चोखे चौपदे
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

वाकरगंज, पटना: खड्गविलास प्रेस, पृष्ठ २३४ से – २४९ तक

 

जाति के कलंक

निघरघट

कर सकेगा नही निघरघटपन।
जिस किसी में न लाज औ डर हो॥
जब बड़ों की बराबरी की तो।
आँख कैसे भला बराबर हो॥

नामियों ने नाम पाकर क्या किया।
किस लिये बदनामियों से हम डरें॥
मुँह भले ही लाल हो जावे, मगर।
क्यों न अपनी लाल, आँखें हम करें॥

वे बने बाल फैशनों वाले।
जो मुड़े भाल पर लटकते हैं॥
देखता है कि आँख वालों की।
आँख में बेतरह खटकते हैं॥

तब भला सादगी बचे कैसे।
जाय सँजीदगी न कैसे टल॥
जब लगायेंगे दाँत में मिस्सी।
जब घुलायेंगे आँख में काजल॥

है बहुत पूच और छोटी बात।
जो चले मर्द औरतों की चाल॥
कब करेंगे पसंद अच्छे लोग।
काढना माँग औ बनाना बाल॥

मुँहचोर

हम नहीं हैं कमाल वाले कम।
लोग हम में कमाल पाते हैं॥
कुछ चुराते नहीं किसी का भी।
पर सदा मुँह हमी चुराते हैं।।

वे अगर है चतुर कहे जाते ।
ए बड़े बेसमझ कहायेंगे।।
जब कि चितचोर चित चुराते हैं।
क्यों न मुँहचोर मुँह चुरायेंगे।

तब उसे सामना रुचे कैसे।
जब रही लाज को लगी डोरी।।
है लटे वित्त की लपेट बुरी।
चूक की है चपेट मुँहचोरी॥

हमारे मालदार

क्या कह हाल मालदारों का।
माल से है छिनाल घर भरता॥
काढ़ते दान के लिये कौड़ो।
है कलेजा धुकड़ पुकड़ करता।।

किस तरह तब मान की मोहरें मिले।
उलहती रुचि बेलि रहती लहलही।।
देख कौड़ी दूर की लाते हमें।
जब मची हलचल कलेजे में रही।।

निराले लोग

एक डौंडी है बजाती नीद की।
दूसरे मुँहचोर से ही हैं हिले॥
नाक तो है बोलती ही, पर हमें।
नाक में भी बोलने वाले मिले॥

आप जो चाहिये बिगड़ कहिये।
पर नही यह सवाल होता हल॥
पाँव की धूल झाड़ने वाला।
किस तरह जाय कान झाड़ निकल॥

सब हमारी बात ही फिर क्या रही।
जब न कोई कान नित मलता रहे॥
हिल न बकरे की तरह दाढ़ी सके।
मुँह न बकरी की तरह चलता रहे।।

बाल से बेतरह बिगड़ करके।
किस जनम की कसर गई काढ़ी॥
बन गई भौंह, कट गई चोटी।
उड़ गई मूँछ, बन गई दाढ़ी॥

है भला किस काम के कुछ बाल वे।
जो किसी मुँह पर न भूले भी खिले।
तब करे रख क्या, न रखना चाहिये।
जब कि बकरे सी बुरी दाढ़ी मिले।।

सब खटाई ही हमें खट्टी मिली।
और मीठी ही मिली सब साढ़ियॉ॥
देख लम्बा डील लम्बी बात सुन।
क्यों खटक जाती न लम्बी दाढ़ियॉ।।

तरह तरह की बातें
मोह

और भी दॉत गड़ गये रस में।
क्या हुआ दाँत जो सभी टूटा॥
ताकने की तनिक न ताब रही।
ताकना झाँकना नही छूटा॥

अब हम दे सके न भूखों को।
दीन को दान के लिये न चुना॥
है बड़ा दुख किसी दुखी का दुख।
कान देकर किसी समय न सुना।।

चाहतें आज भी सतांती हैं।
भेद पाया न झूठ औ सच का॥
सन हुआ बाल तन हुआ दुबला।
गिर गये दॉत, गाल भी पचका॥

गल गया तन, झूलने चमड़े लगे।
सामने है मौत के दिन भी खड़े॥
पर न छूटी बान हँसने की अभी।
दाँत बिख के सब नहीं अब तक झड़े॥

भाग ने धोखा दिया ही था हमें।
दैव ने भी साथ मेरे की ठगी॥
आज तक हम बन न अलबेले सके।
कंठ से अब तक न अलबेली लगी॥

पेट के पचड़े

सब बुराई बेइमानी है रवा।
भूख देती है बना बेताब जब।।
पापियों को पाप प्यारा है नहीं।
है कराता पेट पापी पाप सब॥

माँस खाया पिया हुआ लोहू।
क्या पत्राना इसे न प्यारा है।।
है कमोरा कपट कटूसी का।
पेट यह पाप का पेटारा है॥

है बड़ा जजाल, है झंझट भरा।
माजरा है मान मटियामेट का।
है कनौड़ा कर नही देता किसे।
पेट रखना या रखाना पेट का॥

पाप जो प्यारा नहीं होता उसे।
मान, तो पापी कहा खोता नहीं॥
वह पचाता तो पराया माल क्यों।
पेट मतवाला अगर होता नही॥

क्यों पले पीस कर किसी को तू।
है बहुत पालिसी बुरी तेरी॥
हम रहे चाहते पटाना ही।
पेट तुझ से पटी, नहीं मेरी॥

भर सके हो नही, भरे पर भी।
कब नही हर तरह भरे जाते॥
पट सके हो न पाटने पर भी।
पेट तुम से निपट नही पाते।।

बेचारा बाप

भाग पलटे पलट गया वह भी।
बासमझ औ बहुत भला जो था।।
आज वह सामना लगा करने।
ऑख के सामने पला जो था॥

प्यार का प्याला पिला पाला जिसे।
हाथ से उस के बहुत से दुख सहे।।
कर रहा है छेद छाती में वही।
हम जिसे छाती तले रखते रहे।।

मानते जिस को बहुत ही हम रहे।
मानता है क्यों न वह मेरा कहा॥
किस लिये वह मूँग छाती पर दले।
जो मदा छाती तले मेरी रहा॥

क्यों वही है आँख का काँटा हुआ।
आँख जिस को देख सुख पाती रही।।
जी हमारा क्यों जलाता है वही।
पा जिसे छाती जुड़ा जाती रही।।

बावला हो जाय जी कैसे नही।
ऑख से कैसे न जलधारा बहे।।
है कलेजे मे छुरी वह मारता।
हम कलेजे में जिसे रखते रहे।।

फूल से हम जिसे न मार सके।
है वही आज भोंकता भाला॥
आज है खा रहा कलेजा वह।
है कलेजा खिला जिसे पाला।।

क्यों कलेजा न प्यार का दहले।
ले कलेजा पकड़ न क्यों नेकी।।
बाप के मोम से कलेजे को।
दे कुचल कोर जो कलेजे की॥

किरकिरी बह आँख की जाये न बन।
जो हमारी आँख का तारा रहा।।
कर न दे टुकड़े कलेजे के वही।
है जिसे टुकड़ा कलेजे का कहा॥

सुख अगर दे हमे नही सकता।
तो रखे लाज दुख अंगेजे की॥
वह फिरे देखता न कोर कसर।
कोर है जो मेरे कलेजे की॥

दूसरा क्या सपूत करता है।
किस तरह मुँह न मोड़ लेवे वह॥
पीठ पर हो उसे फिरे लादे।
पीठ कैसे न तोड़ देवे वह॥

निराली धुन

मिल गई होती हवा में ही तुरत।
चाहिये था चित्त वह लेती न हर॥
जो उठी उस से लहर जी मे बुरी।
तो गई क्यों फैल गाने की लहर॥

सुन जिसे मनचले बहँक जावें।
मन करे बार बार मनमाना॥
क्यों नही वह बिगड़ बिगड़ जाता।
दे भली रुचि बिगाड़ जो गाना॥

कान से सुन गीत पापों के लिये।
जो न पापी आँख से आँसू छना॥
बंग लोगों का बना उस से न जो।
तब अगर गाना बना तो क्या बना।।

कंठ मीठा न मोह ले हम को।
है बुरा राग-रग का बाना॥
सुन जिसे गाँठ का गँवा देवें।
है भला गठ सके न वह गाना॥

जो बुरे भाव भर दिलों में दे।
कर उन्हें बार बार बेगाना।।
सुन जिसे पथ सुपथ से उखड़ें।
क्यों नहीं वह उखड़ गया गाना॥

जब हमें ताक ताक कान तलक।
काम ने था कमान को ताना॥
जब जमा पॉव था बुरे पथ में।
तब भला किस लिये जमा गाना॥

सुन जिसे बार बार सिर न हिला।
लय न जिस की रही ठमक ठगती॥
तब भला गान मे रहा रस क्या।
तान पर तान जो न थी लगती॥

दूसरे उपजा नही सकते उसे।
है उपजती जो उपज उर से नही।।
पा सकेगा रस नही नीरस गला।
गा सकेगा बेसुरा सुर से नही।।

रात दिन वे गीत अब सुनते रहे।
चाव से जिनको भली रुचि ने चुना॥
रीझ रीझ अनेक मीठे कंठ से।
आज तक गाना बहुत मीठा सुना॥

चाहते हैं हम अगर गाना सुना।
तो भले भावों भरा गाना सुनें।।
चौगुनी रुचि साथ सुनने के लिये।
गीत न्यारा रामरस चूता चुनें।।

तब भला किस लिये बजा बाजा।
जब न भर भाव मे बहुत भाया॥
जब सराबोर था न हरिरस मे।
गीत तब किस लिये गया गाया।।

खरी बातें

कौन उनमे बिना कसर का था।
है दिखाई दिये हमे जितने॥
खोल दिल कौन मिल सका किस से।
है खुले दिल हमे मिले कितने॥

ढोल मे पोल ही मिली हम को।
बारहा ऑख खोल कर देखा।।
है वहाँ मोल जोल मतलब का।
लाखहा दिल टटोल कर देखा।।

कुछ मिले काम नाम के भूखे।
कुछ मिले चाम दाम मत वाले॥
कुछ पियाले पिये मिले मद के।
हैं लिये देख हम ने दिल वाले॥

क्यों सके जान दिल दिलों का दुख।
बात खुभती न जो खुभे दिल में॥
बात चुभती न हम कहें कैसे।
चुभ गई बात तो चुभे दिल में।।

बात मुँहदेखी कही जाती नहीं।
किस तरह कर चापलूसी चुप रहें।।
दिल किसी का कुढ़ रहा है तो कुढ़े।
दिल यही है चाहता, दिल को कहें।।

मिल सके जो न देवतों को भी।
क्यों न मेवे मिलें उसे वैसे॥
मन भरे, आम रस भरे क्या है।
जन भरे पेट को भरे कैसे॥

धन बढ़े कब भला न लोभ बढ़ा।
कब हुई लाभ के लिये न सई॥
प्यास है और भी अधिक होती।
पेट पानी हुए न प्यास गई॥

कर कपट साधु-संत से गुरु से।
कब न कपटी बुरी तरह मूये॥
एक दिन जायगा छला वह भी।
पाँव छल साथ जो छली छूये॥

चाँद जैसा खिल अमर सकता नहीं।
क्यों न तो वह फल जैसा ही खिले॥
क्या छोटाई मे भलाई है नही।
दिल करे छोटा न छोटा दिल मिले॥

क्या नही बामन बड़ाई पा सके।
क्या न छोटो बाँसुरी सुन्दर बजी॥
फूल छोटे क्या नहीं है मोहते।
हैं अगर छोटे, करें छोटा न जी॥