चन्द्रकांता सन्तति 4/13.9
भूतनाथ जब राजा गोपाल सिंह से बिदा हुआ, तो अपने शागिर्द को साथ लिये हुए शहर से बाहर निकला और बातचीत करता हुआ आधी रात जाते-जाते वह एक घने जंगल के बीचोंबीच में पहुंचा जहाँ एक साधारण ढंग की कुटी बनी हुई थी और उसके दरवाजे पर दो आदमी भी बैठे हुए धीरे-धीरे बातचीत कर रहे थे। वे दोनों भूतनाथ को देखते ही उठ खड़े हुए और सलाम करके बोले-
एक--क्या राजा गोपालसिंह से आपका कुछ काम निकला?
भूतनाथ--कुछ भी नहीं।
दूसरा--(आश्चर्य से) सो क्यों?
भूतनाथ--ठहरो, जरा दम ले लूं तो कहूँ और सब लोग कहाँ गये हैं?
एक--घूमने-फिरने गये हैं, आते ही होंगे!
भूतनाथ--अच्छा, कुछ खाने-पीने के लिए हो तो लाओ।
इतना सुनते ही एक आदमी कुटी के अन्दर चला गया और एक लम्बा-चौड़ा कम्बल ला कुटी के बाहर बिछा कर फिर अन्दर लौट गया। भूतनाथ उसी कम्बल पर बैठ गया। दूसरा आदमी कुछ खाने की चीजें और जल से भरा हुआ लोटा ले आया और उस आदमी को, जो भूतनाथ के साथ-ही-साथ यहाँ तक आया था, इशारा करके कुटी के अन्दर ले गया। भूतनाथ खा-पीकर निश्चिन्त हुआ ही था कि उसके बाकी आदमी भी जो कि इधर-उधर घूमने के लिए गए थे, आ पहुँचे और भूतनाथ को सलाम करने के बाद इशारा पाकर उसके सामने बैठ कर बातचीत करने लगे। इस जगह यह लिखने की कोई जरूरत नहीं कि इन लोगों में क्या-क्या बातें हुईं। रात भर सलाह और बातचीत करने के बाद भूतनाथ उन लोगों को समझा-बुझा और कई काम करने के लिए ताकीद करके सवेरा होते-होते अकेला वहाँ से रवाना हो गया और इन्द्रदेव के मकान की तरफ चल निकला।
दोपहर से कुछ ज्यादा दिन ढल चुका था जब भूतनाथ इन्द्रदेव की पहाड़ी पर जा पहुंचा और उस खोह के बाहर खड़ा होकर जो इन्द्रदेव के मकान में जाने का दरवाजा था इधर-उधर देखने लगा। किसी को न देखा तो एक पत्थर की चट्टान पर बैठ गया क्योंकि वह इन्द्रदेव के मकान में पहुँचने का रास्ता नहीं जानता था। हाँ, यह बात उसे जरूर मालूम थी कि इन्द्रदेव की आज्ञा के बिना या जब तक इन्द्रदेव का कोई आदमी अपने साथ न ले जाय कोई उस सुरंग को पार करके इन्द्र देव के पास नहीं पहुँच सकता। इसके पहले भी इन्द्र देव के पास जाने का भूतनाथ को मौका मिला था, मगर हर दफा इन्द्रदेव का आदमी भूतनाथ की आँखों पर पट्टी बांध कर ही उसे खोह के अन्दर ले गया था।
भूतनाथ घण्टे भर तक उसी चट्टान पर बैठा रहा, इसके बाद इन्द्र देव का एक आदमी खोह के बाहर निकला जो भूतनाथ को अच्छी तरह पहचानता था और भूतनाथ भी उसे जानता था। उस आदमी ने साहब-सलामत करने के बाद भूतनाथ से पूछा, "कहिये, आप कहाँ से आये ?"
भूतनाथ--आपके मालिक इन्द्रदेव से मिलने के लिए आया हूँ और बड़ी देर से यहाँ बैठा हूँ।
आदमी--तो क्या आपकी इत्तिला करनी होगी?
भूतनाथ--अवश्य।
आदमी--अच्छा तो आप थोड़ी देर तक और तकलीफ कीजिये, मैं अभी जाकर खबर करता हूँ।
इतना कहकर वह आदमी तुरन्त लौट गया। एक घण्टे के बाद वह और भी दो आदमियों को अपने साथ लिये हुए आया और भूतनाथ से बोला, “चलिये, मगर आँखों पर पट्टी बँधवाने की तकलीफ आपको उठानी पड़ेगी।" इसके जवाब में भूतनाथ यह कहकर उठ खड़ा हुआ, “सो तो मैं पहले ही से जानता हूँ।"
भूतनाथ की आँखों पर पट्टी बाँध दी गई और वे तीनों आदमी उसे अपने साथ लिये हुए इन्द्रदेव के पास जा पहुँचे। इन्द्रदेव के स्थान और उसके मकान की कैफियत हम पहले लिख चुके हैं इस लिए यहाँ पुनः न लिखकर असल मतलब पर ध्यान देते हैं।
जिस समय भूतनाथ इन्द्रदेव के सामने पहुँचा, उस समय इन्द्रदेव अपने कमरे में मसनद के सहारे बैठे हुए कोई ग्रंथ पढ़ रहे थे। भूतनाथ को देखते ही उन्होंने मुस्कुराकर कहा, "आओ-आओ भूतनाथ, अबकी तो बहुत दिनों पर मुलाकात हुई है !"
भूतनाथ--(सलाम करके) बेशक बहुत दिनों में मुलाकात हुई है। क्या कहूँ, जमाने के हेर-फेर ने ऐसे-ऐसे कुढंगे कामों में फंसा दिया और अभी तक फंसा रखा है कि मेरी कमजोर जान को किसी तरह छुटकारे का दिन नसीब नहीं होता और इसी मे आज बहुत दिनों पर आपके भी दर्शन हुए हैं।
इन्द्रदेव--(हँसकर) तुम्हारी और कमजोर जान ! जो भूतनाथ हजारों मजबूत आदमियों को भी नीचा दिखाने की ताकत रखता है वह कहे कि 'मेरी कमजोर जान !'
भूतनाथ–-बेशक ऐसा ही है। यद्यपि मैं अपने को बहुत-कुछ कर गुजरने लायक समझता था, मगर आजकल ऐसी आफत में जान फंसी हुई है कि अक्ल कुछ काम नहीं करती।
इन्द्रदेव--क्या, बात है ? कुछ कहो भी तो !
भूतनाथ--मैं यही सब कहने और आपसे ममद मांगने के लिए तो आया ही हूँ।
इन्द्रदेव--मदद मांगने के लिए!
भूतनाथ जी हाँ, आपसे बहुत बड़ी मदद की मुझे आशा है।
इन्द्रदेव--सो कैसे ? क्या तुम नहीं जानते कि मायारानी का तिलिस्मी दारोगा मेरा गुरुभाई है और वह तुम्हें दुश्मनी की निगाह से देखता है?
भूतनाथ---इन बातों को मैं खूब जानता हूँ और इतना जानने पर भी आपसे मदद लेने के लिए आया हूँ। इन्द्रदेव--यह तुम्हारी भूल है। भूतनाथ-नहीं मेरी भूल कदापि नहीं है, यद्यपि आप दारोगा के गुरुभाई हैं, मगर इस बात को भी अच्छी तरह जानता हूँ कि आपके और उसके मिजाज में उलटे-सीधे का फर्क है, और मैं जिस काम में आपसे मदद लिया चाहता हूँ, वह नेक और धर्म का काम है।
इन्द्रदेव--(कुछ सोचकर) अगर तुम यह समझ कर कि मैं तुम्हारी मदद नहीं करूंगा, अपना मतलब कह सकते हो तो कहो, जैसा होगा मैं जवाब दूंगा।
भूतनाथ--यह तो मैं समझ ही नहीं सकता कि आपसे किसी तरह की मदद नहीं मिलेगी, मदद मिलेगी और जरूर मिलेगी क्योंकि आपसे और बलभद्रसिंह से दोस्ती थी और उस दोस्ती का बदला आप उस तरह नहीं अदा कर सकते जिस तरह दारोगा साहब ने किया था।
इस समय उस कमरे में वे तीनों आदमी भी मौजूद थे जो भूतनाथ को अपने साथ यहां तक लाये थे, इन्द्रदेव ने उन तीनों को बिदा करने के बाद कहा-
इन्द्रदेव--क्या तुम उस बलभद्रसिंह के बारे में मुझसे मदद लिया चाहते हो जिसे मरे आज कई वर्ष बीत चुके हैं ?
भूतनाथ--जी हाँ, उसी बलभद्रसिंह के बारे में, जिसकी लड़की तारा बनकर कमलिनी के साथ रहने वाली लक्ष्मीदेवी है और जिसे आप चाहे मरा हुआ समझते हैं, मगर मैं मरा हुआ नहीं समझता।
इन्द्रदेव--(आश्चर्य से) क्या तारा ने अपना भेद प्रकट कर दिया ! और क्या तुम्हें कोई ऐसा सबूत मिला है जिससे समझा जाए कि बलभद्रसिंह अभी तक जीता है?
भूतनाथ--जी, तारा का भेद यकायक प्रकट हो गया है जिसे मैं भी नहीं जानता था कि वह लक्ष्मीदेवी है, और बलभद्रसिंह के जीते रहने का सबूत भी मुझे मिल गया, मगर आपने तारा का नाम इस ढंग से लिया, जिससे मालूम होता है कि आप तारा का असल भेद पहले ही से जानते थे।
इन्द्रदेव--नहीं-नहीं, मैं भला क्योंकर जानता था कि तारा लक्ष्मीदेवी है। यह तो आज तुम्हारे ही मुंह से मालूम हुआ है। अच्छा तुम पहले यह तो कह जाओ कि तारा का भेद क्योंकर प्रकट हुआ, तुम किस मुसीबत में पड़े हो, और इस बात का क्या सबूत तुम्हारे पास है कि बलभद्रसिंह अभी तक जीते हैं ? क्या बलभद्रसिंह जान-बूझकर कहीं छिपे हुए हैं या किसी की कैद में हैं?
भूतनाथ--नहीं-नहीं, बलभद्रसिंह जान-बूझकर छिपे हुए नहीं हैं बल्कि कहीं कैद हैं। मैं उन्हें छुड़ाने की फिक्र में लगा हूँ और इसी काम में आपसे मदद लिया चाहता हूँ क्योंकि अगर बलभद्रसिंह का पता लग गया तो आपको दो जाने बचाने का पुण्य मिलेगा।
इन्द्रदेव--दूसरा कौन?
भुननाथ--दूसरा मैं, क्योंकि अगर वलभद्रसिंह का पता न लगेगा तो निश्चय है कि मैं भी मारा जाऊँगा।
इन्द्रदेव--अच्छा, तुम पहले अपना पूरा हाल कह जाओ!
इतना सुनकर भूतनाथ ने अपना हाल उस जगह से, जब भगवनिया के सामने नकली बलभद्रसिंह से उससे मुलाकात हुई थी कहना शुरू किया और इन्द्रदेव बड़े गौर से उसे सुनते रहे। भूतनाथ ने कैदियों की हालत में अपना रोहतासगढ़ पहुँचना, कृष्णजिन्न से मुलाकात होना, मायारानी और दारोगा इत्यादि की गिरफ्तारी, राजा वीरेन्द्रसिंह के आगे मुकदमे की पेशी, कृष्ण जिन्न के पेश किये हुए अनूठे कलमदान की कैफियत, असली बलभद्रसिंह को खोज निकालने के लिए अपनी रिहाई और राजा गोपालसिंह के पास से बिना कुछ मदद पाये बैरंग लौट आने का हाल सब पूरा-पूरा इन्द्रदेव से कह सुनाया। इन्द्रदेव थोड़ी देर तक चुपचाप कुछ सोचते रहे। भूतनाथ ने देखा कि उनके चेहरे का रंग थोड़ी-थोड़ी देर में बदलता है और कभी लाल कभी सफेद और कभी जर्द होकर उनके दिल की अवस्था का थोड़ा-बहुत हाल प्रकट करता है।
इन्द्रदेव--(कुछ देर बाद) मगर तुम्हारे इस किस्से में कोई ऐसा सबूत नहीं मिला जिससे बलभद्रसिंह का अभी तक जीते रहना साबित होता हो।
भूतनाथ-क्या मैंने आपसे अभी नहीं कहा कि असली बलभद्रसिंह के जीते रहने का मुझे शक हुआ और कृष्ण जिन्न ने मेरे उस शक को यह कह कर विश्वास के साथ बदल दिया कि 'बेशक असली बलभद्रसिंह अभी तक कहीं कैद है और तू जिस तरह हो सके उसका पता लगा।"
इन्द्रदेव--हाँ, यह तो तुमने कहा, मगर मैं यह तो नहीं जानता कि कृष्ण जिन्न कौन है और उसकी बातों पर कहाँ तक विश्वास करना चाहिए।
भूतनाथ--अफसोस, आपने कृष्ण जिन्न की कार्रवाई पर अच्छी तरह ध्यान नहीं दिया जो मैं अभी आपसे कह चुका हूँ। यद्यपि मैं स्वयं उसे नहीं जानता परन्तु जिस समय कृष्णजिन्न ने वह अनूठा कलमदान पेश किया, जिसे देखते ही नकली- बलभद्र- सिंह की आधी जान निकल गई, जिस पर निगाह पड़ते ही लक्ष्मीदेवी बेहोश हो गई, जिसे एक झलक ही में मैं पहचान गया, जिस पर मीनाकारी को तीन तस्वीरें बनी हुई थीं, और जिस पर विचली तस्वीर के नीचे मीनाकारी के मोटे खूबसूरत अक्षरों में 'इन्दिरा' लिखा हुआ था, उसी समय मैं समझ गया कि यह साधारण मनुष्य नहीं है।
इन्द्रदेव--(चौंक कर) क्या कहा ! क्या लिखा हुआ था—'इन्दिरा!'
और यह कहने के साथ ही इन्द्रदेव के चेहरे का रंग उड़ गया तथा आश्चर्य ने उस पर अपना दखल जमा लिया।
भूतनाथ--हाँ-हां, 'इन्दिरा'-बेशक यही लिखा हुआ था।
अव इन्द्रदेव अपने को किसी तरह सम्हाल न सका। वह घबड़ा कर उठ खड़ा हुआ और धीरे-धीरे निम्नलिखित बातें कहता हुआ इधर-उधर घूमने लगा-
"ओफ,मुझे धोखा हुआ ! वाह रे दारोगा, तूने इन्द्रदेव ही पर अपना हाथ साफ किया, जिसने तेरे सैकड़ों कसूर माफ किये और फिर भी तेरे रोने-पीटने और बड़ी-बड़ी कसमें खाने पर विश्वास करके तुझे राजा वीरेन्द्रसिंह की कैद से छुड़ाया ! वाह रे जैपाल तुझे तो इस तरह तड़पा-तड़पाकर मारूँगा कि गन्दगी पर बैठने वाली मक्खियों को भी तेरे हाल पर रहम आबेगा ! लक्ष्मीदेवी का बाप बनकर चला था मायारानी और दारोगा की मदद करने ! वाह रे कृष्ण जिन्न, ईश्वर तेरा भला करे ! मगर इसमें भी कोई शक नहीं कि तुझको ये बातें हाल ही में मालूम हुई हैं। आह, मैंने वास्तव में धोखा खाया। लक्ष्मीदेवी की बहुत ही प्यारी इन्दिरा ! अच्छा-अच्छा, ठहर जा, देख तो सही मैं क्या करता हूँ। भूतनाथ ने यद्यपि बहुत से बुरे काम किये हैं परन्तु अब वह उनका प्रायश्चित्त भी बड़ी खूबी के साथ कर रहा है। (भूतनाथ की तरफ देखकर)अच्छा-अच्छा, मैं तुम्हारा साथ दूंगा, मगर अभी नहीं, जब तक मैं उस कलमदान को अपनी आँखों से न देख लूंगा तब तक मेरा जी ठिकाने न होगा।"
भूतनाथ--(जो बड़े गौर से इन्द्रदेव का बड़बड़ाना सुन रहा था) हाँ-हाँ, आप उसे देख सकते हैं, मेरे साथ रोहतासगढ़ चलिये।
इन्द्रदेव--तुम्हारे साथ चलने की कोई आवश्यकता नहीं, तुम इसी जगह रहो, मैं अकेला ही जाऊँगा और बहुत जल्द ही लौट आऊँगा।
इतना कहकर इन्द्रदेव ने ताली बजाई और आवाज के साथ ही अपने दो आदमियों को कमरे के अन्दर आते देखा। इन्द्रदेव अपने आदमियों से यह कह कर कि " भूतनाथ को खातिरदारी के साथ यहाँ रखो, जब तक कि मैं एक छोटे सफर से न लौट आऊँ" कमरे के बाहर हो गये और तब दूसरे कमरे में जिसकी ताली वे अपने पास ही रखा करते थे, ताला खोल कर चले गये। इस कमरे में खूटियों के सहारे तरह-तरह के कपड़े, ऐयारी के बहुत से बटुए, रंग-बिरंग के नकाब, एक से एक बढ़कर नायाब और बेशकीमत ह. और कमरबन्द वगैरह लटक रहे थे और एक तरफ लोहे तथा लकड़ी के छोटे-बड़े कई सन्दूक भी रखे हुए थे। इन्द्रदेव ने अपने मतलब का एक जोड़ा (बेशकीमत पोशाक) खूटी से उतार कर पहन लिया और जो कपड़े पहले पहने हुए थे, उतारकर एक तरफ रख दिये। सुर्ख रंग की नकाब उतार कर चेहरे पर लगाई, ऐयारी का बटुआ बगल में लटकाने के बाद बेशकीमती हों से अपने को दुरुस्त किया, और इसके बाद लोहे के एक सन्दूक में से कुछ निकाल कर कमर में रख कमरे के बाहर निकल आये, कमरे का ताला बन्द किया और तब बिना भूतनाथ से मुलाकात किये ही वहाँ से रवाना हो गये।