चंद्रकांता संतति भाग 2
देवकीनन्दन खत्री

दिल्ली: भारती भाषा प्रकाशन, पृष्ठ ७२ से – ८२ तक

 

जा बैठा, और भीमसेन से बातचीत करने लगा। उन सवारों ने भी कमर खोली जो भीमसेन के साथ आये थे।

भीमसेन––(गद्गद स्वर से) इन चरणों के दर्शन की कदापि आशा न थी।

शिवदत्त––ठीक है, केवल मेरी ही भूल ने यह सब किया, परन्तु आज मुझ पर ईश्वर की दया हुई है, जिसका सबूत इससे बढ़कर और क्या हो सकता है कि वीरेन्द्रसिंह को मैंने फाँस लिया और मेरा प्यारा लड़का भी मुझसे आ मिला। हाँ, यह कहो, तुम्हें छुट्टी क्योंकर मिली?

भीमसेन––(अपने साथियों में से एक की तरफ इशारा करके) केवल इनकी बदौलत मेरी जान बची। भीमसेन ने उस आदमी को जिसको तरह इशारा किया था अपने पास बुलाया और बैठने का इशारा किया, वह अदब के साथ सलाम करने के बाद बैठ गया। उसकी उम्र लगभग चालीस वर्ष के होगी, शरीर दुबला और कमजोर था। रंग यद्यपि गोरा और आँखें बड़ी थीं परन्तु चेहरे से उदासी और लाचारी पाई जाती थी और यह भी मालूम होता था कि कमजोर होने पर भी क्रोध ने उसे अपना सेवक बना रक्खा है।

भीमसेन––इसी ने मेरी जान बचाई है। यद्यपि यह बहुत दुबला और कमजोर मालूम होता है परन्तु परले सिरे का दिलावर और बात का धनी है और मैं दृढ़तापूर्वक कह सकता हूँ कि इसके ऐसा चतुर और बुद्धिमान होना आजकल के जमाने में कठिन है। यह ऐयार नहीं है मगर ऐयारों को कोई चीज नहीं समझता! यह रोहतासगढ़ का रहने वाला है, वीरेन्द्रसिंह के कारिन्दों के हाथ से दुःखी होकर भागा और इसने कसम खा ली है कि जब तक वीरेन्द्रसिंह और उनके खानदान का नाम-निशान न मिटा लूँगा अन्न न खाऊँगा, केवल कन्दमूल खाकर जान बचाऊँगा। इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह जो कुछ चाहे कर सकता है। रोहतासगढ़ के तहखाने और (हाथ का इशारा करके) इस खँडहर का भेद भी यह बखूबी जानता है जिसमें वीरेन्द्रसिंह वगैरह लाचार और आपके सिपाहियों से घिरे पड़े हैं। इसने मुझे जिस चालाकी से निकाला उसका हाल इस समय कह कर समय नष्ट करना उचित नहीं जान पड़ता क्योंकि आज ही इस थोड़ी सी बची हुई रात में इसकी मदद से एक भारी काम निकलने की उम्मीद है। अब आप स्वयं इससे बातचीत कर लें।

भीमसेन की बात, जो उस आदमी की तारीफ से भरी हुई थी, खुशी के मारे कूल उठा और उससे स्वयं बातचीत करने लगा।

शिवदत्त––सब के पहले मैं आपका नाम सुनना चाहता हूँ।

रूहा––(धीरे से कान की तरफ झुककर) मुझे लोग बाँकेसिंह कहकर पुकारते थे, परन्तु अब कुछ दिनों के लिए मैंने अपना नाम बदल दिया है। आप मुझे 'रूहा' कहकर पुकारा कीजिए जिसमें किसी को मेरा असल नाम मालूम न हो।

शिवदत्त––जैसा आपने कहा वैसा ही होगा। इस समय तो हमने वीरेन्द्रसिंह को अच्छी तरह घेर लिया है, उनके साथ सिपाही भी बहुत कम हैं जिन्हें हम लोग सहज ही गिरफ्तार कर लेंगे। आपका प्रण भी अब पूरा हुआ ही चाहता है। रूहा––(मुस्कुरा कर) इस बन्दोबस्त से आप वीरेन्द्रसिंह का कुछ भी नहीं कर सकते।

शिवदत्त––सो क्यों?

रूहा––क्या आप इस बात को नहीं जानते कि इस खँडहर की दीवार बड़ी मजबूत है?

शिवदत्त––बेशक मजबूत है मगर इससे क्या हो सकता है?

रूहा––क्या इस खँडहर के भीतर घुसकर आप उनका मुकाबला कर सकेंगे?

शिवदत्त––क्यों नहीं!

रूहा––कभी नहीं। इसके अन्दर सौ आदमियों से ज्यादे के जाने की जगह नहीं है और इतने आदमियों को वीरेन्द्रसिंह के साथी सहज ही में काट गिरावेंगे।

शिव––हमारे आदमी दीवारों पर चढ़ कर हमला करेंगे और सबसे भारी बात यह है कि वे लोग दो ही तीन दिन में भूख-प्यास से तंग होकर लाचार बाहर निकलेंगे, उस समय उनको मार लेना कोई बड़ी बात नहीं है।

रूहा––सो भी नहीं हो सकता, क्योंकि यह खँडहर एक छोटा सा तिलिस्म है जिसका रोहतासगढ़ के तहखाने वाले तिलिस्म से सम्बन्ध है। इसके अन्दर घुसना और दीवारों पर चढ़ना खेल नहीं है। वीरेन्द्रसिंह और उनके लड़कों को इस खँडहर का बहुत कुछ भेद मालूम है और आप कुछ भी नहीं जानते इसी से समझ लीजिए कि आपमें और उनमें क्या फर्क है, इसके अतिरिक्त इस खँडहर में बहुत से तहखाने और सुरंगें भी हैं, जिनसे वे लोग बहुत फायदा उठा सकते हैं।

शिवदत्त––(कुछ सोच कर) आप बड़े बुद्धिमान हैं और इस खंडहर का हाल अच्छी तरह जानते हैं। अब मैं अपना बिल्कुल काम आप ही की राय पर छोड़ता हूँ, जो आप कहेंगे मैं वही करूँगा, अब आप ही कहिये क्या किया जाय?

रूहा––अच्छा मैं आपकी मदद करूँगा और राय दूँगा। पहले आप बतावें कि क्या वीरेन्द्रसिंह के यहाँ आने का सबब आप जानते हैं?

शिवदत्त––नहीं।

रूहा––इसका असल हाल मुझे मालूम हो चुका है। (भीमसेन की तरफ देखकर) उस आदमी का कहना बहुत ठीक है।

भीमसेन––बेशक ऐसा ही है, वह आपका शागिर्द होकर आपसे झूठ कभी नहीं बोलेगा।

शिवदत्त––क्या बात है?

रूहा––हम लोग यहाँ आ रहे थे तो रास्ते में मेरा एक चेला मिला था जिसकी जुबानी वीरेन्द्रसिंह के यहाँ आने का सबब हम लोगों को मालूम हो गया।

शिवदन––क्या मालूम हुआ?

रूहा––इस खँडहर के तहखाने में कुँअर इन्द्रजीतसिंह न मालूम क्यों कर जा फँसे हैं जो किसी तरह निकल नहीं सकते, उन्हीं को छुड़ाने के लिए ये लोग आये हैं। मैं खँडहर के हरएक तहखाने और उसके रास्ते को जानता हूँ, अगर चाहूँ तो कुँअर इन्द्रजीतसिंह को सहज ही निकाल लाऊँ।

शिवदत्त––ओ हो, यदि ऐसा हो तो क्या बात है। परन्तु आपको इस खँडहर में कोई जाने क्यों देगा और बिना खँडहर में गये आप तहखाने के अन्दर पहुँच नहीं सकते।

रूहा––नहीं-नहीं, खँडहर में जाने की कोई जरूरत नहीं हैं, मैं बाहर ही बाहर अपना काम कर सकता हूँ।

शिवदत्त––तो फिर ऐसे काम में क्यों न जल्दी की जाय?

रूहा––मेरी राय है कि आप या आपके लड़के भीमसेन पाँच सौ बहादुरों को साथ लेकर मेरे साथ चलें, यहाँ से लगभग दो कोस जाने के बाद एक छोटा सा टूटा-फूटा मकान मिलेगा, पहले उसे घेर लेना चाहिए।

शिवदत्त––उसके घेरने से क्या फायदा होगा?

रूहा––इस खँडहर में से एक सुरंग गई है जो उसी मकान में निकली है, ताज्जुब नहीं है कि वीरेन्द्रसिंह वगैरह उस राह सेभाग जायँ इसलिए उस पर कब्जा कर लेना चाहिए। सिवाय इसके एक बात और है!

शिवदत्त––वह क्या?

रूहा––उसी मकान में से एक दूसरी सुरंग उस तहखाने में गई है जिसमें कुँअर इन्द्रजीतसिंह हैं। यद्यपि उस सुरंग की राह से इस तहखाने तक पहुँचते-पहुँचते पाँच दरवाजे लोहे के मिलते हैं जिनका खोलना अति कठिन है परन्तु खोलने की तरकीब मुझे मालूम है। वहाँ पहुँचकर मैं और भी कई काम करूँगा।

शिवदत्त––(खुश होकर) तब तो सबके पहले हमें वहाँ ही पहुँचना चाहिए

रूहा––बेशक ऐसा ही होना चाहिए, पांच सौ सिपाही लेकर आप मेरे साथ चलिये या भीमसेन चलें, फिर देखिये मैं क्या करता हूँ।

शिवदत्त––अब भीमसेन को तकलीफ देना तो मैं पसन्द नहीं करता।

रूहा––यह बहुत थक गये हैं और कैद की मुसीबत उठा कर कमजोर भी हो गये हैं, यहाँ का इन्तजाम इन्हें सुपुर्द कीजिए और आप मेरे साथ चलिये।

इसके कुछ ही देर बाद शिवदत्त पाँच सौ फौज को लेकर रूहा के साथ उत्तर की तरफ रवाना हुआ। इस समय पहर भर रात बाकी थी, चाँद ने भी अपना चेहरा छिपा लिया था मगर नरमदिल तारे डबडबाई हुई आँखों से दुष्ट शिवदत्त और उसके साथियों की तरफ देख-देख अफसोस कर रहे थे।

ये पाँच सौ लड़ाके घोड़ों पर सवार थे, रूहा और शिवदत्त अरबी घोड़ों पर सवार सबके आगे-आगे जा रहे थे। रूहा केवल एक तलवार कमर से लगाये हुए था मगर शिवदत्त पूरे ठाठ से था कमर में कटार और तलवार तथा हाथ में नेजा लिये हुए बड़ी खुशी से घुल-घुल कर बातें करता जाता था। सड़क पथरीली और ऊँची-नीची थी इसलिए ये लोग पूरी तेजी के साथ नहीं जा सकते थे तिस पर भी घंटे भर चलने के बाद एक छोटे से टूटे-फूटे मकान दीवार पर रूहा की नजर पड़ी और उसने हाथ का इशारा करके शिवदत्त से कहा, "बस अब हम लोग ठिकाने पर आ पहुँचे, यही मकान है।"

शिवदत्त के साथी सवारों ने उस मकान को चारों तरफ से घेर लिया।

रूहा––इस मकान में कुछ खजाना भी है जिसका हाल मुझे अच्छी तरह मालूम है।

शिवदत्त––(खुश होकर) आजकल मुझे रुपये की जरूरत भी है।

रूहा––मैं चाहता हूँ कि पहले केवल आपको इस मकान में ले चलकर दो एक जगह निशान और वहाँ का कुछ भेद बता दूँ फिर आगे जैसा मुनासिब होगा वैसा किया जायगा। आप मेरे साथ अकेले चलने के लिए तैयार हैं, डरते तो नहीं?

शिवदत्त––(घमंड के साथ) क्या तुमने मुझे डरपोक समझ लिया है? और फिर ऐसी अवस्था में जब कि हमारे पाँच सौ सवारों से यह मकान घिरा हुआ है?

रूहा––(हँसकर) नहीं-नहीं, मैंने इसलिए टोका कि शायद इस पुराने मकान में आपको भूत-प्रेत का गुमान पैदा हो।

शिवदत्त––छि:, मैं ऐसे खयाल का आदमी नहीं हूँ, बस देर न कीजिये, चलिये।

रूहा ने पथरी से आग झाड़ कर मोमबत्ती जलाई जो उसके पास थी और शिवदत्त को साथ लेकर मकान के अन्दर घुसा। इस समय उस मकान की अवस्था बिल्कुल खराब थी, केवल तीन कोठरियाँ बची हुई थीं जिनकी तरफ इशारा करके रूहा ने शिवदत्त से कहा, यद्यपि यह मकान बिल्कुल टूट-फूट गया है मगर इन तीनों कोठरियों को अभी तक किसी तरह का सदमा नहीं पहुँचा है, मुझे केवल इन्हीं कोठरियों से मतलब है। इस मकान की मजबूत दीवारें अभी दो-तीन और बरसातें सम्हालने की हिम्मत रखती हैं।

शिवदत्त––मैं देखता हूँ कि वे तीनों कोठरियाँ एक के साथ एक सटी हुई हैं और इसका भी कोई सबब जरूर होगा।

रूहा––जी हाँ, मगर इन तीन कोठरियों से इस समय तीन काम निकलेंगे।

इसके बाद रूहा एक कोठरी के अन्दर घुसा। इसमें एक तहखाना था और नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ नजर आती थीं। शिवदत्त ने पूछा, "मालूम होता है इसी सुरंग की राह आप मुझे ले चलेंगे?" इसके जवाब में रूहा ने कहा, "हाँ इन्द्रजीतसिंह को गिरफ्तार करने के लिए इसी सुरंग में चलना होगा, मगर अभी नहीं, मैं पहले आपको दूसरी कोठरी में ले चलता हूँ जिसमें खजाना है, मेरी तो यही राय है कि पहले खजाना निकाल लेना चाहिए, आपकी क्या राय है?"

शिवदत्त––(खुश होकर) हाँ-हाँ, पहले खजाना अपने कब्जे में लेना चाहिए। कहिये, तो कुछ आदमियों को अन्दर बुलाऊँ?

रूहा––अभी नहीं, पहले आप स्वयं चल कर उस खजाने को देख तो लीजिए।

शिवदत्त––अच्छा चलिये।

अब ये दोनों दूसरी कोठरी में पहुँचे। इसमें भी एक वैसा ही तहखाना नजर आया जिसमें उतरने के लिए सीढ़ियाँ मौजूद थीं। शिवदत्त को साथ लिए हुए रूहा उस तहखाने में उतर गया। यह ऐसी जगह थी कि यदि सौ आदमी एक साथ मिल कर चिल्लाएं तो भी मकान के बाहर आवाज न जाय। शिवदत्त को उम्मीद थी कि अब रुपये और अशर्फियों से भरे हुए देग दिखाई देंगे मगर उसके बदले यहाँ दस सिपाही ढाल- तलवार लिए मुँह पर नकाब डाले दिखाई पड़े और साथ ही इसके एक सुरंग पर भी नजर पड़ी जो मालूम होता था कि अभी खोद कर तैयार की गई है। शिवदत्त एक दम काँप उठा, उसे निश्चय हो गया कि रूहा ने मेरे साथ दगा की, और ये लोग मुझे मार कर इसी गड़हे में दबा देंगे। उसने एक लाचारी की निगाह रूहा पर डाली और कुछ कहना चाहा मगर खौफ ने उसका गला ऐसा दबा दिया कि एक शब्द भी मुँह से न निकल सका।

उन दसों ने शिवदत्त को गिरफ्तार कर लिया और मुश्कें बाँध लीं। रूहा ने कहा, "बस अब आप चुपचाप इन लोगों के साथ इस सुरंग में चले चलिए नहीं तो इसी जगह आपका सिर काट लिया जायगा।"

इस समय शिवदत्त रूहा और उसके साथियों का हुक्म मानने के सिवाय और कुछ भी न कर सकता था। सुरंग में उतरने के बाद लगभग आधा कोस के चलना पड़ा, इसके बाद सब लोग बाहर निकले और शिवदत्त ने अपने को एक सुनसान मैदान में पाया। यहाँ पर कई साईसों की हिफाजत में बारह घोड़े कसे-कसाये तैयार थे। एक पर शिवदत्त को सवार कराया गया और नीचे से उसके दोनों पैर बाँध दिए गए, बाकी पर रूहा और वे दसों नकाबपोश सवार हुए और शिवदत्त को लेकर एक तरफ को चलते

कुँअर इन्द्रजीतसिंह पर आफत आने से वीरेन्द्रसिंह दुखी होकर उनको छुड़ाने का उद्योग कर ही रहे थे परन्तु बीच में शिवदत्त का आ जाना बड़ा ही दुखदाई हुआ। ऐसे समय में जब कि यह अपनी फौज से बहुत ही दूर पड़े हैं सौ दो सौ आदमियों को लेकर शिवदत्त की दो हजार फौज से मुकाबला करना बहुत ही कठिन मालूम पड़ता था, साथ ही इसके यह सोच कर कि जब तक शिवदत्त यहाँ है कुँअर इन्द्रजीतसिंह के छुड़ाने की कार्रवाई किसी तरह नहीं हो सकती, वे और भी उदास हो रहे थे। यदि उन्हें कुँअर इन्द्रजीतसिंह का खयाल न होता तो शिवदत्त का आना उन्हें न गड़ता और वे लड़ने से बाज न आते मगर इस समय राजा वीरेन्द्रसिंह बड़ी फिक्र में पड़ गए और सोचने लगे कि क्या करना चाहिए। सबसे ज्यादा फिक्र तारासिंह को थी क्योंकि वह कुँअर इन्द्रजीत सिंह का मृत शरीर अपनी आँखों से देख चुका था। राजा वीरेन्द्रसिंह और उनके साथी लोग तो अपनी फिक्र में लगे हुए थे और खंडहर के दरवाजे पर तथा दीवारों पर से लड़ने का इन्तजाम कर रहे थे, परन्तु तारासिंह उस छोटी सी बावली के किनारे जो अभी जमीन खोदने से निकली थी बैठा अपने खयाल में ऐसा डूबा था कि उसे दीन-दुनिया की खबर न थी। वह नहीं जानता था कि हमारे संगी-साथी इस समय क्या कर रहे हैं। आधी रात से ज्यादे जा चुकी थी मगर वह अपने ध्यान में डूबा हुआ बावली के किनारे बैठा है। राजा वीरेन्द्रसिंह ने भी यह सोच कर कि शायद वह इसी बावली के विषय में कुछ सोच रहा है तारासिंह को कुछ न टोका और न कोई काम उसके सुपुर्द किया। हम ऊपर लिख आये हैं कि इस बावली में से कुछ मिट्टी निकल जाने पर बावली के बीचोबीच में पीतल की मूरत दिखाई पड़ी। उस मूरत का भाव यह था कि एक हिरन का शेर ने शिकार किया है और हिरन की गर्दन का आधा भाग शेर के मुँह में है। मूरत बहुत ही खूबसूरत बनी हुई थी।

जिस समय का हाल हम लिख रहे हैं अर्थात् आधी रात गुजर जाने के बाद यकायक उस मूरत में एक प्रकार की चमक पैदा हुई और धीरे-धीरे वह चमक यहाँ तक बढ़ी कि तमाम बावली बल्कि तमाम खँडहर में उजियाला हो गया, जिसे देख सब-के- सब घबरा गए। वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह और कमला ये तीनों आदमी फुर्ती के साथ उस जगह पहुँचे जहाँ तारासिंह बैठा हुआ ताज्जुब में आकर उस मूरत को देख रहा था। घण्टा भर बीतते-बीतते मालूम हुआ कि वह मूरत हिल रही है। उस समय शेर की दोनों आँखें ऐसी चमक रही थीं कि निगाह नहीं ठहरती। मूरत को हिलते देख सभी को बड़ा ताज्जुब हुआ और निश्चय हो गया कि अब तिलिस्म की कोई-न-कोई कार्रवाई हम लोग जरूर देखेंगे।

यकायक मूरत बड़े जोर से हिली और तब एक भारी आवाज के साथ जमीन के अन्दर धँस गई। खँडहर में चारों तरफ अँधेरा हो गया। कायदे की बात है कि आँखों के सामने जब थोड़ी देर तक कोई तेज रोशनी रहे और वह यकायक गायब हो जाय या बुझा दी जाय तो आँखों में मामूली से ज्यादा अँधेरा छा जाता है, वही हालत इस समय खँडहर वालों की हुई। थोड़ी देर तक उन लोगों को कुछ भी नहीं सूझता था। आधी घड़ी गुजर जाने के बाद वह गड़हा दिखाई देने लगा जिसके अन्दर मूरत धँस गई थी। अब उस गड़हे के अन्दर भी एक प्रकार की चमक मालूम होने लगी और देखते-देखते हाथ में चमकता हुआ नेजा लिए वही राक्षसी उस गड़हे में से बाहर निकली जिसका जिक्र ऊपर कई दफे किया जा चुका है।

हमारे वीरेन्द्रसिंह और उनके ऐयार लोग उस औरत को कई दफे देख चुके थे और वह औरत इनके साथ अहसान भी कर चुकी थी, इनलिए उसे यकायक देख कर वे लोग कुछ प्रसन्न हुए और उन्हें विश्वास हो गया कि इस समय यह औरत जरूर हमारी कुछ-न-कुछ मदद करेगी और थोड़ा-बहुत यहाँ का हाल भी हम लोगों को जरूर मालूम होगा।

उस औरत ने नेजे को हिलाया। हिलने के साथ ही बिजली-सी चमक उसमें पैदा हुई और तमाम खंडहर में उजाला हो गया। वह वीरेन्द्र सिंह के पास आई और बोली, आपको पहर भर की मोहलत दी जाती है। इसके अन्दर इस खँडहर के हर एक तहखाने में यदि रास्ता मालूम है तो आप घूम सकते हैं। शाहदरवाजा जो बन्द हो गया था, उसे आपके खातिर से पहर भर के लिए मैंने खोल दिया है। इससे विशेष समय लगाना अनर्थ करना है।"

इतना कह वह राक्षसी उसी गड़हे में घुस गई और वह पीतल वाली मूरत जमीन के अन्दर धँस गई थी फिर अपने स्थान पर आकर बैठ गई। इस समय उसमें किसी तरह की चमक न थी। अब वीरेन्द्रसिंह और आनन्दसिंह वगैरह को कुँअर इन्द्रजीत सिंह से मिलने की उम्मीद हुई।

वीरेन्द्रसिंह––कुछ मालूम नहीं होता कि यह औरत कौन है और समय-समय पर हम लोगों की सहायता क्यों करती है

तारासिंह––जब तक वह स्वयं अपना हाल न कहे हम लोग उसे किसी तरह नहीं जान सकते। परन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह औरत तिलिस्मी है और कोई भारी सामर्थ्य रखती है।

कमला––परन्तु सूरत इसकी भयानक है।

तेजसिंह––यदि यह सूरत बनावटी हो तो भी कोई आश्चर्य नहीं।

वीरेन्द्रसिंह––हो सकता है, खैर, अब हमको तहखाने के अन्दर चलना और इन्द्रजीत को छुड़ाना चाहिए, पहर भर का समय हम लोगों के लिए कम नहीं है, मगर शिवदत्त के लिए क्या किया जाय? यदि वह इस खँडहर में घुस आने और लड़ने का उद्योग करेगा तो यह अमूल्य पहर भर समय यों ही नष्ट हो जायगा।

तेजसिंह––इसमें क्या सन्देह है? ऐसे समय में इस कम्बख्त का चढ़ आना बड़ा ही दुःखदायी हुआ।

इतना कहकर तेजसिंह गौर में पड़ गये और सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए। इसी बीच में खँडहर के फाटक की तरफ से सिपाहियों के चिल्लाने की आवाज आई और यह भी मालूम हुआ कि वहाँ लड़ाई हो रही है।

जिस समय शिवदत्त के चढ़ आने की खबर मिली थी उसी समय राजा वीरेन्द्रसिंह के हुक्म से पचास सिपाही खँडहर के फाटक पर मुस्तैद कर दिये गये थे और उसिपाहियों ने आपस में निश्चय कर लिया था कि जब तक पचास में से एक भी जीता रहेगा, फाटक के अन्दर कोई घुसने न पावेगा।

फाटक पर कोलाहल सुनकर तेजसिंह और तारासिंह दौड़े गये और थोड़ी देर में वापस आकर खुशी-भरी आवाज में तेजसिंह ने वीरेन्द्रसिंह से कहा, "वेशक फाटक पर लड़ाई हो रही है। न मालूम हमारे किस दोस्त ने किस ऐयारी से शिवदत्त को गिरफ्तार कर लिया जिससे उसकी फौज हताश हो गई। थोड़े आदमी तो फाटक पर आकर लड़ रहे हैं और बहुत लोग भागे जा रहे हैं। मैंने एक सिपाही से पूछा तो उसने कहा कि "मैं अपने साथियों के साथ फाटक पर पहरा दे रहा था कि यकायक कुछ सवार इसी तरफ से मैदान की ओर भागे जाते देखे। वे लोग चिल्ला-चिल्ला कर यह कहते जाते थे कि 'तुम लोग भागो और अपनी जान बचाओ। शिवदत्त गिरफ्तार हो गया, अब तुम उसे किसी तरह से नहीं छुड़ा सकते!' इसके बाद बहुत-से तो भाग गये और भाग रहे हैं, मगर थोड़े आदमी यहाँ आ गये जो लड़ रहे हैं।

तेजसिंह की बात सुन कर वीरेन्द्र सिंह वीर भाव से यह कहते हुए फाटक की तरफ लपके कि "तब तो पहले उन्हीं लोगों को भगाना चाहिए जो भागने से बच रहे हैं, जब तक दुश्मन का कोई आदमी गिरफ्तार न होगा, खुलासा हाल मालूम न होगा।"

खँडहर के फाटक पर से लौट कर तेजसिंह ने जो कुछ हाल राजा वीरेन्द्रसिंह से कहा वह बहुत ठीक था। जब रूहा अपनी बातों में फँसा कर शिवदत्त को ले गया, उसके दो घण्टे बाद भीमसेन ने अपने साथियों को तैयार होने और घोड़े कसने की आज्ञा दी। शिवदत्त के ऐयारों को ताज्जुब हुआ, उन्होंने भीमसेन से इसका सबब पूछा जिसके जवाब में भीमसेन ने केवल इतना ही कहा कि "हम क्या करते हैं सो अभी मालूम हो जायगा।" जब घोड़े तैयार हो गये तो साथियों को कुछ इशारा करके भीमसेन घोड़े पर सवार हो गया और म्यान से तलवार निकाल शिवदत्त के आदमियों को जख्मी करता और यह कहता हुआ कि "तुम लोग भागो और अपनी जान बचाओ, शिवदत्त तुम्हारा गिफ़्तार हो गया अब तुम उसे किसी तरह नहीं छुड़ा सकते" मैदान की तरफ भागा। उस समय शिवदत्त के ऐयारों की आँखें खुली और वे समझ गये कि हम लोगों के साथ ऐयारी की गई तथा यह भीमसेन नहीं है, बल्कि कोई ऐयार है! उस समय शिवदत्त की फौज हर तरह से गाफिल और बेफिक्र थी। शिवदत्त के ऐयारों के कई आदमियों ने घोड़ों की नंगी पीठ पर सवार होकर नकली भीमसेन का पीछा किया मगर अब क्या हो सकता था, बल्कि उसका नतीजा यह हुआ कि फौजी आदमी अपने साथियों को भागता हुआ समझ खुद भी भागने लगे। ऐयारों ने रोकने के लिए बहुत उद्योग किया, परन्तु बिना मालिक की फौज कब तक रुक सकती थी, बड़ी मुश्किल से थोड़े आदमी रुके और खँडहर के फाटक पर आकर हुल्लड़ मचाने लगे, परन्तु उस समय उन लोगों की हिम्मत भी जाती रही जब बहादुर वीरेन्द्रसिंह, आनन्दसिंह उनके ऐयार तथा शेरदिल साथी और सिपाही हाथों में नंगी तलवारें लिए उन लोगों पर आ टूटे। राजा वीरेन्द्रसिंह और कुँअर आनन्दसिंह शेर की तरह जिस तरफ झपटते थे, सफाई हो जाती थी। जिसे देख शिवदत्त के आदमियों में से बहुतों की तो यह अवस्था हो गई कि खड़े होकर उन दोनों की बहादुरी देखने के सिवाय कुछ भी न कर सकते थे। आखिर यहाँ तक नौवत पहुँची कि सभी ने पीठ दिखा दी और मैदान का रास्ता लिया।

इस लड़ाई में जो घण्टे भर से ज्यादा तक होती रही, राजा वीरेन्द्रसिंह के दस आदमी मारे गए और बीस जख्मी हुए। शिवदत्त के चालीस मारे गए और साठ जख्मी हुए जिनसे दरियाफ्त करने पर राजा वीरेन्द्रसिंह को भीमसेन और शिवदत्त का खुलासा हाल जैसा कि हम ऊपर लिख आए हैं मालूम हो गया, मगर इसका पता न लगा कि शिवदत्त को किसने किस रीति से गिरफ्तार कर लिया।

वीरेन्द्रसिंह ने अपने कई आदमी लाशों को हटाने और जख्मियों की हिफाजत के लिए तैनात किये और इसके बाद कुँअर इन्द्रजीतसिंह को छुड़ाने के लिए खँडहर के तहखाने में जाने का इरादा किया।

जिस तहखाने में कुँअर इन्द्रजीतसिंह थे, उसके रास्ते का हाल कई दफे लिखा जा चुका है, पुनः लिखने की कोई आवश्यकता नहीं, इसलिए केवल इतना ही लिखा जाता है कि वे दरवाजे जिनका खुलना शाहदरवाजा बन्द हो जाने के कारण कठिन हो गया था अब सुगमता से खुल गए जिससे सभी को खुशी हुई और केवल वीरेन्द्र, तेजसिंह, कमला और तारासिंह मशाल लेकर उस तहखाने के अन्दर उतर आये।

इस समय तारासिंह की अजब हालत थी। उसका कलेजा काँपता और उछलत था। वह सोचता था कि देखें कुँअर इन्द्रजीतसिंह, भैरोंसिंह और कामिनी को किस अवस्था में पाते हैं। ताज्जुब नहीं कि हमारे पाठकों की भी इस समय वही अवस्था हो और वे भी इसी सोच-विचार में हों, मगर वहाँ तहखाने में तो मामला ही दूसरे ढंग का था।

तहखाने में उतर जाने के बाद राजा वीरेन्द्रसिंह, आनन्दसिंह और ऐयारों ने चारों तरफ देखना शुरू किया मगर कोई आदमी दिखाई न पड़ा और न कोई ऐसी चीज नजर पड़ी जिससे उन लोगों का पता लगता, जिनकी खोज में वे लोग तहखाने के अन्दर गए थे। न तो वह सन्दूक था जिसमें इन्द्रजीतसिंह की लाश थी और न भैरोंसिंह, कामिनी या उस सिपाही की सूरत नजर आई, जो उस संदूक के साथ तहखाने में आया था, जिसमें कुँअर इन्द्रजीतसिंह की लाश थी।

वीरेन्द्रसिंह (तारासिंह की तरफ देख कर) यहाँ तो कोई भी नहीं है! क्या तुमने उन लोगों को किसी दूसरे तहखाने में छोड़ा था?

तारासिंह––जी नहीं, मैंने उन सभी को इसी जगह छोड़ा। (हाथ से इशारा करके) इसी कोठरी में कामिनी ने अपने को बन्द कर रखा था!

वीरेन्द्रसिंह––कोठरी का दरवाजा खुला हुआ है, उसके अन्दर जाकर देखो तो शायद कोई हो।

कमला ने कोठरी का दरवाजा खोला और झाँककर देखा इसके बाद कोठरी के अन्दर घुस कर उसने आनन्दसिंह और तारासिंह को पुकारा और उन दोनों ने भी कोठरी के अन्दर पैर रखा।

कमला, तारासिंह और आनन्दसिंह को कोठरी के अन्दर घुसे आधी घड़ी से ज्यादा गुजर गई, मगर उन तीनों में से एक भी बाहर न निकला। आखिर तेजसिंह ने पुकारा परन्तु जवाब न मिलने पर लाचार हो हाथ में मशाल लेकर तेजसिंह खुद कोठरी के अन्दर गए और इधर-उधर ढूँढ़ने लगे।

वह कोठरी बहुत छोटी और संगीन थी। चारों तरफ पत्थर की दीवारों पर खूब ध्यान देने से कोई खिड़की या दरवाजे का निशान नहीं पाया जाता था, हाँ ऊपर की तरफ एक छोटा-सा छेद दीवार में था मगर वह भी इतना छोटा था कि आदमी का सिर किसी तरह उसके अन्दर नहीं जा सकता था और दीवार में कोई ऐसी रुकावट भी न थी जिस पर चढ़ कर या पैर रख कर कोई आदमी अपना हाथ उस मोखे (छेद) तक पहुँचा सके। ऐसी कोठरी में से यकायक कमला, तारासिंह और आनन्दसिंह का गायब हो जाना बड़े ही आश्चर्य की बात थी। तेजसिंह ने इसका सबब बहुत कुछ सोचा मगर अक्ल ने कुछ मदद न थी। वीरेन्द्रसिंह भी कोठरी के अन्दर गये और तलवार के कब्जे से हर एक दीवार को ठोंक-ठोंक कर देखने लगे जिसमें मालूम हो जाय कि किसी जगह से दीवार पोली तो नहीं है मगर इससे भी कोई काम न चला। थोड़ी देर तक दोनों आदमी हैरान हो चारों तरफ देखते रहे। आखिर किसी आवाज ने उन्हें चौकन्ना दोनों ध्यान देकर उस छेद की तरफ देखने लगे जो उस कोठरी के अन्दर ऊँची दीवार में था और जिसमें से आवाज आ रही थी। वह आवाज यह थी–– "बस, जहाँ तक जल्द हो सके तुम दोनों आदमी इस तहखाने से बाहर निकल जाओ, नहीं तो व्यर्थ तुम दोनों की जान चली जायेगी। अगर बचे रहोगे तो दोनों कुमारों को छुड़ाने का उद्योग करोगे और पता लगा ही लोगे। मैं वही बिजली की तरह चमकने वाला नेजा हाथ में रखने वाली औरत हूँ, पर लाचार, इस समय मैं किसी तरह तुम्हारी मदद नहीं कर सकती। अब तुम लोग बहुत जल्द रोहतासगढ़ चले जाओ, उसी जगह आकर मैं तुममें मिलूँगी और सब हाल खुलासा कहूँगी। अब मैं जाती हूँ क्योंकि इस समय मुझे भी अपनी जान की पड़ी है।"

इस बात को सुन कर दोनों आदमी ताज्जुब में आ गए और कुछ देर तक सोचने के बाद तहखाने के बाहर निकल आए।

डबडबाई आँखों के साथ उसांसें लेते हुए राजा वीरेन्द्रसिंह रोहतासगढ़ की तरफ रवाना हुए। कैदियों और अपने कुल आदमियों को साथ लेते गए, मगर तेजसिंह ने न मालूम क्या कह-सुन कर और क्यों छुट्टी ले ली और राजा वीरेन्द्रसिंह के साथ रोहतासगढ़ न गये।

राजा वीरेन्द्रसिंह रोहतासगढ़ की तरफ रवाना हुए और तेजसिंह ने दक्खिन का रास्ता लिया। इस वारदात को कई महीने गुजर गये और इस बीच में कोई बात ऐसी नहीं हुई जो लिखने योग्य हो।