चंद्रकांता संतति भाग 5
देवकीनन्दन खत्री

दिल्ली: भारती भाषा प्रकाशन, पृष्ठ ३९ से – ४४ तक

 

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कुँअर इन्द्रजीतसिंह, आनन्दसिंह और सरयू को बड़ा तब ही ताज्जुब हुआ जब उन्होंने एक-एक करके सात आदमियों को तिलिस्मी बाग में पहुँचाये जाते देखा। जब उस मकान की खिड़की बन्द हो गई और चारों तरफ सन्नाटा छा गया तब इन्द्रजीतसिंह ने कहा, "उस तरफ चल कर देखना चाहिए कि ये लोग कौन हैं।"

आनन्दसिंह––जरूर चलना चाहिए।

सरयू––कहीं हम लोगों के दुश्मन न हों।

आनन्दसिंह––अगर दुश्मन भी होंगे तो हमें कुछ परवाह न करनी चाहिए, हम लोग हजारों में लड़ने वाले हैं।

इन्द्रजीत––अगर हम दस-बीस आदमियों से डरकर चलेंगे तो कुछ भी न कर सकेंगे।

इतना कहकर इन्द्रजीतसिंह ने उस तरफ कदम बढ़ाया। आनन्दसिंह उनके पीछे-पीछे रवाना हुए, मगर सरयू को साथ आने की आज्ञा नहीं दी और वह उसी जगह रह गई।

पास पहुँचकर कुमारों ने देखा कि सात आदमी जमीन पर बेहोश पड़े हैं। सभी के बदन पर स्याह लबादा और चेहरों पर स्याह नकाब था। थोड़ी देर तक दोनों ताज्जुब की निगाह से उन सभी की ओर देखते रहे और इसके बाद एक के चेहरे पर से नकाब हटाने का इरादा किया, मगर उसी समय ऊपर से पुनः दरवाजा या खिड़की खुलने की आवाज आई। आनन्दसिंह––मालूम होता है कि और भी दो-चार आदमी यहाँ उतारे जायेंगे।

इन्द्रजीतसिंह––शायद ऐसा ही हो, यहाँ से हटकर और आड़ में होकर देखना चाहिए।

आनन्दसिंह––(सोतों बेहोशों की तरफ इशारा करके) यदि इन लोगों को इनके किसी दुश्मन ने यहाँ पहुँचाया हो और अबकी दफे कोई आकर इनकी जान...

इन्द्रजीतसिंह––नहीं-नहीं, अगर ये सब लोग मारे जाने लायक होते और जिन लोगों ने इन्हें नीचे उतारा है वे इनके जानी दुश्मन होते, तो धीरे से उतारने के बदले ऊपर से धक्का देकर नीचे गिरा देते। खैर ज्यादा बातचीत का मौका नहीं है, इस पेड़ की आड़ में हो जाओ, फिर देखो हम सब पता लगा लेते हैं। बस, हटो जल्दी करो

बेचारे आनन्दसिंह कुछ जवाब न दे सके और वहाँ से थोड़ी दूर हटकर एक पेड़ की आड़ में हो गए। इस समय चन्द्रदेव अपनी छावनी की तरफ जा रहे थे और पेड़ों की आड़ पड़ जाने के कारण उस जगह कुछ अन्धकार-सा छा गया था, जहाँ वे सातों बेहोश पड़े हुए थे और इन्द्रजीत खड़े थे।

इन्द्रजीतसिंह हाथ में तिलिस्मी खंजर लेकर फुर्ती से इन सातों के बीच में छिपकर लेट रहे, दोनों तरफ से दो आदमियों के लबादे को भी अपने बदन पर ले लिया और पड़े-पड़े ऊपर की तरफ देखने लगे। एक आदमी कमन्द के सहारे नीचे उतरता हुआ दिखाई दिया। जब वह जमीन पर उतरकर उन सातों आदमियों की तरफ आया तो इन्द्रजीतसिंह ने फुर्ती से हाथ बढ़ाकर तिलिस्मी खंजर उसके पैर से लगा दिया, साथ ही वह आदमी काँपा और बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा। इन्द्रजीतसिंह पुनः उसी तरह लेट ऊपर की तरफ देखने लगे। थोड़ी देर बाद के और एक आदमी उसी कमन्द के सहारे नीचे उतरा जो घूम-घूम के गौर से उन सातों को देखने लगा। जब वह कुमार के पास आया, कुमार ने उसके पैर से भी तिलिस्मी खंजर लगा दिया और वह भी पहले की तरह बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा। कुँअर इन्द्रजीत लेटे-लेटे और भी किसी के आने का इन्तजार करने लगे मगर कुछ देर हो जाने पर भी कोई तीसरा दिखाई न पड़ा। कुमार उठ खड़े हुए और आनन्दसिंह भी उनके पास चले आये।

इन्द्रजीतसिंह––तुम इसी जगह मुस्तैद रहकर इन सभी की निगहबानी करो, हम इसी कमन्द के सहारे ऊपर जाकर देखते हैं कि वहाँ क्या है।

आनन्दसिंह––आपका अकेले ऊपर जाना तो ठीक न होगा। कौन ठिकाना, वहाँ दुश्मनों की बारात लगी हो!

इन्द्रजीतसिंह––कोई हर्ज नहीं, जो कुछ होगा देखा जायगा मगर तुम यहाँ से मत हिलना।

इतना कहकर इन्द्रजीतसिंह उसी कमन्द के सहारे बहुत जल्द ऊपर चढ़ गये और खिड़की के अन्दर जाकर एक लम्बे-चौड़े कमरे में पहुँचे जहाँ यद्यपि बिल्कुल सन्नाटा था मगर एक चिराग जल रहा था। इस कमरे में दूसरी तरफ बाहर निकल जाने के लिए एक बड़ा-सा दरवाजा था, कुमार वहाँ चले गये और एक पैर दरवाजे के बाहर रख झाँकने लगे। एक दूसरा कमरा नजर पड़ा जिसमें चारों तरफ छोटे-छोटे कई दरवाजे थे मगर सब बन्द थे और सामने की तरफ एक बड़ा-सा खुला हुआ दरवाजा था। कुमार उस खुले हुए दरवाजे में चले गये और झाँककर देखने लगे। एक छोटा-सा नजर बाग दिखाई दिया जिसके चारों तरफ ऊँची-ऊँची इमारतें और बीच में एक छोटी-सी बावली थी। बाग में दो बीघे से ज्यादा जमीन न थी और फूल-पत्तों के पेड़ भी कम थे। बावली के पूरब तरफ एक आदमी हाथ में मशाल लिए खड़ा था और उस मशाल में से बिजली की तरह बहुत ही तेज रोशनी निकल रही थी। वह रोशनी एकदम स्थिर थी अर्थात् हवा लगने से हिलती न थी और उस एक ही रोशनी से तमाम बाग में ऐसा उजाला हो रहा था कि वहाँ का एक-एक पत्ता साफ-साफ दिखाई दे रहा था। कुँअर इन्द्रजीत ने बड़े गौर से उस आदमी को देखा जिसके हाथ में मशाल थी और उनको निश्चय हो गया कि यह आदमी असली नहीं है बनावटी है। अस्तु ताज्जुब से कुछ देर तक वे उसकी तरफ देखते रहे, इसी बीच में बाग के उत्तर वाले दालान में से एक आदमी निकलकर बावली की तरफ आता हुआ दिखाई पड़ा और कुमार ने उसे देखते ही पहचान लिया कि यह राजा गोपालसिंह हैं। कुमार ने उन्हें पुकारने का इरादा किया ही था कि उसी दालान में से और चार आदमी आते हुए दिखाई दिए और इनकी सूरत-शक्ल भी पहले आदमी के समान ही थी अर्थात् ये चारों भी राजा गोपाल सिंह ही मालूम पड़ते थे जिससे कुँअर इन्द्रजीतसिंह को बहुत आश्चर्य हुआ और वे बड़े गौर से इनकी तरफ देखने लगे।

वे चारों आदमी जो पीछे आये थे खाली हाथ न थे बल्कि दो आदमियों की लाशें उठाए हुए थे। धीरे-धीरे चलकर वे चारों आदमी उस बनावटी मूरत के पास पहुँचे जिसके हाथ में मशाल थी, वे दोनों लाशें उसी के पास जमीन पर रख दी और तब पाँचों गोपालसिंह मिलकर बड़े धीरे-धीरे कुछ बातें करने लगे जिसे कुँअर इन्द्रजीतसिंह किसी तरह सुन नहीं सकते थे।

पहले आदमी को देखकर और गोपालसिंह समझकर कुमार ने आवाज देना चाहा था मगर जब और भी चार गोपालसिंह निकल आए तब उन्हें ताज्जुब मालूम हुआ और यह समझकर कि कदाचित इन पाँचों में से एक भी गोपालसिंह न हो, वे चुप रह गये। उन पाँचों गोपालसिंह की पोशाकें एक ही रंग-ढंग की थीं, बल्कि उन दोनों लाशों की पोशाक भी ठीक उन्हीं की तरह थी। यद्यपि उन लाशों का सिर कटा हुआ और वहाँ मौजूद न था मगर उन पाँचों गोपालसिंह की तरफ खयाल करके देखने वाला उन लाशों को भी गोपालसिंह बता सकता था।

कुमार को चाहे इस बात का खयाल हो गया हो कि इन सभी में से कोई भी असली गोपालसिंह न होंगे मगर फिर भी वे उन सभी को बड़े ताज्जुब और गौर की निगाह से देखते हुए सोच रहे थे कि कि इतने गोपालसिंह बनने की क्या जरूरत पड़ी और उन दोनों लाशों के साथ ऐसा बर्ताव क्यों किया गया या किसने किया!

जिस दरवाजे में कुँअर इन्द्रजीत सिंह खड़े थे उसी के आगे बाईं तरफ घूमती हुई छोटी सीढ़ियाँ नीचे उतर जाने के लिए थीं। कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने कुछ सोच-विचार कर चाहा कि इन सीढ़ियों की राह नीचे उतरकर पाँचों गोपालसिंह के पास जायँ और उन्हें जबर्दस्ती रोककर असल बात का पता लगावें मगर इसके पहले किसी के आने की आहट मालूम हुई और पीछे घूमकर देखने से कुँअर आनन्दसिंह पर निगाह पड़ी।

इन्द्रजीतसिंह––तुम क्यों चले आये?

आनन्दसिंह––आपको मैंने कई दफे नीचे से पुकारा, मगर आपने कुछ जवाब न दिया तो लाचार यहाँ आना पड़ा।

इन्द्रजीत––क्यों?

आनन्दसिंह––राजा गोपालसिंह की आज्ञा से।

इन्द्रजीतसिंह––राजा गोपालसिंह कहाँ हैं?

आनन्दसिंह––उन दोनों आदमियों में से जो नीचे उतरे थे और जिन्हें आपने बेहोश कर दिया था, एक राजा गोपालसिंह थे। जब आप ऊपर चढ़ आए तब मैंने एक का नकाब हटाया और तिलिस्मी खंजर की रोशनी में चेहरा देखा तो मालूम हुआ कि गोपालसिंह हैं। उस समय मुझे इस बात का अफसोस हुआ कि बेहोश करने के बाद आपने उनकी सूरत नहीं देखी, अगर देखते तो उन्हें छोड़कर यहाँ न आते। खैर जब मैंने उन्हें पहचाना तो होश में लाने के लिए उद्योग करना उचित जाना अस्तु तिलिस्मी खंजर के जोड़ की अँगूठी उनके बदन में लगाई जिसके थोड़ी ही देर बाद वह होश में आये और उठ बैठे। होश में आने के बाद पहले-पहले जो कुछ उनके मुँह से निकला, वह यह था कि "कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने धोखा खाया, मुझे बेहोश करने की क्या जरूरत थी? मैं तो खुद उनसे मिलने के लिए यहाँ आया था!" इतना कहकर उन्होंने मेरी तरफ देखा यद्यपि उस समय चाँदनी वहाँ से हट गई थी मगर उन्होंने मुझे बहुत जल्द पहचान लिया और पूछा कि 'तुम्हारे बड़े भाई कहाँ हैं?' मैंने उनसे कुछ छिपाना उचित न जाना और कह दिया कि 'इसी कमन्द के सहारे ऊपर चले गए हैं।' सुन कर वे बहुत रंज हुए और क्रोध से बोले कि 'सब काम लड़कपन और नादानी का किया करते हैं। उन्हें बहुत जल्द ऊपर से बुला लो।' मैंने आपको कई दफे पुकारा मगर आप न बोले तब उन्होंने घुड़क के कहा कि 'क्यों व्यर्थ देर कर रहो हो, तुम खुद ऊपर जाओ और जल्द बुला लाओ।' मैंने कहा कि मुझे यहाँ से हटने की आज्ञा नहीं है आप खुद जाइये और बुला लाइये, मगर इतना सुनकर वे और भी रंज हुए और बोले, "अगर मुझमें ऊपर जाने की ताकत होती तो मैं तुम्हें इतना कहता ही नहीं! बेहोशी के कारण मेरी रग-रग कमजोर हो रही है, तुम अगर उनको बुला लाने में विलम्ब करोगे तो पछताओगे, बस अब मैं इससे ज्यादा और कुछ न कहूँगा, जो ईश्वर की मर्जी होगी और जो कुछ तुम लोगों के भाग्य में लिखा होगा सो होगा।" उनकी बातें ऐसी न थीं कि मैं सुनता और चुपचाप खड़ा रह जाता, आखिर लाचार होकर आपको बुलाने के लिए आना पड़ा। अब आप जल्द चलिए देर न कीजिए।

आनन्दसिंह की बातें सुनकर इन्द्रजीतसिंह को बहुत रंज हुआ और उन्होंने क्रोध भरी आवाज में कहा––

इन्द्रजीतसिंह––आखिर तुमसे नादानी हो ही गई?

आनन्दसिंह––(आश्चर्य से) सो क्या?

इन्द्रजीतसिंह––तुमने उस दूसरे के चेहरे पर की भी नकाब हटाकर देखा कि वह कौन था?

आनन्दसिंह––जी नहीं।

इन्द्रजीतसिंह––तब तुम्हें कैसे विश्वास हुआ कि यह राजा गोपालसिंह ही हैं? जब चेहरे पर से नकाब हटाकर देखा ही था तो पानी से मुँह धोकर भी देख लेना था? क्या तुम भूल गये कि राजा गोपालसिंह के पास भी इसी तरह का तिलिस्मी खंजर मौजूद है अतः उनके ऊपर इस खंजर का असर क्यों होने लगी थी?

आनन्दसिंह––(सिर नीचा करके) बेशक मुझसे भूल हुई!

इन्द्रजीतसिंह––भारी भूल हुई! (छोटे बाग की तरफ बताकर) देखो, यहाँ पाँच राजा गोपालसिंह हैं! क्या तुम कह सकते हो कि ये पाँचों राजा गोपालसिंह हैं?

आनन्दसिंह ने उस छोटे बगीचे की तरफ झाँककर देखा और‌ कहा, "बेशक मामला गड़बड़ है!

इन्द्रजीतसिंह––खैर, अब तो हमें लौटना ही पड़ेगा, हम चाहते थे इन सभी का कुछ भेद मालूम करें, मगर खैर।

इतना कहकर इन्द्रजीतसिंह लौट पड़े और उस कमरे को लाँघकर दूसरे कमरे में पहुँचे जिसमें वे सातों खिड़कियाँ थीं। यकायक इन्द्रजीतसिंह की निगाह एक लिफाफे पर पड़ी जिसे उन्होंने उठा लिया और चिराग के पास ले जाकर पढ़ा। लिफाफा बन्द था और उस पर यह लिखा हुआ था––"इन्द्रजीतसिंह आनन्दसिंह जोग लिखी गोपालसिंह ।"

कुमार ने लिफाफा फाड़कर चिट्ठी निकाली और देखते ही कहा, "इस चिट्ठी पर किसी तरह का शक नहीं हो सकता, बेशक यह भाई साहब के हाथ की लिखी है और मामूली निशान भी है।" इसके बाद वे चिट्ठी पढ़ने लगे।

आनन्दसिंह ने देखा कि चिट्ठी पढ़ते-पढ़ते इन्द्रजीतसिंह के चेहरे का रंग कई दफे बदला और जैसे-जैसे पढ़ते जाते थे रंज की निशानी बढ़ती जाती थी। वे जब कुल चिट्ठी पढ़ चुके तो एक लम्बी साँस लेकर बोले, "अफसोस, बहुत बड़ी भूल हुई।" और वह चिट्ठी पढ़ने के लिए आनन्दसिंह के हाथ में दे दी।

आनन्दसिंह ने चिट्ठी पढ़ी, यह लिखा हुआ था––

"किशोरी, कामिनी, लक्ष्मीदेवी, कमला, लाड़िली और इन्दिरा को आपके पास तिलिस्म में भेजते हैं। देखिये इन्हें सम्हालिए और एक क्षण के लिए भी इनसे अलग न होइए। मुन्दर हमारे तिलिस्मी बाग में घुसी हुई है, हम आठ आना उसके कब्जे में आ गये हैं। लीला ने धोखा देकर हमारे कुछ भेद मालूम कर लिए जिसका सबब और पूरा-पूरा हाल लक्ष्मीदेवी या कमलिनी की जुबानी आपको मालूम होगा जिन्हें हमने सब-कुछ बता और समझा दिया है। कई बातों के खयाल से सभी को बेहोश करके कमन्द द्वारा आपके पास पहुँचाते हैं, खबरदार, एक क्षण के लिए भी इन लोगों से अलग न हों और किसी बनावटी गोपालसिंह का विश्वास न करें। आज कम-से-कम बीस पच्चीस आदमी गोपालसिंह बने हुए कार्रवाई कर रहे हैं। हम जरा तर दुद में पड़े हुए हैं मगर कोई चिन्ता नहीं, भैरोंसिंह हमारे साथ हैं। आप बाग के इस दर्जे को तोड़कर दूसरी जगह पहुँचिए और यह काम रात-भर के अन्दर होना चाहिए।

––"शिवरामे गोपाल मेरावशि शुलेख।"

चिट्ठी पढ़कर आनन्दसिंह को भी बड़ा अफसोस हुआ और अपने किए पर पछताने लगे। सच तो यों है कि दोनों ही भाइयों को इस बात का अफसोस हुआ कि किशोरी, कामिनी इत्यादि को अपने पास आ जाने पर भी देखे और होश में लाये बिना छोड़कर इधर चले आये और व्यर्थ की झंझट में पड़े, क्योंकि दोनों कुमार किशोरी और कामिनी की मुलाकात से बढ़कर दुनिया में किसी चीज को पसन्द नहीं करते थे।

दोनों कुमार जल्दी-जल्दी उस कमरे के बाहर हुए और उस खिड़की में पहुँचे जिसमें कमन्द लगा हुआ छोड़ आये थे मगर आश्चर्य और अफसोस की बात थी कि अब उन्होंने उस कमन्द को खिड़की में लगा हुआ न पाया जिसके सहारे वे नीचे उतर जाते, शायद किसी नीचे वाले ने उस कमन्द को हटा लिया था।