चन्द्रगुप्त मौर्य्य
जयशंकर प्रसाद

इलाहाबाद: भारती भंडार, पृष्ठ ११३ से – ११६ तक

 
 


युद्धक्षेत्र—सैनिकों के साथ पर्वतेश्वर

पर्व॰—सेनापति, भूल हुई।

सेना॰—हाथियों ने ही ऊधम मचा रक्खा हैं और रथी सेना भी व्यर्थ-सी हो रही हैं।

पर्व॰—सेनापति, युद्ध में जय या मृत्यु-दो में से एक होनी चाहिये।

सेना॰—महाराज, सिकन्दर को वितस्ता पर यह अच्छी तरह विदित हो गया है कि हमारे खड्गों में कितनी धार हैं। स्वयं सिकन्दर का अश्व मारा गया और राजकुमार के भीषण भाले की चोट सिकन्दर न सँभाल सका।

पर्व॰—प्रशंसा का समय नहीं है। शीघ्रता करो। मेरा रणगज प्रस्तुत हो; मैं स्वयं गजसेना का संचालन करूँगा। चलो!

(सब जाते हैं)

[कल्याणी और चन्द्रगुप्त का प्रवेश]

कल्याणी—चन्द्रगुप्त, तुम्हें यदि मगध सेना विद्रोही जानकर बन्दी बनावे?

चन्द्र॰—बन्दी सारा देश हैं राजकुमारी, दारुण द्वेष से सब जकड़े हैं। मुझको इसकी चिन्ता भी नहीं। परन्तु राजकुमारी का युद्धक्षेत्र में आना अनोखी बात है।

कल्याणी—केवल तुम्हें देखने के लिए! मैं जानती थी कि तुम युद्ध में अवश्य सम्मिलित होंगे और मुझे भ्रम हो रहा है कि तुम्हारे निर्वासन के भीतरी कारणों में एक मैं भी हूँ।

चन्द्र॰—परन्तु राजकुमारी, मेरा हृदय देश की दुर्दशा से व्याकुल है। इस ज्वाला में स्मृतिलता मुरझा गयी है।

कल्याणी—चन्द्रगुप्त!

चन्द्र॰—राजकुमारी! समय नहीं। देखो—वह भारतीयों के प्रतिकूल दैव ने मेघमाला का सृजन किया हैं। रथ बेकार होंगे और हाथियों का प्रत्यावर्त्तन और भयानक हो रहा हैं।

कल्याणी—तब! मगध-सेना तुम्हारे अधीन हैं, जैसा चाहो करो।

चन्द्र॰—पहले उस पहाड़ी पर सेना एकत्र होनी चाहिये। शीघ्र आवश्यकता होगी। पर्वतेश्वर की पराजय को रोकने की चेष्टा कर देखूँ।

कल्याणी—चलो!

[मेघों की गड़गड़ाहट—दोनों जाते हैं]
[एक ओर से सिल्यूकस, दूसरी ओर से पर्वतेश्वर का ससैन्य प्रवेश, युद्ध]

सिल्यू॰—पर्वतेश्वर! अस्त्र रख दो!

पर्व॰—यवन! सावधान! बचाओं अपने को!

[तुमुलयुद्ध; घायल होकर सिल्यूकस का हटना]

पर्व॰—सेनापति! देखो, उन कायरों को रोको। उनसे कह दो कि आज रणभूमि में पर्वतेश्वर पर्वत के समान अचल है। जय-पराजय की चिन्ता नहीं। इन्हे बतला देना होगा कि भारतीय लड़ना जानते हैं। बादलों से पानी बरसने की जगह बज्र बरसे, सारी गज-सेना छिन्न-भिन्न हो जाय, रथी विरथ हो, रक्त के नाले धमनियों में बहे, परन्तु एक पग भी पीछे हटना पर्वतेश्वर के लिए असम्भव है। धर्मयुद्ध में प्राण-भिक्षा माँगनेवाले भिखारी हम नहीं। जाओ, उन भगोड़ों से एक बार जननी के स्तन्य की लज्जा के नाम पर रुकने के लिए कहो। कहो कि मरने का क्षण एक ही है। जाओ।

[सेनापति का प्रस्थान। सिंहरण और अलका का प्रवेश]

सिंह॰—महाराज! यह स्थान सुरक्षित नहीं। उस पहाड़ी पर चलिए।

पर्व॰—तुम कौन हो युवक!

सिह॰—एक मालव!

पर्व॰—मालव के मुख से ऐसा कभी नहीं सुना गया। मालव! खड्ग-क्रीड़ा देखनी हो तो खडे़ रहो। डर लगता हो तो पहाड़ी पर जाओ। सिंह०––महाराज, यवनों का एक दल वह आ रहा हैं!

पर्व०––आने दो। तुम हट जाओ।

[ सिल्यूकस और फिलिप्स का प्रवेश––सिंहरण और पर्वतेश्वर का युद्ध और लड़खड़ा कर गिरने की चेष्टा। चन्द्रगुप्त और कल्याणी का सैनिकों के साथ पहुंचना। दूसरी ओर से सिकन्दर को आना। युद्ध बन्द करने के लिए सिकन्दर की आज्ञा। ]

चन्द्र०––युद्ध होगा!

सिक०––कौन, चन्द्रगुप्त!

चन्द्र०––हाँ देवपुत्र!

सिक०––किससे युद्ध! मुमूर्षु घायल पर्वतेश्वर––वीर पर्वतेश्वर से! कदापि नही। आज मुझे जय-पराजय का विचार नहीं है। मैंने एक अलौकिक वीरता का स्वर्गीय दृश्य देखा है। होमर की कविता में पढ़ी हुई, जिस कल्पना से मेरा हृदय भरा है, उसे यहाँ प्रत्यक्ष देखा! भारतीय वीर पर्वतेश्वर! अब मै तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार करू?

पर्व०––( रक्त पोंछते हुए )––जैसा एक नरपति अन्य नरपति के साथ करता है, सिकन्दर!

सिक०––मैं तुमसे मैत्री करना चाहता हूँ। विस्मय-विमुग्ध होकर तुम्हारी सराहना किए बिना में नहीं रह सकता––धन्य! आर्य्य वीर!

पर्व०––मैं तुमसे युद्ध न करके मैत्री भी कर सकता हूँ।

चन्द्र०––पचनद-नरेश! आप क्या कर रहे है! समस्त मगध-सेना आपकी प्रतीक्षा में है, युद्ध होने दीजिए!

कल्याणी––इन थोडे-से अर्धजीव यवनो को विचलित करने के लिए पर्याप्त मागध सेना है। महाराज! आज्ञा दीजिये।

पर्व०––नही युवक! वीरता भी एक सुन्दर कला है, उसपर मुग्ध होना आश्चर्य की बात नही, मैने वचन दे दिया, अब सिकन्दर चाहे हटे।

सिक०––कदापि नही।

कल्याणी—(शिरस्त्राण फेंककर)—जाती हूँ क्षत्रिय पर्वतेश्वर! तुम्हारे पतन में रक्षा न कर सकी, बड़ी निराशा हुई!

पर्व॰—तुम कौन हो?

चन्द्र॰—मागध-राजकुमारी कल्याणी देवी।

पर्व॰—ओह पराजय! निकृष्ट पराजय!

[चन्द्रगुप्त और कल्याणी का प्रस्थान। सिकन्दर आश्चर्य से देखता है। अलका घायल सिंहरण को उठाया चाहती है कि आम्भीक आकर दोनों को बन्दी करता है।]

पर्व॰—यह क्या?

आम्भीक—इनको अभी बन्दी बना रखना आवश्यक है।

पर्व॰—तो वे लोग मेरे यहाँ रहेंगे।

सिक॰—पंचनद-नरेश की जैसी इच्छा हो।