चन्द्रगुप्त मौर्य्य/तृतीय अंक/८
८
कुसुमपुर के प्रान्त-भाग में—पथ। चाणक्य और पर्वतेश्वर
चाणक्य—चन्द्रगुप्त कहाँ है?
पर्व॰—सार्थवाह के रूप में युद्ध-व्यवसायिों के साथ आ रहे हैं। शीघ्र ही पहुँच जाने की सम्भावना है।
चाणक्य—और द्वन्द्व में क्या हुआ?
पर्व॰—चन्द्रगुप्त ने बड़ी वीरता से युद्ध किया। समस्त उत्तरापथ में फिलिप्स के मारे जाने पर नया उत्साह फैल गया है। आर्य्य,बहुत-से प्रमुख यवन और आर्य्यगण की उपस्थिति में वह युद्ध हुआ—वह खड्ग-परीक्षा देखने योग्य थी! वह वीर-दृश्य अभिनन्दनीय था।
चाणक्य—यवन लोगों के क्या भाव थे?
पर्व॰—सिंहरण अपनी सेना के साथ रंगशाला की रक्षा कर रहा था, कुछ हलचल तो हुई, पर वह पराजय का क्षोभ था। यूडेमिस, जो उसका सहकारी था, अत्यन्त क्रुद्ध हुआ। किसी प्रकार वह ठंडा पड़ा। यूडेमिस सिकन्दर की आज्ञा की प्रतीक्षा में रुका था। अकस्मात् सिकन्दर के मरने का समाचार मिला। यवन लोग अब अपनी ही सोच रहे हैं, चन्द्रगुप्त सिंहरण को वहीं छोड़ कर यहाँ चला आया, क्योंकि आपका आदेश था।
[अलका का प्रवेश]
अलका—गुरुदेव, यज्ञ का प्रारम्भ है।
चाणक्य—मालविका कहाँ है?
अलका—वह बन्दी की गयी और राक्षस इत्यादि भी बन्दी होने ही वाले हैं। वह भी ठीक ऐसे अवसर पर जब उनका परिणय हो रहा है। क्योंकि आज ही...
चाणक्य—तब तुम जाओ, अलके! उस उत्सव से तुम्हें अलग न रहना चाहिये। उनके पकड़े जाने के अवसर पर ही नगर भर में उत्तेजना फैल सकती है। जाओ शीघ्र।
पर्व॰—मुझे क्या आज्ञा है?
चाणक्य—कुछ चुने हुए अश्वारोहियों को साथ लेकर प्रस्तुत रहना। चन्द्रगुप्त जब भीतर से युद्ध प्रारम्भ करे, उस समय तुमको नगरद्वार पर आक्रमण करना होगा।
(गुफा का द्वार खुलना...मौर्य, मालविका, शकटार, वररुचि, पीछे-पीछे चन्द्रगुप्त की जननी का प्रवेश)
चाणक्य—आओ मौर्य्य!
मौर्य्य—हम लोगों के उद्धारकर्ता, आप ही महात्मा चाणक्य हैं?
माल॰—हाँ, यही हैं।
मौर्य्य—प्रणाम।
चाणक्य—शत्रु से प्रतिशोध लेने के लिए जियो सेनापति! नन्द के पापों की पूर्णता ने तुम्हारा उद्धार किया है। अब तुम्हारा अवसर है।
मौर्य्य—इन दुर्बल हड्डियों को अन्धकूप की भयानकता खटखटा रही है।
शकटार—और रक्तम गम्भीर बीभत्स दृश्य, हत्या का निष्ठुर आह्वान कर रहा है।
(चन्द्रगुप्त का प्रवेश, माता-पिता के चरण छूता है।)
चन्द्र॰—पिता! तुम्हारी यह दशा!! एक-एक पीड़ा की, प्रत्येक निष्ठुरता की गिनती होगी। मेरी माँ! उन सब का प्रतिकार होगा, प्रतिशोध लिया जायगा! ओ, मेरा जीवन व्यर्थ है! नन्द!
चाणक्य—चन्द्रगुप्त, सफलता का एक ही क्षण होता है। आवेश से और कर्तव्य से बहुत अन्तर है।
चन्द्रगुप्त—गुरुदेव आज्ञा दीजिए।
चाणक्य—देखो, उधर, नागरिक लोग आ रहे हैं। सम्भवतः यही अवसर है। तुम लोगों के भीतर जाने का और विद्रोह फैलाने का।
(नागरिकों का प्रवेश)
पहला नागरिक—वेण और कंस का शासन क्या दूसरे प्रकार का रहा होगा?
दूसरा नाग॰—ब्याह की वेदी से वर-वधू को घसीट ले जाना,इतने बड़े नागरिक का यह अपमान! अन्याय है।
तीसरा नाग॰—सो भी अमात्य राक्षस और सुवासिनी को! कुसुमपुर के दो सुन्दर फूल!
चौथा नाग॰—और सेनापति, मंत्री, सबों को अन्धकूप में डाल देना।
मौर्य्य—मंत्री, सेनापति और अमात्यों को बन्दी बना कर जो राज्यकरता है, वह कैसा अच्छा राजा है नागरिक! उसकी कैसी अद्भुत योग्यता है! मगध को गर्व होना चाहिए।
पहला नाग॰—गर्व नहीं वृद्ध! लज्जा होनी चाहिए। ऐसा जघन्य अत्याचार!
वर॰—यह तो मगध का पुराना इतिहास है। जरासंघ का यह अखाड़ा है। यहाँ एकाधिपत्य की कटुता सदैव से अभ्यस्त है।
दूसरा नाग॰—अभ्यस्त होने पर भी अब असह्य है।
शक॰—आज आप लोगों को बड़ी वेदना है, एक उत्सव का भंग होना अपनी आँखों से देखा है, नहीं तो जिस दिन शकटार को दण्डमिला था, एक अभिजात नागरिक की सकुटुम्ब हत्या हुई थी, उस दिन जनता कहाँ सो रही थी।
तीसरा नाग॰—सच तो, पिता के समान हम लोगों की रक्षा करनेवाला मंत्री शकटार—हे भगवान!
शक॰—मैं ही हूँ। कंकाल-सा जीवित समाधि से उठ खड़ा हुआ हूँ। मनुष्य मनुष्य को इस तरह कुचल कर स्थिर न कर सकेगा। मैं पिशाच बनकर लौट आया हूँ—अपने निरपराध सातों पुत्रों की निष्ठुर हत्या का प्रतिशोध लेने के लिए। चलोगे साथ?
चौथा नाग॰—मंत्री शकटार! आप जीवित हैं?
शक॰—हाँ, महापद्म के जारज पुत्र नन्द की—बधिक हिंस्र-पशु नन्द की—प्रतिहिंसा का लक्ष्य शकटार मैं ही हूँ!
सब नाग॰—हो चुका न्यायाधिकरण का ढोंग! जनता की शुभकामना करने की प्रतिज्ञा नष्ट हो गयी। अब नहीं, आज न्यायाधिकरण में पूछना होगा!
मौर्य्य—और मेरे लिए भी कुछ...
नाग॰—तुम...?
मौर्य्य—सेनापति मौर्य्य—जिसका तुम लोगों को पता ही न था।
नाग॰—आश्चर्य! हम लोग आज क्या स्वप्न देख रहे हैं? अभी लौटना चाहिए। चलिए आप लोग भी।
शक॰—परन्तु मेरी रक्षा का भार कौन लेता है?
(सब इधर-उधर देखने लगते हैं, चन्द्रगुप्त तन कर खड़ा हो जाता है।)
चन्द्र॰—मैं लेता हूँ। मैं उन सब पीड़ित, आघात-जर्जर, पददलित लोगों का संरक्षक हूँ, जो मगध की प्रजा हैं।
चाणक्य—साधु! चन्द्रगुप्त!
(सहसा सब उत्साहित हो जाते हैं, पर्वतेश्वर और चाणक्य तथा वररुचि को छोड़ कर सब जाते हैं।)
वररुचि—चाणक्य! यह क्या दावाग्नि फैला दी तुमने?
चाणक्य—उत्पीड़न की चिनगारी को अत्याचारी अपने ही अञ्चल में छिपाए रहता है। कात्यायन! तुमने अन्धकूप का सुख क्यों लिया?—कोई अपराध तुमने किया था?
वर॰—नन्द की भूल थी। उसे अब भी सुधारा जा सकता है। ब्राह्मण! क्षमानिधि! भूल जाओ!
चाणक्य—प्रतिज्ञा पूर्ण होने पर हम-तुम साथ ही वैखानस होंगे, कात्यायन! शक्ति हो जाने दो, फिर क्षमा का विचार करना। चलो पर्वतेश्वर! सावधान!!
(सब का प्रस्थान)