चन्द्रगुप्त मौर्य्य/चतुर्थ अंक/१०
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युद्ध-क्षेत्र के समीप चाणक्य और सिंहरण
चाणक्य—तो युद्ध आरम्भ हो गया?
सिंह॰—हाँ आर्य्य! प्रचण्ड-विक्रम से सम्राट ने आक्रमण किया है। यवनसेना थर्रा उठी है। आज के युद्ध में प्राणों को तुच्छ गिन कर वे भीम पराक्रम का परिचय दे रहे हैं। गुरुदेव! यदि कोई दुर्घटना हुई तो? आज्ञा दीजिए, अब मैं अपने को नहीं रोक सकता। तक्षशिला और मालवों की चुनी हुई सेना प्रस्तुत है, किस समय काम आवेगी?
चाणक्य—जब चन्द्रगुप्त की नासीर सेना का बल क्षय होने लगे और सिन्धु के इस पार की यवनों की समस्त सेना युद्ध में सम्मिलत हो जाय, उसी समय आम्भीक आक्रमण करे। और तुम चन्द्रगुप्त का स्थान ग्रहण करो। दुर्ग की सेना सेतु की रक्षा करेगी, साथ ही चन्द्रगुप्त को सिन्धु के उस पार जाना होगा—यवन-स्कन्धावार पर आक्रमण करने! समझे?
(सिंहरण का प्रस्थान)
[चर का प्रवेश]
चर—क्या आज्ञा है?
चाणक्य—जब चन्द्रगुप्त की सेना सिन्धु के उस पार पहुँच जाय, तब तुम्हें ग्रीकों के प्रधान-शिविर की ओर उस आक्रमण को प्रेरित करना होगा। चन्द्रगुप्त के पराक्रम की अग्नि में घी डालने का काम तुम्हारा है।
चर—जैसी आज्ञा—(प्रस्थान)।
[दूसरे चर का प्रवेश]
चर—देव! राक्षस प्रधान-शिविर में है।
चाणक्य—जाओ, ठीक है। सुवासिनी से मिलते रहो।
(दोनों का प्रस्थान)
[एक ओर से सिल्यूकस, दूसरी ओर से चन्द्रगुप्त]
सिल्यू॰—चन्द्रगुप्त, तुम्हें राजपद की बधाई देता हूँ।
चन्द्र॰—स्वागत सिल्यूकस! अतिथि की-सी तुम्हारी अभ्यर्थना करने में हम विशेष सुखी होते, परन्तु क्षात्र-धर्म बड़ा कठोर है। आर्य्य कृतघ्न नहीं होते। प्रमाण यही है कि मैं अनुरोध करता हूँ, यवन-सेना बिना युद्ध के लौट जाय।
सिल्यू॰—वाह! तुम वीर हो, परन्तु मुझे भारत-विजय करना ही होगा। फिर चाहे तुम्हीं को क्षत्रप बना दूँ।
चन्द्र॰—यही तो असम्भव है। तो फिर युद्ध हो!
[रणवाद्य, युद्ध, लड़ते हुए उन लोगों का प्रस्थान, आम्भीक के सैन्य का प्रवेश]
आम्भीक—मगध-सेना प्रत्यावर्त्तन करती है। ओह, कैसा भीषण युद्ध है! अभी ठहरें? अरे, देखो कैसा परिवर्तन!—यवन सेना हट रही है, लो, वह भागी।
[चर का प्रवेश]
चर—आक्रमण कीजिए, जिसमें सिन्धु तक यह सेना लौट न सके। आर्य्य चाणक्य ने कहा है, युद्ध अवरोधात्मक होना चाहिए।
(प्रस्थान)
[रण-वाद्य बजता है। लौटती हुई यवन-सेना का दूसरी ओर से प्रवेश]
सिल्यू॰—कौन? प्रपंचक आम्भीक! कायर!
आम्भीक—हाँ सिल्यूकस! आम्भीक सदा प्रपंचक रहा, परंतु यह प्रवंचना कुछ महत्व रखती है। सावधान!
[युद्ध—सिल्यूकस को घायल करते हुए आम्भीक की मृत्यु। यवन-सेना का प्रस्थान। सैनिकों के साथ सिंहरण का प्रवेश]
"सम्राट् चन्द्रगुप्त की जय!"
[चन्द्रगुप्त का प्रवेश]
चन्द्र॰—भाई सिंहरण, बड़े अवसर पर आये!
सिंह॰—हाँ सम्राट्! और समय चाहे मालव न मिलें, पर प्राण देने का महोत्सव-पर्व वे नहीं छोड़ सकते! आर्य्य चाणक्य ने कहा कि मालव और तक्षशिला की सेना प्रस्तुत मिलेगी। आप ग्रीको के प्रधान-शिविर का अवरोध कीजिए!
चन्द्रगुप्त—―गुरुदेव ने यहाँ भी मेरा ध्यान नही छोडा! मै उनका अपराधी हूँ सिंहरण!
सिंह०––मै यहाँ देख लूगा, आप शीघ्र जाइए; समय नही है! मैं भी आता हूँ।
सेना––महाबलाधिकृत सिंहरण की जय!
[ चन्द्रगुप्त का प्रस्थान, इसरी ओर से सिंंहरण आदि का प्रस्थान ]