चंद्रकांता संतति भाग 2
देवकीनन्दन खत्री

दिल्ली: भारती भाषा प्रकाशन, पृष्ठ १९३ से – १९७ तक

 

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कमलिनी की आज्ञानुसार बेहोश नागर की गठरी पीठ पर लादे हुए भूतनाथ कमलिनी के उस तिलिस्मी मकान की तरफ रवाना हुआ जो एक तालाब के बीचोंबीच में था। इस समय उसकी चाल तेज थी और वह खुशी के मारे बहुत ही उमंग और लापरवाही के साथ बड़े-बड़े कदम भरता जा रहा था। उसे दो बातों की खुशी थी, एक तो उन कागजों को वह अपने हाथ से जला कर खाक कर चुका था जिनके सबब से वह मनोरमा और नागर के आधीन हो रहा था और जिनका भेद लोगों पर प्रकट होने के डर से अपने को मुर्दे से भी बदतर समझे हुए था। दूसरे, उस तिलिस्मी खञ्जर ने उसका दिमाग आसमान पर चढ़ा दिया था, और ये दोनों बातें कमलिनी की बदौलत उसे मिली थीं, एक तो भूतनाथ पहले ही भारी मक्कार ऐयार और होशियार था, अपनी चालाकी के सामने किसी को कुछ गिनता ही न था, दूसरे आज खंजर का मालिक बन के खुशी के मारे अन्धा हो गया। उसने समझ लिया कि अब न तो उसे किसी का डर है और न किसी की परवाह।

अब हम उसके दूसरे दिन का हाल लिखते हैं जिस दिन भूतनाथ नागर की गठरी पीठ पर लादे कमलिनी के मकान की तरफ रवाना हुआ था। भूतनाथ अपने को लोगों की निगाहों से बचाते हुए आबादी से दूर-दूर जंगल, मैदान, पगडंडी और पेचीले रास्ते पर सफर कर रहा था। दोपहर के समय वह एक छोटी-सी पहाड़ी के नीचे पहुँचा जिसके चारों तरफ मकोय और बेर इत्यादि कँटीले और झाड़ी वाले पेड़ों ने एक प्रकार का हलका-सा जंगल बना रक्खा था। उसी जगह एक छोटा-सा 'चूआ'[] भी था और पास ही में जामुन का एक छोटा-सा पेड़ था। थकावट और दोपहर की धूप से व्याकुल भूतनाथ ने दो-तीन घण्टे के लिए वहाँ आराम करना पसन्द किया। जामुन के पेड़ के नीचे गठरी उतार कर रख दी और आप भी उसी जगह जमीन पर चादर बिछा कर लेट गया। थोड़ी देर बाद जब सुस्ती जाती रही तो उठ बैठा, कुएँ के जल से हाथ-मुँह धोकर कुछ मेवा खाया जो उसके बटुए में था और इसके बाद लखलखा सुंघा नागर को होश में लाया। नागर होश में आकर उठ बैठी और चारों तरफ देखने लगी। जब सामने बैठे भूतनाथ पर नजर पड़ी तो समझ गई कि कमलिनी की आज्ञानुसार यह मुझे कहीं लिए जाता है।

नागर––यह तो मैं समझ ही गई कि कमलिनी ने मुझे गिरफ्तार कर लिया और उसी की आज्ञा से तू मुझे लिए जाता है, मगर यह देख कर मुझे ताज्जुब होता है कि कैदी होने पर भी मेरे हाथ-पैर क्यों खुले हैं और मेरी बेहोशी क्यों दूर की गई?

भूतनाथ––तेरी बेहोशी इसलिए दूर की गयी कि जिसमें तू भी इस दिलचस्प मैदान और यहाँ की साफ हवा का आनन्द उठा ले। तेरे हाथ-पैर बँधे रहने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि अब मैं तेरी तरफ से होशियार हूँ, तू मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती, दूसरे तेरे पास वह अँगूठी भी अब नहीं रहीं जिसके भरोसे तू फूली हुई थी, तीसरे (खंजर की तरफ इशारा करके) यह अनूठा खंजर भी मेरे पास मौजूद है, फिर किसका डर है? इसके अलावा उन कागजों को भी मैं जला चुका जो तेरे पास थे और जिनके सबब से मैं तुम लोगों के आधीन हो रहा था।

नागर––ठीक है, अब तुझे किसी का डर नहीं है, मगर फिर भी मैं इतना कहे बिना न रहूँगी कि तू हम लोगों के साथ दुश्मनी करके कोई फायदा नहीं उठा सकता और राजा वीरेन्द्रसिंह तेरा कसूर कभी माफ न करेंगे।

भूतनाथ––राजा वीरेन्द्रसिंह अवश्य मेरा कसूर माफ करेंगे और जब मैं उन कागजों को जला ही चुका तो मेरा कसूर साबित भी कैसे हो सकता है?

नागर––ऐसा होने पर भी तुझे सच्ची खुशी इस दुनिया में नहीं मिल सकती और राजा वीरेन्द्रसिंह के लिए जान दे देने पर भी तुझे उनसे कुछ विशेष लाभ नहीं हो सकता।

भूतनाथ––सो क्यों? वह कौन सच्ची खुशी है जो मुझे नहीं मिल सकती?

नागर––तेरे लिए सच्ची खुशी यही है कि तेरे पास इतनी धन-दौलत हो कि तू बेफिक्र होकर अमीरों की तरह जिन्दगी काट सके और तेरे पास तेरी वह प्यारी स्त्री भी हो जो काशी में रहती थी और जिसके पेट से नानक पैदा हुआ है।

भूतनाथ––(चौंक कर) तुझे यह कैसे मालूम हुआ कि वह मेरी ही स्त्री थी?

नागर––वाह-वाह, क्या मुझसे कोई बात छिपी रह सकती है? मालूम होता है नानक ने तुझसे वह सब हाल नहीं कहा जो तेरे निकल जाने के बाद उसे मालूम हआ था और जिसकी बदौलत नानक को उस जगह का पता लग गया जहाँ किसी के खून से लिखी हुई किताब रक्खी हुई थी?

भूतनाथ––नहीं, नानक ने मुझसे वह सब हाल नहीं कहा, बल्कि वह यह भी नहीं जानता कि मैं ही उसका बाप हूँ, हाँ, खून से लिखी किताब का हाल मुझे मालूम है।

नागर––शायद वह किताब अभी तक नानक ही के कब्जे में है। भूतनाथ––उसका हाल मैं तुझसे नहीं कह सकता।

नागर––खैर, मुझे उसके विषय में कुछ जानने की इच्छा भी नहीं है।

भूतनाथ––हाँ, तो मेरी स्त्री का हाल तुझे मालूम है?

नागर––बेशक मालूम है।

भूतनाथ––क्या अभी तक वह जीती है?

नागर––हाँ, जीती है मगर अब चार-पाँच दिन के बाद जीती न रहेगी।

भूतनाथ––सो क्यों? क्या बीमार है?

नागर––नहीं बीमार नहीं है, जिसके यहाँ वह कैद है उसी ने उसके मारने का विचार किया है।

भूतनाथ––उसे किसने कैद कर रक्खा है?

नागर––यह हाल तुझसे मैं क्यों कहूँ? जब तू मेरा दुश्मन है और मुझे कैदी बनाकर लिए जाता है तो मैं तेरे साथ नेकी क्यों करूँ?

भूतनाथ––इसके बदले में मैं तेरे साथ कुछ नेकी कर दूँगा।

नागर––बेशक इसमें कोई सन्देह नहीं कि तू हर तरह से मेरे साथ नेकी कर सकता है और मैं भी तेरे साथ बहुत-कुछ भलाई कर सकती हूँ, सच तो यह है कि तुझ पर मेरा दावा है।

भूतनाथ––दावा कैसा

नागर––(हँस कर) उस चाँदनी रात में मेरी चुटिया के साथ फूल गूँथने का दावा! उस मसहरी के नीचे रूठ जाने का दावा! नाखून के साथ खून निकालने का दावा! और उस कसम की सचाई का दावा जो रोहतासगढ़ जाती समय नरमी लिए हुए कठोर पिण्डी पर––! क्या और कहूँ?

भूतनाथ––बस बस बस, मैं समझ गया! विशेष कहने की कोई आवश्यकता नहीं है। वह सब कार्रवाई तुम्हीं लोगों की तरफ से हुई थी। जरूर नानक की माँ के गायब होने के बाद तू ही उसकी शक्ल बनाके बहुत दिनों तक मेरे घर रही और तेरे ही साथ बहुत दिनों तक मैंने ऐश किया।

नागर––और अन्त में वह 'रिक्तगन्थ' तुमने मेरे ही हाथ में दिया था।

भूतनाथ––ठीक है ठीक है, तो तेरा दावा मुझ पर अब उतना ही हो सकता है जितना किसी बेईमान और बेमुरौवत रण्डी का अपने यार पर।

नागर––खैर उतना ही सही, मैं रण्डी तो हूँ ही, मुझे चालाक और अपने काम का समझ कर मनोरमा ने अपनी सखी बना लिया और इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि उसकी बदौलत मैंने बहुत कुछ सुख भोगा।

भूतनाथ––खैर तो मालूम हुआ कि यदि तू चाहे तो मेरी स्त्री को मुझसे मिला सकती है?

नागर––बेशक ऐसा ही है मगर इसके बदले में तू मुझे क्या देगा?

भूतनाथ––(खंजर की तरफ इशारा करके) यह तिलिस्मी खंजर छोड़ कर जो माँगे सो तुझे दूँ। नागर––मैं तेरा खंजर नहीं लेना चाहती, मैं केवल इतना ही चाहती हूँ कि तू वीरेन्द्रसिंह की तरफदारी छोड़ दे और हम लोगों का साथी बन जा। फिर तुझे हर तरह की खुशी मिल सकती है। तू करोड़ों रुपये का धनी हो जायगा और दुनिया में बड़ी खुशी से अपनी जिन्दगी बितावेगा।

भूतनाथ––यह मुश्किल बात है, ऐसा करने से मेरी सख्त बदनामी ही नहीं होगी बल्कि मैं बड़ी दुर्दशा के साथ मारा जाऊँगा।

नागर––तुम्हारा कुछ न बिगड़ेगा, मैं खूब जानती हूँ कि इस समय जिस सूरत में तुम हो वह तुम्हारी असली सूरत नहीं है और कमलिनी से तुम्हारी नई जान-पहचान है, जरूर कमलिनी तुम्हारी असली सूरत से वाकिफ न होगी इसलिए तुम सूरत बदलकर दुनिया में घूम सकते हो और कमलिनी तुम्हारा कुछ भी नहीं कर सकती।

भूतनाथ––(हँस कर) कमलिनी को मेरा सब भेद मालूम है और कमलिनी के साथ दगा करना अपनी जान के साथ दुश्मनी करना है क्योंकि वह साधारण औरत नहीं है। वह जितनी ही खूबसूरत है उतनी ही बड़ी चालाक धूर्त, विद्वान और ऐयार भी है और साथ इसके नेक और दयावान भी। ऐसे के साथ दगा करना बुरा है। ऐसा करने से दूसरों की क्या कहूँ, खास मेरा लड़का नानक ही मुझ से घृणा करेगा।

नागर––नानक जिस समय अपनी माँ का हाल सुनेगा, बहुत ही प्रसन्न होगा बल्कि मेरा अहसान मानेगा, रहा तुम्हारा कमलिनी से डरना तो वह बहुत बड़ी भूल है, महीने दो महीने के अन्दर ही तुम सुन लोगे कि कमलिनी इस दुनिया से उठ गई, और यदि तुम हम लोगों की मदद करोगे तो आठही दस दिन में कमलिनी का नाम-निशान मिट जायगा। फिर तुम्हें किसी तरह का डर नहीं रहेगा और तुम्हारे इस खंजर का मुकाबला करने वाला भी इस दुनिया में कोई न रहेगा। तुम विश्वास करो कि कमलिनी बहुत जल्द मारी जायगी और तब उसका साथ देने से तुम सूखे ही रह जाओगे। मैं तुम्हें फिर समझा कर कहती हूँ कि हम लोगों की मदद करो। तुम्हारी मदद से हम लोग थोड़े ही दिनों में कमलिनी, राजा वीरेन्द्र सिंह और उनके दोनों कुमारों को मौत की चारपाई पर सुला देंगे। तुम्हारी खूरसूरत प्यारी जोरू तुम्हारे बगल में होगी, करोड़ों रुपये की सम्पत्ति के तुम मालिक होगे और मैं भी तुम्हारी रण्डी बनकर तुम्हारी बगल गर्म करूँगी क्योंकि मैं तम्हें दिल से चाहती हूँ, और ताज्जुब नहीं कि तुम्हें विजयगढ़ का राज्य दिला हूँ। मैं समझती हूँ कि तुम्हें मायारानी की ताकत का हाल मालूम होगा।

भूतनाथ––हाँ हाँ मैं मशहूर मायारानी को अच्छी तरह जानता हँ, परन्तु उसके गुप्त भेदों का हाल कुछ-कुछ सिर्फ कमलिनी की जुबावी सुना है अच्छी तरह नहीं मालूम।

नागर––उसका हाल मैं तुमसे कहूँगी, वह लाखों आदमियों को इस तरह मार डालने की कुदरत रखती है कि किसी को कानों-काम मालूम न हो। उसके एक जरा से इशारे पर तम दीन-दुनिया से बेकार कर दिए गए, तुम्हारी जोरू छीन ली गई, और तुम किसी को मुँह दिखाने लायक न रहे। कहो, जो मैं कहती हूँ वह ठीक है या नहीं?

भूतनाथ––हाँ ठीक है मगर इस बात को मैं नहीं मान सकता कि वह गुप्त रीति से लाखों आदमियों को मार डालने की कुदरत रखती है। अगर ऐसा ही होता तो

च॰ स॰-2-12

वीरेन्द्रसिंह आदि को तथा मुझे मारने में कठिनता ही काहे की थी?

नागर––यह कौन कहता है कि वीरेन्द्रसिंह आदि के मारने में उसे कठिनता है! इस समय वीरेन्द्रसिंह, उनके दोनों कुमार, किशोरी, कामिनी और तेजसिंह आदि कई ऐयारों को उसने कैद कर रक्खा है, जब चाहे तब मार डाले, और तुम्हें तो वह ऐसा समझती है जैसे तुम एक खटमल हो, हाँ कभी-कभी उसके ऐयार धोखा खा जाये तो यह बात दूसरी है। यही सबब था कि रिक्तग्रंथ हम लोगों के हाथ में आकर इत्तिफाक से निकल गया, परन्तु क्या हर्ज है, आज ही कल में वह किताब फिर महारानी मायारानी के हाथ में दिखाई देगी। यदि तुम हमारी बात न मानोगे तो कमलिनी तथा वीरेन्द्रसिंह इत्यादि के पहले ही मारे जाओगे। हम तुमसे कुछ काम निकालना चाहते हैं इसलिए तुम्हें छोड़े जा रहे हैं। फिर जरा सी मदद के बदले में क्या तुम्हें दिया जाता है, इस पर भी ध्यान दो और यह मत सोचो कि कमलिनी ने मुझे और मनोरमा को कैद कर लिया तो कोई बड़ा काम किया, इससे मायारानी का कुछ भी न बिगड़ेगा और हम लोग भी ज्यादा दिन तक कैद में न रहेंगे। जो कुछ मैं कह चुकी हूँ उस पर अच्छी तरह विचार करो और कमलिनी का साथ छोड़ो, नहीं तो पछताओगे और तुम्हारी जोरूभी बिलख-बिलख के मर जायगी। दुनिया में ऐश-आराम से बढ़कर कोई चीज नहीं है सो सब कुछ तुम्हें दिया जाता है, और यदि यह कहो कि तेरी बातों का मुझे विश्वास क्योंकर हो तो इसका जवाब अभी से यह देती हूँ कि मैं तुम्हारी दिलजमई ऐसी अच्छी तरह से कर दूँगी कि तुम स्वयं कहोगे कि हाँ, मुझे विश्वास हो गया। (मुस्कुरा कर और नखरे के साथ भूतनाथ की उँगली दबाकर) मैं तुम्हें चाहती हूँ इसीलिए इतना कहती हूँ, नहीं तो मायारानी को तुम्हारी कुछ भी परवाह न थी, तुम्हारे साथ रहकर मैं भी दुनिया का कुछ आनन्द ले लूँगी।

नागर की बातें सुनकर भूतनाथ चिन्ता में पड़ गया और देर तक कुछ सोचता रह गया। इसके बाद वह नागर की तरफ देखकर बोला, "खैर, तुम जो कुछ कहती हो मैं करूँगा और अपनी प्यारी स्त्री के साथ तुम्हारी मुहब्बत की भी कदर करूँगा!"

इतना सुनते ही नागर ने झट भूतनाथ के गले में हाथ डाल दिया और तब दोनों प्रेमी हँसते हुए उस छोटी-सी पहाड़ी के ऊपर चढ़ गये

  1. 'चूआ'––छोटा सा (हाथ दो हाथ का) खड़ा जिसमें से पहाड़ी पानी धीरे-धीरे दिन-रात बारह महीने निकला करता है।