चन्द्रगुप्त मौर्य्य
जयशंकर प्रसाद

इलाहाबाद: भारती भंडार, पृष्ठ १०० से – १०६ तक

 

द्वितीय अंक
उद्भाण्ड में सिन्धु के किनारे ग्रीक-शिविर के पास वृक्ष के नीचे कार्नेलिया बैठी हुई

कार्नेलिया—सिन्धु का यह मनोहर तट जैसे मेरी आँखो के सामने एक नया चित्रपट उपस्थित कर रहा है। इस वातावरण से धीरे-धीरे उठती हुई प्रशान्त स्निग्धता जैसे हृदय में घुस रही हैं। लम्बी यात्रा करके, जैसे मैं वहीं पहुँच गई हूँ, जहाँ के लिए चली थी। यह कितना निसर्ग सुन्दर है, कितना रमणीय है। हाँ, आज वह भारतीय संगीत का पाठ देखूँ, भूल तो नहीं गई?

[गाती है]

अरुण यह मधुमय देश हमारा।
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा॥
सरल तामरस गर्भ विभा पर—नाच रही तरुशिखा मनोहर।
छिटका जीवन हरियाली पर—मंगल कुंकुम सारा॥
लघु सुरधनु से पंख पसारे—शीतल मलय समीर सहारे।
उड़ते खग जिस ओर मुँह किए—समझ नीड़ निज प्यारा॥
बरसाती आँखों के बादल—बनते जहाँ भरे करुणा जल।
लहरें टकरातीं अनन्त की—पाकर जहाँ किनारा॥
हेम कुम्भ ले उषा सवेरे—भरती ढुलकाती सुख मेरे।
मंदिर ऊँघते रहते जब—जगकर रजनी भर तारा॥‍

फिलिप्स—(प्रवेश करके)—कैसा मधुर गीत है कार्नेलिया, तुमने तो भारतीय संगीत पर पूरा अधिकार कर लिया है, चाहे हम लोगों को भारत पर अधिकार करने में अभी विलम्व हो।

कार्ने॰—फिलिप्स! यह तुम हो! आज दारा की कन्या वाल्हीक जायगी?

फिलि॰—दारा की कन्या! नहीं कुमारी, सम्राज्ञी कहो।

कार्ने॰—असम्भव है फिलिप्स! ग्रीक लोग केवल देशों को विजय करके समझ लेते हैं कि लोगों के हृदयों पर भी अधिकार कर लिया। वह देवकुमारी-सी सुन्दर बालिका सम्राज्ञी कहने पर तिलमिला जाती है। उसे यह विश्वास है कि वह एक महान् साम्राज्य की लूट में मिली हुई दासी है, प्रणय-परिणीती पत्नी नहीं।

फिलि॰—कुमारी! प्रणय के सम्मुख क्या साम्राज्य तुच्छ है?

कार्ने॰—यदि प्रणय हो।

फिलि॰—प्रणय को तो मेरा हृदय पहचानता है।

कार्ने॰—(हँसकर)—ओहो! यह तो बड़ी विचित्र बात है!

फिलि॰—कुमारी, क्या तुम मेरे प्रेम की हँसी उड़ाती हो?

कार्ने॰—नहीं सेनापति! तुम्हारा उत्कृष्ट प्रेम बड़ा भयानक होगा, उससे तो डरना चाहिए।

फिलि॰—(गम्भीर होकर)—मैं पूछने आया हूँ कि आगामी युद्धों से दूर रहने के लिये शिविर की सब स्त्रियाँ स्कन्धावार में सम्राज्ञी के साथ जा रही हैं, क्या तुम भी चलोगी?

कार्ने॰—नहीं, संभवतः पिताजी को यहीं रहना होगा, इसलिये मेरे जाने की आवश्यकता नहीं।

फिलि॰—(कुछ सोचकर)—कुमारी! न जाने फिर कब दर्शन हो, इसलिए एक बार इन कोमल करो को चूमने की आज्ञा दो।

कार्ने॰—तुम मेरा अपमान करने का साहस न करो फिलिप्स।

फिलि॰—प्राण देकर भी नहींं कुमारी! परन्तु प्रेम अन्धा है।

कार्ने॰—तुम अपने अन्धेपन से दूसरे को ठुकराने का लाभ नहीं उठा सकते फिलिप्स!

फिलिप्स—(इधर-उधर देखकर)—यह नहीं हो सकता—

[कार्नेलिया का हाथ पकड़ना चाहता है, वह चिल्लाती है—रक्षा करो! रक्षा करो!—चन्द्रगुप्त प्रवेश करके फिलिप्स की गर्दन पकड़ कर दबाता है, वह गिरकर क्षमा मांगता है, चन्द्रगुप्त छोड़ देता है]

कार्ने॰—धन्यवाद आर्य्यवीर!

फिलि॰—(लज्जित होकर)—कुमारी, प्रार्थना करता हूँ कि इस घटना को भूल जाओ, क्षमा करो।

कार्ने॰—क्षमा तो कर दूँगी, परन्तु भूल नहींं सकती फिलिप्स! तुम अभी चले जाओ।

[फिलिप्स नतमस्तक जाता है]

चन्द्रगुप्त—चलिये, आपको शिविर के भीतर पहुँचा दूँ।

कार्ने॰—पिताजी कहाँ है? उनसे यह बात कह देनी होगी, यह घटना...नहीं, तुम्हीं कह देना।

चन्द्रगुप्त—ओह! वे मुझे बुला गये हैं, मैं जाता हूँ, उनसे कह दूँगा।

कार्ने॰—आप चलिये, मैं आती हूँ।

[चन्द्रगुप्त का प्रस्थान]

कार्ने॰—एक घटना हो गई, फिलिप्स ने विनती की उसे भूल जाने की, किन्तु उस घटना से और भी किसी का सम्बन्ध है, उसे कैसे भूल जाऊँ। उन दोनों में श्रृंगार और रौद्र का संगम है। वह भी आह, कितना आकर्षक है! कितना तरंग-सकुल हैं! इसी चन्द्रगुप्त के लिए, न उस साधु ने भविष्यवाणी की हैं―भारत-सम्राट होने की! उसमें कितनी विनयशील वीरता हैं।

[प्रस्थान]

[कुछ सैनिकों के साथ सिकन्दर का प्रवेश]

सिकन्दर—विजय करने की इच्छा क्लान्ति से मिलती जा रही है। हम लोग इतने बड़े आक्रमण के समारम्भ में लगे हैं और यह देश जैसे सोया हुआ है, लड़ना जैसे इनके जीवन का उद्वेगजनक अंश नहीं। अपने ध्यान में दार्शनिक के सदृश निमग्न हैं। सुनते हैं, पौरव ने केवल झेलम के पास कुछ सेना प्रतिरोध करने के लिए या केवल देखने के लिए रख छोड़ी हैं। हम लोग जब पहुँच जायँगे, तब वे लड़ लेंगे।

एनि॰—मुझे तो ये लोग आलसी मालूम पड़ते हैं।

सिकन्दर—नहीं-नहीं, यहाँ दार्शनिक की परीक्षा तो तुम कर चुके—दण्ड्यिायन को देखा न! थोड़ा ठहरो, यहाँ के वीरो का भी परिचय मिल जायगा। यह अद्भुत देश हैं।

एनि॰—परन्तु आम्भीक तो अपनी प्रतिज्ञा का सच्चा निकला—प्रबन्ध तो उसने अच्छा कर रखा है।

सिकन्दर—लोभी है! सुना है कि उसकी एक बहन चिढ़कर सन्यासिनी हो गई है।

एनि॰—मुझे विश्वास नहीं होता, इसमें कोई रहस्य होगा। पर एक बात कहूँगा, ऐसे पथ मे साम्राज्य की समस्या हल करना कहाँ तक ठीक है? क्यों न शिविर में ही चला जाय?

सिकन्दर—एनिसाक्रेटीज, फिर तो परसिपोलिन का राजमहल छोड़ने की आवश्यकता न थी, यहाँ एकान्त में मुझे कुछ ऐसी बातो पर विचार करना हैं, जिन पर भारत-अभियान का भविष्य निर्भर है। मुझे उस नंगे ब्राह्मण की बातो से बड़ी आशंका हो रही है, भविष्यवाणियाँ प्रायः सत्य होती हैं।

[एक ओर से फिलिप्स, आम्भीक, दूसरी ओर से सिल्यूकस और चन्द्रगुप्त का प्रवेश]

सिकन्दर—कहो फिलिप्स! तुम्हें क्या कहना है?

फिलि॰—आम्भीक से पूछ लिया जाय।

आम्भीक—यहाँ एक षड्यंत्र चल रहा है।

फिलि॰—और उसके सहायक है सिल्यूकस।

सिल्यूकस—(क्रोध और आश्चर्य से)—इतनी नीचता! अभी उस लज्जाजनक अपराध को प्रकट करना बाकी ही रहा—उलटा अभियोग! प्रमाणित करना होगा फिलिप्स! नहीं तो खड्ग इसका न्याय करेगा।

सिकन्दर—उत्तेजित न हो सिल्यूकस!

फिलि॰—तलवार तो कभी का न्याय कर देती, परन्तु देवपुत्र का भी जान लेना आवश्यक था। नहीं तो ऐसे निर्लज्ज विद्रोही की हत्या करना भी पाप नहीं, पुण्य है।

[सिल्यूकस तलवार खींचता है]

सिकन्दर—तलवार खींचने से अच्छा होता कि तुम अभियोग को निर्मूल प्रमाणित करने की चेष्टा करते! बतलाओ, तुमने चन्द्रगुप्त के लिए अब क्या सोचा?

सिल्यूकस—चन्द्रगुप्त ने अभी-अभी कार्नेलिया को इस नीच फिलिप्स के हाथ से अपमानित होने से बचाया हैं और मैं स्वयं यह अभियोग आपके सामने उपस्थित करनेवाला था।

सिकन्दर—परन्तु साहस नहीं हुआ, क्यों सिल्यूकस!

फिलि॰—क्यों साहस होता―इनकी कन्या दाण्ड्यायन के आश्रम पर भारतीय दर्शन पढ़ने जाती हैं, भारतीय संगीत सीखती हैं, वहीं पर विद्रोहकारिणी अलका भी आती है! और चन्द्रगुप्त के लिए यह जनरव फैलाया गया है कि यही भारत का भावी सम्राट् होगा।

सिल्यूकस—रोक, अपनी अवोधगति से चलने वाली जीभ रोक!

सिकन्दर—ठहरो सिल्यूकस! तुम अपने को विचाराधीन समझो। हाँ, तो चन्द्रगुप्त! मुझे तुमसे कुछ पूछना हैं।

चन्द्रगुप्त—क्या है?

सिकन्दर—सुना हैं कि मगध का वर्तमान शासक एक नीच-जन्मा जारज सन्तान है। उसकी प्रजा असन्तुष्ट हैं और तुम उस राज्य को हस्तगत करने का प्रयत्न कर रहे हो?

चन्द्रगुप्त—हस्तगत! नहीं, उसका शासन बड़ा क्रूर हो गया है। मगध का उद्धार करना चाहता हूँ।

सिकन्दर––और उस ब्राह्मण के कहने पर अपने सम्राट् होने का तुम्हें विश्वास हो गया होगा, जो परिस्थिति को देखते हुए असम्भव भी नही जान पडता।

चन्द्रगुप्त––असम्भव क्यो नही?

सिकन्दर––हमारी सेना इसमें सहायता करेगी, फिर भी असम्भव है!

चन्द्रगुप्त––मुझे आप से सहायता नही लेनी है।

सिकन्दर––( क्रोध से )––फिर इतने दिनो तक ग्रीक-शिविर में रहने का तुम्हारा उद्देश्य?

चन्द्रगुप्त––एक सादर निमत्रण और सिल्यूकस से उपकृत होने के कारण उनके अनुरोध की रक्षा। परन्तु मैं यवनों को अपना शासक बनने को आमत्रित करने नहीं आया हूँ।

सिकन्दर––परन्तु इन्ही यवनो के द्वारा भारत जो आज तक कभी भी आक्रान्त नहीं हुआ है, विजित किया जायगा।

चन्द्रगुप्त––वह भविष्य के गर्भ में है, उसके लिए अभी से इतनी उछल-कूद मचाने की आवश्यकता नही।

सिकन्दर––अबोध युवक, तू गुप्तचर है!

चन्द्रगुप्त––नही, कदापि नही। अवश्य ही यहाँ रहकर यवन रण-नीति से में कुछ परिचित हो गया हूँ। मुझे लोभ से पराभूत गान्धार-राज आम्भीक समझने की भूल न होनी चाहिए, मैं मगध का उद्धार करना चाहता हूँ। परन्तु यवन लुटेरों की सहायता से नही।

सिकन्दर––तुमको अपनी विपत्तियो से डर नही––ग्रीक लुटेरे है?

चन्द्रगुप्त––क्या यह झूठ है? लूट के लोभ से हत्या-व्यवसायियों को एकत्र करके उन्हें वीर-सेना कहना, रण-कलो का उपहास करना है।

सिकन्दर––( आश्चर्य और क्रोध से )––सिल्यूकस!

चन्द्रगुप्त––सिल्यूकस नही, चन्द्रगुप्त से कहने की बात चन्द्रगुप्त से कहनी चाहिए।

अभ्भीक––शिष्टता से बाते करो।

चन्द्रगुप्त—स्वच्छ हृदय भीरु कायरों की-सी वचक शिष्टता नहीं जानता। अनार्य्य! देशद्रोही! आम्भीक! चन्द्रगुप्त रोटियों की लालच से या घृणाजनक लोभ से सिकन्दर के पास नहीं आया है।

सिकन्दर—बन्दी कर लो इसे।

[अम्भिक, फिलिप्स, एनिसाक्रेटीज़ टूट पड़ते हैं; चन्द्रगुप्त असाधारण वीरता से तीनों को घायल करता हुआ निकल जाता है]

सिकन्दर—सिल्यूकस!

सिल्यूकस—सम्राट्!

सिकन्दर—यह क्या?

सिल्यूकस—आप का अविवेक। चन्द्रगुप्त एक वीर युवक हैं, यह आचरण उसकी भावी श्री और पूर्ण मनुष्यता का द्योतक हैं सम्राट्! हमलोग जिस काम से आये हैं, उसे करना चाहिए। फिलिप्स को अन्तःपुर की महिलाओ के साथ वाल्हीक जाने दीजिए।

सिकन्दर―(सोचकर)—अच्छा जाओ!

[प्रस्थान]