चन्द्रगुप्त मौर्य्य/मौर्य-वंश
प्राचीन आर्य नृपतिगण का साम्राज्य उस समय नहीं रह गया था। चन्द्र और सूर्य्यवश की राजधानियाँ अयोध्या और हस्तिनापुर, विकृत रूप में भारत के वक्षस्थल पर अपने साधारण अस्तित्व का परिचय दे रही थी । अन्य प्रचण्ड बर्बर जातियों की लगातार चढाइयों से पवित्र सप्तसिन्धु प्रदेश में आर्यों के साम-गान का पवित्र स्वर मन्द हो गया था। पाञ्चालों की लीला-भूमि तथा पजाब मिश्रित जातियो से भर गया था। जाति, समाज और धर्म सब मे एक विचित्र मिश्रण और परिवर्तन सा हो रहा था । कहीं आभीर और कहीं ब्राह्मण, राजा बन बैठे थे । यह सब भारत-भूमि की भावी दुर्दशा की सूचना क्यों थी ? इसका उत्तर केवल यही आपको मिलेगा, कि---धर्म-सम्बन्धी महापरिवर्तन होनेवाला था। वह बुद्ध से प्रचारित होने वाले बौद्ध धर्म की ओर भारतीय आर्य लोगों का झुकाव था, जिसके लिए वे लोग प्रस्तुत हो रहे थे ।
उस धर्म्मबीज को ग्रहण करने के लिए कपिल, कणाद आदि ने
आर्य्यो का हृदय-क्षेत्र पहले ही से उर्वर कर दिया था, किन्तु यह मत सर्वसाधारण में अभी नहीं फैला था । वैदिक कर्मकाण्ड की जटिलता से उपनिषद् तथा सांख्य आदि शास्त्र आर्य्य लोगों को सरल और सुगम प्रतीत होने लगे थे । ऐसे ही समय पार्श्र्वनाथ ने एक जीव-दयामय धर्म प्रचारित किया और वह धर्म बिना किसी शास्त्र-विशेष के, वेद तथा प्रमाण की उपेक्षा करते हुए फैलकर शीघ्रता के साथ सर्वसाधारण से सम्मान पाने लगा । आर्य्यो की राजसूय और अश्वमेध आदि शक्ति बढ़ाने वाली क्रियाये शून्य स्थान में ध्यान और चिन्तन के रूप में परिवर्तित हो गई , अहिंसा का प्रचार हुआ। इससे भारत की उत्तरी सीमा
में स्थित जातियों को भारत में आकर उपनिवेश स्थापित करने का
उत्साह हुआ। दार्शनिक मत के प्रबल प्रचार से भारत में धर्म, समाज और साम्राज्य, सब मे विचित्र और अनिवार्य परिवर्तन हो रहा था । बुद्धदेव के दो-तीन शताब्दी पहले ही दार्शनिक मतो ने, उन विशेष बन्धनो को, जो उस समय के आर्यों को उद्विग्त कर रहे थे, तोड़ना आरम्भ किया। उस समय ब्राह्मण वल्कलधारी होकर काननों में रहना ही अच्छा न समझते, वरन् वे भी राज्यलोलुप होकर स्वतन्त्र छोटे-छोटे राज्यों के अधिकारी बन बैठे। क्षत्रियगण राजदण्ड को बहुत भारी तथा अस्त्र-शस्त्रों को हिंसक समझकर उनकी जगह जप-चक्र हाथ में रखने लगे । वैश्य लोग भी व्यापार आदि मे मनोयोग न देकर, धर्मा- चार्य की पदवी को सरल समझने लगे । और तो क्या, भारत के प्राचीन दास भी अन्य देशो से आई हुई जातियों के साथ मिल कर दस्यु-वृत्ति करने लगे।
वैदिक धर्म पर क्रमश बहुत-से आघात हुए, जिनसे वह जर्जर हो गया । कहा जाता है, कि उस समय धर्म की रक्षा करने में तत्पर ब्राह्मणों ने अर्बुदगिरि पर एक महान् यज्ञ करना आरम्भ किया और उस यज्ञ का प्रधान उद्देश्य वर्णाश्रम धर्म तथा वेद की रक्षा करना था। चारो ओर से दल-के-दल क्षत्रियगण--जिनका युद्ध ही आमोद था--जुटने लगे और वे ब्राह्मण धर्म को मानकर अपने आचार्यों को पूर्ववत् सम्मानित करने लगे। जिन जातियो को अपने कुल की क्रमागत वश्मर्य्यादा भूल गई थी, वे तपस्वी और पवित्र ब्राह्मणों के यज्ञ से संस्कृत होकर चार जातियों में विभाजित हुई । इनका नाम अग्निकुल हुआ । सम्भवत इसी समय में तक्षक या नागवंशी भी क्षत्रियों की एक श्रेणी में गिने जाने लगे।
यह धर्म-क्रान्ति भारतवर्ष में उस समय हुई थी, जब जैनतीर्थकर
पाश्र्वनाथ हुए, जिनका समय ईसा से ८०० वर्ष पहले माना जाता है।
जैन लोगो के मन में भी इस समय में विशेष अन्तर नहीं है । ईसा
के आठ सौ वर्ष पूर्व यह बड़ी घटना भारतवर्ष में हुई, जिसने भारतवर्ष
में राजपूत जाति बनाने में बड़ी सहायता दी और समय-समय पर उन्ही
राजपूत क्षत्रियों ने बड़े-बड़े कार्य किये। उन राजपुत्रो की चार
जातियो में प्रमुख परमार जाति थी और जहाँ तक इतिहास पता देता
है---उन लोगो ने भारत के भिन्न-भिन्न प्रदेशो मे फैलकर नवीन जन-
पद और अक्षय कीर्ति उपार्जित की। धीरे-धीरे भारत के श्रेष्ठ राज्यवर्गों
में इनकी गणना होने लगी । यद्यपि इस कुल की भिन्न-भिन्न पैतीस
शाखाएँ है; पर सब में प्रधान और लोक-विश्रुत मौर्य नाम की शाखा
हुई । भारत का श्रृंखलाबद्ध इतिहास नही है, पर बौद्धो के बहुत-से
शासन-सम्बन्धी लेख और उनकी धर्म-पुस्तको से हमें बहुत सहायता
मिलेगी, क्योकि उस धर्म को उन्नति के शिखर पर पहुँचानेवाला उसी
मौर्य्य-वशं का सम्राट अशोक हुआ है । बौद्धो के विवरण से ज्ञात होता
है, कि शैशुनाक-वशी महानन्द के सकर-पुत्र महापद्म के पुत्र धननन्द
से मगध का सिंहासन लेनेवाला चन्द्रगुप्त मोरियो के नगर का राज-
कुमार था। यह मोरियो का नगर पिप्पली-कानन था, और पिप्पली-
कानन के मौर्य नृपति लोग भी बुद्ध के शरीर-भस्म के भाग लेनेवालो
मे एक थे ।
मौर्य्य लोगो की उस समय भारत में कोई दूसरी राजधानी न थी ।
यद्यपि इस बात का पता नही चलता, कि इस वंश के आदिपुरुषो में
से किसने पिप्पली-कानन में मौर्यों की पहली राजधानी स्थापित की,
पर यह स्पष्ट ज्ञात होता है, कि ईसा से ५०० वर्ष या इससे पहले
यह राजधानी स्थापित हुई और मौर्य्य-जाति, इतिहास-प्रसिद्ध कोई
ऐसा कार्य तब तक नहीं कर सकी, जब तक प्रतापी चन्द्रगुप्त उसमे
न उत्पन्न हुआ । उसने मौर्य्य शब्द को, जो अब तक भारतवर्ष के
एक कोने में पड़ा हुआ अपना जीवन अपरिचित रूप से विता रहा
था, केवल भारत ही नहीं, वरन् ग्रीस आदि समस्त देशो में परिचित
करा दिया । ग्रीक इतिहास-लेखको ने अपनी भ्रमपूर्ण लेखनी से इस
चन्द्रगुप्त के बारे में कुछ तुच्छ बाते लिख दी है, जो कि बिलकुल असम्बद्ध ही नहीं, वरन् उलटी है। जैसे-'चन्द्रगुप्त नाइन के पेट से पैदा हुआ महानन्दिन का लड़का था।' पर यह बात पोरस ने महापद्म और घननन्द आदि के लिए कही है*[१] और वही पीछे से चन्द्रगुप्त के लिए भ्रम से यूनानी ग्रन्थकारो ने लिख दी है। ग्रीक इतिहास-लेखक Plutarch लिखता है, कि चन्द्रगुप्त मगध-सिंहासन पर आरोहण करने के बाद कहता था कि सिकन्दर महापद्म को अवश्य जीत लेता, क्योंकि यह नीचजन्मा होने के कारण जन-समाज में अपमानित तथा घृणित था। लिवानियस आदि लेखको ने तो यहाँ तक भ्रम डाला है, कि पोरस ही नापित से पैदा हुआ था। पोरस ने ही यह बात कही थी, इससे वही नापितपुत्र समझा जाने लगा, तो क्या आश्चर्य है कि तक्षशिला में जब चन्द्रगुप्त ने यही बात कही थी, तो वही नापित-पुत्र समझा जाने लगा हो। ग्रीको के भ्रम से ही यह कलंक उसे लगाया गया है।
एक बात और भी उस समय तक निर्धारित नहीं हुई थी, कि Sandrokottus और Zandrames भिन्न-भिन्न दो व्यक्तियो का या एक का ही नाम हैं। यह तो H. H. Wilson ने विष्णु-पुराण आदि के सम्पादन-समय में सन्ड्रोकोटस और चन्द्रगुप्त को
एक में मिलाया। यूनानी लेखको ने लिखा है कि Zandrames
ने बहुत सेना लेकर सिकन्दर से मुकाबिला किया। उन्होने उसे प्राच्य देश के राजा Zandrames को, जो नन्द था, भूल से चन्द्रगुप्त समझ लिया—जो कि तक्षशिला में एक बार सिकन्दर से मिला था और बिगडकर लौट आया था। चन्द्रगुप्त और सिकन्दर की भेट हुई थी, इसलिए भ्रम से वे लोग Sandrokottus और Zandrames को एक समझकर नन्द की कथा को चन्द्रगुप्त के पीछे जोडने लगे ।
चन्द्रगुप्त ने पिप्पली-कानन के कोने से निकलकर पाटलीपुत्र पर अधिकार किया। मेगास्थनीज ने इस नगर का वर्णन किया है और फारस की राजधानी से बढ़ कर बतलाया है । अस्तु, मौर्य्य की दूसरी राजधानी पाटलीपुत्र हुई ।
पुराणो के देखने से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त के बाद नौ राजा
उसके वश मे मगध के सिंहासन पर बैठे। उनमे अन्तिम राजा वृहद्रथ
हुआ, जिसे मारकर पुष्यमित्र—जो शुग-वश का था--मगध के
सिंहासन पर बैठा , किन्तु चीनी यात्री हुएनत्साग, जो हर्षवर्धन के समय में आया था, लिखता है---“मगध का अन्तिम अशोकवशी पूर्णवर्मा हुआ, जिसके समय में शशाकगुप्त ने बोधिद्रुम को विनष्ट किया था। और उसी पूर्णवर्म्मा ने बहुत-से गौ के दुग्ध से उस उन्मूलित बोधिद्रुम को सीचा, जिससे वह शीघ्र ही फिर बढ गया ।" यह बात प्राय सब मानते है कि मौर्य्यवश के नौ राजाओ ने मगध के राज्यासन पर बैठकर उसके अधीन के समस्त भूभाग पर शासन किया । जब मगध के सिंहासन पर से मौर्य्यवशियो का अधिकार जाता रहा, तब उन
लोगो ने एक प्रादेशिक राजधानी को अपनी राजधानी बनाया । प्रबल
प्रतापी चन्द्रगुप्त का राज्य चार प्रादेशिक शासको से शासित होता था।
अवन्ती, स्वर्णगिरि, तोषली और तक्षशिला में अशोक के चार सूबे-
दार रहा करते थे। इनमें अवन्ती के सूबेदार प्राय राजवंश के होते
थे । स्वय अशोक उज्जैन का सूबेदार रह चुका था । सम्भव है कि
मगध का शासन डावाडोल देखकर मगध के आठवें मौर्य नृपनि
सोमशर्मा के किसी भी राजकुमार ने, जो कि अवन्ती का प्रादेशिक
शासक रहा हो, अवन्ती को प्रधान राजनगर वना लिया हो,क्योकि उसकी एक ही पीढी के बाद मगध के सिंहासन पर गुंगवशियो का अधिकार हो गया । यह घटना सम्भवतः १७५ ई० पूर्व हुई होगी, क्योकि १८३ मे सोमशर्मा मगध का राजा हुआ। भट्टियो के ग्रन्थो मे लिखा है कि मौर्य्य-कुल के मूलवश से उत्पन्न हुए परमार नृपतिगण ही उस समय भारत के चक्रवर्ती राजा थे, और वे लोग कभी-कभी
उज्जयिनी में ही अपनी राजधानी स्थापित करते थे।
टाड ने अपने राजस्थान में लिखा है कि जिस चन्द्रगुप्त की महान् प्रतिष्ठा का वर्णन भारत के इतिहास में स्वर्णाक्षरो से लिखा है, उस चन्द्रगुप्त का जन्म पवॉर-कुल की मौर्य्य शाखा में हुआ है। सम्भव है कि विक्रम के सौ या कुछ वर्ष पहले जब मौर्यों की राजधानी पाटलीपुत्र से हटी, तव इन लोगो ने उज्जयिनी को प्रधानता दी और यहीं पर अपने एक प्रादेशिक शासक की जगह राजा की तरह रहने लगे।
राजस्थान में पवाँर-कुल के मौर्य्य नृपतिगण ने इतिहास में प्रसिद्ध बड़े-बड़े कार्य किये, किन्तु ईसा की पहली शताब्दी से लेकर ५वी शताब्दी तक प्राय उन्हे गुप्तवशी तथा अपर जातियो से युद्ध करना पडा । भट्टियो ने लिखा है कि उस समय मौर्य्य-कुल के परमार लोग कभी उज्जयिनी को और कभी राजस्थान की धारा को अपनी राजधानी बनाते थे ।
इसी दीर्घकालव्यापिनी अस्थिरता में मौर्य्य लोग जिस तरह अपनी
प्रभुता बनाये रहे, उस तरह किसी वीर और परिश्रमी जाति के सिवा
दूसरा नहीं कर सकता। इसी जाति के महेश्वर नामक राजा ने विक्रम
के ६०० वर्ष बाद कार्तवीय्यर्जुिन की प्राचीन महिष्मती को जो नर्मदा
के तट पर थी, फिर से बसाया और उसका नाम महेश्वर रखा, उन्हीं
या पौत्र दूसरा भोज हुआ । चित्राग मौर्य्य ने भी थोडे ही समय के
अन्तर में चित्रकूट ( चित्तौर ) का पवित्र दुर्ग बनवाया, जो भारत के स्मारक-चिह्नो मे एक अपूर्व वस्तु है ।
गुप्तवंशियो ने जब अवन्ती मौर्य्य लोगो से ले ली, उसके बाद वीर मौर्य्यो के उद्योग से कई नगरी बसाई गई और कितनी ही उन लोगो ने दूसरे राजाओ से ले ली । अर्बुदगिरि के प्राचीन भूभाग पर उन्ही का अधिकार था । उस समय राजस्थान के सब अच्छे-अच्छे नगर प्राय मौर्य्य-राजगण के अधिकार में थे । विक्रमीय सवत् ७८० तक मौर्य्य की प्रतिष्ठा राजस्थान मे थी और उस अन्तिम प्रतिष्ठा को तो भारतवासी कभी न भूलेगे जो चित्तौरपति मौर्य्य-नरनाथ मान- सिह ने खलीफा वलीद को राजस्थान से विताडित करके प्राप्त की थी।
मानमौर्य्य के बनवाये हुए मानसरोवर में एक शिलालेख है, जिसमे लिखा है कि----“महेश्वर को भोज नाम का पुत्र हुआ था, जो धारा और मालव का अधीश्वर था, उसी से मानमौर्य्य हुए।” इतिहास में ७८४ सवत् मे वाप्पारावल का चित्तौर अधिकार करना लिखा है, तो इसमे सदेह नही रह जाता कि यही मानमौर्य्य बाप्पारावल के द्वारा प्रवञ्चित हुआ ।
महाराज मान प्रसिद्ध बाप्पादित्य के मातुल थे । बाप्पादित्य ने नागेन्द्र से भाग कर मानमौर्य्य के यहाँ आश्रय लिया, उनके यहाँ सामन्त-रूप से रहने लगे । धीरे-धीरे उनका अधिकार सब सामन्तो से बढा, तब सब सामन्त उनसे डाह करने लगे । किन्तु बाप्पादित्य की सहायता से मानमौर्य्य ने यवनों को फिर भी पराजित किया। पर उन्ही वाप्पादित्य की दोधारी तलवार मानमौर्य्य के लिए कालभुजगिनी और मौर्य्य-कुल के लिए तो मानो प्रलय-समुद्र की एक बड़ी लहर हुई। मान बाप्पादित्य के हाथ से मारे गये और राजस्थान में मौर्य्य-कुल का अब कोई राजा न रहा। यह घटना विक्रमीय सवत् ७८४ की है।
कोटा के कण्वाश्रम के शिवमन्दिर में एक शिलालेख संवत् ७९५
का पाया गया है। उससे मालूम होता है कि आठवी शताब्दी
के अन्त तक राजपूताना और मालवा पर मौर्य्य नृपति का अधिकार रहा ।
प्रसिद्ध मालवेश भोज भी परमारवश का था जो १०३५ मे हुआ । इस प्रकार परमार और मौर्य्य-कुल पिछले काल के विवरणो से एक में मिलाये जाते है। इस बात की शंका हो सकती है कि मौर्य्य-कुल की मूल शाखा परमार का नाम प्राचीन बौद्धो की पुस्तको में क्यो नही मिलता। परन्तु यह देखा जाता है कि जब एक विशाल जाति से एक छोटा-सा कुल अलग होकर अपनी स्वतंत्र सत्ता बना लेता हैं, तब प्राय वह अपनी प्राचीन सज्ञा को छोडकर नवीन नाम को अधिक प्रधानता देता है । जैसे इक्ष्वाकुवशी होने पर भी बुद्ध, शाक्य नाम से पुकारे गये और, जब शिलालेखों में मानमौर्य्य और परमार भोज के हम एक ही वंश में होने का प्रमाण पाते हैं, तब कोई संदेह नहीं रह जाता। हो सकता हैं, मौर्य्य के बौद्धयुग के बाद जब इस शाखा का हिन्दूधर्म की ओर अधिक झुकाव हुआ हो तो परमार नाम फिर से लिया जाने लगा हो, क्योकि मौर्य्य लोग बौद्ध-प्रेम के कारण अधिक कुख्यात हो चुके थे । बौद्ध-विद्वेष के कारण अशोक के वंश को अक्षत्रिय तथा नीच कुल का प्रमाणित करने के लिए मध्य-काल में अधिक उत्सुकता देखी जाती है, किन्तु यह अस्वीकार नहीं किया जा सकता है कि प्रसिद्ध परमार-कुल और मौर्य्य-वंश परस्पर सम्बद्ध है।
इस प्रकार अज्ञात पिप्पली-कानन के एक कोने से निकल कर विक्रम-सवत् के २६४ वर्ष पहले से ७८४ वर्ष बाद तक मौर्य्य लोगो ने पाटलीपुत्र, उज्जैन, धारा, महेश्वर, चित्तौर ( चित्रकूट ) और अर्बुदगिरि आदि में अलग-अलग अपनी राजधानियाँ स्थापित की और लगभग १०५० वर्ष तक वे लोग मौर्य्य नरपति कहकर पुकारे गये ।
मौर्य्य-कुल का सबसे प्राचीन स्थान पिप्पली-कानन था । चन्द्रगुप्त
के आदिपुरुष मौर्य्य इसी स्थान के अधिपति थे और यह राजवंश गौतमबुद्ध के समय में प्रतिष्ठित गिना जाता था, क्योंकि बौद्धों ने महात्मा बुद्ध के शरीर-भस्म का एक भाग पाने वालों में पिप्पली-कानन के मौर्यों का उल्लेख किया है। पिप्पली-कानन बस्ती जिले में नैपाल की सीमा पर है। वहाँ ढूह और स्तूप हैं, इसे अब पिपरहियाकोट कहते हैं। फाहियान स्तूप आदि देख कर भ्रमवश इसी को पहले कपिल-वस्तु समझा था। मि॰ पीपी ने इसी स्थान को पहले खुदवाया और बुद्धदेव की धातु तथा और जो वस्तुएँ मिलीं, उन्हें गवर्नमेंट को अर्पित किया था तथा धातु का प्रधान अंश सरकार ने स्याम के राजा को दिया।
इसी पिप्पली-कानन में मौर्य्य लोग अपना छोटा-सा राज्य स्वतन्त्रता से संचालित करते थे, और ये क्षत्रिय थे, जैसा कि महावंश के इस अवतरण से सिद्ध होता है "मोरियान खतियान वसजात सिरीधर। चन्द्रगुप्तो सिपज्जत चाणक्को ब्रह्मणोततो।" हिन्दू नाटककार विशाखदत्त ने चन्द्रगुप्त को प्रायः वृषल कहकर सम्बोधित कराया है, इससे उक्त हिन्दू-काल की मनोवृत्ति ही ध्वनित होती है। वस्तुतः वृषल शब्द से तो उनका क्षत्रियत्व और भी प्रमाणित्व होता है, क्योंकि—
शनकैस्तु क्रियालोपादिमा क्षत्रियजातय
वृषलत्व गता लोके ब्राह्मणानामदर्शनात्।
यह प्रवाद भी अधिकता से प्रचलित है कि मौर्य्य-वंश मुरा नाम की शूद्रा से चला है और चन्द्रगुप्त उसका पुत्र था। यह भी कहा जाता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य्य शूद्रा मुरा से उत्पन्न हुआ नन्द ही का पुत्र था। किन्तु V A Smith लिखते है—"But it is perhaps more probable that the dynasties of Mouryas and Nandas were not connected by blood." तात्पर्य्य कि---यह अधिक सभव है कि नन्दों और मौर्य्यो का कोई रक्त-सम्बन्ध न था। Maxmuller भी लिखते है--"The statement of Wilford that mourya meant in Sanskrit the offspring of a barber and Sudra woman has never been proved.”
मुरा शूद्रा तक ही न रही, एक नापित भी आ गया । मौर्य शब्द की व्याख्या करने जाकर कैसा भ्रम फैलाया गया है। मुरा से मोर और मौरेय बन सकता है, न कि मौर्य्य। कुछ लोगो का अनुमान है कि शुद्ध शब्द मोरिय है, उससे संस्कृत शब्द मौर्य्य बना है; परन्तु, यह बात ठीक नहीं, क्योकि अशोक के कुछ ही समय बाद के पतञ्जलि ने स्पष्ट मौर्य्य शब्द का उल्लेख किया है -“मौर्य्य हिरण्याथिभिरर्चा प्रकल्पिता " ( भाष्य ५-३-९९ ) इसीलिए मौर्य्य शब्द अपने शुद्ध रूप में संस्कृत का है न कि कहीं से लेकर सस्कार किया गया है। तब यह तो स्पष्ट है कि मौर्य्य शब्द अपनी संस्कृत-व्युत्पत्ति के द्वारा मुरा का पुत्रवाला अर्थ नहीं प्रकट करता । यह वास्तव में कपोल-कल्पना है और यह भ्रम यूनानी लेखकों से प्रचारित किया गया है, जैसा कि ऊपर दिखाया जा चुका है । अर्थ-कथा में मौर्य्य शब्द की एक और व्याख्या मिलती है । शाक्य लोगों में आपस में बुद्ध के जीवन-काल में ही एक झगड़ा हुआ और कुछ लोग हिमवान् के पिप्पली-कानन-प्रदेश में अपना नगर बसाकर रहने लगे । उस नगर के सुन्दर घरो पर क्रौञ्च और मोर पक्षी के चित्र अंकिन थे, इसलिए वहाँ के शाक्य लोग मोरिय कहलाए। कुछ सिक्के विहार में ऐसे भी मिले हैं, जिनपर मयूर का चिह्न अकित है। इससे अनुमान किया जाता है कि वे मौर्य्य-काल के सिक्के है। किन्तु इससे भी उनके क्षत्रिय होने का प्रमाण ही मिलता है।
हिन्दी ‘मुद्राराक्षम' की भूमिका में भारतेन्दुजी लिखते है कि-- “महानन्द जो कि नन्दवश का था, उससे नौ पुत्र उत्पन्न हुए। बङी रानी से आठ और मुरा नाम्नी नापित-कन्या मे नवा चन्द्रगुप्त । महानन्द से और उसके मन्त्री शकटार से वैमनस्य हो गया, इस कारण मन्त्री ने चाणक्य-द्वारा महानन्द को मरवा डाला और चन्द्रगुप्त को चाणक्य ने राज्य पर बिठाया, जिसकी कथा 'मुद्राराक्षस' में प्रसिद्ध है।"—किन्तु यह भूमिका जिसके आधार पर लिखी हुई है, वह मूल संस्कृत मुद्राराक्षस के टीकाकार का लिखा हुआ उपोद्घात है। भारतेन्दुजी ने उसे भी अविकल ठीक न मानकर 'कथा-सरित्सागर' के आधार पर उसका बहुत-सा संशोधन किया है। कहीं-कहीं उन्होने कई कथाओं का उलट-फेर भी कर दिया है। जैसे हिरण्यगुप्त के रहस्य के बतलाने पर राजा के फिर शकटार से प्रसन्न होने की जगह विचक्षणा के उत्तर से प्रसन्न होकर शकटार को छोड़ देना तथा चाणक्य के द्वारा अभिचार से मारे जाने की जगह महानन्द का विचक्षणा के दिए हुए विष से मारा जाना इत्यादि।
ढुढि लिखते हैं कि—"कलि के आदि में नन्द नाम का एक राजवंश था। उसमे सर्वार्थसिद्धि मुख्य था। उसकी दो रानियाँ थीं—एक सुनन्दा, दूसरी वृषला मुरा। सुनन्दा को एक मासपिण्ड और मुरा को मौर्य्य उत्पन्न हुआ। मौर्य्य से सौ पुत्र उत्पन्न हुए। मंत्री राक्षस ने उस मासपिण्ड को जल में नौ टुकडे़ कर के रक्खा, जिससे नौ पुत्र हुए। सर्वार्थसिद्धि अपने उन नौ लड़को को राज्य देकर तपस्या करने चला गया। उन नौ नन्दो ने मौर्य्य और उसके लड़को को मार डाला केवल एक चन्द्रगुप्त प्राण बचाकर भागा, जो चाणक्य की सहायता से नन्दो का नाश कर के, मगध का राजा बना।"
कथा-सरित्सागर के कथापीठ लम्बक में चन्द्रगुप्त के विषय में एक विचित्र कथा है। उसमें लिखा है कि—"नन्द के मर जाने पर इन्द्रदत्त (जो कि उसके पास गुरु-दक्षिणा के लिए द्रव्य माँगने गया था)—ने अपनी आत्मा को योग-बल से राजा के शरीर में डाला, और आप राज्य करने लगा। जब उसने अपने साथी वररुचि को एक करोड़ रुपया देने के लिए कहा, तब मंत्री शकटार ने, जिसको राजा के मर कर
फिर से जी उठने पर पहिले ही से शका थी, विरोध किया। तब उस योगनन्द राजा ने चिढकर उसको कैद कर लिया और वररुचि को
अपना मंत्री बनाया । योगनन्द बहुत विलासी हुआ, उसने सर्व राज्य-
भार मंत्री पर छोड़ दिया। उसकी ऐसी दशा देखकर वररुचि ने
शकटार को छुडाया और दोनों मिलकर राज्य-कार्य्य करने लगे। एक
दिन योगनन्द की रानी के चित्र में उरोकी जाँघ पर एक तिल बना
देने से राजा ने वररुचि पर शका कर के शकटार को उसके मार
डालने की आज्ञा दी । पर शकटार ने अपने उपकारी को छिपा रक्खा।
योगनन्द के पुत्र हिरण्यगुप्त ने जंगल में अपने मित्र रीछ से विश्वासघात किया । इससे वह पागल और गूंगा हो गया । राजा ने कहा---“यदि वररुचि होता, तो इसका कुछ उपाय करता ।” अनुकूल समय देखकर शकटार ने वररुचि को प्रकट किया। वररुचि ने हिरण्यगुप्त का सब रहस्य सुनाया और उसे नीरोग किया । इसपर योगनन्द ने पूछा कि तुम्हे यह बात कैसे ज्ञात हुई ? वररुचि ने उत्तर दिया--"योगबल से; जैसे रानी की जाँघ का तिल ।” राजा उसपर बहुत प्रसन्न हुआ, पर वह फिर न ठहरा और जंगल मे चला गया। शकटार ने समय ठीक देखकर चाणक्य-द्वारा योगनन्द को मरवा डाला और चन्द्रगुप्त को राज्य दिलाया।”
ढुढि ने भी नाटक में वृपल और मौर्य्य शब्द का प्रयोग देखकर चन्द्रगुप्त को मुरा का पुत्र लिखा है, पर पुराणो मे कही भी चन्द्रगुप्त को बृपल या शूद्र नहीं लिखा है । पुराणों में जो शूद्र शब्द का प्रयोग हुआ है वह शूद्रजान महापद्य के वंश के लिए है, यह नीचे लिखे हुए विष्णु-पुराण के उद्धृत अंश पर ध्यान देने से स्पष्ट हो जायगा--
ततौमहानन्दी १८ इत्येक शेशुनाका भूपालस्त्रिवर्पशतानि
द्विपष्ठयविकानि भविग्यन्नि १९ महानन्दिनस्तत. शूद्रागर्भोद्भवीति-
लुब्ऽबोतिबली महापद्मनामनन्द परशुराम उवापरोसिलक्षत्रियनाशकारी
भविष्यनि २० तन. प्रकृति शूद्रा भूपाला भविष्यन्ति २१ से
एकच्छत्रामनुल्लंघित शासनो महापद्म. पृथ्वी भोक्ष्यते २२ तस्याप्यष्टौ सुता. सुमाल्यादय भवितार. २३ तस्य महापद्मस्थानु पृथिवी भोक्ष्यन्ति २४ महापद्मपुत्राश्चैकैकः वर्षशतमवनीपतयोभवष्यन्ति २५ ततश्च नव चैतान्नन्दान् कौटिल्यो ब्राह्मण समुद्धरिष्यति २६ तेषामभावे मौर्य्य पृथिवी भोक्ष्यन्ति २७ कौटिल्य एव चन्द्रगुप्तमुपन्न राज्येऽभिषेक्ष्यति २८
इससे यह मालूम होता है कि महानन्द के पुत्र महापद्म ने—जो शूद्राजात था—अपने पिता के बाद राज्य किया और उसके बाद सुमाल्य आदि आठ लड़कों ने राज्य किया और इन सब ने मिलकर महानन्द के बाद १०० वर्ष राज्य किया। इनके बाद चन्द्रगुप्त को राज्य मिला।
अब यह देखना चाहिए कि चन्द्रगुप्त को जो लोग महानन्द का पुत्र बताते हैं, उन्हें कितना भ्रम है, क्योंकि उन लोगों ने लिखा है कि—"महानन्द को मार कर चन्द्रगुप्त ने राज्य किया।" पर ऊपर लिखी हुई वंशावली से यह प्रकट हो जाता है कि महानन्द के बाद १०० वर्ष तक महापद्म और उसके लड़कों ने राज्य किया। तब चन्द्रगुप्त की कितनी आयु मानी जाय कि महानन्द के बाद महापद्मादि के १०० वर्ष राज्य कर लेने पर भी उसने २४ वर्ष शासन किया?
यह एक विलक्षण बात होगी यदि "नन्दान्त क्षत्रियकुलम्" के अनुसार शूद्राजात महापद्म और उसके लड़के तो क्षत्रिय मान लिए जायँ और—"अत पर शूद्रा पृथिवी भोक्ष्यन्ति" के अनुसार शूद्रता चन्द्रगुप्त से आरम्भ की जाय। महानन्द को जब शूद्रा से एक ही लड़का महापद्म था, तब दूसरा चन्द्रगुप्त कहाँ से आया? पुराणों में चन्द्रगुप्त को कहीं भी महानन्द का पुत्र नहीं लिखा है। यदि सचमुच अन्तिम नन्द ही का नाम ग्रीकों ने Zandrames रक्खा था, तो अवश्य ही हम कहेंगे कि विष्णु-पुराण की महापद्म वाली कथा ठीक ग्रीकों से मिल जाती है।
यह अनुमान होता है कि महापद्मवाली कथा, पीछे से बौद्धद्वेषी लोगों के द्वारा चन्द्रगुप्त की कथा में जोड़ी गई है, क्योंकि उसी का पौत्र अशोक बुद्ध-धर्म का प्रधान प्रचारक था। ढुण्ढि के उपोद्घात से एक बात का और पता लगता है कि चन्द्रगुप्त महानन्द का पुत्र नही, किन्तु मौर्य्य सेनापति का पुत्र था। महापद्मादि शूद्रागर्भोद्भव होने पर भी नन्दवंशी कहाये, तब चन्द्रगुप्त मुरा के गर्भ में उत्पन्न होने के कारण नन्दवशी होने से क्यों वचित किया जाता है ? इसलिए मानना पडेगा कि नन्दवश और मौर्य्यवश भिन्न है। मौर्य्यवश अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखता है, जिसका उल्लेख पुराण, वृहत्कथा कामन्दकीइत्यादि में मिलता है और पिछले काल के चित्तौर आदि के शिलालेखोमें भी इसका उल्लेख है। इसी मौर्य्यवश में चन्द्रगुप्त उत्पन्न हुआ ।
- ↑ * Alexander who did not at first believe this inquired from King Porus whether this account of the power of Zandrames was true and he was told by Porus that it was true, but that the king was but of mean and obscure extraction accounted to be a barber's bon, that the queen,
however, had fallen in love with the barbor, had murdered her husband and that the kingdom had thus devolved upon Zandrames.
DIODORUS SICUIUIS
in History of A S. Literature