चन्द्रगुप्त मौर्य्य
जयशंकर प्रसाद

इलाहाबाद: भारती भंडार, पृष्ठ ८३ से – ८५ तक

 
 


मगध का बन्दीगृह

चाणक्य—समीर की गति भी अवरुद्ध है, शरीर का फिर क्या कहना? परन्तु मन में इतने संकल्प और विकल्प? एक बार निकलने पाता तो दिखा देता कि इन दुर्बल हाथों में साम्राज्य उलटने की शक्ति हैं और ब्राह्मण के कोमल हृदय में कर्तव्य के लिए प्रलय की आँधी चला देने की भी कठोरता है। जकड़ी हुई लौह शृंखलें! एक बार तु फूलों की माला बन जा और मैं मदोन्मत्त विलासी के समान तेरी सुन्दरता को भंग कर दूँ। क्या रोने लगूँ? इस निष्ठुर यंत्रणा की कठोरता से बिलबिलाकर दया की भिक्षा माँगूँ? माँगूँ कि मुझे भोजन के लिए एक मुट्ठी चने जो देते हो, न दो, एक बार स्वतंत्र कर दो। नहीं, चाणक्य! ऐसा न करना। नहीं तो तू भी साधारण-सी ठोकर खाकर चूर-चूर हो जाने वाली एक बामी हो जायगा। तब मैं आज से प्रण करता हूँ कि दया किसी से न माँगूँगा और अधिकार तथा अवसर मिलने पर किसी पर न करूँगा। (ऊपर देखकर)—क्या कभी नहीं? हाँ, हाँ, कभी किसी पर नही। मैं प्रलय के समान अवाधगति और कर्त्तव्य में इन्द्र के वज्र के समान भयानक बनूँगा।

[किवाड़ खुलता है, वररुचि और राक्षस का प्रवेश]

राक्षस—स्नातक! अच्छे तो हो?

चाणक्य—बुरे कब थे बौद्ध अमात्य!

राक्षस—आज हम लोग एक काम से आए हैं। आशा हैं कि तुम अपनी हठवादिता से मेरा और अपना दोनो का अपकार न करोगे।

वररुचि—हाँ चाणक्य! अमात्य का कहना मान लो।

चाणक्य—भिक्षोपजीवी ब्राह्मण! क्या बौद्धों का संग करते-करते तुम्हें अपनी गरिमा का सम्पूर्ण विस्मरण हो गया? चाटुकारों के सामने हाँ-में-हाँ मिलाकर, जीवन की कठिनाइयों से बचकर, मुझे भी कुत्ते का पाठ पढ़ाना चाहते हो! भूलो मत, यदि राक्षस देवता हो जाये तो उसका विरोध करने के लिए मुझे ब्राह्मण से दैत्य बनना पड़ेगा।

वररुचि—ब्राह्मण हो भाई! त्याग और क्षमा के प्रमाण—तपोनिधि ब्राह्मण हो। इतना—

चाणक्य—त्याग और क्षमा, तप और विद्या, तेज और सम्मान के लिए हैं—लोहे और सोने के सामने सिर झुकाने के लिए हम लोग ब्राह्मण नहीं बने हैं। हमारी दी हुई विभूति से हमी को अपमानित किया जाय, ऐसा नहीं हो सकता। कात्यायन! अब केवल पाणिनि से काम न चलेगा। अर्थशास्त्र और दण्ड-नीति की आवश्यकता हैं।

वररुचि—मैं वार्त्तिक लिख रहा हूँ चाणक्य! उसी के लिए तुम्हें सहकारी बनाना चाहता हूँ। तुम इस बन्दीगृह से निकलो।

चाणक्य—मैं लेखक नही हूँ कात्यायन! शास्त्र-प्रणेता हूँ, व्यवस्थापक हूँ।

राक्षस—अच्छा मैं आज्ञा देता हूँ कि तुम विवाद न बढ़ाकर स्पष्ट उत्तर दो। तुम तक्षशिला में मगध के गुप्त प्रणिधि बनकर जाना चाहते हो या मृत्यु चाहते हो? तुम्हीं पर विश्वास करके क्यों भेजना चाहता हूँ, यह तुम्हारी स्वीकृति मिलने पर बताऊँगा।

चाणक्य—जाना तो चाहता हूँ तक्षशिला, पर तुम्हारी सेवा के लिए नहीं। और सुनो, पर्वतेश्वर का नाश करने के लिए तो कदापि नहीं।

राक्षस—यथेष्ठ है, अधिक कहने की आवश्यकता नहीं।

वररुचि—विष्णुगुप्त! मेरा वार्त्तिक अधूरा रह जायगा। मान जाओ। तुम को पाणिनि के कुछ प्रयोगों का पता भी लगाना होगा जो उस शालातुरीय वैयाकरण ने लिखे हैं! फिर से एक बार तक्षशिला जाने पर ही उनुका—

चाणक्य—मेरे पास पाणिनि में सिर खपाने का समय नहीं। भाषा ठीक करने से पहले मैं मनुष्यों को ठीक करना चाहता हूँ, समझे! वररुचि––जिसने ‘श्वयुवमघोनामतद्धिते’ सूत्र लिखा है, वह केवल वैयाकरण ही नही, दार्शनिक भी था। उसकी अवहेलना!

चाणक्य––यह मेरी समझ में नहीं आता, मैं कुत्ता, साधारण युवक और इन्द्र को कभी एक सूत्र में नहीं बाँध सकता। कुत्ता कुत्ता ही रहेगा, इन्द्र, इन्द्र! सुनो वररुचि! मैं कुत्ते को कुत्ता ही बनाना चाहता हूँ। नीचो के हाथ में इन्द्र का अधिकार चले जाने से जो सुख होता हैं, उसे मै भोग रहा हूँ। तुम जाओ!

वररुचि––क्या मुक्ति भी नहीं चाहते।

चाणक्य––तुम लोगों के हाथ से वह भी नही।

राक्षस––अच्छा तो फिर तुम्हे अन्धकूप में जाना होगा।

[ चन्द्रगुप्त का रक्तपूर्ण खड्ग लिए सहसा प्रवेश––चाणक्य का बन्धन काटता है, राक्षस प्रहरियों को बुलाना चाहता है ]

चन्द्रगुप्त––चुप रहो अमात्य! शवो मे बोलने की शक्ति नही, तुम्हारे प्रहरी जीवित नहीं रहे।

चाणक्य––मेरे शिष्य! वत्स चन्द्रगुप्त!

चन्द्रगुप्त––चलिए गुरुदेव!––( खड्ग उठाकर राक्षस से ) ––यदि तुमने कुछ भी कोलाहल किया तो ... ( राक्षस बैठ जाता है ; वररुचि गिर पड़ता है। चन्द्रगुप्त चाणक्य को लिए निकलता हुआ किवाड़ बन्द कर देता है। )