जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियां

जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियां - हिंदी
जयशंकर प्रसाद

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जयशंकर प्रसाद
30 जनवरी 1889-14 जनवरी 1937


खड़ी भाषा में लिखने वाले जयशंकर प्रसाद को नयी पीढ़ी में हिन्दी को लोकप्रिय करने का श्रेय जाता है। कविता, नाटक, कहानी, उपन्यास सभी विधाओं में लिखने वाले जयशंकर प्रसाद की प्रारम्भिक कृतियों, विशेषकर नाटकों में संस्कृत का प्रभाव दिखता है। उनकी कई कहानियों के विषय सामाजिक और कई नाटकों के विषय ऐतिहासिक और पौराणिक हैं। उनकी सभी कृतियों में एक दार्शनिक झुकाव दिखता है और यह शायद इसलिए कि बचपन में पिता के गजर जाने के बाद परिवार की आर्थिक तंगी के कारण उन्हें बचपन से काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। विधिवत् अपनी पढ़ाई पूरी नहीं कर पाए फिर भी वह घर पर ही स्वाध्याय करते रहे और साहित्य, भाषा, इतिहास में काफी ज्ञान अर्जित किया।

हिन्दी के छायावाद युग के चार स्तम्भों में से एक माने जाने वाले, जयशंकर प्रसाद ने 48 वर्षों के छोटे-से जीवनकाल में लेखन द्वारा हिन्दी साहित्य पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। उनका महाकाव्य कामायनी उनकी सबसे प्रसिद्ध रचना है। इसके अतिरिक्त स्वाधीनता आंदोलन के दिनों में लिखी उनकी कविता 'हिमाद्री तुंग शृंग से' आज भी बहुत लोकप्रिय है। उनके नाटकों में स्कंदगुप्त, चंद्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी उल्लेखनीय हैं, कंकाल और तितली उनके जाने-माने उपन्यास हैं।

जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियाँ

 

सम्पादन व भूमिका

सुरेश सलिल

 

राजपाल

ISBN: 978-93-5064-326-6
प्रथम संस्करण: 2015 © राजपाल एण्ड सन्ज़
JAISHANKAR PRASAD KI SHRESHTH KAHANIYAN (Stories)
edited by Suresh Salil

राजपाल एण्ड सन्ज़
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जयशंकर प्रसाद और हिन्दी कहानी

 
हिन्दी कहानी: पृष्ठभूमि

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहानी को उपन्यास से अलगाने के उद्देश्य से, अंग्रेज़ी की 'शॉर्ट स्टोरी' की तर्ज पर 'छोटी कहानी' कहा है, किन्तु वे अंग्रेज़ी की 'शॉर्ट स्टोरी' से हिन्दी कहानी को भिन्न पहचान भी देते हैं, कहानी के "इतने रूप रंग हमारे सामने आए हैं कि सबके सब पाश्चात्य लक्षणों और आदर्शों के भीतर नहीं समा सकते।" वहीं वे यह भी लक्ष्य करते हैं कि हिन्दी कहानी के विकास में "कवियों का भी पूरा योग रहा।" शुक्लजी के इस कथन के आलोक में सर्वप्रथम तो ध्यान जाता है। 19वीं सदी के उन प्रारम्भिक वर्षों की ओर, जब एक ओर फोर्ट विलियम में गिलक्राइस्ट के निर्देशन में उर्दू और हिन्दी गद्य की दागबेल डाली जा रही थी और दूसरी ओर मुंशी सदासुखलाल व सैयद इंशा अल्ला खां स्वतन्त्र रूप से हिन्दी गद्य का ठाठ खड़ा कर रहे थे। इन सबमें अकेले इंशा ही थे, जिनका ध्यान हिन्दी की पहली मौलिक कहानी लिखने की ओर गया और उन्होंने उदयभान चरित या रानी केतकी की कहानी लिखी, जिसमें 'हिन्दी को छोड़कर और किसी बोली का पुट' न था। सैयद इंशा अपने वक्त के प्रतिष्ठित उर्दू शायर थे।

आज अधिकांश आलोचक हिन्दी कथा साहित्य के उद्भव पर बात करते हुए, बहुत चतुराई से, इंशा और 'रानी केतकी की कहानी' को बढ़ा जाते हैं और हिन्दी कथा-साहित्य के उद्भव को सौ साल आगे खींच लाते हैं। यहाँ तक कि देवकी नंदन खत्री और उनके चन्द्रकान्ता का उल्लेख भी काफी किन्तु, परन्तु के साथ होता है। किशोरी लाल गोस्वामी का भी यही हश्र होता, अगर उन्होंने इन्दुमती कहानी न लिखी होती (प्रकाशन: 1900)। इन्दुमती भी यद्यपि है संयोग पर आधारित मनोरंजन प्रधान कहानी ही, किन्तु बांग्ला गल्प पैटर्न की और आधुनिक भाषा संस्कारों में पली होने के कारण सहज स्वीकार्य हो गईं। हिन्दी कथा आलोचना परम्परा और आधुनिकता के द्वन्द्व से कभी मुक्त नहीं हो पाई। एक तरफ वह प्रेमचन्द को अपना आदर्श मानती है कि उन्होंने सरल प्रवाही हिन्दुस्तानी ज़बान में, चुटीली मुहावरेदानी के साथ आधुनिक भारतीय जीवन के प्रश्नों और चुनौतियों की कहानियाँ लिखीं, वहीं दूसरी तरफ़ वह इंशा और सरशार की उस धर्म-निरपेक्ष भाषा-शिल्प परम्परा की अनदेखी भी करती है, जिसके सम्पर्क से प्रेमचन्द सरस प्रवाही हिन्दुस्तानी, ज़बान और चुटीली मुहावरेदानी वाला शिल्प विकसित कर सके।

प्रेमचन्द से पहले, 19वीं सदी के अन्तिम और बीसवीं सदी के प्रारम्भिक वर्षों से माधवराव सप्रे, मास्टर भगवानदास, रामचंद्र शुक्ल, गिरिजादत्त वाजपेयी और 'बंगमहिला' की भी कहानियाँ आ चुकी थीं। पहल करने के अर्थ में इनका अपना महत्त्व है, होना भी चाहिए—किसी विधा की शुरुआत करना साधारण बात नहीं, किन्तु जब सातत्व का प्रश्न उठता है, तो इनके महत्त्व को ऐतिहासिक-भर मान कर सन्तोष कर लेना पड़ता है।

प्रसाद और प्रेमचन्द: दो शीर्ष

यहीं हमारे सामने दो व्यक्तित्त्व उभरते हैं, पहले दृष्टि पड़ती है जयशंकर 'प्रसाद' पर और उसके तत्काल बाद प्रेमचन्द पर। हिन्दी कहानी में दोनों का अवतरण लगभग साथ-साथ; या कहें आगे-पीछे हुआ। भाषिक कालक्रम में प्रसादजी की ओर पहले दृष्टि जाती है। उनकी पहली कहानी 'ग्राम' 1940 में इन्दु पत्रिका में प्रकाशित हुई और दो वर्ष उपरान्त, 1912 में, उनकी 11 कहानियों का पहला संग्रह छाया भी आ गया। प्रेमचन्द उर्दू में जयशंकर प्रसाद से पहले लिखने लगे थे और उनकी कहानियाँ प्राय: कानपुर से मुंशी दया नारायण निगम द्वारा (सम्पादित-प्रकाशित पत्र ज़माना में प्रकाशित होती थीं। सरस्वती की भाँति, ज़माना उस ज़माने का बहुचर्चित-बहुपठित पत्र था। चूँकि उसका दखल साहित्य के साथ-साथ राजनीति में, विशेषकर स्वतन्त्रता आन्दोलन में था, लिहाज़ा सरकार की नज़र भी उसमें छपने वाले लेखकों पर रहती थी। यही वजह थी कि प्रेमचन्द का पहला कहानी-संग्रह सोज़े-वतन (उर्दू) 1909 में प्रकाशित हुआ, तो उसे सरकार ने तत्काल ज़ब्त कर लिया। प्रेमचन्द के यहाँ कोई लाग-लपेट न थी। उनकी कहानियों में गुलामी की वेदना और आज़ादी की आकांक्षा की सीधी अभिव्यक्ति थी, जो धीरे-धीरे सामाजिक यथार्थ में रूपान्तरित होती गई। उसी दौरान स्वाधीनता आन्दोलन के बेलौस मुखपत्र के रूप में कानपुर से प्रताप (हिन्दी साप्ताहिक, 1913) का प्रकाशन शुरू हुआ, तो उसके सम्पादक गणेश शंकर विद्यार्थी ने राजनीति के साथ-साथ, आज़ादी की अभिव्यक्ति वाले, प्रखर क्रान्तिकारी तेवर वाले साहित्य को भी प्रताप में प्रमुख स्थान देना शुरू किया। दयानारायण निगम, गणेश शंकर के मित्र थे और गणेश जी फ़ारसी-उर्दू में भी निष्णात होने के कारण ज़माना के उत्साही पाठक। ज़माना के रास्ते वे प्रेमचन्द की कहानियों के पाठक-प्रशंसक बने और उसी सत्र को पकड़ कर उन्होंने प्रेमचन्द पर यह दबाव बनाना शुरू किया कि उन्हें उर्दू के साथ-साथ हिन्दी में भी कहानियाँ लिखनी चाहिए। इस तरह प्रेमचन्द की पहली हिन्दी कहानी 'परीक्षा' प्रताप के 1914 के वार्षिकांक में प्रकाशित हुई। आगे भी लगभग 1925 तक प्रेमचन्द की कोई 8-10 कहानियाँ प्रताप परिवार की ही पत्रिका प्रभा में प्रकाशित हुईं। खैर, वह अवान्तर प्रसंग है। मुख्य बात यह है कि हिन्दी कहानी की दो मुख्यधाराओं के प्रवर्तक कथाकार जयशंकर प्रसाद और प्रेमचन्द लगभग साथ-साथ सामने आए और उन्होंने कहानी के आगे उभरने वाले परिदृश्य पर अपनी सीधी छाप छोड़ी।

इस लेख का विषय-क्षेत्र चूँकि हिन्दी कहानियों के प्रवृत्तिगत अध्ययन-विवेचन का न होकर, सिर्फ प्रसादजी के कहानी-लेखन तक सीमित है, अत: यहाँ उन्हीं को केन्द्र में रख कर चर्चा की जा रही है।

प्रसाद: जीवन और कृतित्व

जयशंकर प्रसाद छायावाद के शीर्षस्तम्भ कवि थे। लहर, झरना, आतूं आदि काव्यकृतियों के अतिरिक्त उन्होंने कामायनी प्रबन्ध काव्य का प्रणयन किया था। कविता के अतिरिक्त नाटकों के क्षेत्र में भी उनका अवदान शीर्ष स्थानीय है। राज्यश्री, विशाख, कामना, जनमेजय का नाम यक्ष, स्कन्धगुप्त, चन्द्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, एक घुट आदि कोई 12 नाटक रचकर उन्होंने भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के बाद हिन्दी नाट्य विधा को समृद्ध किया। कविता और नाटक के अतिरिक्त हिन्दी कथा-साहित्य के विकास में भी उनकी उल्लेखनीय भूमिका रेखांकित की जाती है। कंकाल, तितली, इरावती (अपूर्ण) उपन्यासों और छाया, प्रतिध्वनि, आकाशदीप, आँधी और इन्द्रजाल—इन पाँच कहानी संग्रहों के द्वारा उन्होंने न सिर्फ हिन्दी कथा साहित्य को समृद्ध किया, बल्कि एक विशिष्ट कथा-धारा के प्रवर्तक कथाकार के रूप में पहचाने गए।

प्रसादजी का जन्म सन् 1889 में वाराणसी के एक समृद्ध व्यापारी घराने में हुआ। उनका पुश्तैनी व्यापार तम्बाकू का था और इसीलिए उनके पितामह श्री शिवरत्न साहु 'सुंघनी साहु' के रूप में विख्यात थे। 'प्रसादजी' पैदा हुए थे साहित्य-सेवा के लिए—नौ वर्ष की अल्पायु में ही वे काव्याभ्यास करने लगे थे, किन्तु वात्याचक्र कुछ ऐसा बना कि 17 वर्ष की वय तक पहुँचते-न-पहुँचते उन्हें अपना पैतृक व्यापार सम्भालना पड़ा। बारह वर्ष की वय में उनके पिता का देहान्त हआ, तदुपरान्त चार-पाँच वर्ष के भीतर, पहले उनकी माँ गई, फिर ज्येष्ठ भ्राता श्री शम्भुरत्न भी चल बसे। इस तरह, युवावस्था में प्रवेश करते ही पारिवारिक, व्यावसायिक, सामाजिक और साहित्यिक—सभी दायित्व एक साथ जयशंकर प्रसाद के कच्चे कन्धों पर आ पड़े। यह उनका जीवट ही था कि न सिर्फ सफलतापूर्वक सभी दायित्वों का वहन किया, बल्कि अपने समय के शीर्ष साहित्य-पुरुषों में प्रतिष्ठित भी हुए।

'प्रसाद' जी की शिक्षा की शुरुआत घर पर ही हुई। आर्थिक अभाव था नहीं, अत: संस्कृत, हिन्दी, फ़ारसी-उर्दू के अलग-अलग अनुभवी शिक्षक नियुक्त हुए और वे घर पर ही शिक्षित-दीक्षित होने लगे। कालान्तर में कुछ समय के लिए उन्हें बनारस के क्वींस कॉलेज में प्रवेश दिलाया गया, किन्तु वहाँ वे आठवीं कक्षा तक ही पढ़ पाए, किन्तु 'प्रसादजी' में स्वाध्याय की वृत्ति बहुत उत्कट थी। अन्य सभी दायित्वों का निर्वाह करते हुए उन्होंने वेद, उपनिषद-पुराण, न्याय, तर्क, साहित्य, दर्शन और इतिहास का गहन अध्ययन किया। इस सबके बीच कविता, नाटक और कथा आदि विविध साहित्य-विधाओं में लेखन अभ्यास भी अनवरत चलता रहा।

'प्रसाद' जी के साहित्यिक जीवन का प्रारम्भ ब्रजभाषा में काव्याभ्यास से हुआ। जब वे नौ वर्ष के थे, तभी एक सवैया रचकर अपने गुरुदेव को दिखाया था। एक साहित्यकार के फिर रूप में यद्यपि उन्हें सर्वाधिक ख्याति कवि-रूप में मिली और वे छायावाद की वृहत्त्रयी के सबसे यशस्वी कवि के रूप में प्रतिष्ठित हुए, किन्तु प्रकाशन की दृष्टि से उनकी कहानियाँ और नाटक पहले सामने आए। उनका पहला नाटक सज्जन 1910-11 में इन्दु में प्रकाशित हुआ और पहली कहानी 'ग्राम' भी 1910 में ही इन्दु में प्रकाशित हो चुकी थी। इतना ही नहीं, 1912 में 'ग्राम' समेत उनकी 11 कहानियों का पहला संग्रह छाया भी प्रकाशित हो गया था, जबकि चित्राधार, झरना आदि उनके पहले कविता-संग्रह 1918 में प्रकाशित हुए।

प्रसाद का कहानीकार

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने 'प्रसादजी' को 'गूढ़ व्यंजना और रमणीय कल्पना के सुन्दर समन्वय का कथाकार कहा था। शुक्लजी के इस कथन में 'प्रसादजी' के भावना लोक और विचारलोक का सूत्रवत् संकेत निहित है। प्रसाद की संवदेना खांटी कवि की थी और उनकी वैचारिक तैयारी प्राचीन संस्कृति व इतिहास के आदर्शों की श्रेणी में हुई थी। किसी कहानी का अंकुर उनके मानस में घटनाओं और चरित्रों के डिटेल्स के साथ नहीं फूटता, बल्कि एक काव्यात्मक बिम्ब के रूप में उभरता है और वे उसे अपनी काव्य संवेदना, अंतरिक अनुभूति और भावनात्मक द्वन्द्व के सहारे कहानी के रूप में विकसित करते हैं। 'मदन मृणालिनी' के मदन, 'जहाँनारा' के औरंगजेब, 'पाप की पराजय' के घनश्याम, 'आकाशदीप' की चंपा, 'गुण्डा' के नन्हकू सिंह आदि चरित्र अविस्मरणीय इसलिए बन सके, कि उनका विकास भावना और आदर्श के द्वन्द्व से हुआ है। आचार्य शुक्ल ने गुलेरीजी कहानी 'उसने कहा था' के सन्दर्भ में "पक्के यथार्थवाद के बीच, सुरुचि की चरम मर्यादा के भीतर, भावना का चरम उत्कर्ष अत्यन्त निपुणता के साथ सम्पुटित" होने की जो व्याख्या की है 'प्रसादजी' की अधिकांश चर्चित कहानियाँ भी उसी व्याख्या की कसौटी पर खरी उतरती हैं।

प्रेमचन्द और प्रसाद को सामान्यतया हिन्दी कहानी की दो धाराओं के प्रवर्तक कथाकार के रूप में पहचाना जाता है, यानी प्रेमचन्द सामाजिक यथार्थवादी धारा के प्रवर्तक और जयशंकर प्रसाद आदर्शवादी धारा के प्रवर्तक। वस्तुत: प्रेमचन्द का कथा-समाज हमारे वर्तमान का है, उस वर्तमान का, जिसमें श्रेणी-विभाजन साफ-साफ लक्ष्य किया जाने लगा, शोषण और उत्पीड़न के रूप स्पष्ट पहचाने जाने लगे। दूसरी ओर जयशंकर प्रसाद का कथासमाज प्राचीन गौरव गाथाओं और ऐतिहासिक आदर्शलोक से विकसित हुआ। सामाजिक और राजनीतिक आलोड़न, जो बीसवीं सदी में हमारे देश में बहुत मुखर हुआ, प्रेमचन्द के कथा-साहित्य में उसे सशक्त अभिव्यक्ति मिली। आचार्य शक्ल के शब्दों में "प्रेमचन्द के कछ पात्रों में ऐसे स्वाभाविक ढाँचे की व्यक्तिगत विशेषताएँ मिलने लगीं, जिन्हें सामने पाकर अधिकांश लोगों को यह भासित हो कि कुछ इसी ढंग की विशेषता वाले व्यक्ति हमने कहींन-कहीं देखे हैं"। साथ ही "प्रेमचन्द की सी चलती और पात्रों के अनुरूप रंग बदलने वाली भाषा भी पहले नहीं देखी गई थी।" दूसरी तरफ प्रसाद के कथा-साहित्य में "मधुर या मार्मिक प्रसंग कल्पना के सहारे किसी ऐतिहासिक काल के खण्डचित्र... भारतीय संस्कृति और प्रभाव की झलक" पाठक की सम्वेदना पर किसी स्वप्नलोक का-सा प्रभाव छोड़ते हैं। उनके चरित्र और परिवेश और परिस्थितियाँ प्राचीन संस्कृत साहित्य और इतिहास और काव्यानुभूति के संयोग से एक ऐसा आदर्शवादी यथार्थ सृजित करते हैं, जिसमें करुणा, वेदना, त्याग, बलिदान और ओजस् की भाव-झंकृतियाँ सुनाई देती हैं।

सामाजिक यथार्थ और आदर्श यथार्थ के इस अन्तर पर टिप्पणी करते हुए स्वयं प्रसादजी ने कहा है, "यथार्थवाद क्षुद्रों का ही नहीं, अपितु महानों का भी है।" और चूँकि 'महान' और 'महानता' की परिकल्पना ही प्राचीन संस्कृति और इतिहास से हुई, इसलिए कई बार 'प्रसाद' को पुनरूत्थानवादी चिन्तक और साहित्यकार तक कहा गया। इस सरलीकरण के प्रत्युत्तर स्वरूप डॉ. रामविलास शर्मा ने अन्यत्र कहा है, "प्रसाद साहित्य हिन्दीभाषी जनता की मूल्यवान विरासत है। उसके आधार पर हम कह सकते हैं कि इस संसार को सत्य समझना, पीडित जनता का समर्थन करना, अन्याय का सक्रिय विरोध करना, साहित्य में उदासीन और तटस्थ न रह कर सामाजिक विकास में सक्रिय योग देना, यह सब भारतीय संस्कृति के अनुकूल ही है, उसका सहज विकास है। प्रसाद की रचनाएँ दुःखवाद, मायावाद, शुद्ध कलावाद, भारतीय इतिहास के वर्गों को अस्वीकार करने आदि के विरोध में सजग लेखक के हाथों में सबल अस्त्र हैं।"

और अंत में

कुछ साल पहले हिन्दी में 'कवियों की कहानियाँ,' शीर्षक से उदय प्रकाश, विष्णु नागर आदि कवि-कथाकारों के हवाले से एक हास्यास्पद विमर्श खड़ा करने का प्रयास किया गया था। हास्यास्पद इन अर्थों में कि शुरू से ही चंडीप्रसाद हृदयेश, जयशंकर प्रसाद, निराला, सुभद्राकुमारी चौहान आदि कविता और कथा साहित्य में साथ-साथ सक्रिय रहे, आगे भी अज्ञेय, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, रघुवीर सहाय आदि के यहाँ यह सिलसिला चलता रहा। भला तब कवियों की कहानियाँ और कथाकारों के कहानियाँ जैसी भेद-दृष्टि का विवेक हिन्दी आलोचना में क्यों नहीं जागा? प्रेमचन्द और 'प्रसाद' या आगे चल कर यशपाल और 'अज्ञेय' की कहानियों की दृष्टि, सम्वेदना, रचना-प्रक्रिया और प्रभावान्विति के तुलनात्मक अध्ययन को लेकर ऐसे विमर्श की कोई तुक भी हो सकती थी। शायद हिन्दी कहानी का आलोचना पक्ष भी कुछ समृद्ध होता। शुक्लजी ने बेशक प्रेमचन्द और 'प्रसाद' के सन्दर्भ में इस तरह के अध्ययन का सूत्रवत्, सूत्रपात किया था।

प्रेमचन्द और प्रसाद के कथा-साहित्य में जो अन्तर दिखाई देता है, वह सम्वेदना के धरातल का है। प्रेमचन्द के यहाँ सामाजिक सम्वेदना प्रबल थी और 'प्रसाद' के यहाँ सांस्कतिक सम्वेदना। साथ ही प्रेमचन्द मलत: कथाकार थे और प्रसाद का कथाकार उनके कवि में से अनुस्यूत हुआ था। प्रेमचन्द जब आज़ादी की बात करते थे तो उनके सामने पतनशील सामन्तवाद, उपनिवेशवाद और स्वाधीनता आन्दोलन का परिप्रेक्ष्य होता था, और 'प्रसाद' जब आज़ादी की बात करते थे तो उनके सामने सहस्राब्दियों का सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य होता था और उनकी सम्वेदना में स्वतन्त्रता 'स्वयं प्रभा समुज्ज्वला' के रूप में प्रतिध्वनि होती थी। इस प्रकार प्रेमचन्द और प्रसाद का कथा-साहित्य एक अर्थ में व्यापक भारतीय समाज और संस्कृति की अभिव्यक्ति ही माना जाएगा।

—सुरेश सलिल

क्रम
ग्राम
गूदड साईं
गुदड़ी में लाल
शरणागत
रसिया बालम
मदन-मृणालिनी
सिकन्दर की शपथ
जहाँनारा
खंडहर की लिपि
पाप की पराजय
सहयोग
प्रतिध्वनि
आकाशदीप
आँधी
चूड़ीवाली
बिसाती
घीसू
छोटा जादूगर
अनबोला
अमिट स्मृति
विराम-चिह्न
व्रत-भंग
पुरस्कार
इन्द्रजाल
सलीम
नूरी
गुण्डा

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