चन्द्रकान्ता सन्तति 5/17.12
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राजा गोपालसिंह ने जब रामदीन को चिट्ठी और अँगूठी देकर जमानिया भेजा था तो यद्यपि चिट्ठी में लिख दिया था कि परसों रविवार को शाम तक हम लोग वहाँ (पिपलिया घाटी) पहुँच जाएँगे, मगर रामदीन को समझा दिया था कि रविवार को पिपलिया घाटी पहुँचना हमने यों ही लिख दिया है, वास्तव में हम वहाँ सोमवार को पहुँचेंगे अस्तु तुम भी सोमवार को पिपलिया घाटी पहुँचना, जिसमें ज्यादा देर तक हमारे आदमियों को वहाँ ठहर कर तकलीफ न उठानी पड़े, और दो सौ सवारों की जगह केवल बीस सवार लाना। यह वात असली रामदीन को तो मालूम थी और वह मारा न जाता तो बेशक रथ और सवारों को लेकर राजा साहब की आज्ञानुसार सोमवार को ही पिपलिया घाटी पहुँचता, मगर नकली रामदीन अर्थात् लीला तो उन्हीं बातों को जान सकती थी जो चिट्ठी में लिखी हुई थीं। अस्तु वह रविवार ही को रथ और दो सौ फौज लेकर पिपलिया घाटी जा पहुँची और जब सोमवार को राजा साहब वहाँ पहुँचे, तो बोली, "आश्चर्य है कि आपके आने में पूरे आठ पहर की देर हुई!"
यह सुनते ही राजा साहब समझ गये कि यह असली रामदीन नहीं है, उसी समय से उन्होंने अपनी कार्रवाई का ढंग बदल दिया और लीला तथा मायारानी का सब बन्दोबस्त मिट्टी में मिल गया। वे उसी समय दो-चार बातें करके पीछे लौट गए और दूसरे दिन औरतों को अपने साथ न लाकर केवल भैरोंसिंह और इन्द्रदेव को साथ लिए हुए पिपलिया घाटी में आए।
इस जगह यह भी लिख देना उचित जान पड़ता है कि दूसरे दिन पिपलिया घाटी में पहुँच कर लीला के लाए हुए सवारों के साथ रथ पर चढ़ कर जमानिया पहुँचने वाले गोपालसिंह असली न थे बल्कि नकली थे और भैरोंसिंह ने लीला के साथ जो सलूक किया वह असली राजा गोपालसिंह के इशारे से था। अब हमारे पाठक यह जानना चाहते होंगे कि यदि वह राजा गोपालसिंह नकली थे तो असली गोपालसिंह कहाँ गये, या वह किस सूरत में गये? तो इसके जवाब में केवल इतना ही कह देना काफी होगा कि असली गोपालसिंह नकली गोपालसिंह के साथ इन्द्रदेव की सूरत बना कर रथ पर सवार हुए थे और जमानिया पहुँचने के पहले ही नकली गोपालसिंह को समझा-बुझा कर रथ से उतर किसी तरफ चले गये थे। यह सब हाल यद्यपि बयानों से पाठकों को मालूम हो गया होगा, परन्तु शक मिटाने के लिए यहाँ पुनः लिख दिया गया।
राजा गोपालसिंह के होशियार हो जाने के कारण मायारानी ने तिलिस्मी बाग में तरह-तरह के तमाशे देखे जिसका कुछ हाल तो लिखा जा चुका है और बाकी आगे चल कर लिखा जायगा क्योंकि इस समय हम इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह का हाल लिखना उचित समझते हैं।
कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह ने जब खिड़की में कमन्द लगा हुआ न पाया तो उन्हें ताज्जुब और रंज हुआ। थोड़ी देर तक खड़े उसी बाग की तरफ देखते रहे और तब आनन्दसिंह से बोले, "क्या हम लोगों यहाँ से कूद नहीं सकते?"
आनन्दसिंह––क्यों नहीं कूद सकते! अगर इस बात का खयाल हो कि नीचा बहुत है तो कमरबन्द खोल कर इस दरवाजे के सींकचे में बाँध और उसके सहारे कुछ नीचे लटक कर कूदने में मालूम भी न पड़ेगा।
इन्द्रजीतसिंह––हाँ, तुमने यह बहुत ठीक कहा। कमरबन्दों के सहारे हम लोग आधी दूर तक तो जरूर ही लटक सकते हैं, मगर खराबी यह है कि दोनों कमरबन्दों से हाथ धोना पड़ेगा और इस तिलिस्म में नहाने-धोने की सुविधा इन्हीं की बदौलत है। खैर कोई चिन्ता नहीं लँगोटे से भी काम चल सकता है, अच्छा लाओ कमरबन्द खोलो।
दोनों भाइयों ने कमरबन्द खोलने के बाद दोनों को एक साथ जोड़ा और उसका एक सिरा दरवाजे से लगे हुए सींकचे के साथ बाँध कर दोनों भाई बारी-बारी से नीचे लटक गये।
कमरबन्द ने आधी दूर तक दोनों भाइयों को पहुँचा दिया। इसके बाद दोनों भाइयों को कूद जाना पड़ा। कूदने के साथ ही नीचे एक झाड़ी के अन्दर से आवाज आई, "शाबाश! इतनी ऊँचाई से कूद पड़ना आप ही लोगों का काम है! मगर अब किशोरी, कामिनी इत्यादि से मुलाकात नहीं हो सकती।"
जितने आदमी कमन्द के सहारे इस बाग में लटकाये गए थे और जिन सभी को यहाँ छोड़ आनन्दसिंह अपने भाई को बुलाने के लिए ऊपर गये थे, उन सभी को मौजूद न पाकर और इस शाबाशी देने वाली आवाज को सुन कर दोनों को बड़ा ही आश्चर्य हुआ। दोनों भाई चारों तरफ घूम-घूम कर देखने लगे। मगर किसी की सूरत नजर न पड़ी, हाँ, एक पेड़ के नीचे सरयू को बेहोश पड़ी हुई जरूर देखा जिससे उन दोनों का ताज्जुब और भी ज्यादा हो गया।
इन्द्रजीतसिंह––(आनन्दसिंह से) यह सब खरावी तुम्हारी जरा-सी भूल के सबब से हुई!
आनन्दसिंह––निःसन्देह ऐसा ही है।
इन्द्रजीतसिंह––पहले सरयू को होश में की लाने फिक्र करो, शायद हमें इसकी जुबानी कुछ मालूम हो।
आनन्दसिंह––जो आज्ञा।
इतना कहकर आनन्दसिंह सरयू को होश में लाने का उद्योग करने लगे। थोड़ी देर में सरयू की बेहोशी जाती रही और इतने ही में सुबह की सफेदी ने भी अपनी सूरत दिखाई।
इन्द्रजीतसिंह––(सरयू से) तुम्हें किसने बेहोश किया?
सरयू––एक नकाबपोश ने आकर एक चादर जबर्दस्ती मेरे ऊपर डाल दी जिससे मैं बेहोश हो गई। मैं दूर से सब तमाशा देख रही थी। जब आप कमन्द के सहारे ऊपर चढ़ गये और उसके कुछ देर बाद छोटे कुमार भी आपको कई दफे पुकारने के बाद उसी कमन्द के सहारे ऊपर चढ़ गये, तब उन्हीं में से एक नकाबपोश ने उन सभी को सचेत किया जो (हाथ का इशारा करके) उस जगह बेहोश पड़े हुए थे या जो ऊपर से लटकाए गए थे। इसके बाद सब कोई मिल कर उस (हाथ से बता कर) दीवार की तरफ गए और कुछ देर तक आपस में बातें करते रहे। इसी बीच में छिपकर उनकी बातें सुनने की नीयत से मैं भी धीरे-धीरे अपने को छिपाती हुई उस तरफ बढ़ी मगर अफसोस वहाँ तक पहुँचने भी न पाई थी कि एक नकाबपोश मेरे सामने आ पहुँचा और उसने उसी ढंग से मुझे बेहोश कर दिया जैसा कि मैं अभी कह चुकी हूँ। शायद उसी बेहोशी की अवस्था में मैं इस जगह पहुँचाई गई।
सरयू की बातें सुन कर दोनों कुमार कुछ देर तक सोचते रहे। इसके बाद सरयू को साथ लिए उसी दीवार की तरफ गये जिधर उन लोगों का जाना सरयू ने बताया था जो कमन्द के सहारे इस बाग में उतरे या उतारे गये थे। जब वहाँ पहुँचे तो देखा कि दीवार की लम्बाई के बीचोंबीच में एक दरवाजे का निशान बना हुआ है और उसके पास ही में नीचे की जमीन कुछ खुदी हुई है।
आनन्दसिंह––(इन्द्रजीतसिंह से) देखिए यहाँ की जमीन उन लोगों ने खोदी और तिलिस्म के अन्दर जाने का दरवाजा निकाला है, क्योंकि दीवार में अब वह गुण तो रहा नहीं जो उन लोगों को ऐसा करने से रोकता।
इन्द्रजीतसिंह––बेशक यह वही दरवाजा है जिस राह से हम लोग तिलिस्म के दूसरे दर्जे में जाने वाले थे! मगर इससे तो यह जाना जाता है कि वे लोग तिलिस्म के अन्दर घुस गये?
आनन्दसिंह––जरूर ऐसा ही है और यह काम सिवाय गोपाल भाई के दूसरा कोई नहीं कर सकता। अस्तु अब मैं जरूर यह कहने की हिम्मत करूँगा कि वह कोई दूसरा नहीं था, जिसके कहे मुताबिक मैं आपको बुलाने के लिए मकान के ऊपर चला गया था।
इन्द्रजीतसिंह––तुम्हारी बात मान लेने की इच्छा तो होती है। मगर क्या तुम उस खास निशान को देख कर भी कह सकते हो कि वह चिट्ठी गोपाल भाई की नहीं थी जो मुझे उस मकान में कमरे के अन्दर मिली थी?
आनन्दसिंह––जी नहीं, यह तो मैं कदापि नहीं कह सकता कि वह चिट्ठी किसी दूसरे की लिखी हुई थी, मगर यह खयाल भी मेरे दिल से दूर नहीं हो सकता कि उन्हीं (गोपालसिंह) की आज्ञा से आपको बुलाने गया था।
इन्द्रजीतसिंह––हो सकता है, तो क्या उन्होंने हम लोगों के साथ चालाकी की?
आनन्दसिंह––जो हो।
इन्द्रजीतसिंह––यदि ऐसा ही है तो उनकी लिखावट पर भरोसा करके यही हम कैसे कह सकते हैं कि किशोरी, कामिनी इत्यादि इस बाग में पहुँच गई थीं।
आनन्दसिंह––क्या यह हो सकता है कि वह तिलिस्मी किताब जो गोपाल भाई के पास थी हमारे किसी दुश्मन के हाथ लग गई और वह उस किताब की मदद से अपने साथियों सहित यहाँ पहुँच कर हम लोगों को नुकसान पहुँचाने की नीयत से तिलिस्म के अन्दर चला गया है?
इन्द्रजीतसिंह––यह तो हो सकता है कि उनकी किताब किसी दुश्मन ने चुरा ली हो, मगर यह नहीं हो सकता कि उसका मतलब भी हर कोई समझ ले। खुद मैं ही 'रिक्तगन्थ' का मतलब ठीक-ठीक नहीं समझ सकता था, आखिर जब उन्होंने बताया तब कहीं तिलिस्म के अन्दर जाने लायक हुआ। (कुछ रुककर) आज के मामले तो कुछ अजब बेढंगे दिखाई दे रहे हैं खैर कोई चिन्ता नहीं, आखिर हम लोगों को इस दरवाजे की राह तिलिस्म के अन्दर जाना ही है, चलो फिर जो कुछ होगा देखा जायगा!
आनन्दसिंह––यद्यपि सूर्योदय हो जाने के कारण प्रातः-कृत्य से छुट्टी पा लेना आवश्यक जान पड़ता है यह सोच कर कि क्या जाने कैसा मौका आ पड़े तथापि आज्ञानुसार तिलिस्म के अन्दर चलने के लिए मैं तैयार हूँ, चलिए।
आनन्दसिंह की बात सुन कर इन्द्रजीतसिंह कुछ गौर में पड़ गए और कुछ सोचने के बाद बोले, "कोई चिन्ता नहीं, जो कुछ होगा देखा जायगा।"
दीवार के नीचे जो जमीन खुदी हुई थी, उसकी लम्बाई-चौड़ाई चार-पाँच गज से ज्यादा न थी। मिट्टी हट जाने के कारण एक पत्थर की पटिया (ताज्जुब नहीं कि वह लोहे या पीतल की हो) दिखाई दे रही थी और उसे उठाने के लिए बीच में लोहे की कड़ी लगी हुई थी जिसका एक सिरा दीवार के साथ सटा हुआ था। इन्द्रजीतसिंह ने कड़ी में हाथ डाल कर जोर किया और उस पटिया (छोटी चट्टान) को उठा कर किनारे पर रख दिया। नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ दिखाई दी और दोनों भाई सरयू को साथ लिए नीचे उतर गए।
लगभग बीस सीढ़ी के नीचे उतर जाने के बाद एक छोटी कोठरी मिली जिसकी जमीन किसी धातु की बनी हुई थी और खूब चमक रही थी। ऊपर दो-तीन सूराख (छेद) भी इस ढंग से बने हुए थे जिससे दिन-भर उस कोठरी में कुछ-कुछ रोशनी रह सकती थी। आनन्दसिंह ने चारों तरफ गौर से देखकर इन्द्रजीतसिंह से कहा, "भैया, रिक्तगंथ में लिखा था कि यह कोठरी तुम्हें तिलिस्म के अन्दर पहुँचावेगी। मगर समझ में नहीं आता कि यह कोठरी किस तरह से हम लोगों को तिलिस्म के अन्दर पहुँचावेगी क्योंकि इसमें न तो कहीं दरवाजा दिखाई देता है और न कोई ऐसा निशान ही मालूम पड़ता है जिसे हम लोग दरवाजा बनाने के काम में लावें।"
इन्द्रजीतसिंह––हम भी इसी सोच-विचार में पड़े हुए हैं, मगर कुछ समझ में नहीं आता है।
इसी बीच में दोनों कुमार और सरयू के पैरों में झुनझुनी और कमजोरी मालूम होने लगी और वह बात की बात में इतनी ज्यादा बढ़ी कि वे लोग वहाँ से हिलने लायक भी न रहे। देखते-देखते तमाम बदन में सनसनाहट और कमजोरी ऐसी बढ़ गई कि वे तीनों बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़े और फिर तन-बदन की सुध न रही।
घण्टे भर के बाद कुँअर इन्द्रजीतसिंह की बेहोशी जाती रही और वह उठ कर बैठ गए। मगर चारों तरफ घोर अंधकार छाया रहने के कारण यह नहीं जान सकते थे कि वे किस अवस्था में या कहाँ पड़े हुए हैं। सबसे पहले उन्हें तिलिस्मी खंजर की फिकर हुई, कमर में हाथ लगाने पर उसे मौजूद पाया। अस्तु उसे निकाल कर और उसका कब्जा दबा कर रोशनी पैदा की और ताज्जुब की निगाह से चारों तरफ देखने लगे।
जिस स्थान में इस समय कुमार थे, वह सुर्ख पत्थर से बना हुआ था और यहाँ की दीवारों पर पत्थरों पर गुलबूटों का काम बहुत खूबसूरती और कारीगरी का अनूठा नमूना दिखाने वाला बना हुआ था। चारों तरफ की दीवारों में चार दरवाजे थे, मगर उनमें किवाड़ के पल्ले लगे हुए न थे। पास ही कुँअर आनन्दसिंह भी पड़े हुए थे परन्तु सरयू का कहीं पता न था, जिससे कुमार को बहुत ही ताज्जुब हुआ। उसी समय आनन्दसिंह की बेहोशी भी जाती रही और वे उठ कर घबराहट के साथ चारों तरफ देखते हुए कुँअर इन्द्रजीतसिंह के पास आकर बोले––
आनन्दसिंह––हम लोग यहाँ क्योंकर आये?
इन्द्रजीतसिंह––मुझे मालूम नहीं, तुमसे थोड़ी ही देर पहले मैं होश में आया हूँ और ताज्जुब के साथ चारों तरफ देख रहा हूँ।
आनन्दसिंह––और सरयू कहाँ चली गई?
इन्द्रजीतसिंह––यह भी नहीं मालूम, तुम चारों तरफ की दीवारों में चार दरवाजे देख रहे हो। शायद वह हमसे पहले होश में आकर इन दरवाजों में से किसी एक के अन्दर चली गई हो।
आनन्दसिंह––शायद ऐसा ही हो, चल कर देखना चाहिए। रिक्तगंथ का कहा बहुत ठीक निकला, आखिर उसी कोठरी ने हम लोगों को यहाँ पहुँचा दिया। मगर किस ढंग से पहुँचाया सो मालूम नहीं होता! (छत की तरफ देख कर) शायद वह कोठरी इसके ऊपर हो और उसकी छत ने नीचे उतरकर हम लोगों को यहाँ लुढ़का दिया हो।
इन्द्रजीतसिंह––(कुछ मुस्करा कर) शायद ऐसा ही हो, मगर निश्चय नहीं कह सकते, हाँ, अब व्यर्थ न खड़े न रहकर हमें सरयू और नकाबपोशों का पता लगाना चाहिए। इन्द्रजीतसिंह ने इतना कहा ही था कि दीवार वाले एक दरवाजे के अन्दर से आवाज आई, "बेशक, बेशक!"