चंद्रकांता संतति भाग 2
देवकीनन्दन खत्री

दिल्ली: भारती भाषा प्रकाशन, पृष्ठ १८९ से – १९३ तक

 

3

मायारानी उस बेचारे मुसीबत के मारे कैदी को रंज, डर और तरद्दुद की निगाहों से देख रही थी जब कि यह आवाज उसने सुनी, "बेशक मायारानी की मौत आ गई!" इस आवाज ने मायारानी को हद से ज्यादा बेचैन कर दिया। वह घबरा कर चारों तरफ देखने लगी मगर कुछ मालूम न हुआ कि यह आवाज कहाँ से आई। आखिर लाचार होकर धनपत को साथ लिये हुए वहाँ से लौटी और जिस तरह वहाँ गई थी उसी तरह बाग के तीसरे दर्जे से होती हुई कैदखाने के दरवाजे पर पहुँची जहाँ अपने दोनों ऐयार बिहारीसिंह और हरनामसिंह को छोड़ गई थी। मायारानी को देखते ही बिहारीसिंह बोला––

बिहारीसिंह––आप हम लोगों को यहाँ व्यर्थ ही छोड़ गईं।

मायारानी––हाँ, अब मैं भी यही सोचती हूँ क्योंकि अगर तुम दोनों को अपने साथ ले जाती तो इसी समय टण्टा तै हो जाता। यद्यपि धनपत मेरे साथ थी और तम लोग भी जानते हो कि यह बहुत ताकतवर है तथापि मेरा हौसला न पड़ा कि उसे बाहर निकालती।

बिहारीसिंह––(चौंक कर) तो क्या आप अपने कैदी को देखने के लिए चौथे दर्जे में गई थीं! मगर मैंने जो कुछ कहा वह कुछ दूसरे मतलब से कहा था।

मायारानी––हाँ, मैं उसी दुश्मन के पास गई थी जिसके बारे में चण्डूल ने मुझे होशियार किया था, मगर तुमने यह किस मतलब से कहा कि आप हम लोगों को यहाँ व्यर्थ ही छोड़ गई थी?

बिहारीसिंह––मैंने इस मतलब से कहा कि हम लोग यहाँ बैठे-बैठे जान रहे थे कि इस कैदखाने के अन्दर ऊधम मच रहा है मगर कुछ कर नहीं सकते थे।

मायारानी––ऊधम कैसा?

बिहारीसिंह––इस कैदखाने के अन्दर से दीवार तोड़ने की आवाज आ रही थी, मालूम होता है कि कैदियों की हथकड़ी-बेड़ी किसी ने खोल दीं।

मायारानी––मगर तुम्हारी बातों से यह जाना जाता है कि अभी कैदी लोग इसके अन्दर ही हैं। मैं सोच रहा था कि जब ताली लेकर लाड़िली चली गई तो कहीं कैदियों को भी छुड़ा न ले गई हो।

बिहारीसिंह––नहीं-नहीं, कैदी बेशक इसके अन्दर थे और आपके जाने के बाद कैदियों की बातचीत की कुछ-कुछ आवाज भी आ रही थी, कुछ देर बाद दीवार तोड़ने की आहट मालूम होने लगी, मगर अब मैं नहीं कह सकता कि कैदी इसके अन्दर हैं या निकल गये, क्योंकि थोड़ी देर से भीतर सन्नाटा-सा जान पड़ता है, न तो किसी की बातचीत की आहट मिलती है, न दीवार तोड़ने की।

मायारानी––(कुछ सोच कर) दीवार तोड़कर इस बाग के बाहर निकल जाना जरा मुश्किल है, मगर मुझे ताज्जुब मालूम होता है कि उन कैदियों की हथकड़ी-बेड़ी किसने खोली और दीवार तोड़ने का सामान उन्हें क्योंकर मिला! शायद तुम्हें धोखा हुआ हो।

बिहारीसिंह––नहीं-नहीं, मुझे धोखा नहीं हुआ, मैं पागल नहीं हूँ!

हरनामसिंह––क्या हम लोग इतना भी नहीं पहचान सकते कि यह दीवार तोड़ने की आवाज है?

मायारानी––(ऊँची साँस लेकर) हाय, न मालूम मेरी क्या दुर्दशा होगी! खैर, कैदियों के बारे में मैं पीछे सोचूँगी, पहले तुम लोगों से एक दूसरे काम में मदद लिया चाहती हूँ!

बिहारीसिंह––वह कौन-सा काम है?

मायारानी––मैंने जिस काम के लिए उसे कैद किया था वह न हुआ और न आशा है कि वह कोई भेद बताएगा, अतः अब उसे मार कर टण्टा मिटाया चाहती हूँ।

बिहारीसिंह––हाँ आपने उसे जिस तरह की तकलीफ दे रखी है उससे तो उसका मर जाना ही उत्तम है। हाय, वह बेचारा इस योग्य न था। हाय, आपकी बदौलत मेरे भी लोक परलोक दोनों बिगड़ गये! ऐसे नेक और होनहार मालिक के साथ आपके बहकाने से जो कुछ मैंने किया उसका दुःख जन्म भर न भूलूँगा।

मायारानी––और उन नेकियों को याद न करोगे जो मैंने तुम्हारे साथ की थीं।

बिहारीसिंह––खैर, अब इस विषय पर हुज्जत करना व्यर्थ है। जब लालच में आकर बुरा काम कर ही चुके तो अब रोना काहे का है।

हरनामसिंह––मुझे भी इस बात का बहुत ही दुःख है, देखा चाहिए क्या होता है। आजकल जो कुछ देखने-सुनने में आ रहा है उसका नतीजा अवश्य ही बुरा होगा।

मायारानी––(लम्बी साँस लेकर) खैर जो होगा देखा जायेगा मगर इस समय यदि सुस्ती करोगे तो मेरी जान तो जायेगी ही तुम लोग भी जीते न बचोगे।

बिहारीसिंह––यह तो हम लोगों को पहले ही मालूम हो चुका है कि अब उन बुरे कर्मों का फल शीघ्र ही भोगना पड़ेगा मगर खैर आप यह कहिए कि हम लोग क्या करें? जान बचाने की क्या कोई सुरत दिखाई पड़ती है?

मायारानी––मेरे साथ बाग के चौथे दर्जे में चलकर पहले उस कैदी को मारकर छुट्टी करो तो दूसरा काम बताऊँ।

हरनामसिंह––नहीं नहीं नहीं, यह काम मुझसे न हो सकेगा। बिहारीसिंह से हो सके तो इन्हें ले जाइए। मैं उनके ऊपर हर्बा नहीं उठा सकता। नारायण-नारायण, इस अनर्थ का भी कोई ठिकाना है।

मायारानी––(चिढ़कर) हरनाम, क्या तू पागल हो गया है जो मेरे सामने ऐसी बेतुकी बातें करता है? अदब और लिहाज को भी तूने एकदम चूल्हे में डाल दिया! क्या। तू मेरी सामर्थ्य को भूल गया?

हरनामसिंह––नहीं, मैं आपकी सामर्थ्य को को नहीं भूला बल्कि आपकी सामर्थ्य ने स्वयं आपका साथ छोड़ दिया।

बिहारीसिंह और हरनामसिंह की बातें सुन कर मायारानी को क्रोध तो बहुत आया परन्तु इस समय क्रोध करने का मौका न देखकर वह तरह दे गयी। मायारानी बड़ी ही चालबाज और दुष्ट औरत थी, समय पड़ने पर वह एक अदने को बाप बना लेती और काम न होने पर किसीको एक तिनके बराबर भी न मानती। इस समय अपने ऊपर संकट आया हुआ जान उसने दोनों ऐयारों को किसी तरह राजी रखना ही उचित समझा।

मायारानी––क्यों हरनामसिंह, तुमने कैसे जाना कि मेरी सामर्थ्य ने मेरा साथ छोड़ दिया?

हरनामसिंह––वह तो इसी से जाना जाता है कि बेबस कैदी की जान लेने के लिए हम लोगों को ले जाना चाहती हो। उस बेचारे को तो एक अदना लड़का भी मार सकता है।

बिहारीसिंह––हरनामसिंह का कहना ठीक है बाहर खड़े होकर आपके हाथ से चलाई हुई एक तीर उसका काम तमाम कर सकती है।

मायारानी––नहीं; यदि ऐसा होता तो मैं उसे बिना मारे लौट न आती। मेरे कई तीर व्यर्थ गये और नतीजा कुछ भी न निकला!

बिसारीसिंह––(चौंक कर) सो क्यों?

मायारानी––उसके हाथ में एक ढाल है। न मालूम वह ढाल उसे किसने दी जिस पर वह तीर रोक कर हँसता है और कहता है कि अब मुझे कोई मार नहीं सकता।

बिहारीसिंह––(कुछ सोच कर) अब अनर्थ होने में कोई सन्देह नहीं, यह काम वेशक चण्डूल का है। कुछ समझ में नहीं आता कि वह कौन कम्बख्त है?

मायारानी––अब सोच-विचार में बिलम्ब करना उचित नहीं, जो होना था सो हो चुका, अब जान बचाने की फिक्र करनी चाहिए।

बाहारीसिंह––आपने क्या विचारा?

मायारानी––तुम लोग यदि मेरी मदद न करोगे तो मेरी जान न बचेगी और जब मुझ पर आफत आवेगी तो तुम लोग भी जीते न बचोगे।

बिहारीसिंह––हाँ, यह तो ठीक है, जान बचाने के लिए कोई-न-कोई उद्योग तो करना ही होगा।

मायारानी––अच्छा तो तुम लोग मेरे साथ चलो और जिस तरह हो उस कैदी को यमलोक पहुँचाओ। मुझे विश्वास हो गया कि उस कैदी की जान के साथ हम लोगों की आधी बला टल जायेगी और इसके बदले में मैं तुम दोनों को एक लाख दूँगी।

हरनामसिंह––काम तो बड़ा कठिन है!

यद्यपि बिहारीसिंह और हरनामसिंह अपने हाथ से उस कैदी को मारना नहीं चाहते थे, तथापि मायारानी की मीठी-मीठी बातों से और रुपये की लालच तथा जान के डर से वे लोग यह अनर्थ करने के लिए तैयार हो गये। धनपत और दोनों ऐयारों को साथ लिए हुए मायारानी फिर बाग के चौथे दर्जे की ओर रवाना हुई। सूर्य भगवान के दर्शन तो नहीं हुए थे मगर सवेरा हो चुका था और मायारानी के नौकर नींद से उठकर अपने-अपने कामों में लग चुके थे। लेकिन मायारानी का ध्यान उस तरफ कुछ भी न था, उस बेचारे कैदी की जान लेना ही सबसे जरूरी काम समझ रखा था।

थोड़ी ही देर में चारों आदमी बाग के चौथे दर्जे में जा पहुँचे और कुएँ के अन्दर उतर कर उस कैदखाने में गये जिसमें मायारानी का वह अनूठा कैदी बन्द था। मायारानी को उम्मीद थी कि उस कैदी को फिर उसी तरह हाथ में ढाल लिए हुए देखेगी, मगर ऐसा न हुआ। उस जंगले वाली कोठरी का दरवाजा खुला हुआ था और उस कैदी का कहीं पता न था।

वहाँ की ऐसी अवस्था देखकर मायारानी अपने रंज और गम को सम्हाल न सकी और एकदम 'हाय' करके जमीन पर गिर कर बेहोश हो गई। धनपत और दोनों ऐयारों के भी होश जाते रहे, उनके चेहरे पीले पड़ गए और निश्चय हो गया कि अब जान जाने में कोई कसर नहीं है। केवल इतना ही नहीं बल्कि डर के मारे वहाँ ठहरना भी वे लोग उचित न समझते थे मगर बेहोश मायारानी को वहाँ से उठाकर बाग के दूसरे दर्जे में ले जाना भी कठिन काम था। इसलिए लाचार होकर उन लोगों को वहाँ ठहरना पड़ा।

बिहारीसिंह ने अपने बटुए में से लखलखा निकाल कर मायारानी को सुंघाया और कोई अर्क उसके मुँह में टपकाया। थोड़ी देर में मायारानी होश में आई और पड़े-पड़े, नीचे लिखी बातें प्रलाप की तरह बकने लगी––

"हाय, आज मेरी जिन्दगी का दिन पूरा हो गया और मेरी मौत आ पहुँची। हाय, मुझे तो अपनी जान का धोखा उसी दिन हो चुका था, जिस दिन कम्बख्त नानक ने दरबार में मेरे सामने कहा था कि 'उस कोठरी की ताली मेरे पास है जिसमें किसी के खून से लिखी हुई किताब रखी है[]।' इस समय उसी किताब ने धोखा दिया। हाय, उस किताब के लिए नानक को छोड़ देना ही बुरा हुआ। यह काम उसी हरामजादे का है, लाड़िली और धनपत के किए कुछ भी न हुआ। (धनपत की तरफ देख कर) सच तो यह है कि मेरी मौत तेरे ही सबब से हुई। तेरी ही मुहब्बत ने मुझे गारत किया, तेरे ही सबब से मैंने पाप की गठरी सिर पर लादी, तेरे ही सबब से मैंने अपना धर्म खोया, तेरे ही सबब से मैं बूरे कामों पर उतारू हुई, तेरे ही सबब से मैंने अपने पति के साथ बुराई की, तेरे ही सबब से मैंने अपना सर्वस्व बिगाड़ दिया। तेरे ही सबब से मैं वीरेन्द्रसिंह के लड़कों के साथ बुराई करने के लिए तैयार हुई, तेरे ही सबब से कमलिनी मेरा साथ छोड़ कर चली गई, और तेरे ही सबब से आज मैं इस दशा को पहुँची। हाय, इसमें कोई सन्देह नहीं कि बरे कर्मों का बुरा फल अवश्य मिलता है। हाय, मुझ-सी औरत जिसे ईश्वर ने हर प्रकार का सूख दे रखा था आज बुरे कर्मों की बदौलत ही इस अवस्था को पहुँची। आह मैंने क्या सोचा था और क्या हुआ? क्या बुरे कर्म करके भी कोई सुख भोग सकता है! नहीं नहीं, कभी नहीं, दृष्टान्त के लिए स्वयं मैं मौजूद हूँ!

मायारानी न मालूम और भी क्या-क्या बकती मगर एक आवाज ने उनके प्रलाप में विघ्न डाल दिया और उसके होश-हवास दुरुस्त कर दिए। किसी तरफ से यह आवाज आई––"अब अफसोस करने से क्या होता है, बुरे कर्मों का फल भोगना ही पड़ेगा।"

बहुत-कुछ विचारने और चारों तरफ निगाह दौड़ाने पर भी किसी की समझ में न आया कि बोलने वाला कौन या कहाँ है। डर के मारे सभी के बदन में कँपकँपी पैदा हो गई। मायारानी उठ बैठी और धनपत तथा दोनों ऐयारों को साथ लिए और काँपते हुए कलेजे पर हाथ रखे वहाँ से अपने स्थान अर्थात् बाग के दूसरे दर्जे की तरफ भागी।

  1. देखिए चौथा भाग, सातवां बयान।