चन्द्रगुप्त मौर्य्य/तृतीय अंक/३
रावी का तट––सिकन्दर का बेड़ा प्रस्तुत है; चाणक्य और पर्वतेश्वर
चाणक्य––पौरव, देखो वह नृशंसता की बाढ आन उतर जायगी। चाणक्य ने जो किया, वह भला था या बुरा, अब समझ में आवेगा।
पर्व०––मैं मानता हूँ, यह आप ही का स्तुत्य कार्य है।
चाणक्य––और चन्द्रगुप्त के बाहुवल का, पौरव! आज फिर मैं उसी बात को दुहराना चाहता हूँ। अत्याचारी नन्द के हाथो से मगध का उद्धार करने के लिए चाणक्य ने तुम्ही से पहले सहायता मॉगी थी और अब तुम्ही से लेगा भी, अव तो तुम्हे विश्वास होगा?
पर्व––मैं प्रस्तुत हूँ आर्य्य!
चाणक्य––मै विश्वस्त हुआ। अच्छा, यवनो को आज विदा करना है।
[ एक ओर से सिकन्दर, सिल्यूकस, कार्नेलिया, फिलिप्स इत्यादि; और दूसरी ओर से चन्द्रगुप्त, सिंंहरण, अलका, मालविका और आम्भीक इत्यादि का यवन और भारतीय रणवाद्यों के साथ प्रवेश ]
सिक०––सेनापति चन्द्रगुप्त! बधाई है!
चन्द्र०––किस बात की राजन्!
सिक०––जिस समय तुम भारत के सम्राट् होगे, उस समय उपस्थित न रह सकूँँगा, उसके लिए पहले से बधाई है। मुझे उस नग्न ब्राह्मण दाण्ड्यायत की बातो का पूर्ण विश्वास हो गया।
चन्द्र०––आप वीर है।
सिक०––आर्य्य बीर! मैंने भारत में हरक्यूलिस, एचिलिस की आत्माओ को भी देखा और देखा डिमास्थनीज़ को। सभवत प्लेटो और अरस्तू भी होगे। मैं भारत का अभिनन्दन करता हूँ।
सिल्यू०––सम्राट्। यही अर्य्य चाणक्य है।
सिक०––धन्य है आप, मैं तलवार खीचे हुए भारत मे आया, हृदय देकर जाता हैं। विस्मय-विमुग्ध हूँ। जिनसे खङ्ग-परीक्षा हुई थी, युद्ध में जिनसे तलवारें मिली थीं, उनसे हाथ मिला कर—मैत्री के हाथ मिला कर जाना चाहता हूँ।
चाणक्य—हम लोग प्रस्तुत हैं सिकन्दर! तुम वीर हो, भारतीय सदैव उत्तम गुणों की पूजा करते हैं। तुम्हारी जल-यात्रा मंगलमय हो। हम लोग युद्ध करना जानते हैं, द्वेष नहीं।
[सिकन्दर हँसता हुआ अनुचरों के साथ नौका पर आरोहण करत हैं, नाव चलती है]