चंद्रकांता संतति भाग 4
देवकीनन्दन खत्री

दिल्ली: भारती भाषा प्रकाशन, पृष्ठ ४२ से – ५८ तक

 

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रोहतासगढ़ में महल के अन्दर एक खूबसूरत सजे हुए कमरे राजा वीरेन्द्र- सिंह ऊँची गद्दी के ऊपर बैठे हुए हैं, बगल में तेजसिंह और देवीसिंह बैठे हैं, तथा सामने की तरफ किशोरी, कामिनी, लक्ष्मीदेवी, कमलिनी, लाड़िली और कमला अदब के साथ सिर झुकाये बैठी हैं। आज राजा वीरेन्द्रसिंह अपने दोनों ऐयारों के सहित यहाँ वैठकर उन सभी की बीती हुई दुःखभरी कहानी बड़े गौर से कुछ सुन चुके हैं और बाकी सुन रहे हैं। दरवाजे पर भैरोंसिंह और तारासिंह खड़े पहरा दे रहे हैं। किसी लौंडी तक को भी वहाँ आने की आज्ञा नहीं है। किशोरी, कामिनी, कमलिनी, कमला और लक्ष्मीदेवी का हाल सुन चुके हैं, इस समय लाड़िली अपना किस्सा कह रही है। लाड़िली अपना किस्सा कहते-कहते बोली-

लाड़िली--जब मायारानी की आज्ञानुसार धनपत और मैं नानक और किशोरी के साथ दुश्मनी करने के लिए जमानिया से निकली तो शहर के बाहर होकर हम दोनों अलग-अलग हो गईं। इत्तिफाक की बात है कि धनपत सूरत बदल कर इसी किले में आ रही और मैं भी घूमत-फिरती, भेष बदले हुए किशोरी का यहाँ होना सुनकर इसी किले में आ पहुँची और हम दोनों ही ने रानी साहिबा की नौकरी कर ली। उस समय मेरा नाम लाली था। यद्यपि इस मकान में मेरी और धनपत की मुलाकात हुई और बहुत दिनों तक हम दोनों आदमी एक ही जगह रहे भी, मगर न तो मैंने धनपत को पहचाना जो कुन्दन के नाम से यहाँ रहती थी और न धनपत ही ने मुझे पहचाना। (ऊँची साँस लेकर) अफसोस, मुझे उस समय का हाल कहते शर्म मालूम होती है, क्योंकि मैं बेचारी निर्दोष किशोरी के साथ दुश्मनी करने के लिए तैयार थी। यद्यपि मुझे किशोरी की अवस्था पर रहम आता था मगर मैं लाचार थी, क्योंकि मायारानी के कब्जे में थी और इस बात को खूब समझती थी कि यदि मैं मायारानी का हुक्म न मानूंगी तो निःसन्देह वह मेरा सिर काट लेगी।

इतना कहकर लाडिली रोने लगी।

वीरेन्द्रसिंह--(दिलासा देते हुए) बेटी, अफसोस करने को कोई जगह नहीं है। यह तो बनी-बनाई बात है कि यदि कोई धर्मात्मा या नेक आदमी शैतान के कब्जे में पड़ा हुआ होता है तो उसे झक मार कर शैतान की बात माननी पड़ती है। मैं खूब समझता हूँ और विश्वास दिला चुका हूँ कि तू नेक है तेरा कोई दोष नहीं, जो कुछ किया कम्बख्त दारोगा तथा मायारानी ने किया, अस्तु तू कुछ चिन्ता मत कर और अपना हाल कह।

आँचल से आँसू पोंछ कर लाड़िली ने फिर कहना शुरू किया-

लाडिली--मैं चाहती थी कि किशोरी को अपने कब्जे में कर लूं और तिलिस्मी तहखाने की राह से बाहर होकर इसे मायारानी के पास ले जाऊँ तथा धनपत का भी इरादा यही था। इस सबब से कि यहाँ का तहखाना एक छोटा-सा तिलिस्म है और जमानिया के तिलिस्म से सम्बन्ध रखता है, यहाँ के तहखाने का बहुत-कुछ हाल मायारानी को मालूम है और उसने मुझे और धनपत को बता दिया था। अस्तु, किशोरी को लेकर यहाँ के तहखाने की राह से निकल जाना मेरे या धनपत के लिए कोई बड़ी बात न थी। इसके अतिरिक्त यहाँ एक बुढ़िया रहती थी जो रिश्ते में राजा दिग्विजयसिंह की बूआ होती थी। वह बड़ी ही सीधी नेक तथा धर्मात्मा थी और बड़ी सीधी चाल बल्कि फकीरी ढंग पर रहा करती थी। मैंने सुना है कि वह मर गई, अगर जीती होती तो आपसे मुला- कात करा देती। खैर, मुझे यह बात मालूम हो चुकी थी कि वह बुढ़िया यहाँ के तह- खाने का हाल बहुत ज्यादा जानती है अतएव मैंने उससे दोस्ती पैदा कर ली और तब मुझे मालूम हुआ कि वह किशोरी पर दया करती है और चाहती है कि यह किसी तरह यहाँ से निकलकर राजा वीरेन्द्रसिंह के पास पहुँच जाय। मैंने उसके दिल में विश्वास दिला दिया कि किशोरी को यहाँ से निकाल कर चुनार पहुँचा देने के विषय में जी-जान से कोशिश करूँगी और इसीलिए उस बुढ़िया ने भी यहाँ के तहखाने का बहुत-सा हाल मुझसे कहा बल्कि उस राह से निकल जाने की तरकीब भी बताई मगर धनपत जो कुन्दन के नाम से यहीं रहती थी बराबर मेरे काम में बाधा डाला करती और मैं भी इस फिक्र में लगी थी कि किसी तरह उसे दबाना चाहिए जिसमें वह मेरा मुकाबला न कर सके।

एक दिन आधी रात के समय मैं अपने कमरे से निकल कर कुन्दन के कमरे की तरफ चली। जब उसके पास पहुंची तो किसी आदमी के पैर की आहट मिली जो कुन्दन की तरफ जा रहा था। मैं रुक गई और वह आदमी कुछ आगे बढ़कर कुन्दन के पास पहुंचा जिसमें कुन्दन रहती थी। उसकी कुर्सी बहुत ऊँची थी, पाँच सीढ़ियाँ चढ़ कर सहन में पहुँचना होता था और उसके बाद कमरे के अन्दर जाने का दरवाजा था। वह कमरा अभी तक मौजूद है, शायद आप उसे देखें। सीढ़ियों के दोनों बगल चमेली की घनी टट्टी थी, मैं उसी टट्टी में छिपकर उस आदमी के लौट आने की राह देखने लगी जो मेरे सामने ही उस मकान में गया था। आधा घण्टे के बाद वह आदमी कमरे के बाहर निकला, उस समय कुन्दन भी उसके साथ थी। जब वह सहन की सीढ़ियां उतरने लगा तो कुन्दन ने उसे रोक कर धीरे से कहा, "मैं फिर कहे देती हूँ कि आपसे मुझे बड़ी उम्मीद है। जिस तरह आप गुप्त राह से इस किले के अन्दर आते हैं, उसी तरह मुझे किशोरी के सहित निकाल तो ले जायेंगे ?" इसके जवाब में उस आदमी ने कहा, "हाँ- हाँ, इस बात का तो मैं तुमसे वादा ही कर चुका हूँ, अब तुम किशोरी को अपने काबू में करने का उद्योग करो, मैं तीसरे-चौथे दिन यहाँ आकर तुम्हारी खबर ले जाया करूँगा।" इस पर कुन्दन ने फिर कहा, “मगर मुझे इस बात की खबर पहले ही हो जाया करे कि आज आप आधी रात के समय यहाँ आवेंगे तो अच्छा हो।" इसके जवाब में उस आदमी ने अपनी जेब में से एक नारंगी निकालकर कुन्दन के हाथ में दी और कहा, "इसी रंग की नारंगी उस दिन तुम बाग उत्तर और पश्चिम वाले कोने में सन्ध्या के समय देखोगी जिस दिन तुमसे मिलने के लिए मैं यहां आने वाला होऊँगा।" कुन्दन ने वह नारंगी उसके हाथ से ले ली। सीढ़ियों के दोनों तरफ फूलों के गमले रक्खे हुए थे, उनमें से एक गमले में कुन्दन ने वह नारंगी रख दी और उस आदमी के साथ ही साथ थोड़ी दूर तक उसे पहुँचाने की नीयत से आगे की तरफ बढ़ गई। मैं छिपे-छिपे सब कुछ देख-सुन रही थी। जब कुन्दन आगे बढ़ गई और उस जगह निराला हुआ तब मैं झाड़ी के अन्दर से निकली और गमले में से उस नारंगी को लेकर जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाती हुई अपने मकान में चली आई। किशोरी अपना हाल कहते समय आपसे कह चुकी है कि एक दिन मैंने नारंगी दिखाकर कुन्दन को दबा लिया था।' यह वही नारंगी थी जिसे देखकर कुन्दन समझ गई कि मेरा भेद लाली को मालूम हो गया, यदि वह राजा साहब को इस बात की इत्तिला दे देगी और उस आदमी को, जो पुनः मेरे पास आने वाला है और जिसे इस बात की खबर नहीं है, गिरफ्तार करा देगी तो मैं मारी जाऊँगी, अस्तु उसे मुझसे दबना ही पड़ा क्योंकि वास्तव में यदि मैं चाहती तो कुन्दन के मकान में उस आदमी को गिरफ्तार करा देती, और उस समय महाराज दिग्विजयसिंह दोनों का सिर काटे बिना न रहते।

वीरेन्द्रसिंह--ठीक है, अब मैं समझ गया, अच्छा तो फिर यह भी मालूम हुआ कि वह आदमी जो कुन्दन के पास आया करता था कौन था?

लाड़िली--पीछे तो मालूम हो ही गया कि वह शेरसिंह थे और उन्होंने कुन्दन के बारे में धोखा खाया।

देवीसिंह--(वीरेन्द्रसिंह से) मैंने एक दफे आपसे अर्ज किया था कि शेरसिंह ने कुन्दन के बारे में धोखा खाने का हाल 'मुझसे खुद बयान' किया था और लाली को नीचा दिखाने या दबाने की नीयत से खून से लिखी किताब तथा 'आंँचल पर गुलामी की दस्तावेज' वाला जुमला भी शेरसिंह ही ने कुन्दन को बताया था और शेरसिंह ने छिपकर किसी दूसरे आदमी की बातचीत से वह हाल मालूम किया था।

वीरेन्द्रसिंह ठीक है, मगर यह नहीं मालूम हुआ कि शेरसिंह ने छिप कर जिन लोगों की बातचीत सुनी थी, वे कौन थे?

देवीसिंह--हाँ, इसका हाल मालूम न हुआ, शायद लाड़िली जानती हो।

लाड़िली--जी हाँ जब मैं यहाँ से लौटकर मायारानी के पास गई तब मुझे मालूम हुआ कि वे लोग मायारानी के दोनों ऐयार, बिहारीसिंह और हरनामसिंह, थे जो हम लोगों का पता लगाने तथा राजकुमारों को गिरफ्तार करने की नीयत से इस तरफ आये हुए थे।

वीरेन्द्रसिंह ठीक है, अच्छा तो अब हम यह सुनना चाहते हैं कि 'खून से लिखी किताब' और 'गुलामी की दस्तावेज' से क्या मतलब था और तू इन शब्दों को सुनकर क्यों डरी थी?

लाड़िली--खून से लिखी किताब को तो आप जानते ही हैं जिसका दूसरा नाम 'रिक्तगन्थ' है और जो आजकल आपके कुंअर इन्द्रजीतसिंह जी के कब्जे में है।

वीरेन्द्र–-हाँ-हाँ, सो क्यों न जानेंगे, वह तो हमारी ही चीज है और हमारे ही यहाँ से चोरी गई थी।

लाडिली--जी हाँ, तो उन शब्दों के विषय में भी मैंने बहुत बड़ा धोखा खाया। अगर मैं कुन्दन को पहचान जाती तो मुझे उन शब्दों से डरने की आवश्यकता न थी। खून से लिखी किताब अर्थात् रिक्तगन्थ से जितना संबंध मुझे था उतना ही कुन्दन को भी मगर कुन्दन ने समझा कि मैं भूतनाथ के रिश्तेदारों में से हूँ जिसने रिक्तगन्थ की चोरी की थी और मैंने यह सोचा कि कुन्दन को मेरा असल हाल मालूम हो गया, वह जान गई कि मैं मायारानी की बहिन लाड़िली हूँ और राजा दिग्विजयसिंह को धोखा देकर रहती हूँ। मैं इस बात को खूब जानती थी कि यह रोहतासगढ़ का तहखाना जमानिया के तिलिस्म से संबंध रखता है और यदि राजा दिग्विजयसिंह के हाथ रिक्तगन्थ लग जाय तो वह बड़ा ही खुश हो क्योंकि वह रिक्तगन्थ का मतलब खूब जानता है और उसे यह भी मालूम था कि भूतनाथ ने रिक्तगन्थ की चोरी की थी और उसके हाथ से मायारानी रिक्तगन्थ ले लेने के उद्योग में लगी हुई थी और उस उद्योग में सबसे भारी हिस्सा मैंने ही लिया था। यह सब हाल उसे कम्बख्त दारोगा की जुबानी मालूम हुआ था क्योंकि वह राजा दिग्विजयसिंह से मिलने के लिए बराबर आया करता था और उससे मिला हुआ था। निःसन्देह अगर मेरा हाल राजा दिग्विजयसिंह को मालूम हो जाता तो वह मुझे कैद कर लेता और रिक्तगन्थ के लिए मेरी बड़ी दुर्दशा करता। बस इसी खयाल ने मुझे बदहवास कर दिया और मैं ऐसा डरी कि तन-बदन की सुध जाती रही। क्या दिग्विजयसिंह कभी इस बात का सोचता था कि उसकी दारोगा से दोस्ती है और दारोगा लाडिली का पक्षपाती है ? कभी नहीं, वह बड़ा मतलबी और खोटा था।

वीरेन्द्रसिंह--बेशक ऐसा ही है और तुम्हारा डरना बहुत वाजिब था, मगर हाँ, एक बात तो तुमने कही ही नहीं।

लाड़िली--वह क्या ?

वीरेन्द्रसिंह--'आँचल पर गुलामी की दस्तावेज' से क्या मतलब था?

राजा वीरेन्द्रसिंह की यह बात सुनकर लाड़िली शर्मा गई और उसने अपने दिल की अवस्था को रोककर सिर नीचा कर लिया। जब राजा वीरेन्द्रसिंह ने पुनः टोका तब हाथ जोड़कर बोली, "आशा है कि महाराजा साहब इसका जवाब चाहने के लिए जिद न करेंगे और मेरा यह अपराध क्षमा करेंगे। मैं इसका जवाब अभी नहीं देना चाहती और बहाना करना या झूठ बोलना भी पसन्द नहीं करती!"

लाड़िली की बात सुनकर राजा वीरेन्द्रसिंह चुप हो रहे और कोई दूसरी बात पूछा ही चाहते थे कि भैरोंसिंह ने कमरे के अन्दर पैर रक्खा।

वीरेन्द्रसिंह--(भैरों से) क्या बात है?

भैरोसिंह--बाहर से खबर आई है कि मायारानी के दारोगा के गुरुभाई इन्द्रदेव जिनका हाल मैं एक दफे अर्ज कर चुका हूँ, महाराज का दर्शन करने के लिए हाजिर हुए हैं। उन्हें ठहराने की कोशिश की गई थी मगर वह कहते हैं कि मैं पल-भर भी नहीं अटक सकता और शीघ्र ही मुलाकात की आशा रखता हूँ तथा मुलाकात भी महल के अन्दर लक्ष्मीदेवी के सामने करूँगा। यदि इस बात में महाराजा साहब को उज्र हो तो लक्ष्मीदेवी से राय लें और जैसा वह कहे वैसा करें।

इसके पहले कि वीरेन्द्रसिंह कुछ सोचें या लक्ष्मीदेवी से राय लें लक्ष्मीदेवी अपनी खुशी को न रोक सकी, उठ खड़ी हुई और हाथ जोड़कर बोली, “महाराज से मैं सविनय प्रार्थना करती हूँ कि इन्द्रदेवजी को इसी जगह आने की आज्ञा दी जाय। वे मेरे धर्म के पिता हैं, मैं अपना किस्सा कहते समय अर्ज कर चुकी हूँ कि उन्होंने ही मेरी जान बचाई थी, वे हम लोगों के सच्चे खैरख्वाह और भलाई चाहने वाले हैं।"

वीरेन्द्रसिंह–बेशक-बेशक, हम उन्हें इसी जगह बुलायेंगे, हमारी लड़कियों को उनसे पर्दा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। (भैरोंसिंह की तरफ देखकर) तुम स्वयं जाओ और उन्हें शीघ्र इसी जगह ले आओ।

"बहुत अच्छा" कहकर भैरोंसिंह चला गया और थोड़ी ही देर में इन्द्रदेव को अपने साथ लिये हुए आ पहुँचा। लक्ष्मीदेवी उन्हें देखते ही उनके पैरों पर गिर पड़ी और आँसू बहाने लगी। इन्द्रदेव ने उसके सिर पर हाथ फेर कर आशीर्वाद दिया, कमलिनी और लाडिली ने भी उन्हें प्रणाम किया और राजा वीरेन्द्रसिंह ने सलाम का जवाब देने के बाद उन्हें बड़ी खातिर से अपने पास बैठाया। वीरेन्द्रसिंह--(मुस्कुराते हुए) कहिये आप कुशल से तो हैं ! राह में कुछ तकलीफ तो नहीं हुई?

इन्द्रदेव--(हाथ जोड़कर) आपकी कृपा से मैं बहुत अच्छा हूँ, सफर में हजार तकलीफ उठाकर आने वाला भी आपका दर्शन पाते ही कृतार्थ हो जाता है, फिर मेरी क्या बात है जिसे इस सफर पर ध्यान देने की छुट्टी अपने खयालों की उलझन की बदौलत बिल्कुल ही न मिली।

वीरेन्द्रसिंह--तो मालूम होता है कि आप किसी भारी काम के लिए यहाँ आये हैं। (हँसकर) क्या अबकी फिर दारोगा साहब को छुड़ाकर ले जाने का इरादा है?

इन्द्रदेव--(शर्मिन्दगी के साथ हँसकर) जी नहीं, अब मैं उस कम्बख्त की कुछ भी मदद नहीं कर सकता, जिसे गुरुभाई समझकर आपके कैदखाने से छुड़ाया था और आइन्दा नेकनीयती के साथ जिन्दगी बिताने की जिससे मैंने कसम ले ली थी। अफसोस, दिन-दिन उसकी शैतानियों का पता लगता ही जाता है।

वीरेन्द्रसिंह--इधर का हाल तो आपने नहीं सुना होगा?

इन्द्रदेव--जी भूतनाथ की जुबानी मैं सब हाल सुन चुका हूँ और इस सबब से ही हाजिर हुआ हूँ। मुझे यह देखकर बड़ी खुशी हुई कि लक्ष्मीदेवी को अपनायत के ढंग पर आपके सामने बैठने की इज्जत मिली है और वह बहुत तरह के दुःख सहने के बाद अब हर तरह से प्रसन्न और सुखी होना चाहती है।

वीरेन्द्रसिंह--निःसन्देह लक्ष्मीदेवी को मैं अपनी लड़की के समान देख रहा हूँ और उसके साथ तुमने जो कुछ नेकी की है उसका हाल भी उसी की जुबानी सुनकर बहुत प्रसन्न हूँ। इस समय मेरे दिल में तुमसे मिलने की इच्छा हो रही थी और किसी को तुम्हारे पास भेजने के विचार में ही था कि तुम आ पहुँचे। बलभद्रसिंह और भूतनाथ के पामले ने तो हम लोगों को अजब दुविधा में डाल रखा है, अब कदाचित् तुम्हरी जुबानी उनका खुलासा हाल मालूम हो जाय।

इन्द्रदेव--निःसन्देह वह एक आश्चर्य की घटना हो गई है जिसकी मुझे कुछ भी आशा न थी।

लक्ष्मीदेवी--(इन्द्रदेव से) मेरे प्यारे चाचा ! (लक्ष्मी इन्द्रदेव को चाचा कहके ही पुकारा करती थी) जब भूतनाथ की जुबानी आप सब हाल सुन चुके हैं तो निःसन्देह मेरी तरह आपको भी इस बात का विश्वास हो गया कि मेरे बदकिस्मत पिता अभी तक जीते हैं, मगर कहीं कैद हैं।

इन्द्रदेव--बेशक ऐसा ही है।

वीरेन्द्रसिंह--तो क्या भूतनाथ उन्हें खोज निकालेगा? इन्द्रदेव-इसमें मुझे सन्देह है, क्योंकि वह सब तरफ से लाचार होकर मुझसे मदद मांगने गया था और उसी की जुबानी सब हाल सुनकर मैं यहां आया हूँ।

वीरेन्द्रसिंह--तो तुम इस काम में उसको मदद दोगे?

इन्द्रदेव--अवश्य मदद दूंगा ! सचाई तो यह है कि इस समय बलभद्रसिंह को खोज निकालने की चाह बनिस्बत भूतनाथ के मुझको बहुत ज्यादा है और उनके जीते रहने का विश्वास भी सभी से ज्यादा मुझी को हुआ, इसी तरह से बलभद्रसिंह का पता लगाने में मेरी बुद्धिं जितना काम कर सकती है, उतनी भूतनाथ की नहीं। (ऊँची साँस लेकर) अफसोस, आज के दो दिन पहले मुझे इस बात का स्वप्न में भी गुमान न था कि अपने प्यारे दोस्त बलभद्रसिंह के जीते रहने की खबर मेरे कानों तक पहुँचेगी और मुझे उनका पता लगाना होगा!

वीरेन्द्रसिंह--तुम्हारे ऐसा कहने से यह पाया जाता है कि बनिस्बत हम लोगों के तुमको भूतनाथ की बातों का ज्यादा यकीन हुआ है। और अगर ऐसा ही है तो आज के बहुत दिन पहले तुमको या किसी और को इस बात की इत्तिला न देने का इलजाम भी भूतनाथ पर लगाया जायगा!

इन्द्रदेव--जी नहीं, इस घटना के पहले भूतनाथ को भी बलभद्रसिंह के जीते रहने का विश्वास न था। हाँ, कुछ शक-सा हो गया था, उस शक को यकीन के दर्जे तक पहुँ- चाने के लिए भूतनाथ ने बहुत उद्योग किया और वही उद्योग इस समय उसका दुश्मन हो रहा है। सच तो यह है कि अगर इसके पहले बलभद्रसिंह के जीते रहने की खबर भूत- नाथ देता भी तो मुझे विश्वास न होता और मैं उसे झूठा या दगाबाज समझता।

वीरेन्द्रसिंह--(मुस्कुराकर) तुम्हारी बातें तो और भी उलझन पैदा करती हैं। मालूम होता है कि भूतनाथ की बातों के अतिरिक्त और भी कोई सच्चा सबूत बलभद्र- सिंह के जीते रहने के बारे में तुम्हें मिला है और भूतनाथ वास्तव में उन दोषों का दोषी नहीं है जो कि उसकी दस्तखती चिट्ठियों के पढ़ने से मालूम हुआ है।

इन्द्रदेव--बेशक ऐसा ही है।

लक्ष्मीदेवी--(ताज्जुब से) तो क्या किसी और ने भी मेरे पिता के जीते रहने की खबर आपको दी है?

इन्द्रदेव--नहीं।

लक्ष्मीदेवी--तो आज कैसे भूतनाथ के कहने का इतना विश्वास आपको हुआ जब कि आज के पहले उसके कहने का कुछ भी असर न होता?

वीरेन्द्रसिंह--मैं भी यही सवाल तुमसे करता हूँ।

इन्द्रदेव--भूतनाथ के इस कहने ३.५७ कृष्णजिन्न ने एक कलमदान आपके सामने पेश किया था जिस पर मीनाकारी की तान तस्वीरें बनी हुई थी और उसे देखते ही नकली बलभद्रसिंह बदहवास हो गया" मुझे असली बलभद्रसिंह के जीते रहने का विश्वास दिला दिया। क्या यह बात ठीक है ? क्या कृष्ण जिन्न ने कोई ऐसा कलमदान पेश किया है?

वीरेन्द्रसिंह--हां, एक कलमदान'

लक्ष्मीदेवी--(बात काटकर) हाँ-हाँ, मेरे प्यारे चाचा, वही कलमदान जो मेरी बहुत ही प्यारी चाची ने मुझे विवाह के'

इतना कहते-कहते लक्ष्मीदेवी का गला भर आया और वह रोने लगी।

इन्द्रदेव--(व्याकुलता से) मैं उस कलमदान को शीघ्र ही देखना चाहता हूँ। (तेजसिंह से) आप कृपा कर उसे शीघ्र ही मँगवाइये।

च० स०-4-3

तेजसिंह--(अपने बटुए में से कलमदान निकालकर और इन्द्रदेव के हाथ में

देकर) लीजिए हाजिर है। मैं इसे हर वक्त अपने पास रखता हूँ, और उस समय की राह देखता हूँ जब इसके अद्भुत रहस्य का पता हम लोगों को लगेगा।

इन्द्रदेव--(कलमदान को अच्छी तरह देखकर) निःसन्देह भूतनाथ ने जो कुछ कहा ठीक है। अफसोस, कम्बख्तों ने बड़ा धोखा दिया। अच्छा, ईश्वर मालिक है!

लक्ष्मीदेवी--क्यों, यह वही कलमदान है न?

इन्द्रदेव--हाँ, तुम इसे वही कलमदान समझो। (क्रोध से लाल-लाल आँखें करके) ओफ, अब मुझसे बरदाश्त नहीं हो सकता और न मैं ऐसे काम में विलम्ब कर सकता हूँ ! (वीरेन्द्रसिंह से) क्या आप इस काम में मेरी सहायता कर सकते हैं?

वीरेन्द्रसिंह--जो कुछ मेरे किये हो सकता है, मैं उसे करने के लिए तैयार हूँ। मुझे बड़ी खुशी होगी जब मैं अपनी आँखों से बलभद्रसिंह को सही-सलामत देखूंगा।

इन्द्रदेव--और आप मुझ पर विश्वास भी कर सकते हैं?

वीरेन्द्रसिंह--हाँ, मैं तुम पर उतना ही विश्वास करता हूँ जितना इन्द्रजीत और आनन्द पर।

इन्द्रदेव--(हाथ जोड़ और गद्गद होकर) अब मुझे विश्वास हो गया कि अपने दोनों प्रेमियों को शीघ्र देखूंगा।

वीरेन्द्रसिंह--(आश्चर्य से) दूसरा कौन?

लक्ष्मीदेवी--(चौंककर) ओह, मैं समझ गई, हे ईश्वर, यह क्या, क्या मैं अपनी बहुत ही प्यारी 'इन्दिरा' को भी देखूंगी !

इन्द्रदेव--हाँ, यदि ईश्वर चाहेगा तो ऐसा ही होगा।

वीरेन्द्रसिंह--अच्छा यह बताओ कि अब तुम क्या चाहते हो?

इन्द्रदेव--मैं नकली बलभद्रसिंह, दारोगा और मायारानी को देखना चाहता हूँ और साथ ही इसके इस बात की आज्ञा चाहता हूँ कि उन लोगों के साथ मैं जैसा बर्ताव करना चाहूँ कर सकू या उन तीनों में से किसी को यदि आवश्यकता हो तो अपने साथ ले जा सकूं।

इन्द्रदेव की बात सुनकर वीरेन्द्रसिंह ने ऐसे ढंग से तेजसिंह की तरफ देखा और इशारे से कुछ पूछा कि सिवाय उनके और तेजसिंह के किसी दूसरे को मालूम न हुआ और जब तेजसिंह ने भी इशारे में ही कुछ जवाब दे दिया तब इन्द्रदेव की तरफ देखकर कहा, "वे तीनों कैदी सबसे बढ़कर लक्ष्मीदेवी के गुनहगार हैं जो तुम्हारी और हमारी धर्म की लड़की है। इसलिए उन कैदियों के विषय में जो कुछ तुमको पूछना या करना हो, उसकी आज्ञा लक्ष्मी देवी से ले लो, हमें किसी तरह का उज्र नहीं है।"

लक्ष्मी देवी--(प्रसन्न सोकर) यदि महाराज की मुझ पर इतनी कृपा है तो मैं कह सकती हूँ कि उन कैदियों में से, जिनकी बदौलत मेरी जिन्दगी का सबसे कीमती हिस्सा बर्बाद हो गया, जिसे मेरे चाचा चाहें, साथ ले जायें।

वीरेन्द्र सिंह--बहुत अच्छा ! (इन्द्रदेव से)क्या उन कैदियों को यहाँ हाजिर करने के लिए हुक्म दिया जाय ? इन्द्रदेव--वे सब कहाँ रखे गए हैं ?

वीरेन्द्रसिंह--यहाँ के तिलिस्मी तहखाने में।

इन्द्रदेव--(कुछ सोचकर) उत्तम तो यही होगा कि मैं उस तहखाने ही में उन कैदियों को देखू और उनसे बातें करूँ, तब जिसकी आवश्यकता हो उसे अपने साथ ले जाऊँ।

वीरेन्द्रसिंह--जैसी तुम्हारी मर्जी, अगर कहो तो हम भी तुम्हारे साथ तहखाने में चलें।

इन्द्रदेव--आप जरूर चलें। यदि यहाँ के तहखाने की कैफियत आपने अच्छी तरह देखी न हो तो मैं आपको तहखाने की सैर भी कराऊँगा वल्कि ये लड़कियाँ भी साथ रहें तो कोई हर्ज नहीं। परन्तु यह काम मैं रात्रि के समय करना चाहता हूँ और इस समय केवल इसी बात की जांच करना चाहता हूँ कि भूतनाथ ने मुझसे जो-जो बातें कही थीं, वे सब सच हैं या झूठ।

वीरेन्द्रसिंह--ऐसा ही होगा।

इसके बाद बहुत देर तक इन्द्रदेव, लक्ष्मीदेवी, कमलिनी, किशोरी, लाडिली, तेजसिंह और वीरेन्द्रसिंह इत्यादि में बातें होती रहीं और बीती हुई बातों को इन्द्रदेव बड़े गौर से सुनते रहे। इसके बाद भोजन का समय आया और दो-तीन घण्टे के लिए सब कोई जुदा हुए। राजा वीरेन्द्रसिंह की इच्छानुसार इन्द्रदेव की बड़ी खातिर की गई और कह जब तक अकेले रहे, बलभद्रसिंह और कृष्णजिन्न के विषय में गौर करते रहे। जब संध्या हुई, सब कोई फिर उसी जगह इकट्ठे हुए और बातचीत होने लगी। इन्द्रदेव ने राजा बीरेन्द्रसिंह से पूछा, “कृष्णजिन्न का असल हाल आपको मालूम हुआ या नहीं ? क्या उसने अपना परिचय आपको दिया?"

वीरेन्द्रसिंह--पहले तो उसने अपने को बहुत छिपाया, मगर भैरोंसिंह ने गुप्त रीति से पीछा करके उसका हाल जान लिया। जब कृष्ण जिन्न को मालूम हो गया कि भैरोंसिंह ने उसे पहचान लिया तब उसने भैरोंसिंह को बहुत-कुछ ऊँच-नीच समझाकर इस बात की प्रतिज्ञा करा ली कि सिवाय मेरे और तेजसिंह के वह कृष्णजिन्न का असल हाल किसी से न कहे और न हम तीनों में से कोई किसी चौथे को उसका भेद बतावे। पर अब मैं देखता हूँ तो कृष्णजिन्न का असल हाल तुमको भी मालूम होना उचित जान पड़ता है पर साथ ही मैं अपने ऐयार की की हुई प्रतिज्ञा को भी तोड़ना नहीं चाहता।

इन्द्रदेव--निःसन्देह कृष्णजिन्न का हाल जानना मेरे लिए आवश्यक है परन्तु मैं भी यह नहीं पसन्द करता कि भैरोंसिंह या आपकी मंडली में से किसी की प्रतिज्ञा भंग हो। आप इसके लिए चिन्ता न करें, मैं कृष्णजिन्न को पहचाने बिना नहीं रह सकता, बस एक दफे सामना होने की देर है।

वीरेन्द्रसिंह--मेरा भी यही विश्वास है।

इन्द्रदेव--अच्छा तो अब उन कैदियों के पास चलना चाहिए।

वीरेन्द्रसिंह--चलो, हम तैयार हैं। (तेजसिंह, देवीसिंह, लक्ष्मीदेवी, कमलिनी और किशोरी इत्यदि की तरफ इशारा करके) इन सबको भी लेते चलें ? इन्द्रदेव--जी हाँ, मैं तो पहले ही अर्ज कर चुका हूँ, बल्कि ज्योतिषीजी तथा भैरोंसिंह को भी लेते चलिए।

इतना सुनते ही राजा वीरेन्द्रसिंह उठ खड़े हुए और सब को साथ लिए हुए तहखाने की तरफ रवाना हुए। जगन्नाथ ज्योतिषी को बुलाने के लिए देवीसिंह भेज दिये गये।

ये लोग धीरे-धीरे जब तक तहखाने के दरवाजे पर पहुंचे तब तक जगन्नाथ ज्योतिषी भी आ गये और सब लोग एक साथ मिलकर तहखाने के अन्दर गये।

इस तहखाने के अन्दर जाने वाले रास्ते का हाल हम पहले लिख चुके हैं इसलिए पुनः लिखने की आवश्यकता न जानकर केवल मतलब की बातें ही लिखते हैं।

ये सब लोग तहखाने के अन्दर जाकर उसी दालान में पहुँचे जिसमें तहखाने के दारोगा साहब रहा करते थे और जिसके पीछे की तरफ कई कोठरियाँ थीं। इस समय भैरोंसिंह और देवीसिंह अपने हाथ में मशाल लिए हुए थे, जिसकी रोशनी से बखूबी उजाला हो गया था जोर वहाँ की हरएक चीज साफ-साफ दिखाई दे रही थी। वे लोग इन्द्रदेव के पीछे-पीछे एक कोठरी के अन्दर घुसे जिसमें सदर दरवाजे के अलावा एक दरवाजा और भी था। सब लोग उस दरवाजे में घुसकर दूसरे खण्ड में जा पहुंचे जहां बीचोंबीच में छोटा-सा चौक था उसके चारों तरफ दालान और दालानों के बाद बहुत- सी लोहे के सींखचों से बनी हुई जंगलेदार ऐसी कोठरियाँ थीं जिनके देखने से यह साफ मालूम होता था कि यह कैदखाना है और इन कोठरियों में रहने वाले आदमियों को स्वप्न में भी रोशनी नसीब न होती होगी।

इन्हीं सींखचे वाली कोठरियों में से एक में दारोगा, दूसरे में मायारानी और तीसरी में नकली बलभद्रसिंह कैद था। जब ये लोग यकायक उस कैदखाने में पहुँचे और उजाला हुआ तो तीनों कैदी, जो अब तक एक दूसरे को भी नहीं देख सकते थे, ताज्जुब की निगाहों से इन लोगों को देखने लगे। जिस समय दारोगा की निगाह इन्द्रदेव पर पड़ी उसके दिल में यह खयाल पैदा हुआ कि या तो अब हमको इस कैदखाने में छुट्टी ही मिलेगी या इससे भी ज्यादा दुःख भोगना पड़ेगा।

इन्द्रदेव पहले मायारानी की तरफ गया जिसका रंग एकदम से पीला पड़ गया था और जिसकी आँखों के सामने मौत की भयानक सूरत हरदम फिरा करती थी। दो- तीन पल तक मायारानी को देखने के बाद इन्द्रदेव उस कोठरी के सामने आया जिसमें नकली बलभद्रसिंह कैद था। उसकी सूरत देखते ही इन्द्रदेव ने कहा, "ऐ मेरे लड़कपन के दोस्त बलभद्रसिंह, मैं तुम्हें सलाम करता हूँ। आज ऐसे भयानक कैदखाने में तुम्हें देखकर मुझे बड़ा रंज होता है। तुमने क्या कसूर किया था जो यहाँ भेजे गये?"

नकली बलभद्रसिंह--मैं कुछ नहीं जानता कि मुझ पर क्या दोष लगाया गया है। मैं तो अपनी लड़कियों से मिलकर बहुत खुश हुआ था, मगर अफसोस, राजा साहब ने इन्साफ करने के पहले ही मुझे कैदखाने में भेज दिया।

भैरोंसिंह--राजा साहब ने तुम्हें कैदखाने में नहीं भेजा, बल्कि तुमने खुद कैद- खाने में आने का बन्दोबस्त किया। महाराज ने तो मुझे ताकीद की थी कि तुम्हें इज्जत और खातिरदारी के साथ रखू, मगर जब तुमने इन्साफ होने के पहले भागने का उद्योग किया तो लाचार ऐसा करना पड़ा।

इन्द्रदेव--नहीं-नहीं, अगर ये वास्तव में मेरे दोस्त बलभद्रसिंह हैं तो इनके साथ ऐसा न करना चाहिए।

बलभद्रसिंह--मैं वास्तव में बलभद्रसिंह हूँ। क्या लक्ष्मीदेवी मुझे नहीं पहचानती जिसके साथ मैं एक ही कैदखाने में कैद था ?

इन्द्रदेव--लक्ष्मीदेवी तो खुद तुमसे दुश्मनी कर रही है। वह कहती है कि यह बलभद्रसिंह नहीं है बल्कि जयपाल सिंह है।

इतना सुनते ही नकली बलभद्रसिंह चौंक उठा और उसके चेहरे पर डर तथा घबराहट की निशानी दिखाई देने लगी। वह समझ गया कि इन्द्रदेव मुझ पर दया करने के लिए नहीं आया, बल्कि मुझे सताने के लिए आया है। कुछ देर तक सोचने के बाद उसने इन्द्रदेव से कहा-

बलभद्रसिंह--यह बात लक्ष्मीदेवी तो नहीं कह सकती, बल्कि तुम ही स्वयं कहते हो।

इन्द्रदेव--अगर ऐसा भी हो तो क्या हर्ज है ? तुम इस बात का क्या जवाब देते हो?

बलभद्रसिंह--झूठी बात का जो कुछ जवाब हो सकता है, वही मेरा जवाब है।

इन्द्रदेव--तो क्या तुम जयपालसिंह नहीं हो ?

बलभद्रसिंह--मैं जानता भी नहीं कि जयपाल किस जानवर का नाम है। इन्द्रदेव-अच्छा, जयपाल नहीं तो बालेसिंह ! बालेसिंह का नाम सुनते ही नकली बलभद्रसिंह फिर घबरा गया और मौत की भयानक सूरत उसकी आँखों के सामने दिखाई देने लगी। उसने कुछ जवाब देने का इरादा किया मगर बोल न सका। उसकी ऐसी अवस्था देखकर इन्द्रदेव ने तेजसिंह से कहा, "दारोगा और मायारानी को भी इस कोठरी में लाना चाहिए जिसमें मेरी बातों से तीनों बेईमानों के दिल का पता लगे।" यह बात तेजसिंह ने भी पसन्द की और बात की बात में तीनों कैदी एक साथ कर दिए गये और तब इन्द्रदेव ने दारोगा से पूछा, "आपको इस आदमी का नाम बताना होगा जो आपके बगल में कैदियों की तरह बैठा हुआ है।"

दारोगा--मैं इसे नहीं जानता और जब वह स्वयं कह रहा है कि बलभद्रसिंह है तो मुझसे क्यों पूछते हो?

इन्द्रदेव--तो क्या आप बलभद्रसिंह की सूरत-शक्ल भूल गये जिसकी लड़की को आपने मुन्दर के साथ बदल कर हद से ज्यादा दुःख दिया?

दारोगा--मुझे उसकी सूरत याद है मगर जब वह मेरे यहाँ कैद था तब आप ही ने इसे जहर की पुड़िया खिलाई थी जिसके असर से निःसन्देह इसे मर जाना चाहिए था मगर न मालूम क्योंकर बच गया, फिर भी उस जहर की तासीर ने इसका तमाम बदन बिगाड़ दिया और इस लायक न रक्खा कि कोई पहचाने और बलभद्रसिंह के ना से इसे पुकारे। दारोगा की बातें सुनकर इन्द्रदेव की आँखें मारे क्रोध के लाल हो गई और उसने दांत पीस कर कहा-

इन्द्रदेव--कम्बख्त बेईमान ! तू चाहता है कि अपने साथ मुझे भी लपेटे ! मगर ऐसा नहीं हो सकता, तेरी इन बातों से लक्ष्मीदेवी और राजा वीरेरेन्द्रसिंह का दिल मुझसे नहीं फिर सकता। इसका सबब अगर तू जानता तो ऐसी बातें कदापि न कहता। खैर, वह मैं तुझसे बयान करता हूँ, सुन, तेरे दिये हुए जहर से मैंने ही बलभद्रसिंह की जान बचाई थी, और अगर तू बलभद्रसिंह को किसी दूसरी जगह न छिपा दिए होता या उसका हाल मुझे मालूम हो जाता तो बेशक मैं उसे भी तेरे कैदखाने से निकाल लेता, मगर फिर भी वह शख्स मैं ही हूँ जिसने लक्ष्मीदेबी को तुझ बेईमान और विश्वासघाती के पंजे से छुड़ा कर वर्षों अपने घर में इस तरह रक्खा कि तुझे कुछ भी मालूम न हुआ और मेरे ही सबब से लक्ष्मीदेवी आज इस लायक हुई कि तुझसे अपना बदला ले।

दारोगा--मगर ऐसा नहीं हो सकता।

यद्यपि इन्द्रदेव की बात सुनकर आश्चर्य और डर से दारोगा के रोंगटे खड़े हो गये मगर फिर भी न मालूम किस भरोसे पर वह बोल उठा कि 'मगर ऐसा नहीं हो सकता' और उसके इस कहने ने सभी को आश्चर्य में डाल दिया।

इन्द्रदेव--(दारोगा से) मालूम होता है कि तेरा घमण्ड अभी टूटा नहीं और तुझे अब भी किसी की मदद पहुँचने और अपने बचने की आशा है।

दारोगा--बेशक ऐसा ही है।

अब इन्द्रदेव अपने क्रोध को बर्दाश्त न कर सका और उसने कोठरी कर दारोगा के बाएँ गाल पर ऐसी चपत लगाई कि वह तिलिमिला कर जमीन पर लुढ़क गया क्योंकि हथकड़ी और बेड़ी के कारण उसके हाथ और पैर मजबूर हो रहे थे। इसके बाद इन्द्रदेव ने नकली बलभद्रसिंह का बदन नंगा कर डाला और अपनी कमर से चमड़े का एक तस्मा खोलकर मारना और पूछना शुरू किया, "बता, तू जयपाल है या नहीं और बलभद्रसिंह कहाँ है ?

यद्यपि तस्मे की मार खाकर नकली बलभद्रसिंह बिना जल की मछली की तरह तड़पने लगा मगर मुंह से सिवाय 'हाय' के कुछ भी न बोला। इन्द्रदेव उसे और भी मारना चाहता था मगर इसी समय एक गम्भीर आवाज ने उसका हाथ रोक दिया और वह ध्यान देकर उसे सुनने लगा, आवाज यह थी-

"होशियार ! होशियार !"

इस आवाज ने केवल इन्द्रदेव ही को नहीं बल्कि उन सब ही को चौंका दिया जो वहां मौजूद थे। इन्द्रदेव कैदखाने की कोठरी में से बाहर निकल आया और छत की तरफ सिर उठा कर देखने लगा, जिधर से वह आवाज आई थी। मशाल की रोशनी बखूबी हो रही थी जिससे छत का एक सूराख, जिसमें आदमी का सिर बखूबी आ सकता था साफ दिखाई पड़ता था। सभी को विश्वास हो गया कि वह आवाज इसी में से आई है।

दो--चार पल तक सभी ने राह देखी मगर फिर आवाज सुनाई न दी। आखिर इन्द्रदेव ने पुकार कर कहा, "अभी कौन बोला था ?

फिर आवाज आई--हम !

इन्द्रदेव--तुमने क्या कहा था ?

आवाज--होशियार, होशियार।

इन्द्रदेव--क्यों?

आवाज--दुश्मन आ पहुंचा और तुम लोग मुसीबत में फंसना चाहते हो।

इन्द्रदेव--तुम कौन हो ?

आवाज--कोई तुम लोगों का हितू।

इन्द्रदेव--कैसे समझा जाय कि तुम हम लोगों के हितू हो और जो कुछ कहाँ हो वह सच है ?

आवाज--हितू होने का सबूत इस समय देना कठिन है मगर इस बात का सबूत मिल सकता है कि हमने जो कुछ कहा है वह सच है।

इन्द्रदेव--इसका क्या सबूत है ?

आवाज-–बस इतना ही कि इस तहखाने से निकलने के सब दरवाजे बन्द हो गये और अब आप लोग बाहर नहीं जा सकते।

अब तो सभी का कलेजा दहल उठा और आश्चर्य से एक-दूसरे का मुंह देखने लगे। तेजसिंह ने देवीसिंह और भैरोंसिंह की तरफ देखा और वे दोनों उसी समय इस बात का पता लगाने चले गये कि तहखाने के दरवाजे वास्तव में बन्द हो गए या नहीं, इसके बाद इन्द्रदेव ने फिर छत की तरफ मुंह करके कहा, "हाँ, तो क्या तुम बता सकते हो कि वे लोग कौन हैं जिन्होंने तहखाने में हम लोगों को घेरने का इरादा किया है ?"

आवाज--हाँ, बता सकते हैं।

इन्द्रदेव--अच्छा उनके नाम बताओ।

आवाज--कमलिनी के तिलिस्मी मकान से छूटकर भागे शिवदत्त, माधवी और मनोरमा तथा उन्हीं तीनों की मदद से छूटा हुआ दिग्विजयसिंह का लड़का कल्याणसिंह, जो इस तिलिस्मी तहखाने का हाल उतना ही जानता है जितना उसका बाप जानता था।

इन्द्रदेव--वह तो चुनार में कैद था।

आवाज--हाँ, कैद था मगर छुड़ाया गया जैसा कि मैंने कहा।

इन्द्रदेव--तो क्या वे लोग हम सभी को नुकसान पहुँचा सकते हैं?

आवाज--सो तो तुम्हीं लोग जानो, मैंने केवल तुम लोगों को होशियार कर दिया, अब जिस तरह अपने को बचा सको, बचाओ।

इन्द्रदेव--(कुछ सोचकर) उन चारों के साथ और कोई भी है ?

आवाज--हाँ, एक हजार के लगभग फौज भी इसी तहखाने की किसी गुप्त राह से किले के अन्दर घुस कर अपना दखल जमाना चाहती है।

इन्द्र देव--इतनी मदद उन सभी को कहाँ से मिली?

आवाज--इसी कम्बख्त मायारानी की बदौलत।

इन्द्रदेव--क्या तुम भी उन्हीं लोगों के साथ हो? आवाज--नहीं।

इन्द्रदेव--तब तुम कौन हो?

आवाज--एक दफा तो कह चुका कि तुम्हारा कोई हितू हूँ।

इन्देव--अगर हितू हो तो हम लोगों की कुछ मदद भी कर सकते हो!

आवाज--कुछ भी नहीं।

इन्द्रदेव--क्यों?

आवाज--मजबूरी से।

इन्द्रदेव--मजबूरी कैसी?

आवाज--वैसी ही।

इन्द्रदेव क्या तुम हम लोगों की मदद किए बिना ही इस तहखाने के बाहर चले जाओगे?

आवाज--नहीं, क्योंकि रास्ता बन्द है।

इतना सुनकर इन्द्र देव चुप हो गया और कुछ देर तक सोचता रहा, इसके बाद राजा वीरेन्द्रसिंह का इशारा पाकर फिर बातचीत करने लगा।

इन्द्रदेव--तुम अपना नाम क्यों नहीं बताते ?

आवाज--व्यर्थ समझ कर।

इन्द्रदेव--क्या हम लोगों के पास भी नहीं आ सकते ?

आवाज--नहीं।

इन्द्रदेव--क्यों?

आवाज--रास्ता नहीं है।

इन्द्रदेव-तो क्या तुम यहाँ से निकलकर बाहर भी नहीं जा सकते?

इस बात का जवाब कुछ भी न मिला, इन्द्रदेव ने पुनः पूछा मगर फिर भी जवाब न मिला। इतने ही में छत पर धमधमाहट की आवाज इस तरह आने लगी जैसे पचासों आदमी चारों तरफ दौड़ते-उछलते या कूदते हों। उसी समय इन्द्रदेव ने राजा वीरेन्द्रसिंह की तरफ देख कर कहा, "अब मुझे निश्चय हो गया कि इस गुप्त मनुष्य का कहना ठीक है और इस छत के ऊपर वाले खंड में ताज्जुब नहीं कि दुश्मन आ गये हों और यह उन्हीं के पैरों की धमधमाहट हो।" राजा वीरेन्द्रसिंह इन्द्रदेव की बात का कुछ जवाब दिया ही चाहते थे कि उसी मोखे में से जिसमें से गुप्त मनुष्य के बातचीत की आवाज आ रही थी, और बहुत से आदमियों के बोलने की आवाजें आने लगीं। साफ सुनाई देता था कि बहुत से आदमी आपस में लड़-भिड़ रहे हैं और तरह-तरह की बातें कर रहे हैं।

"कहाँ है ? कोई तो नहीं ! जरूर है ! यही है ! यही है ! पकड़ो ! पकड़ो ! तेरी ऐसी की तैसी, तू हमें क्या पकड़ेगा? नहीं अब तू बच के कहाँ जा सकता है !" इत्यादि आवाजें कुछ देर तक सुनाई देती रहीं, और इसके बाद उसी मोखे में से बिजली की तरह चमक दिखाई देने लगी। उसी समय "हाय रे, यह क्या, जले-जले, मरे-मरे, देव-देव, भूत-है-भूत, देवता, काल-है-काल, अग्निदेव है, अग्निदेव, कुछ नहीं, जाने दो, जाने दो, हम नहीं, हम नहीं !" इत्यादि आवाजें भी सुनाई देने लगीं, जिनसे बेचारी किशोरी और कामिनी का कोमल कलेजा दहलने लगा, और थरथर कांपने लगीं। राजा वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह वगैरह भी घबराकर सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए।

इन्द्रदेव--दुश्मनों के आने में कोई शक नहीं !

वीरेन्द्रसिंह--खैर, क्या हर्ज है, लड़ाई से हम लोग डरते नहीं, अगर कुछ खयाल है तो केवल इतना ही कि तहखाने में पड़े रह कर वेवसी की हालत में जान न दे देनी न पड़े क्योंकि दरवाजों के बन्द होने की खबर सुनाई देती है। अगर दुश्मन लोग आ गये तब कोई हर्ज नहीं क्योंकि जिस राह से वे लोग आवेंगे, वही राह हम लोगों के निकल जाने के लिए भी होगी, हाँ पता लगाने में जो कुछ विलम्ब हो। (रुककर) लो, भैरों और देवीसिंह भी आ गये ! (दोनों ऐयारों से) कहो, क्या खबर है ?

देवीसिंह--दरवाजे बन्द हैं।

भैरोंसिंह--किले के बाहर निकल जाने वाला दरवाजा भी बन्द है ? तेजसिंह--खैर, कोई चिन्ता नहीं, अब तो दुश्मन का आ जाना ही हमारे लिए बेहतर है।

इन्द्रदेव--कहीं ऐसा न हो कि हम लोग तो दुश्मनों से लड़ने के फेर में जाये और दुश्मन लोग तीनों कैदियों को छुड़ा ले जायँ। अस्तु, पहले कैदियों का बन्दोबस्त करना चाहिए और इससे भी ज्यादा जरूरी (किशोरी, कामिनी इत्यादि की तरफ इशारा करके) इन ड़कियों की हिफाजत है।

कमलिनी–-मुझे छोड़कर और सभी की फिक्र कीजिये क्योंकि तिलिस्मी खंजर अपने पाग रख कर भी छिपे रहना मैं पसन्द नहीं करती, मैं लड़ेंगी और अपने खंजर की करामात देखूंगी।

वीरेन्द्रसिंह--नही-नहीं, हम लोगों के रहते हमारी लड़कियों को हौसला करने की कोई जरूरत नहीं है।

इन्द्रदेव----कोई हर्ज नहीं, आप कमलिनी के लिए चिन्ता न करें। मैं खुशी से देखना चाहता हूँ कि वर्षों मेहनत करके मैंने जो कुछ विद्या इसे सिखाई है उससे यह कहाँ तक फायदा उठा सकती है, खैर देखिये, मैं सभी का बन्दोबस्त कर देता हूँ।

इतना कहकर इन्द्रदेव ने ऐयारों की तरफ देखा और कहा, "इन कैदियों की आँखों पर शीघ्र पट्टी बाँधिये।” सुनने के साथ ही बिना कुछ सबब पूछे भैरोंसिंह, तारासिंह और देवीसिंह जंगले के अन्दर चले गये और बात-की-वात में तीनों कैदियों की आँखों पर पट्टियाँ बांध दीं। इसके बाद इन्द्रदेव ने छत की तरफ देखा, जहाँ लोहे की बहुत-सी कड़ियाँ लटक रही थीं। उन कड़ियों में से एक कड़ी को इन्द्र देव ने उछल कर पकड़ लिया और लटकते हुए ही तीन-चार झटके दिये जिससे वह कड़ी नीचे की तरफ खिच आई और इन्द्रदेव का पैर जमीन के साथ लग गया। वह कड़ी लोहे की एक जंजीर के साथ बँधी हुई थी जो खिचने के साथ ही नीचे तक खिच आई और जंजीर खिंच जाने से एक कोठरी का दरवाजा ऊपर की तरफ चढ़ गया जैसे पुल का तख्ता जंजीर खींचने से ऊपर की तरफ चढ़ जाता है। यह कोठरी उसी दालान में दीवार के साथ इस ढंग से ननी हुई थी कि दरवाजा बन्द रहने की हालत में इस बात का कुछ भी पता नहीं लग सकता था कि यहाँ पर कोठरी है।

जब कोठरी का दरवाजा खुल गया तब इन्द्रदेव ने कमलिनी को छोड़ के बाकी औरतों को उस कोठरी के अन्दर कर देने के लिए तेजसिंह से कहा और तेजसिंह ने ऐसा ही किया। जब सब औरतें कोठरी के अन्दर चली गईं तब इन्द्रदेव ने हाथ से कड़ी छोड़ दी। तुरन्त ही उस कोठरी का दरवाजा बन्द हो गया और वह कड़ी छत के साथ इस तरह चिपक गई जैसे छत में कोई चीज लटकाने के लिए जड़ी हो।

इसके बाद इन्द्रदेव ने तीनों कैदियों को भी वहाँ से निकाल ले जाकर किसी दूसरी जगह बन्द कर देने का इरादा किया, मगर ऐसा करने का समय न मिला क्योंकि उसी समय पुनः 'सावधान-सावधान !' की आवाज आई और कैदखाने वाली कोठरी के बाहर बहुत से आदमियों के आ पहुँचने की आहट मिली। अतएव हमारे बहादुर लोग कमलिनी के सहित बाहर निकल आये। राजा वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह ने म्यान से तलवारें निकाल लीं, कमलिनी ने तिलिस्मी खंजर सम्हाला, ऐयारों ने कमन्द और खंजर को दुरुस्त किमत, और इन्द्रदेव ने अपने बटुए में से छोटे-छोटे चार गेंद निकाले और लड़ने के लिए हर तरह से मुस्तैद होकर सभी के साथ कोठरी के बाहर निकल आया।

राजा वीरेन्द्रसिंह, उनके ऐयारों और इन्द्रदेव को विश्वास हो गया था कि उस गुप्त मनुष्य ने जो कुछ कहा वह सब ठीक है और शिवदत्त, माधवी और मनोरमा के साथ ही-साथ दिग्विजयसिंह का लड़का कल्याणसिंह और ऐयार लोग इस बात की फिक्र में थे कि जिस तरह हो सके चारों ही को नहीं तो कल्याणसिंह और शिवदत्त को तो जरूर ही पकड़ लेना चाहिए परन्तु वे लोग ऐसा न कर सके, क्योंकि कोठरी के बाहर निकलते ही जिन लोगों ने उन पर वार किया था वे सब के सब अपने चेहरों पर नकाब डाले हुए थे और इसलिए उनमें से अपने मतलब के आदमियों को पहचानना बड़ा कठिन था। इन्द्रदेव ने जल्दी के साथ कमलिनी से कहा, "तू हम लोगों के पीछे इसी दरवाजे के बीच में खड़ी रह, जब कोई तुझ पर हमला करे या इस कैदखाने के अन्दर जाने लगे तो तिलिस्मी खंजर से उसको रोकना" और कमलिनी ने ऐसा ही किया।

जब हमारे बहादुर लोग कैदखाने वाली कोठरी से बाहर निकले तो देखा कि उन पर हमला करने वाले सैकड़ों नकाबपोश हाथों में नंगी तलवारें लिए आ पहुँचे और 'मार-मार' कहकर तलवारें चलाने लगे तथा हमारे बहादुर लोग भी जो यद्यपि गिनती में उनसे बहुत कम थे दुश्मनों के वारों का जवाब देने और अपने वार करने लगे। हमारे दोनों ऐयारों ने मशालें जमीन पर फेंक दी क्योंकि दुश्मनों के साथ बहुत-सी मशालें थीं जिनकी रोशनी से दुश्मनों के साथ-ही-साथ हमारे बहादुरों का काम भी अच्छी तरह चल सकता था।

इसमें कोई शक नहीं कि दुश्मनों ने जी तोड़कर लड़ाई की और राजा वीरेन्द्र- सिंह वगैरह को गिरफ्तार करने का बहुत उद्योग किया, मगर कुछ भी न कर सके और हमारे बहादुर वीरेन्द्रसिंह तथा आफत के परकाले उनके ऐयारों ने ऐसी बहादुरी दिखाई कि दुश्मनों के छक्के छूट गये। राजा वीरेन्द्रसिंह की रुकने वाली तलवार ने तीस- आदमियों को उस लोक का रास्ता दिखाया, ऐयारों ने कमन्दों की उलझन में डालकर पचासों को जमीन पर सुलाया जो अपने ही साथियों के पैरों-तले रौंदे जाकर बेकाम हो गये। इन्द्रदेव ने जो चारों गेंद निकाले थे उन्होंने तो अजीब ही तमाशा दिखाया। इन्द्रदेव ने उन गेंदों को बारी-बारी से दुश्मनों के बीच में फेंका जो ठेस लगने के साथ ही आवाज देकर फट गए और उनमें से निकले हुए आग के शोलों ने बहुतों को जलाया और बेकाम किया। जब दुश्मनों ने देखा कि हम राजा वीरेन्द्रसिंह और उनके साथियों का कुछ भी न कर सके और उन्होंने हमारे बहुत से साथियों को मारा और बेकाम कर दिया, तो वे लोग भागने की फिक्र में लगे। मगर वहाँ से भाग जाना भी असम्भव था क्योंकि वहाँ से निकल भागने का रास्ता उन्हें मालूम न था। कल्याणसिंह जिस राह से उन सब को इस तहखाने में लाया था उसे यदि वन्द भी न कर देता तो उस घूम-घुमौवे और पेचीले रास्ते का पता लगाकर निकल जाना कठिन था।

आधी घड़ी से ज्यादा देर तक मौत का बाजार गर्म रहा। दुश्मन लोग मारे जाते थे और ऐयारों को सरदारों के गिरफ्तार करने की फिक्र थी, इसी बीच में तहखाने के ऊपरी हिस्से से किसी औरत के चिल्लाने की आवाज आने लगी और सभी का ध्यान उसी तरफ चला गया। तेजसिंह ने भी उसे कान लगाकर सुना और कहा, "ठीक किशोरी की आवाज मालूम पड़ती है !"

"हाय रे, मुझे बचाओ, अव मेरी जान न बचेगी, दुहाई राजा वीरेन्द्रसिंह की !"

इस आवाज ने केवल तेजसिंह ही को नहीं, बल्कि राजा वीरेन्द्रसिंह को भी परे- शान कर दिया। वह ध्यान देकर उस आवाज को सुनने लगे। इसी बीच में एक दूसरे आदमी की आवाज भी उसी तरफ से आने लगी। राजा वीरेन्द्रसिंह और उनके साथियों ने पहचान लिया कि यह उसी की आवाज है जो कैदखाने की कोठरी में कुछ देर पहले गुप्त रीति से बातें कर रहा था और जिसने दुश्मनों के आने की खबर दी थी। वह आवाज यह थी-

"होशियार होशियार, देखो यह चाण्डाल बेचारी किशारी को पकड़े लिए जाता है। हाय, बेचारी किशोरी को बचाने की फिक्र करो ! रह तो जा नालायक, पहले मेरा मुकाबला कर ले !!"

इस आवाज ने राजा वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह इन्द्रदेव और उनके साथियों को बहुत ही परेशान कर दिया और वे लोग घबराकर चारों तरफ देखने तथा सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए।