गल्प समुच्चय
प्रेमचंद, संपादक श्रीप्रेमचन्द जी
आत्माराम

काशी: सरस्वती-प्रेस, बनारस सिटी, पृष्ठ १६४ से – १७५ तक

 
(४) आत्माराम

( १ )

बेंदो ग्राम में महादेव सोनार एक सुविख्यात आदमी था। वह अपने सायबान में प्रातः से सन्ध्या तक अँगीठी के सामने बैठा हुआ खटखट किया करता था। यह लगातार ध्वनि सुनने के लोग इतने अभ्यस्त हो गये थे कि जब किसी कारण वह बन्द हो जाती, तो जान पड़ता था, कोई चीज़ गायब हो गई है। वह नित्यप्रति एक बार प्रातःकाल अपने तोते का पिंजरा लिये कोई भजन गाता हुआ तालाब की ओर जाता था। उस धुंधले प्रकाश में उसका जर्जर शरीर, पोपला मुँह और झुकी हुई कमर देखकर किसी अपरिचित मनुष्य को उसके पिशाच होने का भ्रम हो सकता था। ज्योंही लोगों के कानों में आवाज़ आती-'सत्त गुरु- दत्त शिवदत्त दाता' लोग समझ जाते कि भोर हो गया।

महादेव का परिवाजिक जीवन सुखमय न था। उसके तीन पुत्र थे, तीन बहुएँ थीं, दर्जनों नाती-पोते थे; लेकिन उसके बोझ को हल्का करनेवाला कोई न था। लड़के कहते—जब तक दादा

जीते हैं, हम जीवन का आनन्द भोग लें, फिर तो यह ढोल गले पड़ेहीगा। बेचारे महादेव को कभी-कभी निराहार ही रहना पड़ता। भोजन के समय उसके घर में साम्यवाद का ऐसा गगन -भेदी निर्घोष होता कि वह भूखा ही उठ आता और नारियल का हुक्का पीता हुआ सो जाता। उसका व्यवसायिक जीवन और भी अशान्तिकारक था। यद्यपि वह अपने काम में निपुण था, उसकी खटाई औरों से कहीं ज्यादा शुद्धिकारक और उसकी रासायनिक क्रियाएँ कहीं ज्यादा कष्ट- साध्य थीं, तथापि उसे आये-दिन शक्की और धैर्यशून्य प्राणियों के अपशब्द सुनने पड़ते थे; पर महादेव अविचलित गाम्भीर्य से सिर झुकाये सब कुछ सुना करता। ज्योंही यह कलह शान्त होता, वह अपने तोते की ओर देखकर पुकार उठता—'सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता।' इस मन्त्र के जपते ही उसके चित्त को पूर्ण शांति प्राप्त हो जाती थी।

(२)

एक दिन संयोगवश किसी लड़के ने पिंजरे का द्वार खोल दिया। तोता उड़ गया। महादेव ने सिर उठाकर जो पिंजरे की ओर देखा, तो उसका कलेजा सन्न-से हो गया। तोता कहाँ गया! उसने फिर पिंजरे को देखा, तोता गायब था। महादेव घबराकर उठा और इधर-उधर खपरैलों पर निगाह दौड़ाने लगा। उसे संसार में कोई वस्तु प्यारी थी, तो वह यही तोता था। लड़के-बालों, नाती-पोतों से उसका जी भर गया था। लड़कों की चुलबुल से उसके काम में विघ्न पड़ता था; बेटों से उसे प्रेम न था,

इसलिये नहीं कि वे निकम्मे थे; बल्कि इसलिये कि इनके कारण यह अपने आनन्ददायी कुल्हड़ों की नियमित संख्या से बंचित रह जाता था। पड़ोसियों से उसे चिढ़ थी; इसलिये कि वह उसकी अँगीठी से आग निकाल ले जाते थे। इस समस्त विघ्न-बाधाओं से उसके लिये कोई पनाह थी, तो वह यही तोता था। इससे उसे किसी प्रकार का कष्ट न होता था। वह अब उस अवस्था में था, जब मनुष्य को शान्ति-भोग के सिवा और कोई इच्छा नहीं रहती।

तोता एक खपरैल पर बैठा था। महादेव ने पिंजरा उतार लिया और उसे दिखाकर कहने लगा— 'आ, आ, सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता।' लेकिन गाँव और घर के लड़के एकत्र होकर चिल्लाने और तालियाँ बजाने लगे, ऊपर से कौवों ने काँव-काँव की रट लगाई। तोता उड़ा और गांँव से बाहर निकलकर एक पेड़ पर जा बैठा। महादेव खाली पिंजरा लिये उसके पीछे दौड़ा, हाँ दौड़ा। लोगों को उसकी द्रुतगामिता पर अचंभा हो रहा था। मोह की इससे सुन्दर, इससे सजीव, इससे भावमय कल्पना नहीं की जा सकती।

दोपहर हो गया था। किसान लोग खेतों से चले आ रहे थे, उन्हें विनोद का अच्छा अवसर मिला। महादेव को चिढ़ाने में सभी को मजा आता था, किसी ने कंकर फेंके, किसी ने तालियाँ बजाई, तोता फिर उड़ा और यहाँ से दूर आम के बाग में एक पेड़ की फुनगी पर जा बैठा। महादेव फिर खाली पिंजरा लिये मेढक की भाँति उचकता हुआ चला। बाग में पहुँचा, तो पैर के

तलुओं से आग निकल रही थी, सिर चक्कर खा रहा था। जब जरा सावधान हुआ, तो फिर पिंजरा उठाकर कहने लगा, 'सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता।' तोता फुनगी से उतरकर नीचे की एक डाल पर आ बैठा; किन्तु महादेव की ओर सशंक नेत्रोंसे ताक रहा था। महादेव ने समझा—डर रहा है। वह पिंजरे की छोड़कर आप एक दूसरे पेड़ की आड़ में छिप गया। तोते ने चारों ओर गौर से देखा, निश्शंक हो गया, उतरा ओर आकर पिंजरा के ऊपर बैठ गया। महादेव का हृदय उछलने लगा। 'सत्त गुरुदत्त शिवदत्त' का मंत्र जपता हुआ धीरे-धीरे तोते के समीप आया, और लपका कि तोते को पकड़ लें; किन्तु तोता हाथ न आया, फिर पेड़ पर जा बैठा।

साँझ पक यही हाल रहा। तोता कभी इस डाल पर जाता,कभी उस डाल पर। कभी पिंजरे पर आ बैठता, कभी पिंजरे के द्वार पर बैठ अपने दाना-पानी की प्यालियों को देखता, फिर उड़ जाता। बुड्ढा अगर मूर्तिमान मोह था; तो तोता मूर्तिंमती माया। यहाँ तक कि शाम हो गई, माया और मोह का यह संग्राम अंधकार में विलीन ही गया।

(३)

रात हो गई। चारों ओर निबिड़ अन्धकार छा गया। तोता न-जाने पत्तों में कहाँ छिपा बैठा था। महादेव जानता था कि रात को तोता कहीं उड़कर नहीं जा सकता और न पिंजरे ही में आ सकता है, तिस पर भी वह इस जगह से हिलने का नाम न

लेता था। आज उसने दिन भर कुछ नहीं खाया, रात के भोजन का समय भी निकल गया, पानी की एक बूंँद भी उसके कंठ में न न गई; लेकिन उसे न भूख थी न प्यास। तोते के बिना उसे अपना जीवन निस्सार, शुष्क और सूना जान पड़ता था। वह दिन-रात काम करता था ; इसलिये कि यह उसकी अंत:प्रेरणा थी, जीवन के और काम इसलिये करता था कि आदत थी। इन कामों में उसे अपनी सजीविता का लेशमात्र भी ज्ञान न होता था। तोता ही वह वस्तु था, जो उस चेतना को याद दिलाता था। उसका हाथ से जाना जीव का देहत्याग करना था।

महादेव दिन-भर का भूखा-प्यासा, थका-मांँदा, रहरहकर, झाकियाँ ले लेता था; किन्तु एक क्षण में फिर चौंककर आँख खोल देता और उस विस्तृत अंधकार में उसको आवाज सुनाई देती—'सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता ।'

आधीरात गुजर गई थी। सहसा वह कोई आहट पाकर चौका, तो देखा कि दूसरे एक वृक्ष के नीचे एक धुंधला दीपक जल रहा है और कई आदमा बैठे हुए आपस में कुछ बातें कर रहे हैं। वह सब चिलम पी रहे थे। तमाखू की महक ने उसे अधीर कर दिया। उच्च स्वर से बोला—'सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता'और उन आदमियों की ओर चिलम पोने चला; किन्तु जिस प्रकार बन्दूक की आवाज़ सुनते ही हिरन भाग जाते हैं, उसी प्रकार उसे आते देख वह सब-के-सब उठ कर भागे। कोई इधर गया, कोई उधर। महादेव चिल्लाने लगा—ठहरो—ठहरो।' एकाएक उसे

ध्यान आ गया, यह सब चोर हैं। वह जोर से चिल्ला उठा—'चोर चोर, पकड़ो, पकड़ो !' —चोरों ने फिछे फिरकर भी न देखा।

महादेव दीपक के पास गया, तो उसे एक कलशा रखा हुआ मिला। मोरचे से काला हो रहा था । महादेव का हृदय उछलने लगा। उसने कलशे में हाथ डाला तो मोहरें थीं। उसने एक मोहर बाहर निकाली और दीपक के उजाले में देखा—हाँ, मोहर थी। उसने तुरन्त कलशा उठा लिया; दीपक बुझा दिया और पेड़ के नीचे छिपकर बैठ रहा। साहु से चोर बन गया।

उसे फिर शंका हुई, ऐसा न हो चोर लौट आयें और मुझे अकेला देखकर मोहरें छीन लें। उसने कुछ मोहरें कमर में बाँधी, फिर एक सूखी लकड़ी से जमीन की मिट्टी हटाकर कई गड्ढे बनाए, उन्हे मोहरों से भरकर मिट्टी से ढक दिया।

(४)

महादेव के अन्तःनेत्रों के सामने अब एक दूसरा ही जगत् था, चिन्ताओं और कल्पनाओं से परिपूर्ण। यद्यपि अभी कोष के हाथ से निकल जानेका भय था; पर अभिलाषाओं ने अपना काम शुरु कर दिया। एक पक्का मकान बन गया, सराफे की एक भारी दूकान खुल गई, निज सम्बन्धियों से फिर नाता जुड़ गया, विलास की सामग्रियाँ एकत्र हो गई, तब तीर्थयात्रा करने चले और वहाँ से लौटकर बड़े समारोह से यज्ञ-ब्रह्मभोज हुआ। इसके पश्चात् एक शिवालय और कुआँ बन गया, एक उद्यान भी आरो-

पित हो गया और वहाँ वह नित्यप्रति कथा पुराण सुनने लगा साधु-सन्तों का आदर-सत्कार होने लगा।

अकस्मात् उसे ध्यान आया, कहीं चोर आजायं तो मै भागूंगा क्योंकर। उसने परीक्षा करने के लिए कलशा उठाया और दो सौ पग तक बेतहाशा भागा हुआ चला गया। जान पड़ता था, उसके पैरों में पर लग गये हैं। चिन्ता शान्त हो गई। इन्हीं कल्पनाओं में रात व्यतीत होगई। उषा का आगमन हुआ, हवा जगी,चिड़ियाँ गाने लगीं। सहसा महादेव के कानों में आवाज़ आई—

'सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता,
राम के चरन में चित्त लागा।'

यह बोल सदैव महादेव की जिह्वा पर रहता था, दिन में सहस्रों ही बार ये शब्द उसके मुख से निकलते थे; पर उसका धार्मिक भाव कभी उसके अन्तःकरण को स्पर्श न करता था। जैसे किसी बाजे से राग निकलता है, उसी प्रकार उसके मुँह से यह बोल निकलता था, निरर्थक और प्रभावशून्य। तब उसका हृदय-रुपी वृक्ष पत्र-पल्लव-विहीन था। यह निर्मल वायु उसे गुंजरित न कर सकती थी; पर अब उस वृक्ष में कोपलें और शाखाएँ निकल आई थीं। इस वायु-प्रवाह से वह झूम उठा—गुंजित हो गया।

अरुणोदय का समय था। प्रकृति एक अनुरागमय प्रकाश में डूबी हुई थी। उसी समय तोता परों को जोड़े ऊँची डाली से उतरा, जैसे आकाश से कोई तारा टूटे, और आकर पिंजरे में बैठ

गया। महादेव प्रफुल्लित होकर दौड़ा और पिंजरे को उठा कर बोला—आओ आत्माराम, तुमने कष्ट तो बहुत दिया; पर मेरा जीवन भी सुफल कर दिया। अब तुम्हें चाँदी के पिंजरे में रक्खूँगा और सोने से मढ़ दूँगा-उसके रोम-रोम से परमात्मा के गुणानुवाद की ध्वनि निकलने लगी। प्रभु तुम कितने दयावान हो, यह तुम्हारा असीम वात्सल्य है, नहीं तो मुझ-जैसा पापी पतित प्राणी, कब इस कृपा के योग्य था। इन पवित्र भावों से उसकी आत्मा विह्वल हो गई, वह अनुरक्त होकर बोल उठा—

सत्त गुरुदत्त शिवदत्तदाता}}
राम के चरण में चित्त लागा।

उसने एक हाथ में पिंजरा लटकाया, बगल में कलशा दबाया और घर चला।

(५)

महादेव घर पहुँचा, तो अभी कुछ अँधेरा था। रास्ते में एक कुत्ते के सिवाय और किसी से भेंट न हुई ओर कुत्ते को मोहरों से विशेष प्रेम नहीं होता। उसने कलशे को एक नाँद में छिपा दिया और उसे कोयले से अच्छी तरह ढक कर अपनी कोठरी में रख आया। जब दिन निकल आया, तो वह सीधे पुरोहित जी के घर जा पहुँचा पुरोहित जी पूजा पर बैठे सोच रहे थे-कल ही मुकदमे में की पेशी है और अभी तक हाथ में कौड़ी भी नहीं, जजमानों में कोई साँस भी नहीं लेता। इतने में महादेव ने पालागन किया।
पण्डित जी ने मुँह फेर लिया, यह अमंगलमूर्ति कहाँ से आ पहुँची,मालूम नहीं दाना भी मयस्सर होगा या नहीं। रुष्ट होकर पूछा—क्या है जी, क्या कहते हो, जानते नहीं कि हम इस बेला पूजा पर रहते हैं?—महादेव ने कहा—महाराज आज मेरे यहाँ सत्यनारायन की कथा है।

पुरोहित जी बिस्मित हो गये, कानों पर विश्वास न हुआ। महादेव के घर कथा होना उतनी ही असाधारण घटना थी,जितनी अपने घर से किसी भिखारी के लिये भीख निकालना। पूछा—आज क्या है?

महादेव बोला—कुछ नहीं, ऐसी ही इच्छा हुई कि आज भगवान् की कथा सुन लूँ ।

प्रभात ही से तैयारी होने लगी। बेंदो और अन्य निकटवर्ती गावों में सुपारी फिरी। कथा के उपरान्त भोज का भी नेवता था जो सुनता आश्चर्य करता—यह आज रेत में दूब कैसे जमी!

संध्या समय जब सब लोग जमा हो गये, पंडित जी अपने सिंहासन पर विराजमान हुए, तो महादेव खड़ा होकर उच्चस्वर से बोला—भाइयो, मेरी सारी उम्र छल-कपट में कट गई। मैंने न- जाने कितने आदमियों को दगा दिया, कितना खरे को खोटा किया; पर अब भगवान ने मुझपर दया की है, वह मेरे मुँह की कालिख को मिटाना चाहते हैं। मैं आप सभी भाइयों से ललकार कर कहता हूँ कि जिसका मेरे जिम्मे जो कुछ आता हो, जिसकी जमा मैंने मार ली हो, जिसके चोखे माल को खोटा कर दिया हो, वह

आकर अपनी एक-एक कौड़ी चुका ले, अगर कोई यहाँ न आ सका हो, तो आप लोग उससे जाकर कह दीजिये, कलसे एक महीने तक जब जी चाहे आवे और अपना हिसाब चुकता कर ले। गवाही-साखी का काम नहीं।— सब लोग सन्नाटे में आ गये। कोई मार्मिक भाव से सिर हिलाकर बोल—हम कहते न थे? किसी ने अविश्वास से कहा-क्या खाके भरेगा! हजारों का टोटल हो जायगा।

एक ठाकुर ने ठठोली की—और जो लोग सुरधाम चले गये?

महादेव ने उत्तर दिया—उनके घरवाले तो होंगे।

किन्तु इस समय लोगों को वसूली की इतनी इच्छा न थी, जितनी यह जानने की कि इसे इतना धन मिल कहाँ से गया। किसी को महादेव के पास आने का साहस न हुआ। देहात के आदमी थे, गड़े मुर्दे उखाड़ना क्या जानें। फिर प्रायः लोगों को याद भी न था कि उन्हें महादेव से क्या पाना है और ऐसे पवित्र अवसर पर भूल-चूक हो जाने का भय उनका मुँह बन्द किये हुए था। सबसे बड़ी बात यह थी कि महादेव की साधुता ने उन्हें वशीभूत कर लिया था।

अचानक पुरोहितजी बोले—तुम्हें याद है, मैंने तुम्हें एक कंठा बनाने के लिए सोना दिया था और तुमने कई माशे तौल में उड़ा दिये थे।

महादेव—हाँ याद है, आपका कितना नुकसान हुआ होगा? पुरोहित-५०) से कम न होगा।
महादेव ने कमर से दो मोहरें निकाली और पुरोहितजी के सामने रख दीं।

पुरोहित की लोलुपता पर टीकायें होने लगी। यह बेईमानी है, बहुत तो दो-चार रुपये का नुकसान हुआ होगा। बेचारे से ५०) ऐंठ लिये। नारायण का भी डर नहीं। बनने को पंडित, पर नीयत ऐसी खराब! राम राम!

लोगों को महादेव से एक श्रद्धा-सी हो गई। एक घंटा बीत गया;पर उन सहस्रों मनुष्यों में से एक भी न खड़ा हुआ। तब महादेव ने फिर कहा-मालूम होता है, आप लोग अपना-अपना हिसाब भूल गये हैं; इसलिये आज कथा होने दीजिये, मैं एक महीने तक आपकी राह देखूँगा। इसके पीछे तीर्थ यात्रा करने चला जाऊँगा। आप सब भाइयों से मेरी विनती है कि आप मेरा उद्धार करें।

एक महीने तक महादेव लेनदारों की राह देखता रहा। रात को चोरों के भय से नींद न आती। अब वह कोई काम न करता। शराब का चसका भी छूटा। साधु-अभ्यागत जो द्वार पर आ जाते, उनका यथायोग्य सत्कार करता। दूर-दूर उसका सुयश फैल गया। यहाँ तक कि महीना पूरा हो गया और एक आदमी भी हिसाब चुकाने न आया। अब महादेव को ज्ञात हुआ कि संसार में कितना धर्म, कितना सद्व्यवहार है। अब उसे मालूम हुआ कि संसार बुरों के लिये बुरा है; पर अच्छों के लिये अच्छा है।

( ६ )

इस घटना को हुए ५० वर्ष बीत चुके हैं। आप बेंदो जाइये, तो
दूर ही से एक सुनहला कलश दिखाई देता है। यह ठाकुरद्वारे का कलश है। उसमें मिला हुआ एक पक्का तालाब है, जिसमें खूब कमल खिले रहते हैं। उसकी मछलियाँ कोई नहीं पकड़ता। तालाब के किनारे एक विशाल समाधि है। यही आत्माराम की स्मृति-चिह्न है। उनके सम्बन्ध में विभिन्न किम्बदन्तियाँ प्रचलित हैं। कोई कहता है-उनका रत्नजटित पिंजरा स्वर्ग को चला गया; कोई कहता है—वह 'सत्त गुरुदत्त' कहते हुए अंतर्धान हो गये; पर यथार्थ यह है कि उस पक्षीरूपी चन्द्र को किसी बिल्ली रूपी राहु ने ग्रस लिया। लोग कहते हैं, आधी रात को अभी तक तालाब के किनारे आवाज आती है—

'सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता,
राम के चरन में चित्त लागा।'

महादेव के विपय में भी कितनी जन-श्रुतियाँ हैं। उनमें सबसे मान्य यह है कि आत्माराम के समाधिस्थ होने के बाद वह कई सन्यासियों के साथ हिमालय चले गये और वहाँ से लौटकर न आये। उनका नाम आत्माराम प्रसिद्ध हो गया।