चंद्रकांता संतति भाग 2  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री
[ ६२ ]

छठवाँ भाग

1

वे दोनों साधु, जो सन्दूक के अन्दर झाँक न मालूम क्या देख कर बेहोश हो गए थे, थोड़ी देर बाद होश में आए और चीख-चीख कर रोने लगे। एक ने कहा "हाय हाय इन्द्रजीतसिंह, तुम्हें क्या हो गया! तुमने तो किसी के साथ बुराई न की थी, फिर किस कम्बख्त ने तुम्हारे साथ बदी की? प्यारे कुमार, तुमने बड़ा बुरा धोखा दिया, हम लोगों को छोड़ कर चले गए, क्या दोस्ती का हक इसी तरह अदा करते हैं? हाय, हम लोग जी कर क्या करेंगे, अपना काला मुँह ले कर कहाँ जाएँगे? हमको अपने भाई से बढ़कर मानने वाला अब दुनिया में कौन रह गया! तुम हमें किसके सुपुर्द करके चले गये?"

दूसरा बोला––"प्यारे कुमार, कुछ तो बोलो! जरा अपने दुश्मनों का नाम तो बताओ, कुछ कहो तो सही कि किस बेईमान ने तुम्हें मार कर इस सन्दूक में डाल दिया? हाय अब हम तुम्हारी माँ बेचारी चन्द्रकान्ता के पास कौन मुँह लेकर जायेंगे? किस मुँह से कहेंगे कि तुम्हारे प्यारे होनहार लड़के को किसी ने मार डाला! नहीं-नहीं, ऐसा न होगा, हम लोग जीते जी अब लौट कर घर न जायँगे, इसी जगह जान दे देंगे। नहीं नहीं, अभी तो हमें उससे बदला लेना है जिसने हमारा सर्वनाश कर डाला। प्यारे कुमार, जरा तो मुँह से बोलो, जरा आँखें खोल कर देखो तो सही, तुम्हारे पास कौन खड़ा रहा है। क्या तुम हमें भूल गए? हाय, यह यकायक कहाँ से गजब आकर टूट पड़ा!"

अब तो पाठक समझ गए होंगे कि इस सन्दूक में कुँअर इन्द्रजीतसिंह की लाश थी और ये दोनों साधु उनके दोस्त भैरोंसिंह और तारासिंह थे। इन दोनों के रोने से कामिनी असल बात समझ गई, वह झट कोठरी के बाहर निकल आई और मोमबत्ती की रोशनी में कुमार की लाश देख जोर-जोर से रोने लगी। किशोरी इस तहखाने के बगल वाली कोठरी में थी। उसने जो कुँअर इन्द्रजीतसिंह का नाम ले-लेकर रोने की आवाज सुनी तो उसकी अजब हालत हो गई। उसका पका हुआ दिल इस लायक न था कि इतनी ठेस सम्हाल सके, बस एक दफे 'हाय' की आवाज तो उसके मुँह से निकली मगर [ ६३ ]फिर तन-बदन की सुध न रही। वह ऐसी जगह न थी कि कोई उसके पास जाए या सम्हाले और देखें कि उसकी क्या हालत है।

भैरोसिंह और तारासिंह ने जो कामिनी को देखा, तो वह लोग फूट-फूट कर रोने लगे। तहखाने में हाहाकार मच गया। घंटे भर यही हालत रही। जब कामिनी ने रो क्या कहा कि 'इसी बगल वाली कोठरी में बेचारी किशोरी भी है,हाय,हम लोगों का रोना सुनकर उस बेचारी की क्या अवस्था हुई होगी।'तब भैरोसिंह और तारासिंह चुप हुए और कामिनी का मुंह देखने लगे।

भैरोसिंह——तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि यहां किशोरी भी है?

कामिनी——मैं उससे बातें कर चुकी हूं।

तारासिंह-क्या तुम बड़ी देर से इस तहखाने में हो?

कामिनी-देर क्या, मैं तो कई दिनों से भूखी प्यासी इस तहखाने में कैद हूं। (उस आदमी की तरफ इशारा करके) या मेरा पहरा देता था।

भैरोसिंह-खैर, जो होना था सो हो गया। अब हम लोग अगर रोने-धोने में लगे रहेंगे, तो इसके दुश्मन का पता ना लगा सकेंगे और न उससे बदला ही ले सकेंगे। यों तो जन्म भर रोना ही है परंतु उसके दुश्मन से बदला ले लेंगे तो कलेजे में कुछ ठंडक पड़ेगी। हाय, जब महाराज यहां आएंगे तो हम किस मुंह से कहेंगे कि तुम्हारे प्यारे लड़के की लाश इस तहखाने में पाई गई।

इसके बाद भैरोसिंह ने इस तहखाने में आने का बाकी हाल कहा तथा यह भी बताया कि"जब खंडार के बाहर कुए पर हम दोनों आदमी बैठे थे, तभी तीन आदमियों की बातचीत से मालूम हो गया कि तुमको उन लोगों ने कैद कर लिया है। परंतु यह आशा न ठीक है हम तुम्हें इस अवस्था मैं देखेंगे। उन लोगों ने मुझे देखा तो पहचान कर डरे और भाग गये, मगर मुझे यह मालूम हुआ कि वह लोग कौन है और उन्होंने मुझे कैसे पहचाना?"

कामिनी-(हाथ का इशारा करके) उन्हीं लोगों में से एक ही अभी है जिसे तुमने बांध रखा है।

भैरोसिंह-(उस आदमी से) बता, तू कौन है?

आदमी-बताने को तो मैं सब-कुछ बता सकता हूं, परंतु मेरी जान किसी तरह न बचेगी। [ ६४ ]भैरोंसिंह––क्या तुझे अपने मालिक का डर है?

आदमी––जी हाँ।

भैरोंसिंह––मैं वादा करता हूँ कि तेरी जान बचाऊँगा, और तुझे बहुत-कुछ इनाम भी दिलाऊँगा।

आदमी––इस वादे से मेरी तबीयत नहीं भरती। क्योंकि मुझे तो आप लोगों के ही बचने की उम्मीद नहीं। हाय, क्या आफत में जान फँसी है अगर कुछ कहें तो मालिक के हाथ से मारे जायें और न कहें तो इन लोगों के हाथ से दुःख भोगें!

भैरोंसिंह––तेरी बातों से मालूम होता है कि तेरा मालिक बहुत जल्द ही यहाँ आना चाहता है?

आदमी––बेशक ऐसा ही है।

यह सुनते ही भैरोंसिंह ने तारासिंह के कान में कुछ कहा और उनका ऐयारी का बटुआ लेकर अपना बटुआ उन्हें दे दिया जिसे ले वे तुरन्त वहाँ से रवाना हुए और तहखाने के बाहर निकल गए। तारासिंह ने जल्दी-जल्दी खँडहर के बाहर होकर उस कुएँ में से एक लुटिया पानी खींचा और बटुए में से कोई चीज निकाल कर पत्थर पर रगड़ जल में घोलकर पी ली। फिर एक लुटिया जल निकाल कर वही चीज पत्थर पर घिस पानी में मिलाई और बहुत जल्द तहखाने में पहुँचे। जल की लुटिया भैरोंसिंह के हाथ में दी, भैरोंसिंह ने बटुए से कुछ खाने की चीज निकाली और कामिनी से कहा, "इसे खाकर तुम यह जल पी लो।"

कामिनी––भला खाने और जल पीने का यह कौन-सा मौका है? यद्यपि मैं कई दिनों से भूखी हूँ, परन्तु क्या कुमार की लाश के सिरहाने बैठकर मैं खा सकूँगी, क्या यह अन्न मेरे गले के नीचे उतरेगा?

भैरोंसिंह––हाय! इस बात का मैं कुछ भी जवाब नहीं दे सकता। खैर, इस पानी में से थोड़ा तुम्हें पीना ही पड़ेगा। अगर इससे इन्कार करोगी तो हम सब लोग मारे जायँगे। (धीरे से कुछ कहकर) बस, देर न करो।

कामिनी––अगर ऐसा है तो मैं इन्कार नहीं कर सकती।

भैरोंसिंह ने उस लुटिया में से आधा जल कामिनी को पिलाया और आधा आप पीकर लुटिया तारासिंह के हवाले की। तारासिंह तुरन्त तहखाने में से बाहर निकल आए और जहाँ तक जल्द हो सका, इधर-उधर से सूखी हुई लकड़ियाँ और कण्डे बटोर कर खँडहर के बीच में एक जगह रक्खा, तब बटुए में से चकमक पत्थर निकाला और उसमें से आग झाड़ कर गोठों और लकड़ियों को सुलगाया।

तारासिंह यह सब काम बड़ी फुर्ती से कर रहे थे और घड़ी-घड़ी में खँडहर के बाहर मैदान की तरफ देखते भी जाते थे। आग सुलगाने के बाद जब तारासिंह ने मैदान की तरफ देखा तो बहुत दूर पर गर्द उड़ती हुई दिखाई दी। वह अपने काम में फिर जल्दी करने लगे। बटुए में से एक शीशी निकाली जिसमें किसी प्रकार का तेल था, वह तेल आग में डाल दिया, आग पर दो-तीन दफे पानी का छींटा दिया, फिर मैदान की तरफ देखा। मालूम हुआ कि दस-पन्द्रह आदमी घोड़ों पर सवार बड़ी तेजी से इसी तरफ आ [ ६५ ]रहे हैं। उस समय तारासिंह के मुँह से यकायक निकल पड़ा––"ओफ, अगर जरा भी देर होती तो काम बिगड़ चुका था, खैर, अब यह लोग कहाँ जा सकते हैं।"

आग में से बहुत ज्यादा धुआँ निकला और खँडहर भर में फैल गया। इसके बाद तारासिंह खँडहर के बाहर निकले और कुएँ के पास जाकर नीम के पेड़ पर चढ़ गए तथा अपने को घने पत्तों की आड़ में छिपा लिया। वह पेड़ इतना ऊँचा था कि उस पर से खँडहर के भीतर का मैदान साफ नजर पड़ता था। वे सवार, जिन्हें तारासिंह ने दूर से देखा था, अब खंडहर के पास आ पहुँचे, तारासिंह ने पेड़ पर चढ़े-चढ़े गिना तो मालूम हुआ कि बारह सवार है। उनमें सबके आगे एक साधु था जिसकी सफेद दाढ़ी नाभि तक पहुँच रही थी।

पाठक,यह वही बाबाजी है जिन्होंने रोहतासगढ़ मैं राजा दिग्विजय सिंह के पास रात के समय पहुँच कर उन्हें भड़काया और राजा बिरेंद्रसिंह वगैरह को कैद कराया था।

खंडहर के पास पहुँचकर वे लोग रुके। घोड़े की बागडोरें पत्थरों से अटका कर दस आदमी तो खंडहर के अन्दर घुसे और दो आदमी घोड़े की हिफाजत के लिए बाहर रह गये।

खंडहर के अंदर धुआँ देखकर बुड्ढे साधु ने कहा, "यह धुआँ कैसा है?"

एक––किसी मुसाफिर ने आकर रसोई बनाई होगी।

दूसरा––मगर धुआँ बहुत कड़वा है।

तीसरा––ओफ, आँखों से और नाक से पानी बहने लगा।

साधु––अगर किसी मुसाफिर ने यहाँ आकर रसोई पकाई होगी तो हांडी, पत्थर और पानी का बर्तन इत्यादि कुछ और भी तो यहाँ दिखाई देता। (एक आदमी की तरफ देख कर) हमें इस दोहे का रंग बेढब मालूम होता है, इसकी कड़वाहट इसकी रंगत और इसकी बू कहे देती है की धुएँ में बेहोशी का असर है। है, है, जरूर ऐसा ही है, कुछ अमल भी आ चला और सिर भी घूमने लगा! (जोर से) अरे बाहादुरो,बेशक तुम लोग धोखे में डाले गए, यहाँ कोई ऐयार आ पहुँचा है,क्या ताज्जुब है, अगर तहखाने में से कामिनी को निकालकर ले गया हो।

नीम के पेड़ पर बैठे हुए तारासिंह उस साधु की सब बातें सुन रहे थे क्योंकि वह नीम का पेड़ खँडहर के फाटक के पास ही था। साधु की बातें अभी पूरी न होने पाई हे के खँडहर के पिछवाड़े की तरफ से एक आदमी दौड़ता हुआ आया। मालूम होता है कि साधु की आखिरी बात उसने सुन ली थी, क्योंकि पहुँचने के साथ ही उसने पुकार कर कहा,"नहीं-नहीं, कामिनी को कोई निकाल कर नहीं ले गया मगर इसमें भी संदेह नहीं कि वीरेंद्रसिंह के दो ऐयार यहाँ आए हैं,एक तहखाने के अंदर है दूसरा (हाथ से इशारा करके) इस नीम के पेड़ पर चढ़ा हुआ है।"

साधु––बस,तब तो मार लिया। बेशक हम लोग आफत में फँस गए है परंतु कामिनी और इंद्रजीत, यह तुम लोग तहखाने में पहुँचा चुके हो, अब बाहर नहीं जा सकते। ताज्जुब नहीं है कि इन ऐयारों ने इंद्रजीतसिंह को मुर्दा समझ लिया हो! देखो, मैं [ ६६ ]शाहदरवाजे को अभी ऐसा बन्द करता हूँ की फिर ऐयार का बाप भी तहखाने में नहीं जा सकेगा।

इसके जवाब में उस आदमी ने, जो अभी दौड़ता हुआ आया था, कहाँ की "हमारा एक आदमी भी तहखाने में ही है।"

साधु––खैर,अब तो उसका भी उसी तहखाने में घुट कर मर जाना बेहतर है।

तारासिंह ने उस आदमी को पहचान लिया जो खँडहर के पिछवाड़े की तरफ से दौड़ता हुआ आया था। या उन्हीं दोनों आदमियों में से एक था जो भैरोसिंह और तारासिंह को कुएँ पर देख डर के मारे भाग गए थे। ना मालूम कहाँ छुप रहा था जो इस समय बाबा जी को देखकर बेधड़क आ पहुँचा।

साधु ने धुएँ का ख्याल बिल्कुल ही ना किया और खँडहर के अंदर जाकर न मालूम किस कोठरी में घुस गया।

तारासिंह को कुँअर इन्द्रजीतसिंह के मरने का जितना गम था, उसे पाठक से समझ सकते हैं परन्तु उसको उस समय बड़ा ही आश्चर्य हुआ जब साधु के मुँह से यह सुना कि "ताज्जुब नहीं कि ऐयारों ने इन्द्रजीतसिंह को मुर्दा समझ लिया हो!" बल्कि यों कहना चाहिए कि इस बात से तारासिंह को खुश कर दिया। वे अपने दिल में सोचने लगे कि बेशक हम लोगों ने धोखा खाया, मगर ना मालूम उन्हें कैसी दवा खिलाई गई जिसने बिल्कुल मुर्दा ही बना दिया। यदि इस समय भैरोसिंह के पास पहुँचकर खुशखबरी सुनाई जाती है तो क्या हाँ अच्छी बात थी। मगर कम्बख्त साधु तो कहता है कि मैं शाहदरवाजे को ही बन्द कर देता हूँ जिसने फिर कोई आदमी तहखाने में न जा सके। यदि ऐसा हुआ तो बड़ी ही मुश्किल होगी। इन्द्रजीतसिंह अगर जीते भी है तो अब मर जायेंगे! न मालूम यह शाहदरवाजा कौन सा है और किस तरह खुलता और बन्द होता है?

वे लोग तो सुन ही चुके थे कि वीरेंद्रसिंह का एक ऐयार नीम के पेड़ पर चढ़ा हुआ है। बाबाजी शाहदरवाजा बन्द करने चले गये, मगर तारासिंह को इसकी कुछ भी चिन्ता नहीं थी, क्योंकि वे इस बात को बखूबी जानते थे कि बेहोशी का धुआँ जो इस खँडहर में फैला हुआ है, अब इन लोगों को ज्यादा देर तक ठहरने ना देगा, थोड़ी ही देर में बेहोशी आ जाएगी और फिर किसी योग्य न रहेंगे, और आखिर वैसा ही हुआ।

यद्यपि वे लोग ज्यादा धुएँ में नहीं फँसे थे, तो भी जो कुछ उन लोगों की आँखों और नाक की राह से पेट में चला गया था, वही उन लोगों को बेदम करने के लिए काफी था। वे लोग कुएँ पर आ पहुँचे और चारों तरफ से उस नीम के पेड़ को घेर लिया। इस समय उन लोगों की अवस्था शराबियों की सी हो रही थी। उसी समय तारासिंह ने पेड़ पर से चिल्लाकर कहा, "ओ हो हो हो, क्या अच्छे वक्त पर हमारा मालिका पहुँचा। जब जरूरत इन कमबख्तों की जान जाएगी!"

तारासिंह की बात सुनते ही वे लोग ताज्जुब मैं आ गया और मैदान की तरफ देखने लगे। वास्तव में पूरब की तरफ गर्दन उठ रही थी और मालूम होता था कि किसी राजा की सवारी इस तरफ आ रही है। उन लोगों के दिमाग पर आप बेहोशी का असर [ ६७ ]अच्छी तरह हो चुका था। वे लोग बैठ गए और फिर जमीन पर लेट कर दिन दुनिया से बेखबर हो गए।

तारासिंह की निगाह उसी गर्द की तरफ थी। धीरे-धीरे आदमी और घोड़े दिखाई देने लगे और जब थोड़ी दूर रह गये तो साफ मालूम होता है कि कई सवालों को साथ लिए राजा वीरेंद्रसिंह आ पहुँचे। ऐयारों ने तेजसिंह और पंडित बद्रीनाथ उनके साथ और मुश्की घोड़े पर सवार कमला आगे आगे जा रही थी। जब तक वे लोग खँडहर के पास आवे, तब तक तारासिंह पेड़ के नीचे उतरे, कुएँ में से एक लुटिया जल निकाल कर मुँह धोया और कुछ आगे बढ़ कर उन लोगों से मिले। वीरेंद्रसिंह ने तारा सिंह से पूछा,"कहो, क्या हाल है?"

तारासिंह––विचित्र हाल है।

वीरेंद्रसिंह––सो क्यों, भैरौं कहाँ है?

तारासिंह––भैरोंसिंह इसी खँडहर के तहखाने में है,और किशोरी, कामिनी तथा कुँवर इन्द्रजीतसिंह भी उसी तक आने में कैद है।

तारासिंह ने कुँअर इन्द्रजीतसिंह का जो कुछ हाल तहखाने में देखा था, वह किसी से कहना मुनासिब न समझा, क्योंकि सुनते हुए लोग अधमरे हो जाते और किसी काम लायक ना रहते और वीरेंद्रसिंह की तो न मालूम क्या हालत होती, शिवाय इसके यह भी मालूम हो ही चुका था कि कुँवर इन्द्रजीतसिंह मरे नहीं है। ऐसी अवस्था में उन लोगों को बुरी खबर सुनाना बुद्धिमानी के बाहर था, इसलिए तारासिंह ने इन्द्रजीतसिंह के बारे में बहुत-सी बातें बनाकर कहीं, जैसे कि आगे चलकर मालूम होगा।

कुँवर आनंदसिंह ने जब तारासिंह की जुबानी यह सुना कि कामिनी भी इसी तहखाने में कैद है तो बहुत ही खुश हुए और सोचने लगे कि अब थोड़ी देर में माशूका से मुलाकात हुआ ही चाहती है। ईश्वर ने बड़ी कृपा की कि ढूँढ़ने और पता लगाने की नौबत न पहुँची। उन्होंने सोचा कि बस, अब हमारा दु:खान्त नाटक सुखान्त हुआ है चाहता है।

वीरेंद्रसिंह ने तारासिंह से पूछा,"क्या तुमने अपनी आँखों से उन लोगों को इस तहखाने में क्या देखा है?"

तारासिंह––जी हाँ,कुँवर इन्द्रजीतसिंह और कामिनी से तो हम दोनों आदमी मिल चुके हैं और भैरोंसिंह उन दोनों के पास ही है, मगर किशोरी को हम लोग न देख सके, कामिनी की जुबानी मालूम हुआ कि जिस तहखाने में हुआ है उसी के बगल वाली कोठरी में किशोरी भी कैद है। पर कोई तरकीब ऐसी ना निकली जिससे हम लोग किशोरी तक पहुँच सकते।

वीरेंद्रसिंह––क्या यहाँ की कोठरियों और दरवाजों में किसी तरह का भेद है?

तारासिंह––भेद क्या, मुझे तो यह एक छोटा तिलिस्म ही मालूम होता है!

वीरेंद्रसिंह––भला तुम और भैरोंसिंह इन्द्रजीतसिंह के पास तक पहुँच गए तो उसे तहखाने के बाहर क्यों न ले आए?

तारासिंह––(कुछ अटककर) मुलाकात होने पर हम लोग उसी तरह खाने में बैठ [ ६८ ]कर बातें करने लगे। दुश्मन का एक आदमी उस तहखाने में कैदियों की निगहबानी कर रहा था। कैदी हथकड़ी और बेड़ी के सबब बेबस थे। जब हम दोनों ने उस आदमी को गिरफ्तार किया और हाल जानने के लिए बहुत-कुछ मारा-पीटा, तब वह राह पर आया। उसकी जुबानी मालूम हुआ कि हम लोगों का दुश्मन अर्थात् उसका मालिक बहुत से आदमियों को साथ ले यहाँ आया ही चाहता है। तब भैरोंसिंह ने मुझे कहा कि इस समय हम लोगों का इस तहखाने से बाहर निकलना मुनासिब नहीं है, कौन ठिकाना बाहर निकलकर दुश्मनों से मुलाकात हो जाय। वे लोग बहुत होंगे और हम लोग केवल तीन आदमी हैं ताज्जुब नहीं कि तकलीफ उठानी पड़े, इससे यही बेहतर है कि तुम बाहर जाओ और जब दुश्मन लोग इस खँडहर में आ जायें, तो उन्हें किसी तरह गिरफ्तार करी। उन्हीं की आज्ञा पाकर मैं अकेला तहखाने के बाहर निकल आया और मैंने दुश्मनों को गिरफ्तार भी कर लिया।

तेजसिंह––(खुश होकर और हाथ का इशारा करके) मालूम होता है कि वे लोग जो उस पेड़ के नीचे पड़े हैं और कुछ खँडहर के दरवाजे पर दिखाई देते हैं, सब तुम्हारी ही कारीगरी से बेहोश हुए हैं। उन्हें किस तरह बेहोश किया?

तारासिंह––खँडहर के अन्दर आग सुलगाई और उसमें बेहोशी की दवा डाली, जब तक वे लोग आवें तब तक धुआँ अच्छी तरह फैल गया। ऐसी कड़ी दवा से वे लोग क्योंकर बच सकते थे, जरा-सा धुआँ आँख में लगना बहुत था। दुश्मन के केवल दो आदमी बच गये हैं, (घोड़ों की तरफ देखकर) मालूम होता है, आपको आते देख वे लोग भाग गए, यह क्या हुआ!

तेजसिंह––(चारों तरफ देखकर) जाने दो, क्या हर्ज है। हाँ तो अब हम लोगों को तहखाने में चलना चाहिए।

तारासिंह––शायद अब हम लोग तहखाने में न जा सकें।

कमला––सो क्यों?

तारासिंह––उन लोगों में एक साधु भी था, वह बड़ा ही चालाक और होशियार था। आँख में धुआँ लगते ही समझ गया कि इसमें बेहोशी का असर है, अब दम के दम में हम लोग बेहोश हो जायेंगे। उसी समय एक आदमी ने जो पहले हमलोगों को देखकर भाग गया था और छिपकर मेरी कार्रवाई देख रहा था, पहुँचकर उसे हमलोगों के आने की खबर दे दी और यह भी कह दिया कि अभी तक कामिनी, किशोरी और इन्द्रजीतसिंह तहखाने में हैं बल्कि राजा वीरेन्द्रसिंह का एक ऐयार भी तहखाने में है। यह सुनते ही वह कुछ खुश हुआ और बोला, "अब हमलोग तो बेहोश हुआ ही चाहते हैं, धोखे में पड़ ही चुके हैं, मगर अब हम यहाँ के शाहदरवाजे को बन्द कर देते हैं, फिर किसी की मजाल नहीं कि तहखाने में जा सके और उन लोगों को निकाल सके जो तहखाने के अन्दर अभी तक बैठे हुए हैं।" इस बात को सुनकर उस जासूस ने कहा कि 'हमलोगों का एक आदमी भी उसी तहखाने में है।' साधु ने जवाब दिया कि 'अब उसका भी उसी में घुटकर मर जाना बेहतर होगा।' फिर न मालूम क्या हुआ और उस साधु ने क्या किया अथवा शादरवाजा कौन है और किस तरह खुलता या बन्द होता है!

च॰ स॰-2-4

[ ६९ ]तारासिंह की इस बात ने सभी को तरद्दुद में डाल दिया और थोड़ी देर तक वे लोग सोच-विचार में पड़े रहे इसके बाद कमला ने कहा, "पहले खँडहर में चलकर तहखाने का दरवाजा खोलना चाहिए, देखें खुलता है या नहीं, अगर खुल गया तो सोच-विचार की कुछ जरूरत नहीं, यदि न खुल सका तो देखा जायगा।"

इस बात को सभी ने पसन्द किया और राजा वीरेन्द्रसिंह ने कमला को आगे चलने और तहखाने का दरवाजा खोलने के लिए कहा। खँडहर में इस समय धुआँ कुछ भी न था, सब साफ हो चुका था। कमला सभी को साथ लिए हुए उस दालान में पहुँची जहाँ से तहखाने में जाने का रास्ता था। मोमबत्ती जला कर हाथ में ली और बगल वाली कोठरी में जाकर मोमबत्ती तारासिंह के हाथ में दे दी। इस कोठरी में एक आलमारी थी जिसके पल्लों में दो मुढें लगे हुए थे। इन्हीं मुट्ठों के घुमाने से दरवाजा खुल जाता था और फिर एक कोठरी में पहुँच जाने से तहखाने में उतरने के लिए सीढ़ियाँ मिलती थीं। इस समय कमला ने इन्हीं दोनों मुट्ठों को कई वार घुमाया, वे घूम तो गए मगर दरवाजा न खुला। इसके बाद तारासिंह ने और फिर तेजसिंह ने भी उद्योग किया मगर कोई काम न चला। तब तो सभी का जी बेचैन हो गया और विश्वास हो गया कि उस बेईमान साधु ने जो कुछ कहा, सो किया। इस खंडहर में कोई शाहदरवाजा जरूर है जिसे साधु ने बन्द कर दिया और जिसके सबब से यह दरवाजा अब नहीं खुलता।

सब लोग उस कोठरी से बाहर निकले और उस साधु को ढूँढ़ने लगे। खँडहर में और नीम के पेड़ के नीचे आठ आदमी बेहोश हुए थे जो सब इकट्ठे किए गए। दो आदमी जो घोड़ों की हिफाजत करने के लिए रह गये थे और बेहोश नहीं हुए थे वे तो न मालूम कहाँ भाग ही गए थे, अब साधु रह गए सो उनके शरीर का कहीं पता न लगा। चारों तरफ खोज होने लगी।

राजा वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह और तारासिंह को साथ लिए हुए कमला उस कोठरी में पहुँची जिसमें दीवार के साथ लगी हुई पत्थर की मूरत थी, जिसमें एक दफे रात के समय कामिनी जा चुकी थी, और जिसका हाल ऊपर के किसी बयान में लिखा जा चुका है। इसी कोठरी में पत्थर की मूरत के पास ही साधु महाशय बेहोश पड़े हुए थे।

तेजसिंह––(मूरत को अच्छी तरह देखकर) मालूम होता है कि शाहदरवाजे से इस मूरत का कोई सम्बन्ध है।

वीरेन्द्रसिंह––शायद ऐसा ही हो, क्योंकि मुझे यह खँडहर तिलिस्मी मालूम होता है। हाय, बेचारा लड़का इस समय कैसी मुसीबत में पड़ा हुआ है। अब दरवाजा खुलने की तरकीब किससे पूछी जाय और उसका कैसे पता लगे? मेरी राय तो यह है कि इस खँडहर में जो कुछ मिट्टी-चूना पड़ा है, सब बाहर फिकवाकर जगह साफ करा दी जाय और दीवार तथा जमीन भी खोदी जाय।

तेजसिंह––मेरी भी यही राय है।

तारासिंह––जमीन और दीवार खुदने से जरूर काम चल जायगा। तहखाने की दीवार खोदकर हम लोग अपना रास्ता निकाल लेंगे, बल्कि और भी बहुत-सी बातों का [ ७० ]पता लग जायगा।

वीरेन्द्रसिंह––(तेजसिंह की तरफ देख कर) बहुत जल्द बन्दोबस्त करो और दो आदमी रोहतासगढ़ भेज कर एक हजार आदमी की फौज बहुत जल्द मँगवाओ। वह फौज ऐसी हो कि सब काम कर सके, अर्थात् जमीन खोदने, सेंध लगाने, सड़क बनाने इत्यादि का काम बखूबी जानती हो।

तेजसिंह––बहुत खूब।

राजा वीरेन्द्रसिंह के साथ-साथ सौ आदमी आये हुए थे। वे सब-के-सब काम में लग गये। बेहोश दुश्मनों के हाथ-पैर बाँध दिये गये और उन्हें उठा कर एक दालान में रख देने के बाद सब लोग खँडहर की मिट्ठी उठा-उठाकर बाहर फेंकने लगे। जल्दी के मारे मालिकों ने भी काम में हाथ लगाया।

रात हो गई। कई मशाल भी जलाये गये, मिट्टी की सफाई बराबर जारी रही, मगर तारासिंह का विचित्र हाल था, उन्हें घड़ी-घड़ी रुलाई आती थी, और उसे वे बड़ी मुश्किल से रोकते थे। यद्यपि तारासिंह ने कुँअर इन्द्रजीतसिंह का हाल बहुत-कुछ झूठ-सच मिलाकर राजा वीरेन्द्रसिंह से कहा था, मगर वे बखूबी जानते थे कि इन्द्रजीतसिंह की अवस्था अच्छी नहीं है, उनकी लाश तो अपनी आँखों से देख ही चुके थे, परन्तु साधु की बातों ने उनकी कुछ तसल्ली कर दी थी। वे समझ गये थे कि इन्द्रजीतसिंह मरे नहीं, बल्कि बेहोश हैं, मगर अफसोस तो यह है कि यह बात केवल तारासिंह को ही मालूम है, भैरोंसिंह को भी यदि इस बात की खबर होती, तो तहखाने में बैठे-बैठे कुमार को होश में लाने का कुछ उद्योग करते। कहीं ऐसा न हो कि बेहोशी में ही कुमार की जान निकल जाय, ऐसी कड़ी बेहोशी का नतीजा अच्छा नहीं होता है, इसके अतिरिक्त कई दिनों से कुमार बेहोशी की अवस्था में पड़े हैं, बेहोशी भी ऐसी कि जिसने बिल्कुल ही मुर्दा बना दिया, क्या जाने, जीते भी हैं या वास्तव में मर ही गये।

ऐसी-ऐसी बातों के विचार से तारासिंह बहुत ही बेचैन थे, मगर अपने दिल का हाल किसी से कहते नहीं थे।

यहाँ से थोड़ी दूर पर एक गाँव था। कई आदमी दौड़ गये और कुदाल-फावड़ा इत्यादि जमीन खोदने का सामान वहाँ से ले आये और बहुत से मजदूरों को साथ लिवाते आये। रात-भर काम लगा रहा, और सवेरा होते-होते तक खँडहर साफ हो गया।

अब उस दालान की खुदाई शुरू हुई, जिसके बगल वाली कोठरी के अन्दर से तहखाने में जाने का रास्ता था। हाथ-भर तक जमीन खुदने के बाद लोहे की सतह निकल आई, जिसमें छेद होना भी मुश्किल था। यह देखकर वीरेन्द्रसिंह को भी बहुत रंज हुआ और उन्होंने खण्डहर के बीच की जमीन अर्थात् चौक को खोदने का हुक्म दिया।

दूसरे दिन चौक की खुदाई से छुट्टी मिली। खुद जाने पर वहाँ एक छोटी-सी खूबसूरत बावली निकली; जिसके चारों तरफ छोटी-छोटी संगमरमर की सीढ़ियाँ थीं। यह बावली दस गज से ज्यादा गहरी न थी, और इसके नीचे की सतह तीन गज चौड़ी और इतनी ही लम्बी होगी। दो पहर दिन चढ़ते-चढ़ते उस बावली की मिट्टी निकल [ ७१ ]गई और नीचे की सतह में एक पीतल की एक मूरत दिखाई पड़ी। मूरत बहुत बड़ी न थी, एक हिरन का शेर ने शिकार किया था, हिरन की गर्दन का आधा हिस्सा शेर के मुँह में था। मूरत बहुत ही खूबसूरत और कीमती थी, मगर मिट्टी के अन्दर बहुत दिनों तक दबे रहने से मैली और खराब हो रही थी। वीरेन्द्रसिंह ने उसे अच्छी तरह झाड़-पोंछ कर साफ करने का हुक्म दिया।

वीरेन्द्रसिंह ने तेजसिंह से कहा, "इस खुदाई में समय भी नष्ट हुआ, और काम भी न निकला।"

तेजसिंह––मैं इस मूरत पर अच्छी तरह गौर कर रहा हूँ, मुझे आशा है कि कोई अनूठी बात जरूर दिखाई पड़ेगी।

वीरेन्द्रसिंह––(ताज्जुब में आकर) देखो-देखो, शेर की आँखें इस तरह घूम रहा हैं जैसे वह इधर-उधर देख रहा हो!

आनन्दसिंह––(अच्छी तरह देखकर) हाँ, ठीक तो है!

इसी समय एक आदमी दौड़ता हुआ आया, और हाथ जोड़कर बोला, "महाराज, चारों तरफ से दुश्मन की फौज ने आकर हम लोगों को घेर लिया है। दो हजार सवारों के साथ शिवदत्त आ पहुँचा, जरा मैदान की तरफ देखिए।"

न मालूम शिवदत्त इतने दिनों तक कहाँ छिपा हुआ था, और वह क्या कर रहा था। इस समय दो हजार फौज के साथ उसका यकायक आ पहुँचना और चारों तरफ से खँडहर को घेर लेना बड़ा ही दुखदायी हुआ, क्योंकि वीरेन्द्रसिंह के पास इस समय केवल सौ सिपाही थे।

सूर्य अस्त हो चुका था, चारों तरफ से अँधेरी घिरी चली आती थी। फौज सहित राजा शिवदत्त जब तक खँडहर के पास पहुँचे, तब तक रात हो गई। राजा शिवदत्त को तो यह मालूम ही हो चुका था कि केवल सौ सिपाहियों के साथ राजा वीरेन्द्रसिंह, कुँअर आनन्दसिंह और उनके ऐयार लोग इसी खँडहर में हैं, परन्तु राजा वीरेन्द्रसिंह, कुमार और उनके ऐयारों की वीरता और साहस को भी वह अच्छी तरह जानता था, इसलिए रात के समय खँडहर के अन्दर घुसने की उसकी हिम्मत न पड़ी। यद्यपि उसके साथ दो हजार सिपाही थे, मगर खँडहर के अन्दर डेढ़ दो सौ सिपाहियों से ज्यादा नहीं जा सकते थे, क्योंकि उसके अन्दर ज्यादा जमीन न थी, और वीरेन्द्रसिंह तथा उनके साथी इतने आदमियों को कुछ भी न समझते, इसलिए शिवदत्त ने सोचा कि रात भर इस खँडहर को घेर कर चुपचाप पड़े रहना ही उत्तम होगा। वास्तव में शिवदत्त का विचार बहुत ठीक था और उसने ऐसा ही किया भी। राजा वीरेन्द्रसिंह को भी रात-भर सोचने- विचारने की मोहलत मिली। उन्होंने कई सिपाहियों को फाटक पर मुस्तैद कर दिया और उसके बाद अपने बचाव का ढंग सोचने लगे। [ ७२ ]

2

इस समय शिवदत्त की खुशी का अन्दाज करना मुश्किल है और यह कोई ताज्जुब की बात भी नहीं है, क्योंकि लड़ाकों और दोस्त ऐयारों के सहित राजा वीरेन्द्रसिंह को उसने ऐसा बेबस कर दिया कि उन लोगों को जान बचाना कठिन हो गया है। शिवदत्त के आदमियों ने उसे चारों तरफ से घेर लिया और उसे निश्चय हो गया कि अब हम पुनः चुनार की गद्दी पावेगे, और इसके साथ ही नौगढ़, विजयगढ़, गयाजी और रोहतासगढ़ की हुकूमत भी बिना परिश्रम हाथ लगेगी।

एक घने वटवृक्ष के नीचे अपने दोस्तों और ऐयारों को साथ लिये शिवदत्त गप्पें उड़ा रहा है। ऊपर एक सफेद चँदोवा तना हुआ है। बिछावन और गद्दी उसी प्रकार की है जैसी मामूली सरदार अथवा डाकुओं के भारी गिरोह के अफसर की होनी चाहिए। दो मशालची हाथ में मशालें लिए सामने खड़े हैं, और इधर-उधर कई जगह आग सुलग रही है। बाकरअली, खुदाबक्श, यारअली और अजायबसिंह ऐयार शिवदत्त के दोनों तरफ बैठे हैं, और सभी की निगाह उन शराब की बोतलों और प्यालों पर बराबर पड़ रही है जो शिवदत्त के सामने काठ की चौकी पर रखे हुए हैं। धीरे-धीरे शराब पीने के साथ-साथ सब कोई शेखी बघार रहे हैं। कोई अपनी बहादुरी की तारीफ कर रहा है, तो कोई वीरेन्द्रसिंह को सहज ही गिरफ्तार करने की तरकीब बता रहा है। शिवदत्त ने सिर उठाया और बाकरअली ऐयार की तरफ देखकर कुछ कहना चाहा, परन्तु उसी समय उसकी निगाह सामने मैदान की तरफ जा पड़ी, और वह चौंक उठा। ऐयारों ने भी पीछे फिरकर देखा और देर तक उसी तरफ देखते रहे।

दो मशालों की रोशनी, जो कुछ दूर पर थी, इसी तरफ आती दिखाई पड़ी। वे दोनों मशाल मामूली न थे, बल्कि मालूम होता था कि लम्बे नेजे या छोटे-से बाँस के सिरे पर बहुत-सा कपड़ा लपेट कर मशाल का काम लिया गया है और उसे हाथ में लिए बल्कि ऊँचा किए हुए दो सवार घोड़ा दौड़ाते इसी तरफ आ रहे हैं। उन्हीं मशालों को देखकर शिवदत्त चौंका था।

बाकरअली ऐयार पेड़ के ऊपर चढ़ गया और थोड़ी देर में नीचे उतरकर बोला, "मशाल लेकर केवल दो सवार ही नहीं हैं, बल्कि और भी कई सवार उनके साथ मालूम होते हैं।"

थोड़ी देर में शिवदत्त के कई आदमी उन सवारों को अपने साथ लिये हुए वहीं आ पहुँचे, जहाँ शिवदत्त बैठा हुआ था। उन सवारों में से एक ने घोड़े पर से उतरने में शीघ्रता की। शिवदत्त ने पहचान लिया कि वह उसका लड़का भीमसेन है। भीमसेन दौड़कर शिवदत्त के कदमों पर गिर पड़ा। शिवदत्त ने प्रेम के साथ उठाकर गले लगा लिया। दोनों की आँखों में आँसू भर आये और देर तक मुहब्बत-भरी निगाहों से एक दूसरे को देखता रह गया। इसके बाद लड़के का हाथ थामे हुए शिवदत्त अपनी गद्दी पर