चोखे चौपदे
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

वाकरगंज, पटना: खड्गविलास प्रेस, पृष्ठ २५१ से – २६७ तक

 

बहारदार बातें

बसंत बहार

आ बसत बना रहा है और मन।
बौर आमों को अनूठा मिल गया।।
फूल उठते है सुने कोयल-कुहू।
फूल खिलते देख कर दिल खिल गया॥

आम बौरे, कूकने कोयल लगी।
ले महॅक सुन्दर पवन प्यारी चली॥
फूल कितनी बेलियों मे खिल उठे।
खिल उठा मन, खिल उठी दिल की कली॥

भर उमगों मे भँवर हैं गूँजते।
कोयलों का चाव दोगुना हुआ॥
चाँदनी की चद की चोखी चमक।
देख चित किस का न चौगूना हुआ।।


आम बौरे बही बयार बसी।
सज लताये हरी भरी डोली॥
बोल बाला बसत का होते।
खिल उठी बेलि, कोयले बोली॥

भॉवरें बार बार भर भौरे।
फूल को देख कर फबन भूले॥
कोपलें देख कोयले कूकी।
दिल-कमल खिल गया कमल फूले॥

हैं निराली रंगतें दिखला रहीं।
सेत कलियाँ, लाल नीली कोपलें॥
फूल नाना रग के, पत्ते हरे।
भौंर काले और काली कोयलें॥

हैं लुभाती दिल भला किस का नही।
लहलहाती बेलि फूलों की महँक॥
गूँज भौंरों को, तितलियों की अदा।
कोयलों की कूज, चिड़ियों की चहक॥


हैं फबे आज बेल बुटे भी।
झाड़ियों पर लसी लुनाई है॥
दूब पर है अजब छटा छाई।
फूल ला घास रंग लाई है।।

आज है और रग कॉटों का।
फूल है अंग बन गये जिन के॥
कुछ अजब ढग का हरापन पा।
हो गये है हरे भरे तिनके ॥

चाँद मे है भर गई चोखी चमक।
चाँदनी में है भरी चाही तरी॥
है फलों में भर गई प्यारी फबन।
फूल मे हैं रगतें न्यारी भरी॥

बसंत के पौधे

कोंपलों से नये नये दल से।
है फबन से निहाल कर देते॥
हो गये हैं लुभावने पौधे।
फूल है दिल लुभा लुभा लेते॥


है सभी पेड़ कोंपलों से पुर।
है नया रस गया सबों मे भर।।
आम सिरमौर बन गया सब का।
मौर का मौर बॉध कर सिर पर॥

लस रही है पलास पर लाली।
या घिरी लालरी बबूलों से॥
है लुभाते किसे नही सेमल।
लाल हो लाल लाल फूलों से।

लह बड़ी ही लुभावनी रगत।
फूल कचनार औ अनार उठे॥
फूल पाकर बहार मे प्यारे।
हो बहुत ही बहारदार उठे।।

पा गये पर बहार सा मौसिम।
क्यों न अपनी बहार दिखला ले॥
लहलही बेलि, चहचहे खग के।
डहडहे पेड़, डहडही डालें॥

लस रही हैं कोंपलों से डालियॉ।
फूल उन को फूल कर हैं भर रहे।।
हर रहा है मन हरापन पेड़ का।
जी हरा पत्ते हरे है कर रहे।।

रस नया है समा गया जड़ में।
रंगते है बदल रही छालें।।
पेड़ है थालियॉ बने फल की।
फूल की डालियाँ बनी डालें।।

है उसे दे रहे निराला सुख।
कर रहे हैं तरह तरह से तर॥
ऑख मे भर रहे नयापन है।
पेड़, पत्ते नये नये पाकर॥

रगतें न्यारी बड़ी प्यारी छटा।
कर रहे है लाभ मिट्टी धूल से॥
पा रहे है पेड़ फल फल दान का।
कोपलों, कलियों, फलों से, फूल से॥

पेड़ प्यारे पलास सेमल के।
फूल पा लाल, लाल लाल हुए।।
है बहुत ही लुभावने लगते।
लाल दल से लसे हुए महुए॥

पाकरों औ बरगदों के लाल दल।
कम लुनाई से न मालामाल है॥
है हरे दल में बहुत लगते भले।
डालियों की गोदियों के लाल है॥

छा गई है बड़ी छटा उन पर।
बन गये है बहार के छत्ते॥
है लुनाई विजय फरहरे से।
छरहरे पेड़ के हरे पत्ते॥

हो गये है कुछ हरे, कुछ लाल हैं।
कुछ गुलाबी रंग से हैं लस रहे॥
श्राम के दल रंगतें अपनी बदल।
बाँध कर दल हैं दिलों में बस रहे॥

रस बहे बौर देख कर उन में।
उर रहे जो बने तवे पत्ते।।
कर रहे हैं निहाल आमों के।
लाल नीले हरे भरे पत्ते।।

है रही दिल लुभा नही किस का।
कोंपलों को लुभावनी लाली॥
रस भरे फूल, छबि भरी छालें।
दल भरे पेड़, फल भरी डाली।।

सोहते है नये नये पत्ते।
मोहती है नवीन हरियाली॥
हैं नये पेड़ भार से फल के।
है नई फूल-भार से डाली।।

फूल को फेली महँक के भार से।
चाल धीमी है पवन की हो गई।।
हैं फलों के भार से पौधे नये।
है नये दल-भार से डाली नई॥

जो न होतो हरी हरी पत्ती।
कौन तो ताप धूप का खोती॥
क्यां भली छॉह तन तपे पाते।
क्यों तपी आँख तरबतर होती।।

धूप तीखी पतन तपी रूखी।
तो बहुत हो उसे सता पाती॥
तर न करते अगर हरे पत्ते।
किस तरह आँख में तरी आती।।

बसंत की बेलि

खिल दिलों को है बहुत बेलमा रही।
है फलों फूलों दलों से भर रही।।
खेल कितने खेल प्यारी पौन से।
बेलियाँ अठखेलियाँ है कर रही।।

बेलियों मे हुई छगूनी छवि।
बहु छटाया गया लता का तन॥
फूल फल दल बहुत लगे फबने।
पा निराली फबन फबोले बन॥

है लुनाई बड़ी लताओं पर।
है चटकदार रँग चढ़ा गहरा॥
लह बड़े ही लुभावने पत्ते।
लहलही बेलि है रही लहरा॥

फूल के हार पैन्ह सज धज कर।
बन गई है बंसत की दुलही॥
हो लहालोट, हैं रही लहरा।
लहलही बेलियाँ लता उलही॥

पा छबीला बसत के ऐसा।
क्यों न छबि पा लता छबीली हो॥
बेलियों क्यों बने न अलबेली।
फूल फल फेल फब फबीली हो।

बसंत के फूल

रस टपक है रहा फले फल से।
है फबन साथ फब रही फलियाँ॥
फूल सब फूल फूल उठते हैं।
खिलखिला है रही खिली कलियाँ।।

पेड़ सब है कोपलो से लस रहे।
है लुनाई बेल, बाँस, बबूल पर॥
है लता पर, बेलि पर छाई छटा।
है फबन फैली फलों पर, फूल पर॥

तन, नयन, मन सुखी बनाते है।
पेड़ के दल हरे हरे हिल कर॥
बास से बस बसत की ब्हैर।
फूल की धूल धूल से मिल कर।।

रस भरा एक एक पत्ता है।
आज किस का न रस बना सरबस॥
फूल से ही न रस बरसता है।
फल पर भी बरस रहा है रस॥

कर दिलों का लहू लहू डूबे।
छुरे पूच पालिसी के हैं।।
या खिले लाल फूल टेसू के।
या कलेजे छिले किसी के है।।

आज काँटे बखेर कर जी में।
फूल भी हो गया कटीला है॥
चिटकती देख कर गुलाब-कली।
चोट खा चित हुआ चुटीला है॥

बसंत बयार

फूल है घूम घूम चूम रही।
है कली को खिला खिला देती॥
है महँक से दिसा महँकती सी।
है मलय-पौन मोह दिल लेती॥

है सराबोर सी अमीरस में।
चाँदनी है छिड़क रही तन पर॥
घूम मह मह महक रही है वह।
बह रही है बसंत की बैहर॥

मंद चल फूल की महँक से भर।
सूझती चाल जो न भूल भरी॥
आँख में धूल झोंक धूल उड़ा।
तो न बहती बयार धूल भरी॥

फूल को चूम, छू हरे पत्ते।
बास से बस जगह जगह अड़ती॥
जो न पड़ती लपट पवन ठंढी।
तो लपट धूप की न पट पड़ती॥

कोयल

कूक करके निज रसीले कंठ से।
है निराला रस रगों में भर रही।।
कोयले से रंग में रंगत दिखा।
है दिलों में कोयलें घर कर रही।।

रंग बिरंगे फूल है फूले हुए।
है दिसायें रँग बिरगी गूँजती॥
चहचहा चिड़ियाँ रही हैं चाव से।
भौंर गूँजे, कोयलें हैं कूजती॥

मन मराया दिल हुआ कुछ और हो।
कोपलों में हे छटा वेसी कहाँ।।
सुन जिसे जी की कली खिलती रही।
कोयलों में कूक है ऐसी कहाँ।।

देख करके दुखी जनों का दुख।
दुद है वह मचा रही पल पल।।
या किसी का कराहना सुन कर।
बेतरह है कराहती कोयल॥

जो हुआ है लालसाओं का लहू।
लाल फल दल है उसी में ही रँगा॥
हे उसी का दर्द कोयल कूक में।
कोपलों मे है वही लोहू लगा।।

बसंत के भौरे

गूँज कर, झुक कर, झिझक कर, झूम कर।
भौंर करके झौंर रस ले रहे॥
फूल का खिलना, बिहॅसना, बिलसना।
दिल लुभाना देख है दिल दे रहे॥

गूँजते गूँजते उमग में आ।
है बहुत्त चौक चौक कर अड़ते॥
चाव से चूम चम कलियों को।
मनचले भौर है मचल पड़ते।।

हैं रहे घूम घूम रस लेते।
घूम से झूम झूम आते है॥
देह-सुध भूल भूल कर भौंरे।
फूल को चूम चूम जाते हैं।।

गूँजते हैं, ललक लपटते है।
है दिखाते बने हुए बौरे।
कर रहे है नही रसिकता कम।
रसभरे फूल के रसिक भौरे॥

चौगुने चाव साथ रस पी पी।
झोर वह ठौर ठौर करती है।।
आँख भर देख दख फूल फबन।
भाँवरें भौर भीर भरती है।।

हम और तुम

हम तुमारे लिये रहें फिरते।
आँख तुम ने न आज तक फेरी॥
हम तुमें चाहते रहेंगे ही।
चाह चाहे तुमें न हो मेरी॥

पेड़ हम हैं, मलय-पवन तुम हो।
तुमें अगर मेघ, मोर तो हम है।।
हम भँवर हैं, खिले कमल तुम हो।
चन्द जो तुम, चकोर तो हम है॥

कौन है जानकार तुम जैसा।
है हमारा अजान का बाना॥
तुम हमें जानते जनाते हो।
नाथ हम ने तुमें नहीं जाना॥

तुम बताये गये अगर सूरज।
तो किरिन क्यों न हम कहे जाते॥
तो लहर एक हम तुमारी हैं।
तुम अगर हो समुद्र लहराते॥

तब जगत में बसे रहे तुम क्या।
जब सके आँख में न मेरी बस॥
लग न रस का सका हमे चसका।
है तुमारा बना बनाया रस॥

हम फँसे ही रहे भुलावों में।
तुम भुलाये गये नही भूले।
नित रहा फूलता हमारा जी।
तुम रहे फूल की तरह फूले॥

है यही चाह तुम हमे चाहो।
देस-हित में ललक लगे हम हों॥
रंग हम पर चढ़ा तुमारा हो।
लोक-हित-रंग में रँगे हम हों।।

तुम उलझते रहो नही हम से।
उलझनों में उलझ न हम उलझें॥
तुम रहो बार बार सुलझाते।
हम सदा ही सुलझ सुलझ सुलझें।।

भेद तुम को न चाहिये रखना।
क्यों हमें भेद हो न बतलाते॥
हो कहाँ पर नही दिखाते तुम।
क्यों तूूमें देख हम नहीं पाते।।

बहारदार बातें


जो कि तुम हो वही बनेंगे हम।
दूर सारे अगर मगर होंगे।।
हम मरेंगे, नहीं मरोगे तुम।

पा तुम्हें हम मरे अमर होंगे।।