जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियां/रसिया बालम

जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियां - हिंदी
जयशंकर प्रसाद

पृष्ठ २५ से – २९ तक

 

रसिया बालम

 

संसार को शान्तिमय करने के लिए रजनी देवी ने अभी अपना अधिकार पूर्णत: नहीं प्राप्त किया है। अंशुमाली अभी अपने आधे बिम्ब को प्रतीची में दिखा रहे हैं। केवल एक मनुष्य अर्बुद-गिरि-सुदृढ़ दुर्ग के नीचे एक झरने के तट पर बैठा हुआ उस अर्ध-स्वर्ण पिण्ड की ओर देखता है और कभी-कभी दुर्ग के ऊपर राजमहल की खिड़की की ओर भी देख लेता है, फिर कुछ गुनगुनाने लगता है।

घण्टों उसे वैसे ही बैठे बीत गए। कोई कार्य नहीं, केवल उसे उस खिड़की की ओर देखना। अकस्मात् एक उजाले की प्रभा उस नीची पहाड़ी भूमि पर पड़ी और साथ ही किसी का शब्द भी हुआ, परन्तु उस युवक का ध्यान उस ओर नहीं था। वह तो उस खिडकी में के सुन्दर मुख की ओर देखने की आशा से उसी ओर देखता रहा, जिसने केवल एक बार उसे झलक दिखाकर मन्त्रमुग्ध कर दिया था।

इधर उस कागज में लिपटी हुई वस्तु को एक अपरिचित व्यक्ति, जो छिपा खड़ा था, उठाकर चलता हुआ। धीरे-धीरे रजनी की गम्भीरता उस शैल-प्रदेश में और भी गम्भीर हो गई और झाड़ियों में तो अंधकार मूर्तिमान हो बैठा हुआ ज्ञात होता था, परन्तु उस युवक को इसकी कुछ भी चिन्ता नहीं। और जब तक उस खिड़की में प्रकाश था, तब तक वह उसी ओर निर्निमेष देख रहा था और कभी-कभी अस्फुट स्वर से वह गुनगुनाहट उसके मुख से वनस्पतियों को सुनाई पड़ती थी।

जब वह प्रकाश बिल्कुल न रहा, तब वह युवक उठा और समीप के झरने के तट से होते हुए उसी अंधकार में विलीन हो गया।

 

दिवाकर की पहली किरण ने जब चमेली की कलियों को चटकाया, तब उन डालियों को उतना ही ज्ञात हुआ, जितना कि एक युवक के शरीर स्पर्श से उन्हें हिलना पड़ा, जो कि काँटे और झाड़ियों का कुछ भी ध्यान न करके सीधा अपने मार्ग का अनुसरण कर रहा था। वह युवक फिर उसी खिड़की के सामने पहुंचा और जाकर अपने पूर्व-परिचित शिलाखण्ड पर बैठ गया और पुन: वही क्रिया आरम्भ हुई। धीरे-धीरे एक सैनिक पुरुष ने आकर उस युवक के कन्धे पर अपना हाथ रखा।

युवक चौंक उठा और क्रोधित होकर बोला—तुम कौन हो?

आगन्तुक हँस पड़ा और बोला—यही तो मेरा भी प्रश्न है कि तुम कौन हो? और क्यों इस अन्तःपुर की खिड़की के सामने बैठे हो और तुम्हारा क्या अभिप्राय है?

युवक—मैं यहाँ घूमता हूँ और यहीं मेरा मकान है। मैं जो यहाँ बैठा हूँ, मित्र! वह बात यह है कि मेरा एक मित्र इसी प्रकोष्ठ में रहता है; मैं कभी-कभी उसका दर्शन पा जाता हूँ और अपने चित्त को प्रसन्न करता हूँ।

सैनिक—पर मित्र! तुम नहीं जानते कि यह राजकीय अन्तःपुर है, तुम्हें ऐसे देखकर तुम्हारी क्या दशा हो सकती है? और महाराज तुम्हें क्या समझेंगे?

युवक—जो कुछ हो; मेरा कुछ असत् अभिप्राय नहीं है, मैं तो केवल सुन्दर रूप का दर्शन ही निरन्तर चाहता हूँ और यदि महाराज भी पूछे तो यही कहूँगा।

सैनिक—तुम जिसे देखते हो, वह स्वयं राजकुमारी है और तुम्हें कभी नहीं चाहती। अतएव तुम्हारा यह प्रयास व्यर्थ है।

युवक—क्या वह राजकुमारी है? तो चिन्ता क्या! मुझे तो केवल देखना है; मैं बैठे-बैठे देखा करूँगा, पर तुम्हें यह कैसे मालूम कि वह मुझे नहीं चाहती?

सैनिक—प्रमाण चाहते हो तो (एक पत्र देकर) यह देखो! युवक उसे लेकर पढ़ता है। उसमें लिखा था—

"युवक!

तुम क्यों अपना समय व्यर्थ व्यतीत करते हो? मैं तुमसे कदापि नहीं मिल सकती। क्यों महीनों से यहाँ बैठे-बैठे अपना शरीर नष्ट कर रहे हो, मुझे तुम्हारी अवस्था देखकर दया आती है। अत: तुमको सचेत करती हूँ, फिर कभी यहाँ मत बैठना।

वही

जिसे तुम देखा करते हो!"

 

युवक कुछ देर के लिए स्तम्भित हो गया। सैनिक सामने खड़ा था। अकस्मात् युवक उठकर खड़ा हो गया और सैनिक का हाथ पकड़कर बोला—मित्र! तुम हमारा कुछ उपकार कर सकते हो? यदि करो, तो कुछ विशेष परिश्रम न होगा।

सैनिक—कहो, क्या है? यदि हो सकेगा, तो अवश्य करूँगा।

तत्काल उस युवक ने अपनी उँगली एक पत्थर से कुचल दी और अपने फटे वस्त्र में से एक टुकड़ा फाड़कर तिनका लेकर उसी रक्त में टुकड़े पर कुछ लिखा, और उस सैनिक के हाथ में देकर कहा—यदि हम न रहें, तो इसको उस निष्ठुर के हाथ में दे देना। बस और कुछ नहीं।

इतना कहकर युवक ने पहाड़ी पर से कूदना चाहा; पर सैनिक ने उसे पकड़ लिया, और कहा—रसिया! ठहरो!

युवक अवाक् हो गया; क्योंकि अब पाँच प्रहरी सैनिक के सामने सिर झुकाए खड़े थे और पूर्व सैनिक स्वयं अर्बुदगिरि के महाराज थे।

महाराज आगे हुए और सैनिकों के बीच में रसिया। सब सिंहद्वार की ओर चले। किले के भीतर पहुँचकर रसिया को साथ में लिए हुए महाराज एक प्रकोष्ठ में पहुँचे। महाराज ने प्रहरी को आज्ञा दी कि महारानी और राजकुमारी को बुला लाओ। वह प्रणाम कर चला गया।

महाराज—क्यों बलवन्त सिंह! तुमने अपनी यह क्या दशा बना रखी है?

रसिया—(चौंककर) महाराज को मेरा नाम कैसे ज्ञात हुआ?

महाराज—बलवन्त! मैं बचपन से तुम्हें जानता हूँ और तुम्हारे पूर्व पुरुषों को भी जानता हूँ।

रसिया चुप हो गया। इतने में महारानी भी राजकुमारी को साथ लिए हुए आ गईं। महारानी ने प्रणाम कर पूछा—क्या आज्ञा है?

महाराज—बैठो, कुछ विशेष बात है। सुनो और ध्यान से उत्तर दो। यह युवक जो तुम्हारे सामने बैठा है, एक उत्तम क्षत्रिय कुल का है और मैं इसे जानता हूँ। यह हमारी राजकुमारी के प्रणय का भिखारी है। मेरी इच्छा है कि इससे उसका ब्याह हो जाए।

राजकुमारी, जिसने कि आते ही युवक को देख लिया था और जो संकुचित होकर इस समय महारानी के पीछे खड़ी थी, यह सुनकर और भी संकुचित हुई, पर महारानी का मुख क्रोध से लाल हो गया। वह कड़े स्वर में बोली—क्या आपको खोजते-खोजते मेरी कुसुमकुमारी कन्या के लिए यही वर मिला है? वाह! अच्छा जोड़ मिलाया। कंगाल और उसके लिए निधि; बन्दर और उसके गले में हार; भला यह भी कहीं सम्भव है? आप शीघ्र ही अपने भ्रान्तिरोग की औषधि कर डालिए। यह भी कैसा परिहास है! (कन्या से) चलो बेटी, यहाँ से चलो।

महाराज—नहीं, ठहरो और सुनो। यह स्थिर हो चुका है कि राजकुमारी का ब्याह बलवन्त से होगा, तुम इसे परिहास मत जानो।

अब जो महारानी ने महाराज के मुख की ओर देखा, तो वह दृढ़प्रतिज्ञ दिखाई पड़े। निदान विचलित होकर महारानी ने कहा—अच्छा, मैं भी प्रस्तुत हो जाऊंगी, पर इस शर्त पर कि जब यह पुरुष अपने बाहुबल से उस झरने के समीप से नीचे तक एक पहाड़ी रास्ता काटकर बना ले, उसके लिए समय अभी से केवल प्रातःकाल तक का देती हूँ—जब तक कि कुक्कुट का स्वर सुनाई न पड़े। तब अवश्य मैं भी राजकुमारी का ब्याह इसी से कर दूंगी।

महाराज ने युवक की ओर देखा, जो कि निस्तब्ध बैठा हुआ सुन रहा था। वह उसी क्षण उठा और बोला—मैं प्रस्तुत हूँ, पर कुछ औजार और मसाले के लिए थोड़े विष की आवश्यकता है।

उसकी आज्ञानुसार सब वस्तुएँ उसे मिल गईं और वह शीघ्रता से उसी झरने की ओर दौड़ा और एक विशाल शिलाखण्ड पर जाकर बैठ गया और उसे तोड़ने का उद्योग करने लगा; क्योंकि इसी के नीचे एक गुप्त पहाड़ी पथ था।

 

निशा का अँधकार कानन प्रदेश में अपना पूरा अधिकार जमाए हुए है। प्राय: आधी रात बीत चुकी है, पर केवल उन अग्नि-स्फुर्लिंगों से कभी-कभी थोड़ा-सा जुगनू का प्रकाश हो जाता है, जो कि रसिया के शस्त्र-प्रहार से पत्थर में से निकल पड़ते हैं। दनादन चोट चली जा रही है—विराम नहीं है क्षण भर भी—न तो उस शैल को और न उस शस्त्र को। अलौकिक शक्ति से वह युवक अविराम चोट लगाए ही जा रहा है। एक क्षण के लिए भी इधर-उधर नहीं देखता। देखता है, तो केवल अपना हाथ और पत्थर; उँगली एक तो पहले ही कुचली जा चुकी थी, दूसरे अविराम परिश्रम! इससे रक्त बहने लगा था, पर विश्राम कहाँ? उस वज्रसार शैल पर वज्र के समान कर से वह युवक चोट लगाए ही जाता है। केवल परिश्रम ही नहीं, युवक सफल भी हो रहा है। उसकी एक-एक चोट में दस-दस सेर के ढोके कट-कटकर पहाड़ पर से लुढ़कते हैं, जो सोए हुए जंगली पशुओं को घबड़ा देते हैं। यह क्या है? केवल उसकी तन्मयता, केवल प्रेम ही उस पाषाण को भी तोड़े डालता है।

फिर वही दनादन—बराबर लगातार परिश्रम, विराम नहीं है! इधर उस खिड़की में से आलोक भी निकल रहा है और कभी-कभी एक मुखड़ा उस खिड़की से झाँककर देख रहा है, पर युवक को कुछ ध्यान नहीं, वह अपना कार्य करता जा रहा है।

अभी रात्रि के जाने के लिए पहर-भर है। शीतल वायु उस कानन को शीतल कर रही है। अकस्मात् 'तरुण-कुक्कुट-कंठनाद' सुनाई पड़ा, फिर कुछ नहीं। वह कानन एकाएक शून्य हो गया। न तो वह शब्द ही है और न तो पत्थरों से अग्नि-स्फुर्लिंग निकलते हैं।

अकस्मात् उस खिड़की में से एक सुन्दर मुख निकला। उसने आलोक डालकर देखा कि रसिया एक पात्र हाथ में लिए है और कुछ कह रहा है। इसके उपरान्त वह उस पात्र को पी गया और थोड़ी देर में वह उसी शिलाखण्ड पर गिर पड़ा। यह देख उस मुख से भी एक हल्का चीत्कार निकल गया। खिड़की बन्द हो गई। फिर केवल अंधकार रह गया।

 

प्रभात का मलय-मारुत उस अर्बुदगिरि के कानन में वैसी क्रीड़ा नहीं कर रहा है, जैसी पहले करता था। दिवाकर की किरण भी कुछ प्रभात के मिस से मंद और मलिन हो रही है। एक शव के समीप एक पुरुष खड़ा है और उसकी आँखों से अश्रुधारा बह रही है और वह कह रहा है—बलवन्त! ऐसी शीघ्रता क्या थी, जो तुमने ऐसा किया? यह अर्बुदगिरि का प्रदेश तो कुछ समय में यह वृद्ध तुम्हीं को देता और तुम उसमें चाहे जिस स्थान पर अच्छे पर्यंक पर सोते। फिर, ऐसे क्यों पड़े हो? वत्स! यह तो केवल तुम्हारी परीक्षा[]-यह तुमने क्या किया?

इतने में एक सुन्दरी विमुक्त-कुन्तला, जो कि स्वयं राजकुमारी थी, दौड़ी हुई आई और


  1. वास्तव में वह शब्द कुक्कुट का नहीं, बल्कि छद्म वेशिनी महारानी का था जो कि बलवन्त सिंह जैसे दीन व्यक्ति से अपनी कुसुमकुमारी के पाणि-ग्रहण की अभिलाषा नहीं रखती थीं। किन्तु महाराज इससे अनभिज्ञ थे।
शव को देखकर ठिठक गई, नतजानु होकर उस पुरुष का, जो कि महाराज थे और जिसे इस समय तक राजकुमारी पहचान न सकी थी—चरण धरकर बोली—महात्मन्! क्या व्यक्ति ने; जो यहाँ पड़ा है, मुझे कुछ देने के लिए आपको दिया है? या कुछ कहा है?

महाराज ने चुपचाप अपने वस्त्र में से एक वस्त्र का टुकड़ा निकालकर दे दिया। उस पर लाल अक्षरों में कुछ लिखा था। उस सुन्दरी ने उसे देखा और देखकर कहा—कृपया आप ही पढ़ दीजिए।

महाराज ने उसे पढ़ा। उसमें लिखा था—"मैं नहीं जानता था कि तुम इतनी निठुर हो। अस्तु; अब मैं नहीं रहूंगा; पर याद रखना; मैं तुमसे अवश्य मिलूँगा, क्योंकि मैं तुम्हें नित्य देखना चाहता हूँ, और ऐसे स्थान से देखुंगा, जहाँ कभी पलक गिरती ही नहीं।

—तुम्हारा दर्शनाभिलाषी
रसिया"

 

इसी समय महाराज को सुन्दरी पहचान गई, और फिर चरण धरकर बोली-पिताजी, क्षमा करना और शीघ्रतापूर्वक रसिया के कर-स्थित पात्र को लेकर अवशेष पी गई और गिर पड़ी। केवल उसके मुख से इतना निकला—"पिताजी, क्षमा करना।" महाराज देख रहे थे!