चंद्रकांता संतति भाग 5
देवकीनन्दन खत्री

दिल्ली: भारती भाषा प्रकाशन, पृष्ठ २५ से – २७ तक

 

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दिन दो पहर से कुछ ज्यादा ढल चुका था जब जमानिया में दीवान साहब को रामदीन के आने की इत्तिला मिली। दीवान साहब ने रामदीन को अपने पास बुलाया और उसने दीवान साहब के सामने पहुँचकर गोपालसिंह की चिट्ठी उनके हाथ में दी तथा जब वे चिट्ठी पढ़ चुके तो अँगूठी भी दिखाई। दीवान साहब ने नकली रामदीन से कहा, "महाराज का हुक्म हम लोगों के सिर आँखों पर, तुम अँगूठी को पहन लो और हम लोगों को अपने हुक्म का पाबन्द समझो! सवारी और सवारों का इन्तजाम दो घड़ी के अन्दर हो जायेगा। तुम यहां रहोगे या सवारों के साथ जाओगे?" रामदीन ने कहा, "मैं सवारों के साथ ही राजा साहब के पास जाऊँगा मगर इस समय चार आदमियों को खास बाग के अन्दर पहुँचाकर उनके खाने-पीने का इन्तजाम कर देना है जैसा कि हमारे राजा साहब का हुक्म है।"

दीवान––(ताज्जुब से) खास बाग के अन्दर?

रामदीन––जी, हाँ।

दीवान--और वे चारों आदमी हैं कहाँ पर?

रामदीन––उन्हें मैं बाहर छोड़ आया हूँ।

दीवान––(कुछ सोचकर) खैर, जो कुछ राजा साहब ने हुक्म दिया हो या जो तुम्हारे जी में आवे वह करो। अब हम लोगों को तो रोकने-टोकने का अधिकार ही नहीं रहा।

रामदीन सलाम करके उठ खड़ा हुआ और अपने चारों साथियों को लेकर तिलिस्मी बाग के अन्दर चला गया जहाँ इस समय बिल्कुल ही सन्नाटा था। अँगूठी के खयाल से उसे किसी ने भी नहीं रोका और मायारानी बे-खटके अपने ठिकाने पहुच गई तथा लुकने-छिपने और दरवाजों को बन्द करने लगी। अब हम रामदीन के साथ राजा गोपालसिंह की तरफ रवाना होते हैं और देखते हैं कि बनी-बनाई बात किस तरह चौपट होती है।

संध्या होने से पहले खाने-पीने का सामान, चार रथ और दो सौ सवारों को लेकर नकली रामदीन पिपलिया घाटी की तरफ रवाना हुआ और दूसरे दिन दोपहर के बाद वहाँ पहुँचा।

आज ही संध्या होने के पहले राजा गोपालसिंह यहाँ पहुँचने वाले थे यह बात रामदीन की जुबानी सभी को मालूम हो चुकी थी और सभी आदमी उनके आने का इन्तजार कर रहे थे।

संध्या हो गई, चिराग जल गया, पहर रात गई, दोपहर रात गुजरी, आखिर तमाम रात बीत गई, मगर राजा गोपालसिंह नहीं आये, इसलिए नकली रामदीन के ताज्जुब का तो कहना ही क्या? उसके दिल में तरह-तरह की बातें पैदा होने लगीं, मगर इसके अतिरिक्त जितने फौजी सवार तथा अन्य लोग साथ आये थे उन सबको भी बहुत ताज्जुब हुआ और वे घड़ी-घड़ी राजा साहब के न आने का सबब उससे पूछने लगे, मगर रामदीन क्या जवाब देता? उसे इन बातों की खबर क्या थी!

दूसरे दिन संध्या के समय राजा गोपालसिंह घोड़े पर सवार वहाँ आ पहुँचे मगर अकेले थे, साईस तक साथ न था। सिपाहियाना ठाठ से बेशकीमत कपड़ों के ऊपर तिलिस्मी कवच खंजर और ढाल-तलवार लगाये बहुत ही सुन्दर तथा रोआबदार मालूम होते थे। सभी ने झुककर सलाम किया और नकली रामदीन ने आगे बढ़कर घोड़े की लगाम थाम ली तथा उसकी गर्दन पर चार थपकी देकर कहा, "आश्चर्य है कि आपके आने में पूरे आठ पहर की देर हो गई है और फिर भी अकेले ही हैं!"

यह सुनकर राजा साहब ने कई पल तक रामदीन का मुँह देखा और तब कहा, "हाँ, किशोरी, कामिनी और लक्ष्मीदेवी वगैरह ने हमारे साथ आने से इनकार किया इसलिये हम अकेले ही आये हैं और हमारे जाने में रात भर की देर है। इस समय हम किसी काम को जाते हैं सवेरे यहाँ आयेंगे, तब तक तुम सभी को इस घाटी में टिके रहना होगा!"

रामदीन––घोड़ों का दाना तो सिर्फ एक ही दिन का आया था, और सवार लोग भी...

गोपालसिंह––खैर, क्या हर्ज है, घोड़े चराई पर गुजर कर लेंगे और सवार लोग रात भर फाका करेंगे।

इतना कहकर राजा गोपालसिंह ने घोड़े की बाग मोड़ी और जिधर से आये थे उसी तरफ तेजी के साथ रवाना हो गये। रामदीन चुपचाप ज्यों-का-त्यों खड़ा उनकी तरफ देखता ही रह गया और जब वे नजरों की ओट हो गये तब उसने सभी को राजा साहब का हुक्म सुनाया और इसके बाद अपने बिछावन पर जाकर सोचने लगा––

गोपालसिंह की बातें कुछ समझ में नहीं आतीं और न उनके इरादे का ही पता लगता है! लक्ष्मीदेवी और कमलिनी वगैरह को न मालूम क्यों छोड़ आये और जब उन्होंने इनके साथ आने से इनकार किया तो इन्होंने मान क्यों लिया? क्या अब लक्ष्मीदेवी का और इनका साथ न होगा? अगर ये अकेले जमानिया गए तो क्या केवल इन्हीं के साथ वह सलूक किया जायेगा जो हम सोच चुके हैं? मगर कमलिनी वगैरह का बचे रह जाना तो अच्छा नहीं होगा। लेकिन फिर क्या किया जाये लाचारी है, हाँ, एक बात का इन्तजाम तो कुछ किया ही नहीं गया और न पहले इस बात का विचार ही हुआ। जमानिया पहुँचने पर जब दीवान साहब की जुबानी गोपालसिंह को यह मालूम होगा कि रामदीन ने चार आदमियों को खास बाग के अन्दर पहुँचाया है तब वह क्या सोचेंगे और पूछने पर मुझसे क्या जवाब पावेंगे? कुछ भी नहीं। इस बात का जवाब देना मेरे लिए कठिन हो जायेगा। तब फिर खास बाग पहुँचने के पहले ही मेरा भाग जाना उचित होगा? ओफ, बड़ी भूल हो गई, यह बात पहले न सोच ली! दीवान साहब को बिना कुछ कहे ही उन सभी को खास बाग में पहुँचा देना मुनासिब होता। मगर ऐसा करने पर भी तो काम नहीं चलता। अगर दीवान साहब को नहीं तो खास बाग के पहरेदारों को तो मालूम ही हो जाता कि रामदीन चार आदमियों को बाग के अन्दर छोड़ गया है और उन्हीं की जुबानी यह बात राजा साहब को भी मालूम हो जाती। बात एक ही थी, सबसे अच्छा तो तब होता जब वे लोग किसी गुप्त राह से बाग के अन्दर जाते, मगर यह सम्भव न था क्योंकि जरूर भीतर से सभी रास्ते गोपालसिंह ने बन्द कर रखे होंगे। तब क्या करना चाहिये? हाँ, भाग ही जाना सबसे अच्छा होगा। मगर मायारानी को भी तो इस बात की खबर कर देनी चाहिए। अच्छा तब जमानिया होकर और मायारानी को कह-सुनकर भागना चाहिए। नहीं अब तो यह भी नहीं हो सकता, क्योंकि मायारानी फौजी सिपाहियों को बाग के अन्दर करके साथियों समेत कहीं छिप गई होगी और मैं उस भाग के गुप्त भेदों को न जानने के कारण इस लायक नहीं हूँ कि मायारानी को खोज निकालूँ और अपने दिल का हाल उनसे कहूँ या उन्हीं के साथ आने भी छिप रहूँ। ओफ! वह तो मजे में अपने ठिकाने पहुँच गई मगर मुझे आफत में डाल गईं। खैर, अभी तो नहीं मगर गोपालसिंह को जमानिया की हद में पहुँचाकर जरूर भाग जाना पड़ेगा। फिर जब मायारानी उन्हें मारकर अपना दखल जमा लेंगी तब फिर उनसे मुलाकात होती रहेगी। इन्हीं विचारों में लीला (नकली रामदीन) ने तमाम रात आँखों में बिता दी। सवेरा होने के पहले ही वह जरूरी कामों से छुट्टी पाने के लिए घोड़े पर सवार होकर दूर चली गई और घण्टे भर बाद लौट आई।