चन्द्रगुप्त मौर्य्य/तृतीय अंक/१
तृतीय अंक
१
विपाशा-तट का शिविर.......राक्षस टहलता हुआ
राक्षस—एक दिन चाणक्य ने कहा था कि आक्रमणकारी यवन, ब्राह्मण और बौद्धों का भेद न मानेगें। वही बात ठीक उतरी। यदि मालव और क्षुद्रक परास्त हो जाते और यवन सेना शतद्रु पार कर जाती, तो मगध का नाश निश्चित था। मूर्ख मगध-नरेश ने संदेह किया है और बार-बार मेरे लौट आने की आज्ञाएँ आने लगी हैं! परन्तु....
[एक चर प्रवेश करके प्रणाम करता है]
राक्षस—क्या समाचार है?
चर—बड़ा ही आतंकजनक है अमात्य!
राक्षस—कुछ कहो भी।
चर—सुवासिनी पर आपसे मिलकर कुचक्र रचने का अभियोग हैं, वह कारागार में है।
राक्षस—(क्रोध से)—और भी कुछ?
चर—हाँ अमात्य, प्रान्त-दुर्ग पर अधिकार करके विद्रोह करने के अपराध में आप को बन्दी बनाकर ले आने वाले के लिए पुरस्कार की घोषणा की गई है।
राक्षस—यहाँ तक! तुम सत्य कहते हो?
चर—मैं तो यहाँ तक कहने के लिए प्रस्तुत हूँ कि अपने बचने का शीघ्र उपाय कीजिए।
राक्षस—भूल थी! मेरी भूल थी! मूर्ख राक्षस! मगध की रक्षा करने चला था! जाता मगध, कटती प्रजा, लुटते नगर! नन्द! क्रूरता और मूर्खता की प्रतिमूर्ति नन्द! एक पशु! उसके लिए क्या चिन्ता थी! सुवासिनी! मैं सुवासिनी के लिए मगध को बचाना चाहता था! कुटिल विश्वघातिनी राज-सेवा! तुझे धिक्कार है!
[एक नायक का सैनिकों के साथ प्रवेश]
नायक—अमात्य राक्षस, मगध-सम्राट् की आज्ञा से शस्त्र त्याग कीजिए। आप बन्दी हैं।
राक्षस—(खड्ग खींच कर)—कौन है तू मूर्ख! इतना साहस!
नायक—यह तो बन्दीगृह बतावेगा! बल-प्रयोग करने के लिए मैं बाध्य हूँ।—(सैनिकों से)—अच्छा! बाँध लो।
[दूसरी ओर से आठ सैनिक आकर उन पहले के सैनिकों को बन्दी बनाते हैं। राक्षस आश्चर्य-चकित होकर देखता है।]
नायक—तुम सब कौन हो?
नवागत सैनिक—राक्षस के शरीर-रक्षक!
राक्षस—मेरे!
नवागत—हाँ अमात्य! आर्य चाणक्य ने आज्ञा दी हैं कि जब तक यवनो का उपद्रव है तब तक सब की रक्षा होनी चाहिए, भले ही वह राक्षस क्यों न हो।
राक्षस—इसके लिए मैं चाणक्य का कृतज्ञ हूँ।
नवागत—परन्तु अमात्य! कृतज्ञता प्रकट करने के लिए आप को उनके समीप तक चलना होगा।
[सैनिकों को संकेत करता है, बन्दियों को लेकर चले जाते हैं]
राक्षस—मुझे कहाँ चलना होगा? राजकुमारी से शिविर में भेट कर लूँगा।
नवागत—वहीं सबसे भेट होगी। यह पत्र है।
[राक्षस पत्र लेकर पढ़ता है]
राक्षस—अलका का सिंहरण से ब्याह होने वाला है, उसमें मैं भी निमंत्रित किया गया हूँ! चाणक्य विलक्षण बुद्धि का ब्राह्मण है, उसकी प्रखर प्रतिभा कूट राजनीति के साथ दिन रात जैसे खिलवाड़ किया करती है।
नवागत—हाँ, आपने और भी कुछ सुना हैं?
राक्षस—क्या?
नवागत—यवनों ने मालवों से सन्धि करने का संदेश भेजा है। सिकन्दर ने उस वीर रमणी अलका को देखने की बड़ी इच्छा प्रकट की है, जिसने दुर्ग में सिकन्दर का प्रतिरोध किया था।
राक्षस—आश्चर्य!
चर—हाँ अमात्य! यह तो मैं कहने ही नहीं पाया था। रावी-तट पर एक विस्तृत शिविरों की रंग-भूमि बनी है, जिसमें अलका का ब्याह होगा। जब से सिकन्दर को यह विदित हुआ है कि अलका तक्षशिला-नरेश आम्भीक की बहन है, तब से उसे एक अच्छा अवसर मिल गया हैं। उसने उक्त शुभ अवसर पर मालवों और यवनों का एक सम्मिलित उत्सव करने की घोषणा कर दी है। आम्भीक के पक्ष से स्वयं निमंत्रित होकर, परिणय-संपादन कराने, दल-बल के साथ सिकन्दर भी आवेगा।
राक्षस—चाणक्य! तु धन्य है! मुझे ईर्ष्या होती है। चलो।
[सब जाते हैं]