चंद्रकांता संतति भाग 6
देवकीनंदन खत्री

दिल्ली: भारती भाषा प्रकाशन, पृष्ठ ५७ से – ६१ तक

 

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थोड़ी ही देर बाद इन्द्रदेव फिर वहां आया। अबकी दफे उसके साथ कई नकाबपोश भी थे, जो अपने हाथ में तरह-तरह की खाने-पीने की चीजें लिए हुए थे। एक के हाथ में जल था। जल से जमीन धोई गई और खाने-पीने की चीजें वहाँ रख कर वे नकाबपोश लौट गये तथा पुनः कई जरूरी चीजें लेकर आ पहुँचे। इन्तजाम ठीक हो जाने पर इन्द्रदेव ने कायदे के साथ सभी को भोजन कराया और इस काम से छुट्टी मिलने पर उस बारहदरी में चलने के लिए अर्ज किया, जिसे उसने यहां पहुंच कर सजाया था और जिसका हाल ऊपर के बयान में लिख चुके हैं।

वास्तव में यह बारहदरी बड़ी खूबी के साथ सजाई गई थी। यहां सभी के लिए कायदे के साथ बैठने और आराम करने का सामान मौजूद था। जिसे देख कर महाराज बहुत प्रसन्न हुए और इन्द्रदेव की तरफ देख कर बोले,"क्या यह सब सामान इसी बाग में मौजूद था ?"

इन्द्रजीतसिंह-जी हाँ, केवल इतना ही नहीं बल्कि इस बाग में जितनी इमारतें हैं, उन सभी को सजाने और दुरुस्त करने के लिए यहाँ काफी सामान है, इसके अतिरिक्त यहाँ से मेरा मकान बहुत नजदीक है। इसलिए जिस चीज की भी जरूरत हो, मैं बहुत जल्द ला सकता हूँ। (कुछ देर सोच कर और हाथ जोड़ कर) मैं एक और भी जरूरी बात अर्ज करना चाहता हूँ।

महाराज--वह क्या ?

इन्द्रजीतसिंह-यह तिलिस्म आप ही के बुजुर्गों की बदौलत बना है और उन्हीं की आज्ञानुसार जब से यह तिलिस्म तैयार हुआ है, तभी से मेरे बुजुर्ग लोग इसके दारोगा होते आये हैं। अब मेरे जमाने में इस तिलिस्म की किस्मत ने पलटा खाया है। यद्यपि कुमार इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह ने इस तिलिस्म तोड़ा या फतह किया है और इसमें की बेहिसाब दौलत के मालिक हुए हैं तथापि यह तिलिस्म अभी दौलत से खाली नहीं हुआ है और न ऐसा खुल ही गया है कि ऐरे-गैरे जिसका जी चाहे इसमें घुस आयें । हाँ यदि आज्ञा हो तो दोनों कुमारों के हाथ से मैं इसके बचे-बचाये हिस्से को भी तुड़वा सकता हूँ, क्योंकि यह काम इस तिलिस्म के दारोगा का अर्थात् मेरा है, मगर मैं चाहता हूँ कि बड़े लोगों की इस कीर्ति को एकदम से मटियामेट न करके भविष्य के लिए भी कुछ छोड़ देना चाहिए । आज्ञा पाने पर मैं इस तिलिस्म की पूरी सैर कराऊँगा और तब अर्ज करूँगा कि बुजुर्गों की आज्ञानुसार इस दास ने भी जहाँ तक हो सका इस तिलिस्म की खिदमत की, अब महाराज को अख्तियार है कि मुझसे हिसाब-किताब समझ कर आइन्दा के लिए जिसे चाहें, यहाँ का दारोगा मुकर्रर करें।

महाराज--इन्द्रदेव, मैं तुमसे और तुम्हारे कामों से बहुत ही प्रसन्न हूँ। मगर मैं यह नहीं चाहता कि तुम मुझे बातों के जाल में फंसा कर बेवकूफ बनाओ और यह कहो कि "भविष्य के लिए किसी दूसरे को यहाँ का दारोगा मुकर्रर कर लो।" जो कुछ तुमने राय दी है वह बहुत ठीक है अर्थात् इस तिलिस्म के बचे-बचाये स्थानों को छोड़ देना चाहिए जिसमें कि बड़े लोगों का नाम-निशान बना रहे । मगर यहाँ के दारोगा की पदवी सिवाय तुम्हारे खानदान के कोई दूसरा कब पा सकता है ? वस दया करके इस ढंग की बातों को छोड़ दो और जो कुछ खुशी-खुशी कर रहे हो, सो करो।

इन्द्रजीतसिंह-(अदब के साथ सलाम करके) जो आज्ञा ! मैं एक बात और भी निवेदन करना चाहता हूँ।

महाराज--वह क्या?

इन्द्रदेव-वह यह कि इस जगह से आप कृपा करके पहले मेरे स्थान को, जहाँ मै रहता हूँ, पवित्र कीजिये और तब तिलिस्म की सैर करते हुए अपने चुनार गढ़ वाले तिलिस्मी मकान में पहुँचिये। इसके अतिरिक्त इस तिलिस्म के अन्दर जो कुछ कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह ने पाया है अथवा वहाँ से जिन चीजों को निकाल कर चुनारगढ़ पहुँचाने की आवश्यकता है, उनकी फेहरिस्त मुझे मिल जाय और ठीक तौर पर बता दिया जाय कि कौन चीज कहाँ पर है तो उन्हें वहाँ से बाहर कर के आपके पास भेजने का बदोबस्त करूँ। यद्यपि यह काम भैरोंसिंह और तारासिंह भी कर सकते हैं,परन्तु जिस काम को मैं एक दिन में करूँगा, उसे वे चार दिन में भी पूरा न कर सकेंगे।जिस चीज को जिस राह से निकाल ले जाने में सुभीता देखुंगा, निकाल ले जाऊँगा। महाराज--ठीक है, मैं भी इस बात को पसन्द करता हूँ और यह भी चाहता हूँ कि चुनार पहुँचने के पहले ही तुम्हारे विचित्र स्थान की सैर कर लूं। चीजों की फेहरिस्त और उनका पता इन्द्रजीतसिंह तुमको देंगे।

इतना कह कर महाराज ने इन्द्रजीतसिंह की तरफ देखा और कुमार ने उन सब चीजों का पता इन्द्रदेव को बताया जिन्हें बाहर निकाल कर घर पहुंचाने की आवश्यकता थी और साथ-ही-साथ अपना तिलिस्मी किस्सा भी जिसके कहने की जरूरत थी, इन्द्रदेव से बयान किया और बाद में दूसरी बातों का सिलसिला छिड़ा।

वीरेन्द्र सिंह--(इन्द्रदेव से) आपने कहा था कि "मैं कई तमाशे भी साथ लाया हूं" तो क्या वे तमाशे ढंके ही रह जायेंगे।

इन्द्रदेव--जी नहीं ! आज्ञा हो तो अभी उन्हें पेश करूँ, परन्तु यदि आप मेरे मकान पर चल कर उन तमाशों को देखेंगे तो कुछ विशेष आनन्द मिलेगा।महाराज-यही सही, हम लोगअभी तुम्हारे मकान पर चलने के लिए तैयार हैं।

इन्द्रदेव--अब रात बहुत चली गई है, महाराज दो-चार घण्टे आराम कर लें,दिन-भर की हरारत मिट जाय, जब कुछ रात बाकी रह जायेगी, तो मैं जगा दूंगा और अपने मकान की तरफ ले चलूंगा।तब तक मैं अपने साथियों को वहाँ रवाना कर देता हूँ जिसमें आगे चल कर सभी को होशियार कर दें और महाराज के लिए हरएक तरह का सामान दुरुस्त हो जाय। इन्द्रदेव की बात को महाराज ने पसन्द करके सभी को आराम करने की आज्ञा दी और इन्द्रदेव भी वहाँ से बिदा होकर किसी दूसरी जगह चला गया।

इधर--उधर की बातचीत करते-करते महाराज को नींद आ गई । वीरेन्द्रसिंह,दोनों कुमार और राजा गोपालसिंह भी सो गये तथा और ऐयारों ने भी स्वप्न देखना आरम्भ किया। मगर भूतनाथ की आंखों में नींद का नाम-निशान भी न था और वह तमाम रात जागता ही रह गया ।

जब रात घण्टे-भर से ज्यादा बाकी रह गई और सुबह को अठखेलियों के साथ चल कर खुशदिलों तथा नौजवानों के दिलों में गुदगुदी पैदा करने वाली ठंडी-ठंडी हवा ने खुशबूदार जंगली फूलों और लताओं से हाथापाई करके उनकी सम्पत्ति छीनना और अपने को खुशबूदार बनाना शुरू कर दिया तब इन्द्रदेव भी उस बारहदरी में आ पहुंचा और सभी को गहरी नींद में सोते देख जगाने का उद्योग करने लगा। इस बारहदरी के आगे को तरफ एक छोटा-सा सहन था जिसकी जमीन संगमूसा के स्याह और चौखूटे पत्थरों से मढ़ी हुई थी। इस सहन के दाहिने और बाएँ कोनों पर दो-तीन आदमी बखूबी बैठ सकते थे। इन्द्रदेव दाहिने तरफ वाले सिंहासन पर जाकर बैठ गया और उसके पायों को बारी-बारी से किसी हिसाब से घुमाने या उमेठने लगा। उसी समय सिंहासन के अन्दर से सरस और मधुर बाजे की आवाज आने लगी और थोड़ी ही देर बाद गाने की आवाज भी पैदा हुई। मालूम होता था कि कई नौजवान औरतें बड़ी खूबी के साथ गा रही हैं और कई आदमी पखावज-बीन-वंशी-मजीरा इत्यादि बजा कर उन्हें मदद पहुंचा रहे हैं। यह आवाज धीरे-धीरे बढ़ने और फैलने लगी, यहाँ तक कि उस बारहदरी में सोने वाले सभी लोगों को जगा दिया अर्थात् सब कोई चौंक कर उठ बैठे और ताज्जुब के साथ इधर-उधर देखने लगे। केवल इतने ही से बेचैनी दूर न हुई और सब कोई बारहदरी से बाहर निकल कर सहन में चले आये, उसी समय इन्द्रदेव ने सामने आकर महाराज को सलाम किया।

महाराज--यह तो मालूम हो गया कि यह सब तुम्हारी कारीगरी का नतीजा है, मगर बताओ तो सही कि यह गाने-बजाने की आवाज कहाँ से आ रही है ?

इन्द्रदेव--आइये, मैं बताता हूँ। महाराज को जगाने ही के लिए यह तरकीब की गई थी, क्योंकि अब यहाँ से रवाना होने का समय हो गया है, और विलम्ब न करना चाहिए

इतना कहकर इन्द्रदेव सभी को उस सिंहासन के पास ले गया जिसमें से गाने की आवाज आ रही थी । और उसका असल भेद समझाकर बोला, "इसमें मौके पर हर एक रागिनी पैदा हो सकती है ।"

इस अनूठे गाने-बजाने से महाराज बहुत प्रसन्न हुए और इसके बाद सभी को लिए हुए इन्द्रदेव के मकान की तरफ रवाना हुए ।

उस बारहदरी की बगल में ही एक कोठरी थी जिसमें सभी को साथ लिए हुए इन्द्रदेव चला गया ! इस समय इन्द्रदेव के पास तिलिस्मी खंजर था जिससे उसने हलकी रोशनी पैदा की और उसी के सहारे सभी को लिए हुए आगे की तरफ बढ़ा।

उस कोठरी में जाने के बाद पहले सभी को एक छोटे से तहखाने में उतरना पड़ा,वहाँ सभी ने लाल रंग की एक समाधि देखी जिसके बारे में दरियाफ्त करने पर इन्द्रदेव ने कहा कि यह समाधि नहीं है, सुरंग का दरवाजा है। इन्द्रदेव उस समाधि के पास बैठ गया और कोई ऐसी तरकीब की कि जिससे वह बीचोंबीच से खुल गई और नीचे उतरने के लिए चार-पांच सीढ़ियाँ दिखाई दीं। इन्द्रदेव के कहे मुताबिक सब कोई नीचे उतर गये और इसके बाद सीधी सुरंग में चलने लगे । सुरंग की हालत और ऊँची-नीची जमीन से साफ-साफ मालूम होता था कि वह पहाड़ काटकर बनाई हुई है और सब लोग ऊँचे की तरफ बढ़ते जा रहे हैं। हमारे मुसाफिरों को दो-ढाई घड़ी के लगभग चलना पड़ा और तब इन्द्रदेव ने ठहरने के लिए कहा, क्योंकि यहाँ पर सुरंग खत्म हो चुकी थी और सामने एक बन्द दरवाजा दिखाई दे रहा था । इन्द्रदेव ने ताली लगाकर ताला खोला और सभी को साथ लिए हुए उसके अन्दर गया। सभी ने अपने को एक सुन्दर कमरे में पाया और जब इस कमरे के बाहर हुए तब मालूम हुआ कि सवेरा हो चुका है।

यह इन्द्रदेव का वही मकान है जिसमें बुड्ढे दारोगा के साथ मदद पाने की उम्मीद में मायारानी गई थी। इस सुन्दर और सुहावने स्थान का हाल हम पहले लिख चुके हैं, इसलिए अब पुनः बयान करने की कोई जरूरत नहीं मालूम होती।

इन्द्रदेव सभी को लिए हुए पुनः अपने छोटे से बगीचे में गया, वहाँ चारों तरफ की सुन्दर छटा दिखाई दे रही थी और खुशबूदार ठण्डी-ठण्डी हवा दिल और दिमाग के साथ दोस्ती का हक अदा कर रही थी।

महाराज सुरेन्द्रसिंह और वीरेन्द्रसिंह तथा दोनों कुमारों को यह स्थान बहुब ही पसन्द आया और बार-बार इसकी तारीफ करने लगे। यद्यपि इस बगीचे में सभी के लायक दर्जे-बदर्जे कुर्सियाँ बिछी हुई थीं, मगर किसी का जी बैठने को नहीं चाहता था। सब कोई घूम-घूमकर यहाँ का आनन्द लेना चाहते थे और ले रहे थे, मगर इस बीच में एक ऐसा मामला हो गया जिसने भूतनाथ और देवीसिंह दोनों ही को चौंका दिया। एक आदमी जल से जरा हुआ चाँदी का घड़ा और सोने की झारी लेकर आया और संगमरमर की चौकी पर, जो बगीचे में पड़ी हुई थी, रखकर लौट चला । इसी आदमी को देखकर भूतनाथ और देवीसिंह चौंके थे, क्योंकि यह वही आदमी था जिसे ये दोनों ऐयार नकाबपोशों के मकान में देख चुके थे। इसी आदमी ने नकाबपोशों के सामने एक तस्वीर पेश की की थी और कहा था कि "कृपानाथ, बस मैं इसी का दावा भूतनाथ पर करूँगा।"]

केवल इतना ही नहीं, भूतनाथ ने वहाँ से थोड़ी दूर पर एक झाड़ी में अपनी स्त्री को भी फूल तोड़ते देखा और धीरे-से देवीसिंह को छेड़कर कहा, "वह देखिये मेरी स्त्री भी वहाँ मौजूद है, ताज्जुब नहीं कि आपकी चम्मा भी कहीं घूम रही हो।"