चंद्रकांता संतति भाग 4
देवकीनन्दन खत्री

दिल्ली: भारती भाषा प्रकाशन, पृष्ठ ९९ से – १०१ तक

 

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राह पहर भर से ज्यादा जा चुकी है । चन्द्रदेव उदय हो चुके हैं मगर अभी इतने ऊंचे नहीं उठे हैं कि बाग के पूरे हिस्से पर चांदनी फैली हुई दिखाई देती, हाँ, बाग के उस हिस्से पर चाँदनी का फर्श जरूर बिछ चुका था जिधर कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह एक चट्टान पर बैठे हुए बातें कर रहे थे । ये दोनों भाई अपने जरूरी कामों से छुट्टी पा चुके थे और संध्या-वंदन करके दो-चार फलों से आत्मा को सन्तोष देकर आराम से बैठे बातें करते हुए राजा गोपालसिंह के आने का इन्तजार कर रहे थे। यकायक बाग के उस कोने में, जिधर चाँदनी न होने तथा पेड़ों के झुरमुट के कारण अंधेरा था, दीये की चमक दिखाई पड़ी। दोनों भाई चौकन्ने होकर उस तरफ देखने लगे और दोनों को गुमान हुआ कि राजा गोपालसिंह आते होंगे, मगर उनका शक थोड़ी ही देर बाद जाता रहा जब एक औरत को हाथ में लालटेन लिए अपनी तरफ आते देखा।

इन्द्रजीतसिंह--यह औरत इस बाग में क्योंकर आ पहुँची?

आनन्दसिंह--ताज्जुब की बात है । मगर मैं समझता हूँ कि इसे हम दोनों भाइयों के यहाँ होने की खबर नहीं है, अगर होती तो इस तरह बेफिक्री के साथ कदम बढ़ाती हुई न आती।

इन्द्रजीतसिंह--मैं भी यही समझता हूँ, अच्छा हम दोनों को छिप कर देखना चाहिए कि यह कहाँ जाती और क्या करती है।

आनन्दसिंह--मेरी भी यही राय है।

दोनों भाई वहाँ से उठे और धीरे-धीरे चलकर एक पेड़ की आड़ में छिप रहे, जिसे चारों तरफ से लताओं ने अच्छी तरह घेर रक्खा था और जहाँ से उन दोनों की निगाह बाग के हर एक हिस्से और कोने में भी बखूबी पहुँच सकती थी। जब वह औरत घूमती हुई उस पेड़ के पास से होकर निकली, तब आनन्दसिंह ने धीरे से कहा,"यह वही औरत है।"

इन्द्रजीतसिंह--कौन ?

आनन्दसिंह--जिसे तिलिस्म के अन्दर बाजे वाले कमरे में मैंने देखा था और जिसका हाल आपसे तथा गोपाल भाई से कहा था।

इन्द्रजीतसिंह--अगर वास्तव में ऐसा है तो फिर इसे गिरफ्तार करना चाहिए।

आनन्दसिंह--जरूर गिरफ्तार करना चाहिए।

दोनों भाई सलाह करके उस पेड़ की आड़ में से निकले और उस औरत को घेर कर गिरफ्तार करने का उद्योग करने लगे। थोड़ी ही देर के बाद नजदीक होने पर इन्द्रजीतसिंह ने भी देख कर निश्चय कर लिया कि हाथ में लालटेन लिए हुए यह वही औरत है जिसे तिलिस्म में फाँसी लटकते हुए आदमी के साथ-साथ निर्जीव खड़े देखा था।

उस औरत को भी मालूम हो गया कि दो आदमी उसे गिरफ्तार करना चाहते हैं अतएव वह चैतन्य हो गई और चमेली की टट्टियों में घूम-फिर कर कहीं गायब हो गई। दोनों भाइयों ने बहुत उद्योग और पीछा किया मगर नतीजा कुछ भी न निकला। वह औरत ऐसी गायब हुई कि कोई निशान भी न छोड़ गई, न मालूम वह चमेली की टट्टियों में लीन हो गई या जमीन के अन्दर समा गई। दोनों भाई लज्जा के साथ-हीसाथ निराश होकर अपनी जगह लौट आये और उसी समय राजा गोपालसिंह को भी एक हाथ में चंगेर और दूसरे हाथ में तेज रोशनी की अद्भुत लालटेन लिए हुए आते देखा। गोपालसिंह दोनों भाइयों के पास आए और लालटेन तथा चंगेर जिसमें खाने की चीजें थीं जमीन पर रन कर इस तरह बैठ गये जैसे बहुत दूर से चलकर आता हुआ मुसाफिर परेशानी और बदहवासी की हालत में आगे सफर करने से निराश होकर पृथ्वी की शरण लेता है, या कोई-कोई धनी अपनी भारी रकम खो देने के बाद चोरों की तलाश से निराश और हताश होकर बैठ जाता है। इस समय राजा गोपाल सिंह के चेहरे का रंग उड़ा हुआ था और वे बहुत ही परेशान और बदहवास मालूम होते थे। कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने घबराकर पूछा, "कहिए कुशल तो है?"

गोपालसिंह--(घबराहट के साथ) कुशल नहीं है। इन्द्रजीतसिंह-सो क्यों?

गोपालसिंह--मालूम होता है कि हमारे घर में किसी जबर्दस्त दुश्मन ने पैर रक्खा है और वह हमारे यहाँ से उस चीज को ले गया जिसके भरोसे पर हम अपने को तिलिस्म का राजा समझते थे और तिलिस्म तोड़ने के समय आपको काफी मदद देने का हौसला रखते थे।

आनन्दसिंह--वह कौन-सी चीज थी?

गोपालसिंह---वही तिलिस्मी किताब, जिसका जिक्र आप लोगों से कर चुके हैं और जिसे लाने के लिए हम इस समय गए थे।

इन्द्रजीतसिंह--(रंज के साथ) अफसोस ! आप उसे छिपाकर नहीं रखते थे ?

गोपालसिंह--छिपाकर तो ऐसा रखते थे कि हमें वर्षों तक कैदखाने में सड़ाने और मूर्दा बनाने पर भी मुन्दर, जिसने अपने को मायारानी बना रक्खा था, उस किताब को न पा सकी।

इन्द्रजीतसिंह--तो आज वह यकायक गायब कैसे हो गई? गोपालसिंह--न मालूम क्योंकर गायब हो गई, मगर इतना जरूर कह सकते हैं कि जिसने यह किताब चुराई है वह तिलिस्म के भेदों से कुछ जानकार अवश्य हो गया है। इसे आप लोग साधारण बात न समझिए ! इस चोरी से हमारा उत्साह भंग हो गया और हिम्मत जाती रही, हम आप लोगों को इस तिलिस्म में किसी तरह की मदद देने लायक न रहे, और हमें अपनी जान जाने का भी खौफ हो गया। इतना ही नहीं, सबसे ज्यादा तरदुद की बात तो यह है कि वह चोर आश्चर्य नहीं कि अब आप लोगों को भी दुःख दे।

इन्द्रजीतसिंह--यह तो बहुत बुरा हुआ।

गोपालसिंह--बेशक बुरा हुआ। हाँ, यह तो बताइये, इस बाग में लालटेन लिए कौन घूम रहा था?

आनन्दसिंह--वही औरत जिसे मैंने तिलिस्म के अन्दर बाजे वाले कमरे में देखा था और जो फाँसी लटकते हुए मनुष्य के पास निर्जीव अवस्था में खड़ी थी। (इन्द्रजीतसिंह की तरफ इशारा करके) आप भाईजी से पूछ लीजिए कि मैं सच्चा हूँ या नहीं।

इन्द्रजीतसिंह--बेशक उसी रंग-रूप और चाल-ढाल की औरत थी!

गोपालसिंह--बड़े आश्चर्य की बात है ! कुछ अक्ल काम नहीं करती!

इन्द्रजीतसिंह--हम दोनों ने उसे गिरफ्तार करने के लिए बहुत उद्योग किया, मगर कुछ बन न पड़ा। इन्हीं चमेली की टट्टियों में वह खुशबू की तरह हवा के साथ मिल गई, कुछ मालूम न हुआ कि कहाँ चली गई!

गोपालसिंह--(घबराकर) इन्हीं चमेली की टट्टियों में ? वहाँ से तो देवमन्दिर में जाने का रास्ता है जो बाग के चौथे दर्जे में है!

इन्द्रजीतसिंह--(चौंक कर) देखिए-देखिए, वह फिर निकली!