चंद्रकांता संतति भाग 5
देवकीनन्दन खत्री

दिल्ली: भारती भाषा प्रकाशन, पृष्ठ ३० से – ३३ तक

 

8

कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह तिलिस्म तोड़ने की धुन में लगे थे। मगर उनके दिल से किशोरी और कमलिनी तथा कामिनी और लाड़िली की मुहब्बत एक सायत के लिए भी बाहर नहीं होती थी। जब दोनों कुमारों ने बाग के उत्तर की तरफ वाले मकान की खिड़की (छोटे दरवाजे) में से झाँकते हुए राजा गोपालसिंह की जुबानी किशोरी, कमलिनी, कामिनी और लाड़िली का सब हाल सुना और यह भी सुना कि अब वे सब बहुत जल्द जमानिया में लाई जायेंगी, तब बहुत खुश हुए और उन लोगों से जल्द मिलने के लिए तिलिस्म तोड़ने की फिक्र उन्हें बहुत ज्यादा हो गई। जब गोपालसिंह, इन्दिरा और इन्द्रदेव बातचीत करके चले गये, तब बड़े कुमार ने सरयू से कहा, "सरयू, हम लोग अब बहुत जल्द तुम्हें अपने साथ लिए हुए इस तिलिस्म के बाहर होंगे। हम लोगों को तिलिस्म तोड़ने और दौलत पाने का उतना खयाल नहीं है जितना तिलिस्म से बाहर निकलने का ध्यान है। इस तिलिस्म से हम लोगों को एक किताब मिलने वाली है जिसके लिए हम लोग जरूर उद्योग करेंगे, क्योंकि उसी किताब की बदौलत हम लोग चुनारगढ़ का वह भारी तिलिस्म तोड़ सकेंगे जिसे हमारे पिता ने हमारे लिए छोड़ रखा है और जिसका तोड़ना हम दोनों भाइयों को आवश्यक कहा जाता है।"

सरयू––मेरे दिल ने उम्मीदों से भरकर उसी समय विश्वास करा दिया कि अब तेरा दुर्दैव सदैव के लिए तेरा पीछा छोड़ देगा जब आप दोनों भाइयों के दर्शन हुए तथा आप लोगों का परिचय मिला। अब मैं अपना दुःख भूलकर बिल्कुल बेफिक्र हो रही हूँ और सिवाय आपकी आज्ञा मानने के कोई दूसरा खयाल मेरे दिल में नहीं है।

इन्द्रजीतसिंह––अच्छा, तो अब तुम हम लोगों के लिए फल तोड़ो और तब तक हम लोग इस बाग में घूम कर कोई दरवाजा ढूँढ़ते हैं। ताज्जुब नहीं कि हम दोनों को इस बाग में कई दिन रहना पड़े।

सरयू––जो आज्ञा।

इतना कहकर सरयू फल तोड़ने और नहर के किनारे छाया देखकर कुछ जमीन साफ करने के खयाल में पड़ी और दोनों कुमार बाग में इधर-उधर घूमकर दरवाजा खोजने का उद्योग करने लगे।

पहरभर से ज्यादा देर तक घूमने और पता लगाने के बाद जब कुमार उत्तर की तरफ वाली दीवार के नीचे पहुँचे, जिधर मकान था, तब उन्हें पूरब की तरफ के कोने की तरफ हटकर जमीन में एक हौज का निशान मालूम हुआ। उसी के पास दीवार में एक छोटे-से दरवाजे का भी चिन्ह भी दिखा जिससे निश्चय हो गया कि उन लोगों का काम इन्हीं दोनों निशानों से चलेगा। इतना सोचकर वे दोनों भाई वहाँ चले आये जहाँ सरयू फल तोड़ और जमीन साफ करके बैठी हुई दोनों भाइयों के आने का इन्तजार कर रही थी। सरयू ने अच्छे-अच्छे और पके फल दोनों भाइयों के लिए तोड़े और जल से धोकर साफ पत्थर की चट्टान पर रखे थे। दोनों भाइयों ने उन्हें खाकर नहर का जल पिया और इसके बाद सरयू को भी खाने के लिए कह के उसी ठिकाने चले गये जहाँ हौज और दरवाजे का निशान पाया था। हौज में मिट्टी भरी हुई थी जिसे दोनों भाइयों ने खंजर से खोद-खोद के निकालना शुरू किया और थोड़ी देर में सरयू भी उनके पास पहुँच कर मिट्टी फेंकने में मदद करने लगी। संध्या हो जाने पर इन सभी ने उस काम से हाथ खींचा और नहर के किनारे जाकर आराम किया। उस हौज की सफाई में इन लोगों को चार दिन लग गये, पाँचवें दिन दोपहर होते-होते वह हौज साफ हुआ और मालूम होने लगा कि यह वास्तव में एक फव्वारा। वह हौज बढ़िया संगमरमर का बन हुआ था और फव्वारा सोने का। अब दोनों कुमारों ने खंजर के सहारे उस हौज की जमीन का पत्थर उखाड़ना शुरू किया और जब दो-तीन दिन की मेहनत में सब पत्थर उखड़ गये तब वह फव्वारा भी सहज ही में निकल गया और उसके नीचे एक दरवाजे का निशान दिखाई दिया। दरवाजे में पल्ला हटाने के लिए कड़ी एक लगी हुई थी और जिस जगह ताला लगा हुआ था। उसके मुँह पर लोहे की एक पतली चादर रखी हुई थी जिसे कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने हटा दिया और उसी तिलिस्मी ताली से ताला खोला जो पुतली के हाथ से उन्हें मिली थी।

दरवाजा हटाने पर नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ दिखाई पड़ी। आनन्दसिंह तिलिस्मी खंजर हाथ में लेकर रोशनी करते हुए नीचे उतरे और उनके पीछे-पीछे इन्द्रजीतसिंह और सरयू भी गये। नीचे पहुँचकर उन्होंने अपने को एक छोटी-सी कोठरी में पाया जिसके बीचोंबीच में एक हौज बना हुआ था। उस हौज के चारों तरफ वाली दीवार कई तरह की धातुओं से बनी हुई थी और हौज के बीच में किसी तरह की राख भरी हुई थी। कोठरी के चारों तरफ की दीवारों में से ताँबे की बहुत-सी तारें आई थीं और वे सब एक साथ होकर उसी हौज के बीच में चली गई थीं। इन्द्रजीतसिंह ने सरयू से कहा, "जब ये सब तारें काट दी जायेंगी, तब बाग के चारों तरफ की दीवार करामात से खाली हो जायगी अर्थात् उसमें यह गुण न रहेगा कि उसके छूने से किसी को किसी तरह की तकलीफ हो, इसके बाद हम लोग उस दीवार वाले दरवाजे को साफ करके रास्ता निकालेंगे और इस बाग से निकलकर किसी दूसरी ही जगह जायेंगे। अस्तु तुम यहाँ से निकलकर ऊपर चली जाओ तब हम लोग तार काटने में हाथ लगावें।"

इन्द्रजीतसिंह की आज्ञानुसार सरयू उस कोठरी से बाहर निकल गई और तीनों कुमारों ने तिलिस्मी खंजर से शीघ्र ही उन तारों को काट डाला और बाहर निकल आये, दरवाजा पहले की तरह बन्द कर दिया और ऊपर से मिट्टी डाल दी। फिर नहर के किनारे आकर तीनों आदमी बैठ गये और बातचीत करने लगे।

सरयू––अब दीवार छूने से किसी तरह की तकलीफ नहीं नहीं सकती?

इन्द्रजीतसिंह––अभी नहीं। धीरे-धीरे दो पहर में उसका गुण जायगा और तब तक हम लोगों को व्यर्थ बैठे रहना पड़ेगा।

आनन्दसिंह––तब तक (सरयू की तरफ बताकर) इनका बचा हुआ किस्सा सुन लिया जाता तो अच्छा होता।

इन्द्रजीतसिंह––नहीं, अब इनका किस्सा पिताजी के सामने सुनेंगे। सरयू––अब तो मैं आपके साथ ही रहूँगी, इसलिए तिलिस्म तोड़ते समय जो कुछ कार्रवाई आप करेंगे या जो तमाशा दिखाई देगा देखूँगी, मगर यदि आज के पहले का हाल भी जब से आप इस तिलिस्म में आये हैं, सुना देते तो बड़ी कृपा होती। मैं भी समझती कि आपकी बदौलत इस तिलिस्म का पूरा-पूरा तमाशा देख लिया।

इन्द्रजीतसिह––अच्छी बात है, (आनन्दसिंह से) तुम इस तिलिस्म का हाल इन्हें सुना दो।

थोड़ी देर आराम करने तथा जरूरी कामों से छुट्टी पाने के बाद भाई की आज्ञानुसार आनन्दसिंह ने अपना तिलिस्म का हाल तथा जिस ढंग से इन्दिरा से मुलाकात हुई थी, वह सब सरयू को कह सुनाया, इसके साथ ही साथ तिलिस्म के बाहर आजकल का जैसा जमाना हो रहा था, वह सब भी बयान किया। वह सब हाल कहते-सुनते रात आधी से कुछ ज्यादा चली गई और उस समय इन लोगों ने एक विचित्र तमाशा देखा।

इस बाग के उत्तर की तरफ जो सटा हुआ मकान बना था और जिसमें राजा गोपालसिंह और कुमार में बातचीत हुई थी, हम पहले लिख आये हैं कि उसमें आगे की तरफ सात खिड़कियाँ थीं। इस समय यकायक एक आवाज आने से दोनों कुमारों और सरयू की निगाह उस तरफ गई। देखा कि बीच वाली बड़ी खिड़की (दरवाजा) खुली है और अन्दर रोशनी मालूम होती है। इन लोगों को ताज्जुब हुआ और इन्होंने सोचा कि शायद राजा गोपालसिंह आये हैं और हम लोगों से बातचीत करने का इरादा है मगर ऐसा न था, थोड़ी ही देर बाद उसके अन्दर दो-तीन नकाबपोश चलते-फिरते दिखाई दिये और इसके बाद एक नकाबपोश खिड़की में कमन्द अड़ाकर नीचे उतरने लगा, पहले तो दोनों कुमारों ओर सरयू को गुमान हुआ कि खिड़ की में राजा गोपालसिंह या इन्द्रदेव दिखाई देंगे या होंगे, मगर जब एक नकाबपोश कमन्द के सहारे नीचे उतरने लगा, तब उनका खयाल बदल गया और और वे सोचने लगे कि यह काम इन्द्रदेव या गोपालसिंह का नहीं है बल्कि किसी ऐसे आदमी का है जो इस तिलिस्म का हाल नहीं जानता, क्योंकि गोपालसिंह और इन्द्रदेव तथा इन्दिरा को यह भी मालूम है कि इस बाग की दीवार छूने या बदन के साथ लगाने लायक नहीं है, तभी तो इन्दिरा अपनी माँ के पास नहीं पहुंच सकी थी और सरयू ने यह बात इन्दिरा से कही होगी।

इन्द्रजीतसिंह ने इसी समय सरयू से पूछा कि "इस बाग की दीवार का हाल इन्दिरा को मालूम है?" इसके जवाब सरयू ने कहा, "जरूर मालूम है। मैंने खुद इन्दिरा से कहा था और इसी सबब से तो वह मेरे पास आज तक न आ सकी। निःसन्देह इन्दिरा ने यह बात राजा गोपालसिंह से कही होगी, बल्कि वह खुद जानते होंगे। इसी से मैं सोचती हूँ कि ये लोग कोई दूसरे ही हैं जो इस भेद को नहीं जानते, मगर अब तो इस दीवार का गुण जाता ही रहा।"

तीनों को ताज्जुब हुआ और तीनों आदमी टकटकी लगाकर उस तरफ देखने लगे। जब वह नकाबपोश कमन्द के सहारे नीचे उतर आया, तब दूसरे नकाबपोश ने वह कमन्द ऊपर खींच ली और उसी कमन्द में एक गठरी और बाँधकर नीचे लटकाई। दोनों कुमारों और सरयू की विश्वास हो गया कि इस गठरी में जरूर कोई आदमी है। जो नकाबपोश नीचे आ चुका था, उसने गठरी थाम ली और खोलकर कमन्द खाली कर दी, मगर जिस कम्बल में वह गठरी बँधी थी, उसे इसी के साथ बाँध दिया और ऊपर वाले नकाबपोश ने खींच लिया। थोड़ी देर बाद ही दूसरी गठरी लटकाई गई और नीचे वाले नकाबपोश ने पहले की तरह उसे भी थाम लिया और खोलकर फिर कमन्द के साथ बाँध दिया।

इसी तरह बारी-बारी से सात गठरियाँ नीचे उतारी गयीं, इसके बाद वह नकाबपोश, जो सबसे पहले नीचे उतरा था, उसी कमन्द के सहारे ऊपर चढ़ गया और खिड़की बन्द हो गई।


9

जिस समय राजा गोपालसिंह खास बाग के दरवाजे पर पहुँचे, उस समय उनके दीवान साहब भी वहाँ हाजिर थे। नकली रामदीन अर्थात् लीला उनके हवाले कर दी गई। भैरोंसिंह के सवाल करने पर उन्होंने कहा कि "इस लीला ने चार आदमियों को खास बाग के अन्दर पहुँचाया है, मगर हम नहीं कह सकते कि वास्तव में वे कौन थे।" अब राजा साहब और भैरोंसिंह को यह तो मालूम हो गया कि चार आदमी भी इस बाग के अन्दर घुसे हैं जो हमारे दुश्मन ही होंगे, मगर उन्हें उन पाँच सौ फौजी सिपाहियों की शायद ही खबर हो जिन्हें मायारानी ने गुप्त रीति से बाग के अन्दर कर लिया था। पहली दफे जब मायारानी को गोपालसिंह ने छकाया था, तब वह खुले तौर पर बाग में रहती थी, मगर अबकी दफे तो वह उस भूलभूलैया बाग में जाकर ऐसा गायब हुई है कि उसका पता लगाना भी कठिन होगा। दीवान साहब ने पूछा भी कि "अगर हुक्म हो तो बाग में तलाशी ली जाय और उन आदमियों का पता लगाया जाय जिन्हें लीला ने इस बाग में पहुँचाया है।" मगर राजा साहब ने इसके जवाब में सिर हिलाकर जाहिर कर दिया कि यह बात उन्हें स्वीकार नहीं है।

कुछ दिन रहते ही राजा गोपालसिंह बाग के दूसरे दर्जे में केवल भैरोंसिंह को साथ लेकर गये और बाग के अन्दर चारों तरफ सन्नाटा पाया। इस समय भैरोंसिंह और राजा गोपालसिंह दोनों के ही हाथ में तिलिस्मी खंजर मौजूद थे।

खास बाग के दूसरे दर्जे में दो कुएँ थे जिनमें पानी बहुत ज्यादा रहता था, यहाँ तक कि इस बाग के पेड़-पत्तों को सींचने और छिड़काव का काम इन दोनों में से किसी एक कुएँ ही से चल सकता था, मगर सींचने के समय दूर और नजदीक का खयाल करके या शायद और किसी सबब से बनवाने वाले ने दो बड़े-बड़े जंगी कुएँ बनवाये थे, परन्तु ये दोनों कुएँ भी कारीगरी और ऐयारी से खाली न थे।

भैरोंसिंह और गोपालसिंह छिपते और घूमते हुए पूरब की तरफ वाले कुएँ पर पहुँचे जिसका घेरा बहुत बड़ा था और नीचे उतरने तथा चढ़ने के लिए कुएँ की दीवार