गल्प समुच्चय
प्रेमचंद, संपादक श्रीप्रेमचन्द जी
तूतीमैना

काशी: सरस्वती-प्रेस, बनारस सिटी, पृष्ठ २२६ से – २३९ तक

 
तूती-मैना

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( १ )

किसी को मस्त और किसी को पस्त करने वाला, किसी को चुस्त और किसी को सुस्त करने—वाला, कहीं वामृत और कहीं विष बरसाने-वाला—कहीं निरानन्द बरसाने वाला और कहीं रसानन्द सरसाने वाला यथा अखिल अण्डकटाह में नई जान, नई रोशनी, नई चाशनी, नई लालसा और नई-नई सत्ता का संचार करने वाला सरस वसन्त पहुँच चुका था। नवपल्लव-पुष्पगुच्छों से हरे-भरे कुञ्ज-पुञ्जों में वसन्स-बसीठी मीठी- मीठी बोलो बोलती और बिरह में विप घोलती थी। मधुर मधु- मयी माधवी-लता पर मंडराते हुए मकरन्द-मत मधुकर, उस- चराचर मात्र में नूतन शक्ति सञ्चालन करने वाले–जगदाधारका गुन-गुनकर गुण गाते थे। लोनी लतिकाएं सूखे-रूखे वृक्षों से भी लिपट रही थीं। वसन्त-वैभव ने उस वन को विभूतिशाली बना दिया था।

उसी सघन वन में, नवकिसलय से सुशोभित एक अशोक-वृक्षतले, एक सजीव सुषमा को सौम्य मूर्ति, लहलही लता-सो तन्वी,

सरल-तरल दृष्टि वाली, कोई कान्तिमयी कान्ता, खड़ी-खड़ी मल्लिका-बल्लरी-वितानों के भीतर कबूतरों की क्रीड़ा एवं अलि-अवलि-केलि-लीला देख-देख चकित हो, चिबुक पर तर्जनी अंँगुली रखकर, मन्द-मन्द मुसुकानों की लड़ियाँ गूंँथ रही थीं। मंजुल-मञ्जरी-कलित तरु-वर की शाखाओं पर, शान से तान का तीर मारनेवाली काली-कलूटी कोयल, पल्लवावगुण्ठन में मुंँह छिपाये बैठी हुई, इस अनूपरूपा सुन्दरी को देख रही थी। शीतल-सुरभित समीर विलुलित अलकावली-तीर डोल-डोलकर रस घोल जाता था। चञ्चल पवन अंचल पर लोट-लोटकर अपनी विकलता बताता था। धीरे-धीरे लहराती हुई कालिन्दी की लहरों के सदृश चढ़ाव-उतराववाली, श्याम-सुचिक्कण कुंचित कुन्तलराशि, नित-म्बारोहण करती हुई, आपाद लटक रही थी। यद्यपि निराभरण शरीर पर केवल एक सामान्य वस्त्र ही शेप था; तथापि वह शैवाल-जाल-जटित सुन्दर सरोजनी-सी सोहती और मन मोहती थी। नैनसुख की धोती ही नयनों को सुख देती थी। रुप-रङ्ग में अप्र-तिम होने के कारण अथवा लाड़-प्यार किम्वा संसार से विलग रहने से, न-जाने क्यों—उसके "तूती-मैना" आदि कई एक जंगली नाम पड़े थे। जैसे जल-शून्य वनस्थली में बहुरंगे सुरभित सुमन खिल-खिलकर अछूत और अज्ञात ही रह जाते हैं, उसी तरह वह मंजुभाषिणी सुहासिनी भी उस वन में दिन बिता रही थी।

फूलों को चुन-चुनकर माला गूंथना, कँगना बनाना, बाजूबन्द बनाना, अपने रेशम के-से मुलायम बालों में फूलों की कलियाँ गूंथना,

हरिणियों की देह पर धीरे-धीरे हाथ फेरते रहना, कान देकर पक्षियों का गाना सुनना और नदी से कलसी में जल भर-भरकर द्रुमगुल्म-लतादिकों को सींचना—ये ही उसके नित्य के कृत्य थे। जब वह गङ्गा में कलसी भरने जाती, तब मुकुरोज्ज्वल मन्दाकिनी में अपनी परछाई देखकर, अपनी सुन्दरता पर आप ही मुग्ध होकर मुस्कराने लगती थी!

कभी-कभी शून्य स्थान में स्वच्छन्द विहार करनेवाले पक्षियों और भ्रमरों को किलोलें करते देखकर उसके मन में यौवन-मद-जनित एक प्रकार का मनोविकार-सा उदय हो आता था; किन्तु उससे वह प्रभावान्वित नहीं होती थी। एक तो कोमल-कमल-कलिका-सी सुकुमारी, दूसरे त्रिवली-सोपान द्वारा मन्मथ-महेन्द्र का क्रमश: आरोहण और तीसरे एकान्त वसन्त-बेष्टित वन में वास—सब कामोद्दीपक सामग्रियाँ जहाँ अहर्निश आँखों के सामने खेल-खेल कर रिझा रही थीं, वहाँ भला चपला-चंचल तारुण्य से आक्रान्त अबला का निवास कैसा कष्ट-कर था!!! कभी-कभी रुचिर-रश्मि-राशि राकेश के सुधा-सिक्त किरण-कन्यकाओं को पार्श्ववर्तिनी पुष्करिणी के स्फटिकोपम जल-वक्ष-स्थल पर थिरकते हुए देखकर यों ही मुस्करा उठती थी। जब वह कबूतरों को गोद में लेकर प्रेम-पूर्वक चूमने-चाटने लगती थी, तब वे स्निग्ध-कर-स्पर्श-जन्य अद्भुत सुख का अनुभव करते हुए, गोद में सटकर, पुलक-पल्लवित शरीर को फुलाकर, आनन्दोत्फुल्ल अध्र्दोन्मीलित नयनों से, मृगनयना मैना के सुधाधरोपम मुखड़े की ओर देखते हुए,

उसकी पतली-पतली और नन्ही-नन्ही कोमलारुण अँगुलियों को चोंच में लेकर, धीरे-धीरे, पीने लगते थे।

(२)

वनान्त-प्रदेश-वासी राजा राजोव-रञ्जनप्रसादसिंह के प्रिय दत्तक पुत्र शशि-शेखर-कुमार, घोड़े पर सवार होकर, मृगया खेलने उसी वन में आये हुए थे। किशोरावस्था थी। निडर और ढीठ थे। घोड़ा मानों हवा से बात करने वाला था। इसी से शायद उसका नाम 'पतीला' रखा गया था। उसकी सजावट, तेजी और डील-डौल देखकर देखनेवाले दातों अंगुली दबा लेते थे। कुमार साहब उसी अशोक के पास पहुँच गये, जहाँ वही शान्तोज्ज्वल स्मित-विकसित मुखड़ा चतुर्दिक आनन्द की वृष्टि कर रहा था। वह भुवन-मोहन रूप देखते ही कुमार का मन निहाल हो गया! घोड़े से उतरकर, मन-ही-मन सोचने लगे कि—'नैवं रूपा मया नारी दृष्टपूर्वा महीतले!'—'लोचन लाहु हमहिं विधि दीन्हा'—कुमार किंकर्तव्यविमूढ़ हो खड़े रह गये! जिन्होंने कभी गजेन्द्र-कुम्भ-विदारक मृगेन्द्र का भी, बिना मारे, पीछा न छोड़ा था, उसी कुमार का कड़ा कलेजा, एक सौकुमार्य-पूर्ण सुन्दरी को देखते ही मोम हो गया! जो कुमार अपनी डपट की झपट से छलाँगमारते हुए केसरी-किशोर को तत्क्षण भूमि शायी कर देते थे, वे ही वीर कुमार उस वामाक्षी को देखकर एक बात भी नहीं बोल सके,—निरे अवाक रह गये! किसी तरह धैर्य धारण कर कुछ-कुछ लड़खड़ाती हुई जुबान से बोले—हे शुचिस्मिते! तुम किन-किन

अक्षरों को पवित्र करती हो? किस शुभ देश से तुम्हारा वियोग हुआ है?

कुमार के प्रश्नों का उत्तर न मिला। विशाल-लोल लोचनों से दो-चार बूँद आँसू टपक पड़े! मानो 'मानस-सरोवर' के रुचिर 'राजीव' से हंस द्वारा संचित—'मोती' झरते हों। क्यों? "सो सब कारण जान विधाता!"

कुमार को, आँसू टपकते देखकर, बड़ा पश्चात्ताप हुआ। उससे उसके रोने का कारण पूछने का उन्हें साहस न हुआ। उन्होंने सोचा कि नाम-धाम पूछने का तो यह नतीजा हुआ; दुबारा कुछ पूछने से न-जाने क्या-क्या गुल खिलेंगे!—अभी तो थोड़ी देर हुई कि, हास्यमुक्ता-माला से मुख-मण्डल मण्डित था। न-जाने क्यों अब अश्रु-बिन्दु-मुक्तावली गूंथकर स्वपद-तलस्थ-मृदुल-दूर्वादलों का मण्डन करने लगी! हाँ, जो दूर्वादल उसके शयन करके के लिये मृदुशय्या बनकर उसे सुख देते हैं, उन वन्य-शष्यों का मूल-सिञ्चन उसके लिये क्या कोई अनुचित काम है? जो हमारे सुख के लिये अपना सर्वस्व उत्सर्ग कर देता है, उसके लिये यदि हम अपने कलेजे का खून भी दे दें, तो कौनसी बड़ी बात है? यही सोचते-सोचते कुमार 'कहि न सकै कछु चितवत ठाढ़े।"

थोड़ी देर सँभलकर एक ओर बड़े जोर से दौड़ पड़े। फिर कुछ ही देर में, एक पलाश के दोने में वन्य कन्द-मूल-फल ले आकर तूती के सामने रख दिये । कमल के पत्ते को चारों ओर से

चुनकर, कुश से उसका मुँह बाँधकर, कमण्डल बनाया और उसी में पास ही की नदी से थोड़ा जल लाये परन्तु "प्रेम-विवश मुख आव न बानी"—साहस पर भार देकर बोले—देवि! तुच्छ आतिथ्य स्वीकार करो।

सौन्दर्य में बड़ी विलक्षण विद्युत-शक्ति है! जिसके सामने दासगण सदैव हाथ बाँधे खड़े-खड़े मुँह जोहते रहते हैं, जो प्रचुर प्रजामण्डली का भावी शास्ता है, उस समर्थशाली नृपनन्दन को भी क्षणमात्र में सौन्दर्य ने कैङ्कर्य्य सिखा दिया!

ठीक है, यदि सौन्दर्य में ऐसी अद्भुत आकर्षण-शक्ति न होती, तो मत्स्योदरी का नाम योजन-गन्धा कैसे होता? नारद के समान विरागी भजनानन्दी व्याकुलता की पराकाष्ठा तक क्यों पहुँचते? बेचारे राक्षस अमृत के बदले मदिरा क्यों पी लेते? उर्वशी भला 'नारायण' के बदले 'पुरुरवा' का नाम लेकर क्यों स्वर्ग-च्युत होती? सूर्पणखा को अपने नाक-कान कटाने की क्या पड़ी थी? गोपियाँ लोक-लाज की तिलाञ्जलि क्यों देतीं? रुक्मिणी खिड़की की राह से कृष्ण को प्रेम-पत्र क्यों भेजती? ऊषा की सखी चित्रलेखा अपनी चित्र-कला-कुशलता का परिचय कैसे देती? मानिनी राधिका के पैरों की महावर नन्दनन्दन के माथे का तिलक कैसे होती?

(३)

एक अपरिचित मनुष्य के सामने तूनी कन्द-फल-दल-जल,कुछ भी, छू न सकी। लज्जावनत-मुखी होकर सरलता-पूर्वक बोली—तब तक इस चटाई पर बैठिये, पिताजी बाहर से आते होंगे।—तूती की वाणी सुनकर राजकुमार की दक्षिण भुजा और आँख फड़क उठी। उस चटाई पर बैठकर कुमार मखमली गद्दी की गुद-गुदी अनुभव करने लगे। वे सोच रहे थे कि——

कहत मोहिं लागत भय, लाजा;
जो न कहौं बड़ होइ अकाना।

कुमार की सांसारिक कुवासनाओं में तूती के प्रेम की-सी अलौकिक पवित्रता और क्षमता नहीं थी। जिस प्रकार गङ्गा में मिलकर कर्मनाशा भी शुद्ध हो गई, उसी प्रकार तूती की सरलता-सुरसरी में कुमार की कुवासना-कर्मनाशा मिलकर निर्मल हो गई! उनकी इच्छा थी कि हमारे तमाच्छन्न हृदय में इसी छवि-दीप-शिखा का उजाला होता; इसी बाहु-लता की सघन छाया में हमारा प्राण-पथिक विश्राम करता, इन्हीं अधर-पल्लवों को ओट में हमारा प्राण-पखेरू छिपकर शान्ति पाता और इसी स्वर्गीय सौन्दर्य-सुधा का एक घूँट पीकर हम अमरत्व लाभ करते; किन्तु कुमार की कलुषित कामना कुण्ठित हो गई! तूती का सारल्य उनकी कामना पर विजयी हुआ! नीच जल-विन्दु भी जैसे कमल दल के संयोग से मुक्ताफल की-सी श्री धारण करता है, राजस
सुख के उपासक कुमार का चित्त सात्त्विक सुख का अनुभव करते-करते वैसे ही धवलित हो गया!

प्रेमोन्मत्त मधुप कमलिनी को इतना रिझाता है कि, वह अपने दिल के सब पर्दे खोल कर भौंरे को भीतर बुलाकर, अनेक स्निग्ध-सुगन्धमय आवरणों के अन्दर छिपा लेती है। वह चाहती है कि, मेरी सुन्दरता पर अपना तन-मन-धन न्यौछावर कर देनेवाले अनन्य प्रेमों पर अब कोई दूसरा डाही डीठ न डालने पावे।

हंस-गण प्रति-दिन आते हैं, चमकीली सीपियों के स्फुटोन्मुख मुख चूम-चूमकर चले जाते हैं। सीपियाँ भी एक दिन दिल खोल-कर उनके सामने मोतियों की डाली लगा देती हैं।

वंशी टेरनेवाला, प्रेम में खूब डूब कर, अपने हृदय का माधुर्य्य अधरों में भरकर, जब निभृत निकुञ्ज में सुरीली तान छेड़ने लगता है, तब हृदयहारिणी हरिणी भी कहने लगती है—

'चाम काटि आसन कगे, माँस राँधि कै खाउ;
जब लौं तन में प्रान है, तब लौं बीन बजाउ।'

(४)

भगवान भास्कर संसार-भर के शुभाशुभ कर्मों का निरीक्षण करके, कर्त्तव्य-परायणता का परिचय देते हुए, पश्चिमांचल की ओर चल पड़े। संध्या-वधू ने अपने धूसर अञ्चल से धरणी का नग्न पृष्ट-देश ढक लिया। थोड़ी देर के बाद, ताराओं की मुक्ता-माला पहन, ललाट पर चन्द्र-चन्दन की बिंदी लगा, दिगङ्गनाओं को उज्ज्वल दर्पण दिखाती और चकोरों को चाँदनी की चाशनी चखाती हुई, राका-रजनी-रमणी आ पहुँची। उस समय मालूम हुआ, मानों यह दुनिया ज्योत्स्ना-तरङ्ग में स्नान कर रही है।

चटाई पर बैठे-बैठे कुमार अनुक्षण रूप-सुधा-माधुरी पान कर रहे थे। चन्द्रमा के किरण जाल में अपने सौन्दर्य सुरसरी गत मन-मीन को फंँसाने की असफल चेष्टा कर रहे थे। कभी सिन्दुरिये आम और चिबुक से, कभी विकसित किंशुक-कुसुम और नासिका से, कभी अंगूर के गुच्छों और स्तन-स्तवक से कभी पके जम्बूफल और कुन्तल-कलाप से, कभी अनार-दानों और सुशोभन दन्त-पंक्ति से, कभी पकी हुई नारङ्गी और देह की गौरवमयी गौरता से तथा कभी मृगशावक के आकर्ण-विस्तृत नेत्रों और तूती के तरलायत लोचनों से सादृश्य मिलाते थे। कभी कण्ठ से विद्रुम की माला निकालकर उसमें उन कोमल अधरों की-सी अरुणिमा ढूँढ़ते थे। किन्तु वह पीन-घन-सजीव शोभा कहीं मिलती न थी।

एकाएक प्रेमान्ध होकर फिर कुमार ने कहा—हे कन्दर्प-कीर्ति-लतिके! ये तेरे विषम विशिख-सरीखे नयन तो शेर के शिकारियों का भी शिकार करने वाले अचूक आखेटक मालूम होते हैं?—भोली-भाली तूती कूपमण्डूक थी। उस वन्याश्रम और उस कुञ्ज-कुटीर के सिवा भी कोई स्थान संसार में है, यह उसे मालूम ही नहीं था, कुमार की उक्तियाँ सुनकर, सरल हँसी हँसती हुई, तूती उनका मुख निहारती रह जाती थी। तूती का भोलापन देखकर कुमार मुग्ध हुए बिना न रह सके। वे मन-ही-मन सोचते थे कि चाहे तूती देवाङ्गना हो या वनदेवी हो; पर अपने राज्य में आई हुई सर्वोत्तम वस्तु को अब दूसरे किसी के हाथ में न जाने दूंगा। राज्यभर में जितनी उत्तमोत्तम वस्तुएं हों, उन सबका संग्रह राजाओं को अवश्य ही करना चाहिये।

(५)

द्रुम-लताओं की ओट में छिपे-छिपे एक महात्माजी सारी प्रेम-लीला देख रहे थे। तूती को स्वाभाविक सरलता और कुमार की प्रेमकता देखकर हँसते हंसते ये पूरब की ओर से प्रकट हुए। मानो आशुतोष शिव ओढरदानी तूती और कुमार के प्रेम-योग से सन्तुष्ट होकर उनके मनोरथ पूर्ण करने के निमित्त प्रकट हुए हों। महात्माजी सर्वाङ्ग में भस्म रमाये, सिर पर जटा बाँधे और हाथ में सुमिरनी लिधे हुए थे। इन्होंने ही तूती को, गंगा को बाढ़ में बहते जाते हुए देख कर, पकड़ा था और चार वर्ष की अवस्था से ही आज सोलह वर्ष को अवस्था तक, बड़े लाड़-प्यार से पाला था।

महात्मा को देख कर तूती सहम गई। राजकुमार, चकित होकर चरणों में झुक गये। महात्मा ने पूछा—तू कौन है। तेरा यहाँ क्या काम है?—राजकुमार ने हाथ जोड़कर कहा-महात्मन्! मृगयावश इस जंगल में चला आया हूँ। एकाएक मैं आपकी कुटी की ओर निकल आया। यहाँ आने पर, मैं इस देवी को देखकर स्तम्भित हो गया। मैंने ऐसा भोला-भाला अनूठा रूप कभी देखा नहीं था। इस पर्ण-कुटी के पास आते ही, मैंने इस देवी को रोते देखा। कुछ ही देर पहले यह हँस रही थी। इसका रोना देखकर मैं अधीर हो गया। इसे भूख-प्यास के कारण रोते जानकर, मैं विमल-सलिला गङ्गा में से थोड़ा जल और कुछ जंगली फल ले आया; किन्तु इसने मेरा सत्कार स्वीकार नहीं किया है। इसका कारण मुझे ज्ञात नहीं। इसके सिवा मेरा कोई अपराध नहीं। अभी तक मैंने इस देवी की केवल मानसिक पूजा की है। इस अलौकिक रूप ने मुझे अपना किंकर बना लिया है। मैं इस अमूल्य रत्न का भिक्षुक हूँ। आप इस अपराध को यदि दण्डनीय समझते हैं, तो इस अतुलनीय रूप-रत्न का याचक बनकर मैं आपका शाप भी ग्रहण कर सकता हूँ।

राजकुमार की सच्ची बातें सुनकर महात्मा ने कहा-हम तुम्हारे सद्भाव से सन्तुष्ट हैं। तुम राजकुमार जान पड़ते हो। तुम्हारा ब्रह्मचर्य-प्रदीप्त मुख-मण्डल देखकर हम प्रसन्न हैं। यह कन्या गंगा की बाढ़ में बहकर आई थी। हमने बड़े स्नेह से उसका पालन-पोषण किया है। आज हमारा स्नेह-सम्बद्धन सार्थक हुआ। हमारे-जैसे विजन-वन-विहारी वातास्तु-पर्णाहारी की कुटी में इसको कष्ट होता था। यह तुम्हार राजमन्दिर के ही योग्य है। हम हृदय से आशीर्वाद देते हैं कि यह मणि-काञ्चन-संयोग सफल हो। मणि का स्थान राजमुकुट ही उपयुक्त है।

(६)

शशि-शेखर-कुमार भी एक राजा के लाड़ले पुत्र ही तो थे। अकण्टक सुख से पला हुआ उनका शरीर मक्खन-सा मुलायम और चिकना था। दीर्घ भुजायें, चौड़ी ऊँची छाती, चटकीला चेहरा, कसरत से कसी हुई देह और प्रशस्तोन्नत ललाट-सभी अवयव मनोहर थे। मोतियों से गुंथी सोने की गोल-गोल बालियाँ कानों में पड़ी थीं। कानों तक फैले हुए नेत्र यों सोहते थे, मानों मुक्ता-फल उगलती हुई सीपियों के मुख चलित-पत्र-युक्त पद्म चुम्बन कर रहे हों। तूती के योग्य ही सुवर्ण-घटित-प्रेम-पञ्जर मिल गया! सोने के पींजरे में सोने की चिड़िया बन्द हो गई!

वन के तोते जब पींजरों में बन्द होकर जन-समुदाय में आते हैं, तब पाण्डित्य प्राप्त कर अपना जीवन आदर्श बना लेते हैं। सुन्दर सरोवरों में चाहे कितना ही सुन्दर सरोज क्यों न खिले; पर जब तक भगवान् शशिशेखर के मस्तक पर वे नहीं चढ़ते, तब तक उनका संसार में होना न होना, दोनों बराबर रहता है। जो वन ही में फूलते और झर जाते हैं, उन पुष्पों का उपयोग ही क्या है? कण्व-कन्या यदि दुष्यन्त की हृदय-सर्वस्वा नहीं हुई होती, तो उसके अंक-गगन में भरत-सरीखे पुत्र-पूर्णेन्दु के दर्शन पाकर संसार किस प्रकार पुलकित होता? 'महाकवि' का 'शाकुन्तल' ही आज क्यों संसार में सर्वोच्च आसन पाता?

ठीक है-जिसने चन्द्रमा को सुन्दर बनाया, उसी ने चकोर के हृदय को भी प्रेममय बना दिया। जिसने मेघ को श्याम-सुन्दर बनाया, उसी ने बिजली को भी व्रज-बाला बना दिया! फूल बनाने वाले ने ही भ्रमर के छोटे से हृदय केन्द्र में अगाध प्रेमसागर उमड़ाकर 'गागर में सागर' भर दिया!

( ७ )

अहा! जो तूती शून्यारण्य में चहकती थी, जिसके कुन्तल कपाल को पन्नगी-परिवार समझकर मयूर-माला अपनी चोंचों से धीरे-धीरे बखेरती थी, जिसके दिये हुए अनारदानों को चखनेवाले शुक-शावक कुटी के पास वृक्ष-शाखाओं पर बैठकर नित्य ही कलरव करते थे, जिसकी बोली सुनकर जङ्गली मैना भी अपनी बोली बिसार कर वैसी ही मीठी बोली बोलने का अभ्यास किया करती थी, जिसके फूलों से भरे अचल में से बावले-उतावले भ्रमरों का मुण्ड निकल-निकलकर, सुरभित-श्वास-समीर के लोभ से, घ्राण-रन्ध्र के पास टूट पड़ता था, वही तूती अब राज-प्रासाद के मखमली पर्दो में, वृहद्दर्पणालंकृत विविध-चित्र विभूषित विलास मन्दिरों में और खस की टट्टियों से जड़ी हुई बारहदरियों में बन्द रहने लगी। जो बिजली वन में तूती की शोभा निहारकर आरती उतार जाती थी, अब वही बिजली खिड़कियों की राह से भो झाँकने नहीं पाती-तड़प-तड़पकर बाहर ही रह जाती है! वन्य वृक्ष लतादिकों को सींचने के समय तूती के विधु-वदन पर जो श्रम-स्वेद-कण परिलक्षित होते थे, उन्हें प्रकृति देवी अपनी पवनान्दोलित लतिका-कन्याओं के पुष्पमय अञ्चलों से पोंछ लेती थीं; अब उन्हीं कुंडल कलित कल-कपोलों को शशि-शेखर-कुमार अपनी सुगन्ध सिक्त रेशमी रुमालों से पोंछकर, उन्हें आखों से लगा लेते हैं। जो हाथ झंझावात के झोंके से इतस्ततः उलझी हुई लताओं को सुधारने में सधे थे, अब वे ही हाथ हारमोनियम और सितार पर सध गये। संसार का सारा सौन्दर्य यदि प्रेम की सुगन्ध से शून्य हो जाय, तो ईश्वर ने अपने 'मनोरञ्जन' के लिये जो यह विश्व-महा-नाटक रचा है, उसका पहला पर्दा कभी न उठे। सारा खेल मटियामेट हो जाय। प्रेम की सुगन्ध के बिना यह जीवन-कुसुम सौन्दर्य की थाली ले कर क्या करेगा?

देखिये, जिन पर्वत-शिलाओं पर घास-पात का पर्दा पड़ा था, जिनका कलेवर काई से ढका रहता था, जिन पर चाँदनी भी आकाश से उतरकर घड़ी-भर के लिये रँगरलियाँ मचा जाती थी, वही शिलाएँ आज पहाड़ की चोटियों से उतरकर प्रेमवश दृष्टि-उन्मेषिणी एवं लोचनानन्ददायिनी मूर्ति बनकर, देव-मन्दिरों में आ डटी हैं। अब उनका कलेवर प्रकृति की गोद में पले हुए फूलों से ढका हुआ नहीं है; बल्कि दूध की धाराओं से सींची हुई संगमर्मरी क्यारियों में फूलनेवाले फूलों के मोटे-मोटे गजरे उन्हें पहनाये जाते हैं! काई के बदले अब हरे रंग की ज़रीदार मखमली पोशाक सुशोभित हो रही है! यही इस परिवर्तनशील संसार की विचित्रता है!

मैना! तू वनवासिनी, परी पीजरे आनि;
जानि देव-गति ताहि में, रही शान्त मुख मानि।


कहें 'मीर' कवि नित्य, बोलतो मधुरे बैन;
तौभी तुझको धन्य, बनी तू अजहूं 'मै-ना'।