जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियां - हिंदी
द्वारा जयशंकर प्रसाद

[ १०४ ]घीसू

का लमा और नजनता म कसी कुएँ पर नगर के बाहर बड़ी यारी वर-लहरी स गूँजयानेकलगती। घीसू को गाने का च का था। पर तु जब कोई न सुन,े वह अपनी बूट

अपने लए घ टता और आप ही पीता! जब उसक रसीली तान दो-चार को पास बुला लेती, वह चुप हो जाता। अपनी बटु ई म सब सामान बटोरने लगता और चल दे ता। कोई नया कुआँ खोजता, कुछ दन वहाँ अड् डा जमता। सब करने पर भी वह नौ बजे नं बाबू के कमरे म प ँच ही जाता। नं बाबू का भी वही समय था, बीन लेकर बैठने का। घीसू को दे खते ही वह कह दे ते—आ गए, घीसू! हाँ बाबू, गहरेबाज ने बड़ी धूल उड़ाई—साफे का लोच आते-आते बगड़ गया! कहते-कहते वह ाय: जयपुरी गमछे को बड़ी मीठ आँख से दे खता और नं बाबू उसके क धे तक बाल, छोट -छोट दाढ़ , बड़ी-बड़ी गुलाबी आँख को नेह से दे खते। घीसू उनका न य दशन करनेवाला, उनक बीन सुननेवाला भ था। नं बाब उसे अपने ड बे से दो ख ली पान क दे ते ए कहते—लो, इसे जमा लो! य , तुम तो इसे जमा लेना ही कहते हो न? वह वन भाव से पान लेते ए हँस दे ता—उसके व छ मोती-से दाँत हँसने लगते। घीसू क अव था प चीस क होगी। उसक बूढ माता को मरे भी तीन वष हो गए थे। नं बाबू क बीन सुनकर वह बाजार से कचौड़ी और ध लेता, घर जाता, अपनी कोठरी म गुनगुनाता आ सो जाता। उसक पूँजी थी एक सौ पये। वह रेजगी और पैसे क थैली लेकर दशा मेध पर बैठता, एक पैसा पया बट् टा लया करता और उसको बारह-चौदह आने क बचत हो जाती थी। गो वदराम जब बूट बनाकर उसे बुलाते, वह अ वीकार करता। गो वदराम कहते— [ १०५ ]________________

बड़ा कंजूस है। सोचता है, पिलाना पड़ेगा, इसी डर से नहीं पीता। घीसू कहता-नहीं भाई, मैं संध्या को केवल एक बार ही पीता हूँ। गोविंदराम के घाट पर बिंदो नहाने आती, दस बजे उसकी उजली धोती में गोराई फूट पड़ती। कभी रेजगी पैसे लेने के लिए वह घीसू के सामने आकर खड़ी हो जाती, उस दिन घीसू को असीम आनन्द होता। वह कहती-देखो, घिसे पैसे न देना। वाह बिंदो! घिसे पैसे तुम्हारे ही लिए हैं? क्यों? तुम तो घीसू ही हो, फिर तुम्हारे पैसे क्यों न घिसे होंगे?-कहकर जब वह मुस्करा देती; तो घीसू कहता-बिंदो! इस दुनिया में मुझसे अधिक कोई न घिसा; इसीलिए तो मेरे माता-पिता ने घीसू नाम रखा था। बिंदों की हँसी आँखों में लौट जाती। वह एक दबी हुई साँस लेकर दशाश्वमेध के तरकारी-बाजार में चली जाती। बिंदो नित्य रुपया नहीं तुड़ाती; इसीलिए घीसू को इसकी बातों के सुनने का आनन्द भी किसी-किसी दिन न मिलता। तो भी वह एक नशा था, जिससे कई दिनों के लिए भरपूर तृप्ति हो जाती, वह मूक मानसिक विनोद था। घीसू नगर के बाहर गोधूलि की हरी-भरी क्षितिज-रेखा में उसके सौन्दर्य से रंग भरता, गाता, गुनगुनाता और आनन्द लेता। घीसू की जीवन-यात्रा का वही सम्बल था, वही पाथेय था। सन्ध्या की शून्यता, बूटी की गमक, तानों की रसीली गुन्नाहट और नंदू बाबू की बीन, सब बिंदो की आराधना की सामग्री थी। घीसू कल्पना के सुख से सुखी होकर सो रहता। उसने कभी विचार भी न किया था कि बिंदो कौन है? किसी तरह से उसे इतना तो विश्वास हो गया था कि वह एक विधवा है; परन्तु इससे अधिक जानने की उसे जैसे आवश्यकता नहीं। रात के आठ बजे थे, घीसू बाहरी ओर से लौट रहा था। सावन के मेघ घिरे थे, फूही पड़ रही थी। घीसू गा रहा था-'निसि दिन बरसत नैन हमारे'। सड़क पर कीचड़ की कमी न थी। वह धीरे-धीरे चल रहा था, गाता जाता था। सहसा वह रुका! एक जगह सड़क में पानी इकट्ठा था। छीटों से बचने के लिए वह ठिठककरकिधर से चलें-सोचने लगा। पास के बगीचे के कमरे से उसे सुनाई पड़ा-यही तुम्हारा दर्शन है-यहाँ इस मुँहजली को लेकर पड़े हो। मुझसे...। दूसरी ओर से कहा गया तो इसमें क्या हुआ! क्या तुम मेरी ब्याही हुई हो, जो मैं तुम्हें इसका जवाब देता फिरूँ?-इस शब्द में भर्राहट थी, शराबी की बोली थी। घीसू ने सुना, बिंदो कह रही थी—मैं कुछ नहीं हूँ, लेकिन तुम्हारे साथ मैंने धर्म बिगाड़ा है, सो इसीलिए नहीं कि तुम मुझे फटकारते फिरो। मैं इसका गला घोंट दूंगी और-तुम्हारा भी...बदमाश... ओहो! मैं बदमाश हूँ! मेरा ही खाती है और मुझसे ही...ठहर तो, देखू किसके साथ तू यहाँ आई है, जिसके भरोसे इतना बढ़-बढ़कर बातें कर रही है! पाजी...लुच्ची...भाग, नहीं तो [ १०६ ]________________

छुरा भोंक दूंगा! छुरा भोंकेगा! मार डाल हत्यारे! मैं आज अपनी और तेरी जान दूंगी और लूँगी-तुझे भी फ़ाँसी पर चढ़वाकर छोडूंगी! एक चिल्लाहट और धक्कम-धक्का का शब्द हुआ। घीसू से अब न रहा गया, उसने बगल में दरवाजे पर धक्का दिया, खुला हुआ था, भीतर घूम-फिरकर पलक मारते-मारते घीसू कमरे में जा पहुँचा। बिंदो गिरी हुई थी, और एक अधेड़ मनुष्य उसका जूड़ा पकड़े था। घीसू की गुलाबी आँखों से खून बरस था। उसने कहा-हैं। यह औरत है...इसे... मारनेवाले ने कहा-तभी तो, इसी के साथ यहाँ तक आई हो! तो, यह तुम्हारा यार आ गया। बिंदो ने घूमकर देखा-घीसू! वह रो पड़ी। अधेड़ ने कहा-ले, चली जा, मौज कर! आज से मुझे अपना मुँह मत दिखाना! घीसू ने कहा-भाई, तुम विचित्र मनुष्य हो। लो, चला जाता हूँ। मैंने तो छुरा भोंकने इत्यादि और चिल्लाने का शब्द सुना, इधर चला आया। मुझे तुम्हारे झगड़े से क्या सम्बन्ध! मैं कहाँ ले जाऊँगा भाई! तुम जानो, तुम्हारा काम जाने। लो, मैं जाता हूँ कहकर घीसू जाने लगा। बिंदो ने कहा-ठहरो! घीसू रुक गया। बिंदो ने फिर कहा-तो जाती हूँ,-अब इसी के संग...। हाँ-हाँ, यह भी क्या पूछने की बात है! बिंदो चली, घीसू भी पीछे-पीछे बगीचे के बाहर निकल आया। सड़क सुनसान थी। दोनों चुपचाप चले। गोदौलिया चौमुहानी पर आकर घीसू ने पूछा-अब तो तुम अपने घर चली जाओगी! __ कहाँ जाऊँगी! अब तुम्हारे घर चलूँगी। घीसू बड़े असमंजस में पड़ा। उसने कहा-मेरे घर कहाँ? नंदू बाबू की एक कोठरी है, वहीं पड़ा रहता हूँ, तुम्हारे वहाँ रहने की जगह कहाँ! बिंदो ने रो दिया। चादर के छोर से आँसू पोंछती हुई, उसने कहा-तो फिर तुमको इस समय वहाँ पहुँचने की क्या पड़ी थी। मैं जैसा होता, भुगत लेती! तुमने वहाँ पहुँचकर मेरा सब चौपट कर दिया-मैं कहीं की न रही! सड़क पर बिजली के उजाले में रोती हुई बिंदो से बात करने में घीसू का दम घुटने लगा। उसने कहा-तो चलो। दूसरे दिन, दोपहर को थैली गोविंदराम के घाट पर रखकर घीसू चुपचाप बैठा रहा। गोविंदराम की बूटी बन रही थी। उन्होंने कहा-घीसू, आज बूटी लोगे? घीसू कुछ न बोला। ____गोविंदराम ने उसका उतरा हुआ मुँह देखकर कहा-क्या कहें घीसू! आज तुम उदास क्यों हो? [ १०७ ]________________

क्या कहूँ भाई! कहीं रहने की जगह खोज रहा हूँ-कोई छोटी-सी कोठरी मिल जाती, जिसमें सामान रखकर ताला लगा दिया करता। गोविंदराम ने पूछा-जहाँ रहते थे? वहाँ अब जगह नहीं है। इसी मढ़ी में क्यों नहीं रहते! ताला लगा दिया करो, मैं तो चौबीस घंटे रहता नहीं। घीसू की आँखों में कृतज्ञता के आँसू भर आए। गोविंद ने कहा-तो उठो, आज तो बूटी छान लो। घीसू पैसे की दुकान लगाकर अब भी बैठता है और बिंदो नित्य गंगा नहाने आती है। वह घीसू की दुकान पर खड़ी होती है, उसे वह चार आने पैसे देता है। अब दोनों हँसते नहीं, मुस्कराते नहीं। घीसू का बाहरी ओर जाना छूट गया है। गोविंदराम की डोंगी पर उस पार हो आता है, लौटते हुए बीच गंगा में से उसकी लहरीली तान सुनाई पड़ती है; किन्तु घाट पर आते-आते चुप। बिंदो नित्य पैसा लेने आती। न तो कुछ बोलती और न घीसू कुछ कहता। घीसू की बड़ी-बड़ी आँखों के चारों ओर हल्के गड्ढे पड़ गए थे। बिंदो उसे स्थिर दृष्टि से देखती और चली जाती। दिन-पर-दिन वह यह भी देखती कि पैसों की ढेरी कम होती जाती है। घीसू का शरीर भी गिरता जा रहा है। फिर भी एक शब्द नहीं. एक बार पछने का काम नहीं। गोविंदराम ने एक दिन पूछा-घीसू, तुम्हारी तान इधर सुनाई नहीं पड़ी। उसने कहा-तबीयत अच्छी नहीं है। गोविंद ने उसका हाथ पकड़कर कहा-क्या तुम्हें ज्वर आता है? नहीं तो, यों ही आजकल भोजन बनाने में आलस करता हूँ, अण्ड-बण्ड खा लेता हूँ। गोविंदराम ने पूछा-बूटी छोड़ दी है, इसी से तुम्हारी यह दशा है। उस समय घीसू सोच रहा था—नंदू बाबू की बीन सुने बहुत दिन हुए, वे क्या सोचते होंगे! गोविंदराम के चले जाने पर घीसू अपनी कोठरी में लेट रहा। उसे सचमुच ज्वर आ गया। भीषण ज्वर था, रात-भर वह छटपटाता रहा। बिंदो समय पर आई, मढ़ी के चबूतरे पर उस दिन घीसू की दुकान न थी। वह खड़ी रही। फिर सहसा उसने दरवाज़ा धकेलकर भीतर देखा-घीसू छटपटा रहा था! उसने जल पिलाया। घीसू ने कहा-बिंदो। क्षमा करना; मैंने तुम्हें बड़ा दुःख दिया। अब मैं चला। लो, यह बचा हुआ पैसा! तुम जानो भगवान्...कहते-कहते उसकी आँखें टंग गईं। बिंदो की आँखों से आँसू बहने लगे। वह गोविंदराम को बुला लाई। बिंदो अब भी बची हुई पूँजी से पैसे की दुकान करती है। उसका यौवन, रूप-रंग कुछ नहीं रहा। बचा रहा-थोड़ा-सा पैसा और बड़ा-सा पेट और पहाड़-से आनेवाले दिन!