लेषण करने पर यही सारांश निकलता है कि अनन्तस्वरूप (Hegel's Absolute Mind) अपने को जगत् में व्यक्त करने की चेष्टा कर रहा है। यदि यह बात सत्य मान ली जाय तो अनन्त कभी न कभी अपने को व्यक्त करने में समर्थ हो ही जायगा। अतएव निरपेक्षावस्था विकसितावस्था से नीची है; कारण, विकसितावस्था में ही तो निरपेक्ष स्वरूप अपने को व्यक्त कर रहा है। जब तक अनन्त स्वरूप अपने को सम्पूर्ण रूप से बाहर निकाल नहीं पाता तब तक हमे इसी अभिव्यक्ति में उत्तरोत्तर सहायता करनी होगी। सुनने में यह बात बड़ी मधुर है, और हमने अनन्त, विकास, व्यक्ति आदि दार्शनिक शब्दों का भी प्रयोग किया। किन्तु सान्त किस प्रकार अनन्त हो सकता है, एक किस प्रकार दो कोटि का हो सकता है, इस सिद्धान्त की न्यायसंगत मूलभित्ति क्या है, यह प्रश्न तो दार्शनिक पण्डित लोग स्वभावतः ही पूछ सकते है। निरपेक्ष एव अनन्त सत्ता सोपाधिक होकर ही इस जगत् रूप में प्रकाशित हुई है। यहाँ पर सभी कुछ सीमाबद्ध रहेगा ही। जो कुछ भी इन्द्रिय, मन और बुद्धि के भीतर से आयेगा उसको स्वतः ही सीमाबद्ध होना पड़ेगा, अतएव ससीम का असीम होना नितान्त मिथ्या है। ऐसा हो ही नहीं सकता।
दूसरे पक्ष में, वेदान्त कहता है, यह ठीक है कि निरपेक्ष एवं अनन्त सत्ता अपने को सान्त रूप में व्यक्त करने की चेष्टा कर रही है। किन्तु एक समय ऐसा आयेगा जब इस उद्योग को असम्भव जान कर उसे अपने पाँव पीछे लौटाने पड़ेगे। यह पीछे पाँव लौटाना ही यथार्थ धर्म का आरम्भ है। वैराग्य ही धर्म का प्रारम्भ है। आधुनिक मनुष्य से वैराग्य की बात कहना अत्यन्त कठिन है। अमेरिका में मेरे बारे में लोग कहते हैं कि मानो मैं पाँच हजार वर्ष पूर्व के किसी अतीत और विलुप्त ग्रह से आकर वैराग्य का उपदेश दे रहा हूँ; इंग्लैंड के दार्शनिक पंडित शायद यही कहेगे। किन्तु वैराग्य और त्याग ही केवल इस जीवन की एक मात्र सत्य वस्तु है। प्राणपण से चेष्टा करके देखो यदि कोई दूसरा उपाय प्राप्त कर सकते हो। यह कभी भी न हो सकेगा। ऐसा समय आयेगा जब अन्तरात्मा जागगा―इस लम्बे विषादमय स्वप्न से जाग उठेगा; बालक खेल- कूद छोड़ कर अपनी जननी के निकट लौट जाने को उद्यत होगा। वह समझेगा―
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति।
हविपा कृष्णवर्मेव भूय एवाभिवर्धते॥
काम्य वस्तु के उपभोग से कभी वासना की निवृत्ति नहीं होती, वरञ्च घृताहुति के द्वारा अग्नि के समान वासना और भी बढ़ती है। इस प्रकार क्या इन्द्रिय विलास, क्या बुद्धि-वृत्ति के परि- चालन से उत्पन्न आनन्द, क्या मानवात्मा का उपभोग्य सब प्रकार का सुख―सभी मिथ्या है―सभी माया के अधीन है। सभी इस संसार के बन्धन के अन्तर्गत हैं: हम उसे अतिक्रमण नही कर पाते। हम उसके अन्दर अनन्त काल पर्यन्त दौड़ते फिर सकते है, किन्तु उसका अन्त नहीं पा सकते; एवं जब भी हम सुख का कण प्राप्त करने की चेष्टा करेगे तभी दुख का ढेर हमे घेर लेगा। यह कितनी भयानक अवस्था है! जब मैं इस पर विचार करने की चेष्टा करता हूँ, मुझे निःसशय ही यह अनुभूति होती है कि यही मायावाद है―सभी कुछ माया है―यह वाक्य ही इसकी एक मात्र ठीक ठीक व्याख्या है। इस संसार में क्या दुःख ही वर्तमान है! यदि आप लोग विभिन्न जातियो के बीच परिभ्रमण करेंगे तो आप समझ सकेगे कि यदि एक जाति अपने दोष का एक उपाय के द्वारा प्रतिकार करने की चेष्टा कर रही है तो दूसरी किसी अन्य उपाय का अवलम्बन कर रही है। एक ही दोष को विभिन्न जातियो ने विभिन्न प्रकार से प्रतिरोध करने की चेष्टा की है किन्तु कोई भी कृतकार्य न हो सका। यद्यपि दोष को धीरे धीरे कम करते हुए किसी अंश में रोका भी जा सकता है किन्तु दूसरे किसी अंश में ढेर का ढेर अशुभ सञ्चित होता रहता है। इसकी गति ही ऐसी है। हिन्दुओं ने जाति के जीवन में किसी प्रकार सतीत्व धर्म को उत्पन्न करने के लिये अपनी सन्तान को तथा धीरे धीरे समस्त जाति को बालविवाह के द्वारा अधोगामी कर दिया है। किन्तु यह बात भी मैं अस्वीकार नहीं कर सकता कि बालविवाह ने हिन्दू जाति को सतीत्व धर्म से विभूषित किया है। तुम चाहते क्या हो? यदि जाति को सतीत्वधर्म से थोड़ा बहुत विभूषित करना चाहते हो तो इसी भयानक बाल्यविवाह द्वारा समस्त स्त्रीपुरुषों को शारीरिक विषय में अधोगामी करना पड़ेगा। दूसरी ओर क्या तुम्हारी जाति विषत्तियो से रहित है? कभी नहीं। कारण, सतीत्व ही जाति की जीवनी शक्ति है। क्या आप ने इतिहास में नहीं पढ़ा है कि जातियो की मृत्यु का चिन्ह असतीत्व के भीतर से ही आता है―जब यह किसी जाति के भीतर प्रवेश करता है तभी उसका विनाश निकट पहुँचता है। इन सब दुःखजनक प्रश्नों की मीमांसा कहाँ मिलेगी? यदि माता-पिता अपनी सन्तान के लिये पात्र या पात्री का निर्वाचन करे तब इस तथाकथित प्रेम के दोष का निवारण हो सकता है। भारत को बेटियाँ भावुक होने की अपेक्षा कार्यकुशल अधिक होती है। उनके जीवन में कल्पनाप्रियता को अधिक स्थान नहीं मिलता। किन्तु यदि लोग अपने आप ही स्वामी और स्त्री का निर्वाचन करते है तब उन्हें इससे अधिक सुख नहीं मिलता। भारतीय नारियाँ अधिक सुखी है। स्त्री और स्वामी के बीच कलह अधिकांश नहीं होता। दूसरी ओर अमेरिका में जहाँ स्वाधीनता की अधिकता है वहाँ सुखी परिवार बहुत कम देखने में आते है। थोड़े बहुत सुखी परिवार हो भी सकते है, परन्तु असुखी परिवारों तथा असुखकर विवाहों की संख्या वर्णनातीत है। मैं जिस किसी सभा में गया हूँ, वहाँ सुनता हूँ कि उसमे उपस्थित एक तिहाई स्त्रियों ने अपने पति-पुत्रो को बहिष्कृत कर दिया है। इसी प्रकार सभी जगह है। इससे क्या सिद्ध होता है? सिद्ध होता है कि इस सब आदर्श के द्वारा अधिक सुख प्राप्त नहीं हो सकता। हम सभी सुख के लिये उत्कट चेष्टा कर रहे है, किन्तु एक ओर कुछ प्राप्त होने के पहले ही दूसरी ओर दुःख उपस्थित हो जाता है।
तब क्या हम कोई भी शुभ कर्म न करे? अवश्य करे, और
पहले की अपेक्षा अधिक उत्साहित होकर हम इस कार्य को करे।
किन्तु यही ज्ञान-शिक्षा हमारे औद्धत्य एवं तआस्सुब (Fanaticism)
को नष्ट करेगी। तब अगरेज उत्तेजित होकर हिन्दू को "ओह्,
पैशाचिक हिन्दू! नारियो के प्रति कैसा असद्व्यवहार करता है!"―
यह कहकर अभिशप्त नहीं करेंगे। तब वे विभिन्न जातियों की
प्रथाओं को आदरणीय बनाने की शिक्षा देगे। तआस्सुब कम होगा,
कार्य अधिक होगा। तआस्सुब में आदमी अधिक कार्य नहीं कर पाता।
वह, अपनी शक्ति का तीन चौथाई व्यर्थ ही व्यय कर देता है।
जिन्हे धीर प्रशान्त चित्त 'काम के आदमी' कह कर पुकारा
जाता है वे ही कर्म करते है। निरर्थक वाक्यपटु तआस्सुबी व्यक्ति
कुछ भी नहीं कर पाता। अतएव इसी ज्ञान के द्वारा कार्यकारिणी
शक्ति की वृद्धि होगी। घटनाचक्र ऐसा ही है, यह जान कर
हमारी तितिक्षा भी अधिक होगी। दुःख और अमड्गल के दृश्य
हमें साम्यभाव से च्युत नहीं कर सकेंगे और छाया के पीछे पीछे दौड़ा नहीं सकेंगे। अतएव संसार की गति ही ऐसी है यह जान कर हम सहिष्णु बनेंगे। उदाहरण स्वरूप हम कह सकते है कि सभी मनुष्य दोषशून्य हो जायेंगे, पशु भी मनुष्यत्व प्राप्त कर इसी अवस्था में से होकर गुजरेंगे और वनस्पतियों की भी यही दशा होगी। किन्तु यह एक बात निश्चित है--यह महती नदी प्रबल वेग से समुद्र की ओर बह रही है; तृण, पत्ते आदि सब इसके स्रोत में बह रहे हैं और सम्भवतः विपरीत दिशा में बहने की भी चेष्टा कर रहे हैं, किन्तु ऐसा समय आयेगा जब प्रत्येक वस्तु उस समुद्र के वक्षःस्थल में खिंच कर पहुँच जायगी। अतएव, जीवन समस्त दुःख और क्लेश, आनन्द, हास्य और क्रन्दन के सहित उसी अनन्त समुद्र की ओर प्रबल वेग से प्रवाहित हो रहा है, यह निश्चित है और केवल समय का प्रश्न है जब कि तुम, मैं, जीव, उद्भिद् और साधारण जीवाणु कण जो कुछ भी जहाॅ पर है रह चुका है सब कुछ उसी अनन्त जीवन--समुद्र में--मुक्ति और ईश्वर में पहुॅचकर रहेगा।
मैं एक बार फिर कहता हूॅ कि वेदान्त का दृष्टिकोण आशावादी अथवा निगशावादी नहीं है। यह संसार केवल मंगलमय है अथवा केवल अमगलमय है ऐसा मत वह व्यक्त नहीं करता। वह कहता है कि हमारे मंगल और अमंगल दोनो का मूल्य बराबर है। ये दोनो
इसी प्रकार हिलमिल कर रहा करते है। संसार ऐसा ही है यह समझ कर तुम सहिष्णुता के साथ कर्म करे? किन्तु किस लिये? यदि घटनाचक्र इसी प्रकार का है तो हम क्या करे? हम अज्ञेयवादी क्यों
न हो जाये' आजकल के अज्ञेयवादी भी तो कहते है कि
इस रहस्य की कोई मीमांसा नहीं है; वेदान्त की भाषा में कहेगे
कि इस मायापाश से मुक्ति नहीं है। अतएव सन्तुष्ट होकर सब उपभोग
करो। किन्तु यहाँ भी एक अति असंगत महाभ्रम रह जाता है।
और वह यह है। तुम जिस जीवन से चारो ओर से घिरे हुए
हो उस जीवन के विषय में तुम्हारा ज्ञान किस प्रकार का है?
क्या जीवन शब्द से तुम केवल पाँच इन्द्रियो से आबद्ध जो
जीवन है उसे ही लेते हो? इन्द्रियात्म ज्ञान में तो हम पशुओं से
अधिक भिन्न नहीं है। किन्तु मुझे विश्वास है कि यहाँ बैठे हुए लोगो
में से एक भी ऐसा नहीं है जिसकी आत्मा सम्पूर्ण भाव से केवल
इन्द्रियो में आबद्ध हों। अतएव हमारे वर्तमान जीवन का अर्थ इन्द्रि-
यात्म ज्ञान की अपेक्षा और भी कुछ है। सुखदुःख का अनुभव कराने
वाली हमारी मनोवृत्ति और चिन्ता-शक्ति भी तो हमारे जीवन का
प्रधान अंग है। और उस महान आदर्श अर्थात् पूर्णता की ओर अग्र-
सर होने की कठोर चेष्टा भी क्या हमारे जीवन का उपादान नहीं है?
अज्ञेयवादियो के (Spencer's Agnosticism) मत में वर्तमान जीवन की रक्षा करना हमारा कर्तव्य है। किन्तु जीवन कहने से हमारे
सामान्य सुखदुःख के साथ माथ हमारे जीवन के अस्थि मज्जा स्वरूप,
अर्थात् सारभूत इस आदर्श के अन्वेषण की, इस पूर्णता की ओर अग्र-
सर होने की चेष्टा का भी तात्पर्य है। हमे इसी को प्राप्त करना
होगा। अतएव हम अज्ञेयवादी नहीं हो सकते और अज्ञेयवादी के
प्रत्यक्ष संसार को लेकर नहीं चल सकते। अज्ञेयवादी तो जीवन के उप-
युक्त उपादान को छोड़कर अवशिष्ट अंश को सर्वस्त्र मानते है। वे
इस आदर्श को ज्ञान का अगोचर कह कर इसके अन्वेषण का परित्याग
कर देते है। यही स्वभाव, यही जगत्, इसे ही माया कहते है। वेदान्त
३ के शब्दों में यही प्रकृति है। किन्तु चाहे देवोपासना के द्वारा हो, चाहे मूर्तिपूजा द्वारा, चाहे दार्शनिक विचारों के अवलम्बन से आचरित हो, अथवा देव चरित्र, पिशाच चरित्र, प्रेत चरित्र, साधु चरित्र, ऋषि चरित्र, महात्मा चरित्र अथवा अवतार चरित्र की सहायता से अनुष्ठित हो, सभी धर्मों का, चाहे वे उन्नत धर्म हो चाहे अपरिणत, सभी का उद्देश्य एक ही है। सभी धर्म इस प्रकृति के बन्धन को तोड़ने की थोड़ी बहुत चेष्टा कर रहे है। सक्षेप में सभी धर्म स्वाधीनता की ओर अग्रसर होने की कठोर चेष्टा कर रहे हैं। जाने या अनजाने मनुष्य समझ गये है कि वे बन्दी हैं। वे जो बनने की इच्छा करते है सो नहीं है। जिस समय, जिस मुहूर्त में उन्होने अपने चारों ओर दृष्टिपात किया उसी मुहूर्त में वे समझ गये कि वे बन्दी है। उसी क्षण उन्हे अनुभूति हो गई कि वे बन्दी है। वे यह भी समझे कि इस सीमा से जकडा हुआ जो कोई भी उनके भीतर रह रहा है वह देह से भी अगम्य स्थान को उड़ जाना चाहता है। संसार के उन निम्नतम धर्मों में भी जहाँ दुर्दान्त, नृशंस, आत्मीयों के घरो में लुक छिप कर फिरने वाले, हत्या तथा सुराप्रिय मृत पितर या भूत-प्रेतों की पूजा की जाती है उनमे भी स्वाधीनता का यह भाव हम पाते हैं। जो लोग देवताओं की उपासना करते है वे उन्ही सब देवताओ को अपनी अपेक्षा अधिक स्वाधीन देखते है―द्वार बन्द होने पर भी देवता लोग घर की दीवारों को पार करके आ सकते है; दीवार उनके मार्ग में बाधक नहीं होती, ऐसा भक्त का विश्वास होता है। यही स्वाधीनता का भाव क्रमशः बढ़ते बढ़ते अन्त में सगुण ईश्वर के आदर्श में परिणत होता है। इस आदर्श का केन्द्रीय भाव है―ईश्वर माया से अतीत है। मुझे मानों ऐसा लगता है कि मैं दूर से आता हुआ एक शब्द सुन रहा हूँ और देखता हूँ कि भारत के प्राचीन आचार्य, प्राचीन ऋषि जंगल में बैठे इस प्रश्न पर विचार कर रहे हैं, बड़े बड़े वयोवृद्ध पवित्रमय महर्षिगण भी इसकी मीमांसा करने में असमर्थ रहे हैं परन्तु एक बालक उनके बीच खड़े हो कर घोषणा करता है―"हे दिव्य धामवासी अमृत के पुत्रगण! सुनो, मुझे मार्ग मिल गया है। जो अन्धकार से अतीत है उसे जान लेने पर अन्धकार के बाहर जाने का मार्ग मिल जाता है।
श्रृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्राः।
आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः॥
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्ण तमस. परस्तात्।
(श्वेताश्वतर उपनिषद्)
इसी उपनिषद् से हमें यह उक्ति भी मिलती है कि यह माया हमें चारों ओर से घेरे हुये है एवं वह अति भयङ्कर है। माया के बीच में से होकर कार्य करना असम्भव है। जो यह कहता है कि "मैं इस नदी के तट पर बैठा हूँ, जब सारा पानी समुद्र में पहुँच जायगा तब मैं नदी के पार जाऊँगा." वह उतनी ही भूल करता है जितनी कि यह कहने वाला कि "जब तक पृथिवी पूर्ण मंगलमय नहीं हो जाती उतने दिन कार्य करते रहने के बाद सुख भोग करूँगा। दोनों ही बातें असम्भव है। माया के बीच में से रास्ता नहीं है, माया के विरुद्ध चल कर ही रास्ता मिलेगा—यह बात भी माननी पड़ेगी। हमारा जन्म प्रकृति के सहायक रूप में नहीं वरञ्च प्रकृति के विरोधी के रूप में हुआ है। हम बन्धन के कर्ता होकर भी स्वयं को बन्दी बनाने की चेष्टा करते है। यह मकान कहाँ से आया? प्रकृति ने तो दिया नहीं। प्रकृति कहती है―'जाओ, वन में जाकर बसो।' मनुष्य कहता है―"मैं मकान बनाऊँगा, प्रकृति के साथ युद्ध करूँगा।" और वह यही कर रहा है। मानव जाति का इतिहास प्राकृतिक नियमो के साथ युद्ध का इतिहास है और मनुष्य की ही अन्त में प्रकृति पर विजय होती है। अन्तर्जगत् में आकर देखो, वहाँ भी यही युद्ध चल रहा है, यही पाशव मानव और आध्यात्मिक मानव का संग्राम, प्रकाश और अन्धकार का संग्राम निर- न्तर जारी है। मानव यहाँ भी जीत रहा है। स्वाधीनता की प्राप्ति के लिये प्रकृति के बन्धन को चीर कर मनुष्य अपने गन्तव्य मार्ग को प्राप्त करता है। हमने अभीतक माया का ही वर्णन देखा है। वेदान्ती पण्डितो ने इस माया को अतिक्रमण करके ऐसी किसी वस्तु को जान लिया है जो माया के अधीन नहीं है, और यदि हम उसके पास पहुँच सके तो हम भी माया के पार हो जायँगे। ईश्वरवादी सभी धर्मों की यह साधारण सम्पत्ति है। किन्तु वेदान्त के मत में यह धर्म का प्रारम्भ है. अन्त नहीं। जो विश्व की सृष्टि तथा पालन करने वाले है, जो मायाधिष्ठित हैं, जिन्हे माया या प्रकृति का कर्ता कहा जाता है, उन्हीं सगुण ईश्वर का ज्ञान वेदान्त का अन्त नहीं है। यही ज्ञान बढ़ते बढ़ाते, अन्त में वेदान्ती देखता है कि जिसे वह बाहर खड़ा हुआ समझता था वह उसके अन्दर ही है और वह स्वयं वही है। जो अपने को बद्धभावापन्न समझता था वह स्वयं ही वही मुक्त- स्वरूप है।
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