चंद्रकांता संतति भाग 6
देवकीनंदन खत्री

दिल्ली: भारती भाषा प्रकाशन, पृष्ठ ६१ से – ६४ तक

 

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यद्यपि भूतनाथ को तरवुदों से छुट्टी मिल चुकी थी, यद्यपि उसका कसूर माफ हो चुका था, और वह महाराज के खास ऐयारों में मिला लिया गया था, मगर इस जगह उस आदमी को, जिसने नकाबपोशों के मकान में तस्वीर पेश की और साथ उस पर दावा करना चाहा था, देखकर उसकी अवस्था फिर बिगड़ गई और साथ ही इसके अपनी स्त्री को भी वहाँ काम करते हुए देखकर उसे क्रोध चढ़ आया ।

जब वह आदमी पानी का घड़ा और झारी रखकर लौट चला, तब इन्द्रदेव ने उसे पुकारकर कहा, "अर्जन, जरा वह तस्वीर भी तो ले आओ जिसे बार-बार तुम दिखाया करते हो और जो हमारे दोस्त भूतनाथ को डराने और धमकाने के लिए एक औजार के तौर पर तुम्हारे पास रखी हुई है।"

इस नाम ने भूतनाथ के कलेजे को और भी हिला दिया। वास्तव में उस आदमी का यही नाम था और इस खयाल ने तो उसे और भी बदहवास कर दिया कि अब वह तस्वीर लेकर आयेगा।

इस समय सब कोई बाग में टहल रहे थे और इसलिए एक-दूसरे से कुछ दूर हो रहे थे । भूतनाथ बढ़कर देवीसिंह के पास चला गया और उनका हाथ पकड़कर धीरे से बोला, "देखा, इन्द्रदेव का रंग-ढंग ?"

देवीसिंह --(धीरे-से) मैं सब देख और समझ रहा हुँ, मगर तुम घबराओ नहीं।

भूतनाथ-मालूम होता है कि इन्द्रदेव का दिल अभी तक मेरी तरफ से साफ

1.देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति, बीसवाँ भाग, दूसरा बयान । नहीं हुआ।

देवीसिंह--शायद ऐसा ही हो, मगर इन्द्रदेव से ऐसी उम्मीद नहीं हो सकती,मेरा दिल इसे कबूल नहीं करता । मगर भूतनाथ, तुम भी अजीब सिड़ी हो ।

भूतनाथ—-सो क्यों?

देवीसिंह—-यही कि नकाबपोशों का पीछा करके तुमने कैसे-कैसे तमाशे देखे और तुम्हें विश्वास भी हो गया कि इन नकाबपशों से तुम्हारा कोई भेद छिपा नहीं है, फिर अन्त में यह भी मालूम हो गया कि उन नकाबपोशों के सरदार कुंअर इन्दद्रजीतसिंह और आनन्दसिंह थे, फिर इन दोनों से भी अब कोई बात छिपी नहीं रही।

भूतनाथ--बेशक ऐसा ही है ।

देवीसिंह--तो फिर अब क्यों तुम्हारा दम बेकार ही घुटा जाता है ? अब तुम्हें किसका डर रह गया?

भूतनाथ-कहते तो ठीक हो । खैर, कोई चिन्ता नहीं, जो कुछ होगा, सो देखा जायगा।

देवीसिंह--बल्कि तुम्हें यह जानने की कोशिश करनी चाहिए कि दोनों कुमारों को तुम्हारे भेदों का पता कैसे लगा। ताज्जुब नहीं, अब वे सब बातें खुलना चाहती हों।

भूतनाथ--शायद ऐसा ही हो, मगर मेरी स्त्री के बारे में तुम भी क्या खयाल करते हो?

देवीसिंह--इस बारे में मेरा-तुम्हारा मामला एक-सा ही रहा है, अब इस विषय में मैं कुछ भी नहीं कह सकता। वह देखो, इन्द्रदेव, तेजसिंह के पास चला गया है और तुम्हारी स्त्री की तरफ इशारा करके कुछ कह रहा है । तेजसिंह अलग हों तो मैं उनसे कुछ पूछू ! यहाँ की छटा ने तो लोगों का दिल ऐसा लुभा लिया है कि सभी ने एक-दूसरे का साथ ही छोड़ दिया ।(चौंककर) लो देखो, तुम्हारा लड़का नानक भी तो आ पहुँचा, उसके हाथ में भी कोई तस्वीर मालूम पड़ती है, अर्जुन भी उसी के साथ है।

भूतनाथ--(ताज्जुब से) आश्चर्य की बात है ! नानक और अर्जुन का साथ कैसे हुआ? और नानक यहाँ आया ही क्यों? क्या अपनी मां के साथ आया है ? क्या सपूत छोकरे ने भी मेरी तरफ से आँखें फेर ली हैं ? ओफ, यह तिलिस्मी जमीन तो मेरे लिए भयानक सिद्ध हो रही है, अच्छा-खासा तिलिस्म मुझे दिखाई दे रहा है। जिन पर मुझे विश्वास था, जिनका मुझे भरोसा था, जो मेरी इज्जत करते थे, यहाँ उन्हीं को मैं अपना विपक्षी पाता हूँ और कोई मुझसे बात तक करना पसन्द नहीं करते ।

नानक और और अर्जुन भूतनाथ और देवीसिंह ताज्जुब के साथ देख रहे थे,नानक ने भी भूतनाथ को देखा, मगर दूर ही से प्रणाम करके रह गया, पास न आया और और अर्जुन को लिए सीधे इन्द्रदेव की तरफ चला गया जो तेजसिंह से बातें कर रहे थे । इस समय आज्ञानुसार अर्जुन अपने हाथ में एक तस्वीर लिए हुए था और नानक के हाथ में भी एक तस्वीर थी।

नानक और अर्जुन को अपने पास आते देख इन्द्रदेव ने हाथ के इशारे से उन्हें दूर ही खड़े रहने के लिए कहा और उन्होंने भी ऐसा ही किया। कुछ देर तक और भी इन्द्रदेव, तेजसिंह के साथ बातें करता रहा, इसके बाद इशारे से अर्जुन और नानक को अपने पास बुलाया और जर वे दोनों पास आ गये तो कुछ कह-सुनकर बिदा किया ।

भूतनाथ यह सब तमाशा देखकर ताज्जुब कर रहा था। अर्जुन और नानक को बिदा करने के बाद तेजसिंह को साथ लिए हुए इन्द्रदेव महाराज सुरेन्द्रसिंह के पास गया जो एक सुन्दर चट्टान पर खड़े-खड़े ढलवां जमीन और पहाड़ी पर से नीचे की तरफ गिरते हुए सुन्दर झरने की शोभा देख रहे थे और वीरेन्द्रसिह भी उन्हीं के पास खड़े थे। वहाँ भी कुछ देर तक इन्द्रदेव ने महाराज से बातचीत की और इसके बाद चारों आदमी लौटकर बगीचे में चले आये। महाराज को बगीचे में आते देख और सब लोग भी जो इधर-उधर फैले हुए तमाशा देख रहे थे, बगीचे में आकर इकट्ठे हो गए और अब मानो महाराज का यह एक छोटा-सा दरबार बगीचे में ही लग गया।

वीरेन्द्रसिंह-(इन्द्रदेव से) हाँ, तो अब वे तमाशे कब देखने में आवेंगे जो आप अपने साथ तिलिस्म में लेते गये थे?

इन्द्रदेव--जब आज्ञा हो तभी दिखाये जायें।

वीरेन्द्रसिंह--हम लोग तो देखने के लिए तैयार बैठे हैं।

जीतसिंह--मगर पहले यह मालूम हो जाना चाहिए कि उनके देखने में जितना समय लगेगा, अगर थोड़ी देर का काम हो तो अभी देख लिया जाय ।

इन्द्रदेव--जी, वह थोड़ी देर का काम तो नहीं है। इससे यही बेहतर होगा कि पहले जरूरी कामों से छुट्टी पाकर स्नान-ध्यान तथा भोजन इत्यादि से निवृत्त हो लें।

महाराज--हमारी भी यही राय है।

महाराज का मतलब समझ कर सब कोई उठ खड़े हुए और जरूरी कामों से छुट्टी पाने की फिक्र में लगे। महाराज सुरेन्द्रसिंह, वीरेन्द्रसिंह तथा और भी सब कोई

इन्द्रदेव के उचित प्रबन्ध को देखकर बहुत ही प्रसन्न हुए। किसी को किसी तरह की तकलीफ न हुई और न कोई चीज मांगने की जरूरत ही पड़ी। इन्द्रदेव के ऐयार और कई खिदमतगार आकर मौजूद हो गये और बात की बात में सब सामान ठीक हो गया।

स्नान तथा संध्या-पूजा इत्यादि से छुट्टी पाकर सभी ने भोजन किया और इसके बाद इन्द्रदेव ने (बँगले के अन्दर) एक बहुत बड़े और सजे हुए कमरे में सभी को बैठाया जहाँ सभी के योग्य दर्जे-ब-दर्जे बैठने का इन्तजाम किया गया था। एक ऊंची गद्दी पर महाराज सुरेन्द्रसिंह और उनके दाईं तरफ वीरेन्द्रसिंह, गोपालसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह, पण्डित बद्रीनाथ, रामनारायण, पन्नालाल तथा भूतनाथ वगैरह बैठे।

कुछ देर तक इधर-उधर की बातचीत होती रही। इसके बाद इन्द्रदेव ने हाथ जोड़कर पूछा-"अब यदि आज्ञा हो तो तमाशों को...

महाराज--हाँ-हाँ, अब तो हम लोग हर तरह से निश्चिन्त हैं।

सलाम करके इन्द्रदेव कमरे के बाहर चला गया और घड़ी भर तक लौट के नहीं आया, इसके बाद जब आया तो चुपचाप अपने स्थान पर आकर बैठ गया। सब कोई (भूतनाथ, पन्नालाल वगैरह) ताज्जुब के साथ उसका मुंह देख रहे थे कि इतने में ही सामने वाले दरवाजे का परदा हटा और नानक कमरे के अन्दर आता हुआ दिखाई दिया, नानक ने बड़े अदब के साथ महाराज को सलाम किया और इन्द्रदेव का इशारा पाकर एक किनारे बैठ गया। इस समय नानक के हाथ में एक बहुत बड़ी मगर लपेटी हुई तस्वीर थी जो कि उसने अपने बगल में लगा रखी थी।

नानक के बाद हाथ में तस्वीर लिए अर्जुन भी पहुंचा और महाराज को सलाम कर नानक के पास बैठ गया। उसी समय कमला का भाई अथवा भूतनाथ का लड़का हरनामसिंह दिखाई दिया, वह भी महाराज को प्रणाम करके अर्जुन के बगल में बैठ गया,हरनामसिंह के हाथ में एक छोटी-सी सन्दूकड़ी थी जिसे उसने अपने सामने रख लिया।

इसके बाद नकाब पहने हुए तीन औरतें कमरे के अन्दर आईं और अदब के साथ महाराज को सलाम करती हुई दूसरे दरवाजे से कमरे के बाहर निकल गईं।

इस समय भूतनाथ और देवीसिंह के दिल की क्या हालत थी, सो वे ही जानते होंगे। उन्हें इस बात का तो विश्वास ही था कि इन औरतों में एक तो भूतनाथ की स्त्री और दूसरी चम्पा जरूर है, मगर तीसरी औरत के बारे में कुछ भी नहीं कह सकते थे।

महाराज--(इन्द्रदेव से) इन औरतों में भूतनाथ की स्त्री और चम्पा जरूर होगी?

इन्द्रदेव--(हाथ जोड़कर) जी हाँ कृपानाथ ।

महाराज--और तीसरी औरत कौन है ?

इन्द्रदेव--तीसरी एक बहुत ही गरीब, नेक, सीधी और जमाने की सताई हुई औरत है जिसे देखकर और जिसका हाल सुनकर महाराज को भी बड़ी ही दया आयेगी। यह वह औरत है जिसे मरे हुए एक जमाना हो गया, मगर अब उसे विचित्र ढंग से पैदा होते देख लोगों को बड़ा ही ताज्जुब होगा।

महाराज--आखिर वह औरत है कौन ?

इन्देव--बेचारी दुःखिनी कमला की माँ, यानी भूतनाथ की पहली स्त्री।

यह सुनते ही भूतनाथ चिल्ला उठा और उसने बड़ी मुश्किल से अपने को बेहोश होने से रोका।