चन्द्रगुप्त मौर्य्य
जयशंकर प्रसाद

इलाहाबाद: भारती भंडार, पृष्ठ १५७ से – १६१ तक

 
 


कुसुमपुर का प्रांत भाग—चाणक्य, मालविका और अलका

माल॰—सुवासिनी और राक्षस स्वतंत्र हैं। उनका परिणय शीघ्र ही होगा! इधर मौर्य कारागार में, वररुचि अपदस्थ; नागरिक लोग नन्दकी उच्छृंखलताओं से असन्तुष्ट हैं।

चाणक्य—ठीक है, समय हो चला है! मालविका, तुम नर्तकी बन सकती हो?

माल॰—हाँ, मैं नृत्य-कला जानती हूँ।

चाणक्य—तो नन्द की रंगशाला में जाओ और लो यह मुद्रा तथा पत्र, राक्षस का विवाह होने के पहले—ठीक एक घड़ी पहले—नन्द के हाथ में दे देना! और पूछने पर बता देना कि अमात्य राक्षस ने सुवासिनी को देने के लिए कहा था। परन्तु मुझसे भेंट न हो सकी, इसलिए वह उसे लौटा देने को लायी हूँ।

माल॰—(स्वगत) क्या?—असत्य बोलना होगा! चन्द्रगुप्त के लिए सब कुछ करूँगी। (प्रकट)—अच्छा।

चाणक्य—मैंने सिंहरण को लिख दिया था कि चन्द्रगुप्त को शीघ्र यहाँ भेजो। तुम यवनों के सिर उठाने पर उन्हें शान्त करके आना, तब तक अलका मेरी रक्षा कर लेगी। मैं चाहता हूँ कि सब सेना वणिकों केरूप में धीरे-धीरे कुसुमपुर में इकट्ठी हो जाय। उसी दिन राक्षस का ब्याह होगा, उसी दिन विद्रोह होगा और उसी दिन चन्द्रगुप्त राजा होगा!

अलका—परन्तु फिलिप्स से द्वंद्व-युद्ध से चन्द्रगुप्त को लौट तो आने दीजिए, क्या जाने क्या हो!

चाणक्य—क्या हो! वही होकर रहेगा जिसे चाणक्य ने विचार कर के ठीक कर लिया है। किन्तु अवसर पर एक क्षण का विलम्ब असफलता का प्रवर्तक हो जाता है।

[मालविका जाती है]

अलका—गुरुदेव, महानगरी कुसुमपुर का ध्वंस और नन्द-पराजय इस प्रकार संभव है?

चाणक्य—अलके! चाणक्य अपना कार्य, अपनी बुद्धि से साधन करेगा। तुम देखती भर रहो और मैं जो बताऊँ करती चलो। मालविका अभी बालिका है, उसकी रक्षा आवश्यक है। उसे देखो तो।

[अलका जाती है]

चाणक्य—वह सामने कुसुमपुर है, जहाँ मेरे जीवन का प्रभात हुआ था। मेरे उस सरल हृदय में उत्कट इच्छा थी कि कोई भी, सुन्दर मन मेरा साथी हो। प्रत्येक नवीन परिचय में उत्सुकता थी और उसके लिए मन में सर्वस्व लुटा देने की सन्नद्धता थी। परन्तु संसार—कठोर संसार ने सिखा दिया है कि तुम्हें परखना होगा। समझदारी आने पर यौवन चला जाता है—जब तक माला गूँथी जाती है, तब तक फूल कुम्हला जाते हैं। जिससे मिलने के सम्भार की इतनी धूम-धाम, सजावट, बनावट होती है, उसके आने तक मनुष्य-हृदय को सुन्दर और उपयुक्त नहीं बनाए रह सकता। मनुष्य की चञ्चल स्थिति कब तक उस श्यामल कोमल हृदय को मरूभूमि बना देती है। यही तो विषमता है [ मैं—अविश्वास, कूट-चक्र और छलनाओं का कंकाल, कठोरता का केन्द्र! ओह! तो इस विश्व में मेरा कोई सुहृद नहीं है? मेरा संकल्प, अब मेरा आत्माभिमान ही मेरा मित्र है। और थी एक क्षीण रेखा, वह जीवन-पट से धुल चली है। धुल जाने दूँ? सुवासिनी न न न, वह कोई नहीं। मैं अपनी प्रतिज्ञा पर आसक्त हूँ। भयानक रमणीयता है। आज उस प्रतिज्ञा में जन्मभूमि के प्रति कर्तव्य का भी यौवन चमक रहा है] तृण-शय्या पर आधे पेट खाकर सो रहनेवाले के सिर पर दिव्य यश का स्वर्ण-मुकुट! और सामने सफलता का स्मृति-सौंध (आकाश की ओर देखकर) वह, इन लाल बादलों में दिग्दाहका धूम मिल रहा है! भीषण रव से सब जैसे चाणक्य का नाम चिल्ला रहे हैं। (देख कर) है! यह कौन भूमि-सन्धि तोड़कर सर्प के समान निकल रहा है! छिप कर देखूँ—

[छिप जाता है। एक ढूह की मिट्टी गिरती है, उसमें से शकटार वनमानुष के समान निकलता है]

शक॰—(चारों ओर देखकर आँख बन्द कर लेता है, फिर खोलता हुआ)—आँखें नहीं सह सकती, इन्हीं प्रकाश-किरणों के लिए तड़प रही थीं! ओह, तीखी हैं! तो क्या मैं जीवित हूँ? कितने दिन हुए, कितने महीने, कितने वर्ष? नहीं स्मरण है। अन्धकूप की प्रधानता सर्वोपरि थी। सात लड़के भूख से तड़प कर मरे। कृतज्ञ हूँ उस अन्धकार का, जिसने उन विवर्ण मुखों को न देखने दिया। केवल उनके दम तोड़ने का क्षीण शब्द सुन सका। फिर भी जीवित रहा—सतू और नमक पानी से मिलाकर, अपनी नसों से रक्त पीकर जीवित रहा! प्रतिहिंसा के लिए!पर अब शेष है, दम घुट रहा है। ओह! (गिर पड़ता है।)

[चाणक्य पास आकर कपड़ा निचोड़ कर मुँह में जल डल सचेत करता है]

चाणक्य—आह! तम कोई दुखी मनुष्य हो! घबराओ मत, मैं तुम्हारी सहायता के लिए प्रस्तुत हूँ।

शक॰—(ऊपर देखकर)—तुम सहायता करोगे? आश्चर्य! मनुष्यमनुष्य की सहायता करेगा, वह उसे हिंस्र पशु के समान नोंच न ड़ालेगा! हाँ, यह दूसरी बात है कि वह जोंक की तरह बिना कष्ट दिये रक्त चूसे। जिसमें कोई स्वार्थ न हो, ऐसी सहायता! तुम भूखे भेड़िये!

चाणक्य—अभागे मनुष्य! सब से चौंक कर अलग न उछल! अविश्वास की चिनगारी पैरों के नीचे से हटा। तुझ जैसे दुखी बहुत पड़े हैं। यदि सहायता नहीं तो परस्पर का स्वार्थ ही सही।

शक॰—दुःख! दुःख का नाम सुना होगा, या कल्पित आशंका से तुम उसका नाम लेकर चिल्ला उठते होगे। देखा है कभी—सात-सात गोद के लालों को भूख से तड़प कर मरते? अन्धकार की घनी चादर में बरसों भूगर्भ की जीवित समाधि में एक-दूसरे को, अपना आहार देकर स्वेच्छा से मरते देखा हैं––प्रतिहिंसा की स्मृति को ठोकरे मार-मार कर जगाते, और प्राग विसर्जन करते? देखा है कभी यह कप्ट––उन सबो ने अपना आहार मुझे दिया और पिता होकर भी मैं पत्थर-सा जीवित रहा! उनका आहार खा डाला––उन्हे मरने दिया! जानते हो क्यो? वे सुकुमार थे, वे सुख की गोद में पले थे, वे नहीं सहन कर सकते थे, अत सब मर जाते। मैं बच रहा प्रतिशोध के लिए! दानवी प्रतिहिंसा के लिए! ओह! उस अत्याचारी नर-राक्षस की अँतडियो में से खीचकर एक बार रक्त का फुहारा छोडता!––इस पृथ्वी को उसी से रँगी देखता।

चाणक्य––सावधान! ( शकटार को उठाता है। )

शक०––सावधान हो वे, जो दुर्बलो पर अत्याचार करते है! पीडित पददलित, सब तरह लुटा हुआ! जिसने पुत्रों की हड्डियो से सुरंग खोदा है, नखो से मिट्टी हटाई है, उसके लिए सावधान रहने की आवश्यकता नहीं। मेरी वेदना अपने अन्तिम अस्त्रो से सुसज्जित है।

चाणक्य––तो भी तुमको प्रतिशोध लेना है! हम लोग एक ही पथ के पथिक है। घबराओ मत। क्या तुम्हारा और कोई भी इस संसार में जीवित नहीं?

शक०––बची थी, पर न जाने कहाँ है। एक वालिका––अपनी माता की स्मृति––सुवासिनी। पर अब कहाँ है, कौन जाने!

चाणक्य––क्या कहा? सुवासिनी?

शक०––हाँ सुवासिनी।

चाणक्य––और तुम शकटार हो?

शक०––( चाणक्य का गला पकडकर )––पोट दूँँगा गला––यदि फिर यह नाम तुमने लिया! मुझे नन्द से प्रतिशोध ले लेने दो, फिर चाहे डीडी पीटना।

चाणक्य––( उसका हाथ हटाते हुए )––वह सुवासिनी नन्द की रंगशाला में है। मुझे पहचानते हो?

शक॰—नहीं तो।—(देखता है।)

चाणक्य—तुम्हारे प्रतिवेशी, सखा ब्राह्मण चणक का पुत्र विष्णुगुप्त। तुम्हारी दिलायी हुई जिसकी ब्राह्मणवृत्ति छीन ली गयी, जो तुम्हारा सहकारी जान कार निर्वासित कर दिया गया, मैं उसी चणक का पुत्र चाणक्य हूँ, जिसकी शिखा पकड़ कर राजसभा में खींची गयी, जो बन्दीगृह में मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा था! मुझ पर विश्वास करोगे?

शक॰—(विचारता हुआ खड़ा हो जाता है)—करूँगा, जो तुम कहोगे वही करूँगा। किसी तरह प्रतिशोध चाहिए।

चाणक्य—तो चलो मेरी झोंपड़ी में, इस सुरंग को घास-फूस से ढँक दो।

[दोनों ढँक कर जाते हैं]