गल्प समुच्चय
प्रेमचंद, संपादक श्रीप्रेमचन्द जी
कामना-तरु

काशी: सरस्वती-प्रेस, बनारस सिटी, पृष्ठ ११९ से – १३६ तक

 
(२) कामना-तरु

(१)

राजा इंद्रनाथ का देहान्त हो जाने के बाद, कुँअर राजनाथ को शत्रुओं ने चारों ओर से ऐसा दबाया, कि उन्हें अपने प्राण लेकर एक पुराने सेवक की शरण जाना पड़ा, जो एक छोटे-से गाँव का जागीरदार था। कुँअर स्वभाव ही से शांति-प्रिय, रसिक, हँस-खेलकर समय काटनेवाले युवक थे। रण-क्षेत्र की अपेक्षा कवित्व के क्षेत्र में अपना चमत्कार दिखाना उन्हें अधिक प्रिय था। रसिकजनों के साथ, किसी वृक्ष के नीचे बैठे हुए, काव्य-चरचा करने में उन्हें जो आनन्द मिलता था, वह शिकार या राज-दरबार में नहीं। इस पर्वत-मालाओं से घिरे हुए गाँव में आकर, उन्हें जिस शांति और आनन्द का अनुभव हुआ, उसके बदले में वह ऐसे-ऐसे कई राज त्याग कर सकते थे। यह पर्वत-मालाओं की मनोहर छटा, यह नेत्र-रंजक हरियाली, यह जल-प्रवाह की मधुर वीणा, यह पक्षियों की मीठी बोलियाँ, यह मृग-शावकों की छलाँग, यह बछड़ों की कुलेलें, यह ग्राम-निवा

सियों की बालोचित सरलता, यह रमणियों की संकोच-मय चपलता, ये सभी बातें उनके लिये नई थीं; पर इन सबों से बढ़कर जो वस्तु उनको आकर्षित करती थी, वह जागीरदार की युवती कन्या चन्दा थी।

चन्दा घर का सारा काम-काज आप ही करती थी। उसको माता की गोद में खेलना नसीब ही न हुआ था। पिता की सेवा ही में रत रहती थी। उसका विवाह इसी साल होनेवाला था, कि इसी बीच मे कुँअरजी ने आकर उसके जीवन में नवीन भावनाओं और नवीन आशाओं को अंकुरित कर दिया। उसने अपने पति का जो चित्र मन में खींच रक्खा था, वहो मानों रूप धारण करके उमके सम्मुख आ गया। कुँअर की आदर्श रमणी भी चन्दा ही के रूप में अवतरित हो गई; लेकिन कुँअर समझते थे, मेरे ऐसे भाग्य कहाँ? चन्दा भी समझती थी, कहाँ यह और कहाँ मैं!

(२)

दोपहर का समय था और जेठ का महीना। खपरैल का घर भट्ठी की भाँति तपने लगा। ख़स की टट्टियों और तहखानों में रहनेवाले राजकुमार का चित्त गरमी से इतना बेचैन हुआ, कि वह बाहर निकल आये और सामने के बाग़ में जाकर एक घने वृक्ष के छाँह में बैठ गये। सहसा उन्होंने देखा-चन्दा नदी से जल की गागर लिये चली आ रही है। नीचे जलती हुई रेत थी, ऊपर जलता हुआ सूर्य। लू से देह झुलसी जाती थी। कदाचित् इस समय प्यास से तड़पते हुए आदमी की भी नदी तक जाने का

हिम्मत न पड़ती थी। चन्दा क्यों जल लेने गई थी? घर में पानी भरा हुआ है। फिर इस समय वह क्यों पानी लेने निकली?

कुँअर दौड़कर उसके पास जा पहुँचे और उसके हाथ से गागर छीन लेने की चेष्टा करते हुए बोले––मुझे दे दो और भागकर छाँह में चली जाओ। इस समय पानी का क्या काम था?

चन्दा ने गागर न छोड़ी। सिर से खिसका हुआ अंचल सँभाल कर बोली––तुम इम समय कैसे आ गये? शायद मारे गरमी के अन्दर न रह सके!

कुँअर––मुझे दे दो, नहीं मैं छीन लूँगा।

चन्दा ने मुस्कुराकर कहा––राजकुमारों को गागर लेकर चलना शोभा नहीं देता।

कुँअर ने गागर का मुँह पकड़कर कहा––इस अपराध का बहुत दण्ड सह चुका हूँ। चन्दा, अब तो अपने को राजकुमार कहने में भी लज्जा आती है।

चन्दा––देखो धूप में खुद हैरान होते हो और मुझे भी हैरान करते हो। गागर छोड़ दो। सच कहती हूँ, पूजा का जल है।

कुँअर––क्या मेरे ले जाने से, पूजा का जल अपवित्र हो जायगा?

चन्दा––अच्छा भाई नहीं जानते, तो तुम्हीं ले चलो। हाँ नहीं तो!

कुँअर गागर लेकर आगे-आगे चले। चन्दा पीछे हो ली। बग़ीचे में पहुँचे, तो चन्दा एक छोटे-से पौधे के पास रुक कर

बोली––इसी देवता की पूजा करनी है, गागर रख दो। कुँअर ने आश्चर्य से पूछा––यहाँ कौन देवता है चन्दा? मुझे तो नहीं नज़र आता।

चन्दा ने पौधे को सींचते हुए कहा––यही तो मेरा देवता है!

पानी पाकर पौधे की मुरझाई हुई पत्तियाँ हरी हो गई, मानो उनकी आँखें खुल गई हों।

कुँअर ने पूछा––यह पौधा क्या तुमने लगाया है चन्दा?

चन्दा ने पौधे को एक सीधी लकड़ी से बाँधते हुए कहा––हाँ, उसी दिन तो, जब तुम यहाँ आए। यहाँ पहले मेरी गुड़ियों का घरौंदा था। मैंने गुड़ियों पर छाँह करने के लिए एक अमोल लगा दिया था। फिर मुझे इसकी याद नहीं रही। घर के काम धन्धे में भूल गई। जिस दिन तुम यहाँ आये, मुझे न-जाने क्यों इस पौधे की याद आ गई। मैंने आकर देखा, तो यह सूख गया था। मैंने तुरन्त पानी लाकर इसे सींचा, तो कुछ-कुछ ताज़ा होने लगा। तब से रोज़ इसे सींचती हूँ। देखो कितना हरा-भरा हो गया है!

यह कहते-कहते उसने सिर उठाकर कुँअर की ओर ताकते हुए कहा––और सब काम भूल जाऊँ; पर इस पौधे को पानी देना नहीं भूलती। तुम्हीं इसके प्राण-दाता हो। यह तुम्हीं ने आकर इसे जिला दिया, नहीं तो बेचारा सूख गया होता। यह तुम्हारे शुभागमन का स्मृति-चिह्न है। ज़रा इसे देखो। मालूम होता है, हँस रहा है। मुझे तो ऐसा जान पड़ता है, कि यह मुझसे बोलता है।
सच कहती हूँ, कभी यह रोता है, कभी हँसता है, कभी रूठता है; आज तुम्हारा लाया हुआ पानी पाकर यह फूला नहीं समाता। एक-एक पत्ता तुम्हें धन्यवाद दे रहा है।

कुँअर को ऐसा जान पड़ा, मानों वह पौधा कोई नन्हा-सा क्रीड़ाशील बालक है। जैसे चुम्बन से प्रसन्न होकर बालक गोद में चढ़ने के लिए दोनों हाथ फैला देता है, उसी भाँति यह पौधा भी हाथ फैलाए जान पड़ा। उसके एक-एक अणु में चन्दा का प्रेम झलक रहा था।

चन्दा के घर में खेती के सभी औज़ार थे। कुँअर एक फावड़ा उठा लाए ओर पौधे का एक थाला बनाकर चारों ओर ऊँची मेंड़ उठा दी। फिर खुरपी लेकर अन्दर की मिट्टी को गोड़ दिया। पौधा और भी लहलहा उठा।

चन्दा बोली––कुछ सुनते हो, क्या कह रहा है?

कुँअर ने मुस्कुराकर कहा––हाँ! कहता है अम्माँ की गोद में बैठूँगा।

चन्दा––नहीं, कह रहा है, इतना प्रेम करके फिर भूल न जाना।

(३)

मगर कुँअर को अभी राजपुत्र होने का दण्ड भोगना बाक़ी था। शत्रुओं को न-जाने कैसे उनकी टोह मिल गई इधर तो हित-चिन्तकों के आग्रह से विवश होकर बूढ़ा कुबेरसिंह चन्दा और कुँअर के विवाह की तैयारियाँ कर रहा था, उधर शत्रुओं का एक

दल सिर पर आ पहुँचा। कुँअर ने उस पौधे के आस-पास फूल-पत्ते लगाकर एक फुलवाड़ी-सी बना दी थी। पौधे को सींचना अब उनका काम था। प्रातःकाल वह कन्धे पर काँवर रक्खे नदी से पानी ला रहे थे कि दस-बारह आदमियों ने उन्हें रास्ते में घेर लिया। कुबेर सिंह तलवार लेकर दौड़ा; लेकिन शत्रुओं ने उसे मार गिराया। अकेला, शस्त्र-हीन कुँअर क्या करता। कन्धे पर काँवर रक्खे हुए बोला––अब क्यों मेरे पीछे पड़े हो भाई? मैंने तो सब कुछ छोड़ दिया।

सरदार बोला-हमें आपको पकड़ ले जाने का हुक्म है।

"तुम्हारा स्वामी मुझे इस दशा में भी नहीं देख सकता? खैर, अगर धर्म समझो, तो कुबेरसिंह की तलवार मुझे दे दो। अपनी स्वाधीनता के लिए लड़कर प्राण दूँ।"

इसका उत्तर यही मिला कि सिपाहियों ने कुँअर को पकड़कर मुश्कें कस दीं और उन्हें एक घोड़े पर बिठाकर घोड़े को भगा दिया काँवर वहीं पड़ी रह गई।

उसी समय चन्दा घर में से निकली। देखा, काँवर पड़ी हुई है और कुँअर को लोग घोड़े पर बिठाए लिए जा रहे हैं। चोट खाए हुए पक्षी की भाँति वह कई कदम दौड़ी, फिर गिर पड़ी। उसकी आँखों में अँधेरा छा गया।

सहसा उसकी दृष्टि पिता की लाश पर पड़ी। वह घबड़ाकर उठी और लाश के पास जा पहुँची। कुबेर अभी मरा न था। प्राण आँखों में अटके हुए थे।
चन्दा को देखते ही क्षीण स्वर में बोला––बेटी...कुँअर!...इसके आगे वह कुछ न कह सका। प्राण निकल गए; पर इस एक शब्द––"कुँअर"––ने उसका आशय प्रगट कर दिया।

(४)

बीस वर्ष बीत गए! कुँअर कैद से न छूट सके।

यह एक पहाड़ी क़िला था। जहाँ तक निगाह जाती, पहाड़ियाँ ही नजर आतीं। क़िले में उन्हें कोई कष्ट न था। नौकर-चाकर, भोजन-वस्त्र, सैर-शिकार, किसी बात की कमी न थी; पर उस वियोगाग्नि को कौन शान्ति करता, जो नित्य कुँवर के हृदय में जला करती थी। जीवन में अब उनके लिए कोई आशा न थी, कोई प्रकाश न था। अगर कोई इच्छा थी, तो यही कि एक बार उस प्रेम-तीर्थ की यात्रा कर लें, जहाँ उन्हें वह सब कुछ मिला जो मनुष्य को मिल सकता है। हाँ, उनके मन में एक-मात्र यही अभिलाषा थी कि उस पवित्र-स्मृतियों से रंजित भूमि के दर्शन करके जोवन का उसी नदी के तट पर अन्त कर दे। वही नदी का किनारा, वही वृक्षों का कुञ्ज, वही चन्दा का छोटा-सा सुन्दर घर, उसकी आँख में फिरा करता, और वह पोधा, जिसे उन दोनों ने मिलकर सींचा था, उसमें तो मानो उसके प्राण ही बसते थे। क्या वह दिन भी आएगा, जब वह उस पौधे को हरी-हरी पत्तियों से लदा हुआ देखेगा। कौन जाने वह अब है भी या सूख गया। कौन अब उसको सोचता होगा! चन्दा इतने दिनों अविवाहिता थोड़े ही बैठी होगी। ऐसा संभव भी तो नहीं। उसे अब मेरी सुधि भी न

होगी। हाँ शायद कभी अपने घर की याद खींच लाती हो, तो पौधे को देखकर उसे मेरी याद आ जाती हो। मुझ-जैसे अभागे के लिए इससे अधिक वह और कर ही क्या सकती है। उस भूमि को एक बार देखने के लिए वह अपना जीवन दे सकता था; पर यह अभिलाषा पूरी न होती थी।

आह! एक युग बीत गया, शोक और नैराश्य ने उठती जवानी को कुचल दिया। न आँखों में ज्योति रही, न पैरों में शक्ति। जीवन क्या था, एक दुःखदायी स्वप्न था। उस सघन अंधकार में उसे कुछ न सूझता था, बस जीवन का आधार एक अभिलाषा थी, एक सुखद स्वप्न जो जीवन में न-जाने कब उसने देखा था, एक बार फिर वही स्वप्न देखना चाहता था। फिर, उसकी अरिलाषाओं का अन्त हो जायगा, उसे कोई इच्छा न रहेगी। सारा अनन्त भविष्य, सारी अनन्त चिन्ताएँ, इसी एक स्वप्न में लीन हो जाती थीं।

उसके रक्षकों को अब उसकी ओर से काई शंका न थी। उन्हें उस पर दया आती थी। रात को पहरे पर केवल कोई एक आदमी रह जाता था और लोग मीठी नींद सोते थे। कुँअर भाग जा सकता है, इसकी कोई संभावना, कोई शंका न थी। यहाँ तक कि एक दिन यह एक सिपाही भी निश्शंक होकर बन्दूक लिए लेट रहा। निद्रा किसी हिंसक पशु की भाँति ताक लगाए बैठी थी। लेटते ही टूट पड़ी। कुँअर ने सिपाही की नाक की आवाज़ सुनी। उनका हृदय बड़े वेग से उछलने लगा। यह अवसर आज कितने

दिनों के बाद मिला था। वह उठे; मगर पाँव थरथर कांप रहे थे। बरामदे के नीचे उतरने का साहस न हो सका। कहीं इसकी नींद खुल गई तो? हिंसा उनकी सहायता कर सकती थी। सिपाही की बगल में उसकी तलवार पड़ी थी; पर प्रेम को हिंसा से बैर है। कुँअर ने सिपाही को जगा दिया। वह चौंककर उठ बैठा। रहा सहा संशय भी उसके दिल से निकल गया। दूसरी बार जो सोया तो खर्राटे लेने लगा।

प्रातःकाल जब उसकी निद्रा टूटी, तो उसने लपककर कुँअर के कमरे में झाँका। कुँअर का पता न था।

कुँअर इम समय हवा के घोड़ों पर सवार, कल्पना की द्रुतगति से, भागा जा रहा था- उसस्थान को, जहाँ उसने सुख-स्वप्न देखा था।

किले में चारों ओर तलाश हुई, नायक ने सवार दौड़ाये; पर कहों पता न चला।

( ५ )

पहाड़ी रास्तों का काटना कठिन, उस पर अज्ञातवास की कैद, मृत्यु के दूत पीछे लगे हुए, जिनसे बचना मुश्किल। कुँअर को कामना-तीर्थ में महीनो लग गये। जब यात्रा पूरी हुई, तो कुँअर में एक कामना के सिवा और कुछ शेष न था। दिन-भर की कठिन यात्रा के बाद जब वह उस स्थान पर पहुंचे, तो संध्या हो गई थी। वहाँ बस्ती का नाम भी न था। दो-चार टूटे-फूटे झोंपड़े उस बस्ती के चिह्न-स्वरूप शेष रह गये थे। वह झोंपड़ा, जिसमें कभी प्रेम का

प्रकाश था, जिसके नीचे उन्होंने जीवन के सुखमय दिन काटे थे, जो उनकी कामनाओं का आगार और उनकी उपासना का मन्दिर था, अब उनकी अभिलाषाओं की भाँति भग्न हो गया था! झोंपड़े की भग्नावस्था मूक-भाषा में अपनी करुण-कथा सुना रही थी। कुँअर उसे देखते ही "चन्दा-चन्दा!" पुकारता हुआ दौड़ा। उसने उस रज को माथे पर मला, मानो किसी देवता की विभूति हो और उसकी टूटी हुई दीवारों से चिमटकर बड़ी देर तक रोता रहा। हाय रे अभिलाषा! यह रोने ही के लिये इतनी दूर से आया था? रोने ही की अभिलाषा इतने दिनों से उसे विकल कर रही थी; पर इस रोदन में कितना स्वर्गीय आनन्द था। क्या समस्त संसार का सुख इन आँसुओं की तुलना कर सकता था?

तब वह झोंपड़े से निकला। सामने मैदान में एक वृक्ष हरे-हरे नवीन पल्लवों को गोद में लिये, मानो उसका स्वागत करने को खड़ा था। यह वही पौधा है, जिसे आज से बीस वर्ष पहले दोनों ने आरोपित किया था। कुँअर उन्मत्त की भाँति दौड़ा और जाकर उस वृक्ष से लिपट गया, मानो कोई पिता अपने मातृ-हीन पुत्र को छाती से लगाये हुए हो। यह उसी प्रेम की निशानी है, उसी अक्षय प्रेम की, जो इतने दिनों के बाद आज इतना विशाल हो गया है। कुँअर का हृदय ऐसा फूल उठा, मानों इस वृक्ष को अपने अन्दर रख लेगा, जिसमें उसे हवा का झोंका भी न लगे। उसके एक-एक पल्लव पर चन्दा की स्मृति बैठी हुई थी। पक्षियों का इतना रम्य संगीत क्या कभी उसने सुना था! उसके हाथों में

दम न था, सारी देह भूख-प्यास और थकन से शिथिल हो रही थी। पर, वह उस वृक्ष पर चढ़ गया, इतनी फुर्ती से चढ़ा कि बन्दर भी न चढ़ता। सबसे ऊँची फुनगी पर बैठकर उसने चारों ओर गर्व-पूर्ण दृष्टि डाली। यही उसकी कामनाओं का स्वर्ग था। सारा दृश्य चंदामय हो रहा था। दूर की नीली पर्वत-श्रेणियों पर चन्दा बैठी गा रही थी, आकाश में तैरनेवाली लालिमा-मयी नौकाओं पर चन्दा ही उड़ी जाती थी। सूर्य की श्वेत-पीत प्रकाश की रेखाओं पर चन्दा ही बैठी हँस रही थी। कुँअर के मन में आया, पक्षी होता तो इन्हीं डालियों पर बैठा हुआ जीवन के दिन पूरे करता।

जब अँधेरा हो गया, तो कुँअर नीचे उतरा और उसी वृक्ष के नीचे थोड़ी-सी भूमि झाड़कर, पतियों को शय्या बनाई और लेटा। यही उसके जीवन का स्वर्ण-स्वप्न था, आह यही वैराग्य! अब वह इस वृक्ष की शरण छोड़कर कहीं न जायगा। दिल्ली के तख्त के लिए भी वह इस आश्रम को न छोड़ेगा।

( ६ )

उसी स्निग्ध अमल चाँदनी में सहसा एक पक्षी आकर उस वृक्ष पर बैठा और दर्द में डूबे हुए स्वरों में गाने लगा। ऐसा जान पड़ा, मानो वह वृक्ष सिर धुन रहा है। वह नीरव रात्रि उस वेदना-मय संगीत से हिल उठी, कुँअर का हृदय इस तरह ऐंठने लगा, मानो वह फट जायगा। उस स्वर में करुणा और वियोग के तीर-से भरे हुए थे। आह! पक्षी, तेरा जोड़ा भी अवश्य बिछुड़

गया है, नहीं तेरे राग में इतनी व्यथा, इतना विषाद, इतना रुदन कहाँ से आता! कुँअर के हृदय के टुकड़े हुए जाते थे, एक-एक स्वर तीर की भाँति दिल को छेदे डालता था। वहाँ बैठे न रह सके। उठकर एक आत्म-विस्मृत की दशा में दौड़े हुए झोंपड़े में गये, वहाँ से फिर वृक्ष के नीचे आए। उस पक्षी को कैसे पाएँ। कहीं दिखाई नहीं देता।

पक्षी का गाना बन्द हुआ, तो कुँअर को नींद आ गई। उन्हें स्वप्न में ऐसा जान पड़ा कि वही पक्षी उनके समीप आया। कुँअर ने ध्यान से देखा, तो वह पक्षी न था, चन्दा थी, प्रत्यक्ष चन्दा थी।

कुँअर ने पूछा—चन्दा यह पक्षी यहाँ कहाँ?

चन्दा ने कहा—मैं ही तो वह पक्षी हूँ।

कुँअर—तुम पक्षी हो! क्या तुम्हीं गा रही थीं?

चन्दा—हाँ प्रियतम, मैं ही गा रही थी। इसी तरह रोते एक युग बीत गया।

कुँअर—तुम्हारा घोंसला कहाँ है?

चन्दा—उसी झोंपड़े में, जहाँ तुम्हारी खाट थी। उसी खाट के बान से मैंने अपना घोंसला बनाया है।

कुँअर—और तुम्हारा जोड़ा कहाँ है?

चन्दा—मैं अकेली हूँ। चन्दा को अपने प्रियतम के स्मरण करने में, उसके लिए रोने में, जो सुख है वह जोड़े में नहीं, मैं इसी तरह अकेली रहूँगी और अकेली मरूँगी।

कुँअर—मैं क्या पक्षी नहीं हो सकता? चन्दा चली गई। कुँअर की नींद खुल गई। ऊषा की लालिमा आकाश पर छाई हुई थी और वह चिड़िया, कुँअर की शय्या के समीप एक डाल पर बैठी चहक रही थी। अब उस संगीत में करुणा न थी, विलाप न था, उसमें आनन्द था, चापल्य था, सारस्य था। वह वियोग का करुण-क्रन्दन न हों, मिलन का मधुर संगीत था।

कुँवर सोचने लगे—इस स्वप्न का क्या रहस्य है?

( ७ )

कुँवर ने शय्या से उठते ही एक झाडू बनाया और उस झोंपड़े को साफ करने लगे। उनके जीते-जी इसकी यह भग्न-दशा नहीं रह सकती। वह इसकी दीवारें उठाएँगे, इस पर छप्पर डालेंगे, इसे लीपेंगे। इनमें उनका चन्द स्मृति वास करती है। झोंपड़े के एक कोने में वह काँवर रक्खी हुई थी, जिस पर पानी ला-लाकर वह इस बृक्ष को सींचते थे। उन्होंने काँवर उठा ली और पानी लाने लगे। दो दिन से कुछ भोजन न किया था। रात को भूख लगी हुई थी; पर इस समय भोजन की बिलकुल इच्छा न थी। देह में एक अद्भुत स्फूर्ति का अनुभव होता था। उन्होंने नदी से पानी ला-ला मिट्टी भिगोना शुरु किया। दौड़े जाते थे और दौड़े आते थे। इतनी शक्ति उनमें कभी न थी।

एक ही दिन में इतनी दीवार उठ गई, जितनी चार मज़दूर भी न उठा सकते थे। और कितनी सीधी, चिकनी दीवार थी कि कारीगर भी देखकर लज्जित हो जाता। प्रेम की शक्ति अपार है।
सन्ध्या हो गई। चिड़ियों ने बसेरा लिया। वृक्षों ने भी आँखें बन्द की; मगर कुँवर को आराम कहाँ। तारों के मलिन प्रकाश में मिट्टी के रद्दे रक्खे जाते थे। हाय रे कामना! क्या तू इस बेचारे के प्राण ही लेकर छोड़ेगी?

वृक्ष पर पक्षी का मधुर स्वर सुनाई दिया। कुँवर के हाथ से घड़ा छूट पड़ा। हाथ और पैरों में मिट्टी लपेटे वह वृक्ष के नीचे जाकर बैठ गए। उस स्वर में कितना लालित्य था, कितना उल्लास, कितनी ज्योति! मानव-संगीत इसके सामने बेसुरा आलाप था। उसमें यह जागृति, यह अमृत, यह जीवक कहाँ? संगीत के आनन्द में विस्मृति है; पर वह विस्मृति कितनी स्मृति-मय होती है, अतीत को जीवन और प्रकाश से रञ्जित करके प्रत्यक्ष कर देने की शक्ति, संगीत के सिवा और कहां है? कुँवर के हृदय-नेत्रों के सामने वह दृश्य आ खड़ा हुआ, जब चन्दा इसी पौधे को नदी से जल ला-लाकर सींचती थी। हाय, क्या वे दिन फिर आ सकते हैं!

सहसा एक बटोही आकर खड़ा हो गया ओर कुँअर को देखकर प्रश्न करने लगा, जो साधारणत: दो अपरिचित प्राणियों में हुआ करते हैं-कौन हो, कहाँ से आते हो कहाँ जाओगे? पहले वह भी इसी गाँव में रहता था; पर जब गाँव उजड़ गया, तो समीप के एक दूसरे गाँव में जा बसा था। अब भी उसके खेत यहाँ थे। रात को जङ्गली पशुओं से अपने खेतों की रक्षा करने के लिए वह यहीं आकर सोता था।
कुँवर ने पूछा-तुम्हें मालूम है, इस गाँव में एक कुबेरसिंह ठाकुर रहते थे?

किसान ने बड़ी उत्सुकता से कहा-हाँ-हाँ भाई, जानता क्यों नहीं! बेचारे यहीं तो मारे गये। तुमसे क्या उसकी जान-पहचान थी?

कुँअर हाँ, उन दिनों कभी-कभी आया करता था। मैं भी राजा की सेना में नौकर था। उनके घर में और कोई न था?

किसान-अरे भाई कुछ न पूछो, बड़ी करुण-कथा है। उसकी स्त्री तो पहले ही मर चुकी थी। केवल लड़की बच रही थी। आह! कैसी सुशीला, कैसी सुघड़ वह लड़की थी! उसे देखकर आँखों में ज्योति आ जाती थी। बिलकुल स्वर्ग की देवी जान पड़ती थी। जब कुबेरसिंह जोता था, तभी कुँअर इन्द्रनाथ यहाँ भाग कर आये थे और उसके यहाँ रहे थे। उस लड़की की कुँअर से कहीं बात-चीत हो गई। जब कुँवर को शत्रुओं ने पकड़ लिया, तो चन्दा घर में अकेली रह गई। गाँववालों ने बहुत चाहा, कि उसका विवाह हो जाय। उसके लिए वरों का तोड़ा न था भाई, ऐसा कौन था, जो उसे पाकर अपने को धन्य न मानता; पर वह किसी से विवाह करने पर राजी न हुई। यह पेड़ जो तुम देख रहे हो, तब छोटा-सा पौधा था। इसके आस-पास फूलों की कई ओर क्यारियाँ थीं। इन्हीं को गोड़ने, निराने, सींचने में उसका दिन कटता था। बस, यह कहती, कि हमारे कुँअर साहब आते होंगे।

कुँअर की आँखों से आंसू की वर्षा होने लगी। मुसाफिर ने

ज़रा दम लेकर कहा-दिन-दिन घुलती जाती थी। तुम्हें विश्वास न आयेगा भाई, उसने दस साल इसी तरह काट दिये। इतनी दुर्बल हो गई थी, कि पहचानी न जाती थी; पर अब भी उसे कुँअर साहब के आने की आशा बनी हुई थी। आखिर एक दिन इसी वृक्ष के नीचे उसकी लाश मिली। ऐसा प्रेम कौन करेगा भाई! कुँअर न जाने मरे कि जिए, कभी उन्हें इस विरहिणी की याद भी आती है, कि नहीं; पर उसने तो प्रेम को ऐसा निभाया जैसा चाहिए।

कुँअर को ऐसा जान पड़ा, मानों हृदय फटा जा रहा है। वह कलेजा थामकर बैठ गए। मुसाफिर के हाथ में एक सुलगता हुआ उपला था। उसने चिलम भरी और दो-चार दम लगाकर बोला- उसके मरने के बाद यह घर गिर गया। गांव पहले ही उजाड़ था। अब तो और भी सुनसान हो गया। दो-चार असामी यहाँ आ बैठते थे। अब तो चिड़िए का पूत भी यहाँ नहीं आता। उसके मरने के कई महीने के बाद, यही चिडिया इस पेड़ पर बोलती हुई सुनाई दी। तब से बराबर इसे यहाँ बोलते सुनता हूँ। रात को सभी चिड़ियाँ सो जाती हैं; पर यह रात भर बोलती रहती है। उसका जोड़ा कभी नहीं दिखाई दिया। बस, बस, फुट्टैल है। दिन-भर उसी झोंपड़े में पड़ी रहती है। रात को इस पेड़ पर आ बैठती है; मगर इस समय इसके गाने में कुछ और ही बात है, नहीं तो सुनकर रोना आता है। ऐसा जान पड़ता है, मानो कोई कलेजे को मसोस रहा हो। मैं तो कभी-कभी पड़े-पड़े रो दिया करता हूँ।
सब लोग कहते हैं कि यह वही चन्दा है। अब भी कुँअर के वियोग में विलाप कर रही है । मुझे भी ऐसा ही जान पड़ता है। आज न-जाने क्यों मगन है।

किसान तम्बाकू पीकर सो गया। कुँअर कुछ देर तक खोया हुआ-सा खड़ा रहा। फिर धीरे से बोला-चन्दा, क्या सचमुच तुम्ही हो? मेरे पास क्यों नहीं आती?

एक क्षण में चिड़िया आकर उसके हाथ पर बैठ गई। चन्द्रमा के प्रकाश में कुँअर ने चिड़िया को देखा। ऐसा जान पड़ा, मानो उनकी आँखें खुल गई हों, मानों आँखों के सामने से कोई आवरण हट गया हो। पक्षी के रूप में भी चन्दा की मुखाकृति अंकित थी।

दूसरे दिन किसान सोकर उठा, तो कुँअर की लाश पड़ी हुई थी।

( ८ )

कुँअर अब नहीं हैं; किन्तु इनके झोंपड़े की दीवारें बन गई हैं, ऊपर फूस का नया छप्पर पड़ गया है और झोंपड़े के द्वार पर फूलों की कई क्यारियाँ लगी हुई हैं। गाँव के किसान इससे अधिक और क्या कर सकते थे।

उस झोंपड़े में अब पक्षियों के एक जोड़े ने अपना घोंसला बनाया है। दोनों साथ-साथ दाने-चारे की खोज में जाते हैं, साथ-साथ आते हैं। रात को दोनों उसी वृक्ष की डाल पर बैठे दिखाई देते हैं। उनका सुरम्य संगीत, रात की नीरवता में दूर तक सुनाई

देता है। बन के जीव-जन्तु वह स्वर्गीय गान सुनकर मुग्ध हो जाते हैं।

यह पक्षियों का जोड़ा कुँअर और चन्दा का जोड़ा है, इसमें किसी को सन्देह नहीं है।

एक बार एक व्याध ने इन पक्षियों को फँसाना चाहा; पर गाँववालों ने उसे मारकर भगा दिया।



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