गल्प समुच्चय
प्रेमचंद, संपादक श्रीप्रेमचन्द जी
स्वामीजी

काशी: सरस्वती-प्रेस, बनारस सिटी, पृष्ठ २५ से – ३६ तक

 

 

(२) स्वामीजी




( १ )

हमारे छोटे से जीवन में भी कितने ही व्यापार घटे हैं, कितने ही हर्ष-शोक के समय आये हैं; पर उस दिन की घटना यद्यपि उसे आज पूरे बीस वर्ष गुजर गये, जैसी स्पष्ट याद है वैसी और कोई बात याद नहीं। जब हमारी उम्र चार साल की थी, तब की भी हमें घटना याद है। उस समय ऊपर चढ़ते समय जीने से हम लुढ़क पड़े थे, चोट भी लगी थी। वह बात हमें आज भी जैसी साफ याद है—इन्ट्रेन्स की परीक्षा में इतिहास के पर्चे में क्या पूछा गया था—इस समय बिलकुल याद नहीं। मस्तिष्क-विद्या-विशारद ही इन गुत्थियों को खोल सकते हैं।

जून का महीना था। कालेज की छुट्टियाँ थीं। परीक्षा-फल प्रकट हो चुका था। पास होने की खुशी ताज़ी थी। मित्र भी सब पास हुए थे; इसलिए हरद्वार जाने का प्रस्ताव पेश होते ही 'भारत-रक्षा कानून' की तरह सर्व सम्मति से 'पास' हो गया। उसी दिन रात को पञ्जाब-मेल में सवार होकर मित्र-मण्डली दूसरे दिन तड़के ही हरद्वार में दाखिल हो गई। गंगा-स्नान और गंगातट पर भ्रमण का आनन्द खूब लूटा जाने लगा। सच तो यह है कि हम लोग उन दिनों विनोद की गंगा में बहे जा रहे थे। किसी को कुछ फिक्र न थी—जुलाई की १७ तारीख बेशक दूर खड़ी हुई अपना सूखा-सा मुँह दिखाकर बन्धन के दिनों की कभी-कभी याद दिला देती थी। उसी का खटका था। उस दिन कालेज खुलने को था। इसीलिए समय-विभाग करते समय उस तारीख का कभी-कभी जिक्र आ जाता था। बाक़ी कोई फिक्र न थी। मौज-ही-मौज थी।

हम सब लोग खूब तड़के उठते और हृषीकेश-रोड पर तीन-चार मील घूम कर "हर की पौढ़ी" पर स्नान किया करते थे। स्नानोपरान्त मिल-जुल कर भोजन बनाते। फिर खाली वक्त का साथी कोई खेल खेलते। शाम को गंगा-तट पर घूम कर वहाँ का अपूर्व दृश्य देख, मन और आँखों को युगपत् तृप्त करते थे। पर हमारा मित्र नवीनचन्द्र हमारी दिनचर्य्या में दोपहर तक का शरीक था। वह साधुओं का बड़ा भक्त था। एम॰ ए॰ पास करके भी साधुओं को भण्ड समझने की बुद्धि उसमें उत्पन्न न हुई थी। हम लोग उसे खूब छेड़ा करते थे। पर वह हमारे कटाक्षों की रत्ती भर पर्वा न करता था। हम जब कभी किसी साधु की निन्दा करते और उसको नशेबाज या कपटी साबित करने की चेष्टा करते, तभी वह कहता—"उन्हें साधु कहना भूल है। तलाश करो, साधु-संग पाओगे। इस तरह सर्व-व्यापक घृणा के द्वारा तो तुम काँटों के साथ फूलों से भी दूर रहोगे।" उसकी बात में कुछ सार था, यह बात उस समय हमें मालूम न थी। नवीन ने इसी वर्ष संस्कृत में एम॰ ए॰ की परीक्षा नामवरी के साथ पास की थी। उसमें साधु-भक्ति की मात्रा भी खूब अधिक थी। इसलिए मित्र-मण्डल-विद्यालय की सीनेट ने उसको "पण्डितजी" की आनरेरी उपाधि से विभूषित करने में अपना भी गौरव समझा। नवीनचन्द्र दोपहर को भोजनोपरान्त हमसे विदा हो जाता था। उपनिषदों का गुटका और मिसेज़ बिसेन्ट की गीता उसकी आजानु-लम्बित जेबों में पड़ी रहती थी। उन्हें लेकर वह न-मालूम कहाँ-कहाँ घूमता, कुछ मालूम नहीं। शाम को भोजन बनाने से एक घण्टा पहले वह हमसे आ मिलता था। भोजन बनाने का भार "पण्डितजी" पर ही न्यस्त था। पर उनकी सेवा के लिए हम सब लोग उपस्थित रहते थे। मण्डली में जाति-भेद नाम को न था। सभी एकाकार थे; ब्राह्मण, कायस्थ और वैश्य सभी एक चौके में खाते थे। भोजन बनाने का काम भी खूब दिल्लगी का काम हो गया था।

एक दिन नवीनचन्द्र शाम तक वापिस न आया। मण्डली विचलित हो गई। अनमने होकर भोजन बनाने का काम शुरू किया गया। शाम के बाद नवीनचन्द्र लौटा। मित्रों ने तड़ातड़ प्रश्न करने शुरू कर दिये। सब के जवाब में उसने बड़ी शान्ति और धैर्य्य से कहा—"स्वामी चिद्घनन्दजी के दर्शन के लिए मुझे आज गंगातट पर कई मील दूर जाना पड़ा। वहाँ सत्सङ्ग में देर हो गई।" उसने स्वामीजी की शत-मुख से प्रशंसा की। उसके कहने से मालूम हुआ कि स्वामीजी सन्यासी साधु हैं। दर्शन-शास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित हैं। परोपकारी हैं। दिन में एक बार भोजन करते हैं। यह सुनते ही मण्डली के सभ्यों की समालोचना शुरू हो गई। किसी ने वैराग्य का अर्थ बहु-राग और किसी ने एक समय भोजन करने का भाव परिपाक-शक्ति की न्यूनता बताई। नवीन ने उन सब बिना पूछी समालोचनाओं के उत्तर में एक बड़ी ही वेदना-भरी चितवन से हमारी ओर देखा। हम उसका मतलब समझ गये। वह हमसे मित्रों की कभी-कभी शिकायत किया करता था। सच तो यह है कि हममें उसकी पूज्य बुद्धि थी। वह हमारी इन बातों से नाराज़ न था। पर हमारी मानसिक अवस्था के लिए उसे दुःख ज़रूर था। हमने मित्रों को फटकार बताई और कहा कि हम सब कल प्रातः काल स्वामीजी के दर्शनार्थ चलेंगे।

(२)

प्रातः काल उठकर हम लोगों ने भ्रमण के लिए जाकर स्नान किया और स्वामीजी के दर्शन के लिए चल दिये। भगवती भागीरथी के पवित्र तट पर कई मील चल कर एक छोटा-सा मैदान मिला। वहाँ का दृश्य बहुत ही मनोहर था। गंगाजी की कलकल-ध्वनि, ज्यों-ज्यों हम ऊपर चढ़ते जाते, बढ़ती जाती थी। सब तरफ सन्नाटा था। इसी मैदान में स्वामीजी कुशासन पर ध्यान-मग्न बैठे थे। हम लोग गङ्गाजी के तट पर पड़ी एक शिला पर बैठ गये और स्वामीजी के ध्यान-भंग की राह देखने लगे। हममें से नवीन को छोड़ कर प्रायः सभी नास्तिक थे। ईश्वर या प्रारब्ध पर विश्वास करना, मूर्खों का काम समझते थे। ईश्वर भक्त को मूर्ख और प्रारब्धवादी को आलसी समझने का रोग हमारी मण्डली में खूब ज़ोरों पर था। स्वामीजी को ध्यानावस्थित देखकर यारों की चंचल आँखें एक दूसरी से लड़ कर बेतार के तार से खबरें भेजने लगे; एक घण्टे बाद स्वामीजी ने आँखें खोलीं। उनके चेहरे से दिव्य तेज झलक रहा था। हम सब ने प्रणाम किया। नवीन ने हम लोगों का संक्षिप्त परिचय स्वामीजी की सेवा में निवेदन किया। बातें होने लगीं। उनके उज्ज्वल नेत्रों से शान्त प्रकाश की लहरें निकल रही थीं। उनकी उम्र पचास वर्ष से ज़रूर ऊपर थी, पर उनका शरीर खूब स्वस्थ और सबल था। स्वामीजी की बुद्धि बड़ी पैनी थी। जिस विषय पर बातचीत चलती, स्वामीजी उसी विषय की गहरी-से-गहरी बात को बड़ी आसानी से बाहर निकाल लाते। स्वामीजी हमसे मित्रों की तरह बातचीत कर रहे थे। गुरुडम की भयानक मूर्त्ति का वहाँ कोसों तक पता न था। हम लोग भी उनकी सरलता पर मुग्ध होकर खुले दिल से बातें कर रहे थे। हमारे साथी रामप्रसाद उर्फ मौजीराम ने कहा—"महाराज, अब तो कुछ दिनों के लिए लोगों को चाहिये कि साधु बनना बन्द कर दें। साधुओं की संख्या दिन-दिन बढ़ती जाती है।" स्वामीजी ने हँस-कर कहा—"लोग कुछ दिनों के लिए गृहस्थ बनना छोड़ दें, तो कुछ लाभ होने की सम्भावना है। मनुष्य-संख्या बेतरह बढ़ रही है। गृहस्थ न बनने से ही मनुष्यों की बढ़ती में कमी हो जायगी।"

मौजीराम चुप हो गए। इसी समय एक गृहस्थ अपने परिवार-समेत वहाँ आया। उसने आते ही स्वामीजी को प्रणाम करके नवीन बाबू से पूछा—"कुशल-पूर्वक हैं?" गृहस्थ के साथ उसको स्त्री, षोडशी कन्या और एक दासी थी। ये सब लोग भी गङ्गा तट पर बैठ गए। बातें हो रही थीं। हमारी मण्डली की ओर से प्रश्नों की और स्वामीजी की ओर से उत्तरों की झड़ी लग रही थी। नवीन के साथ गृहस्थ का पुराना परिचय है, इसका पता लगते ही चुलबुले मित्रों की चपल चितौनियाँ नवीनचन्द्र के चिन्ता-पूर्ण चेहरे की ओर फिर गईं। परन्तु वह स्वामीजी के शान्त आश्रम में बैठा हुआ, किसी अनिर्वचनीय आनन्द का अनुभव कर रहा था। हमारे साथी गदाधर उर्फ गञ्जेगोपाल ने बड़े विनीत भाव से पूछा—

"स्वामिन्, त्याग का आदर्श क्या हैं?"

स्वामीजी—"दूसरों के सुखों के लिए अपने सुखों को छोड़ देना। इस तरह अभ्यास करते-करते फिर अपने-पराये सुख का भेद नहीं रहता। फिर आनन्द की धारा समान भाव से बहने लगती है।"

गदाधर—"पर ऐसे महात्मा आज-कल बिरले ही हैं, इसका कारण क्या है?"

गञ्जेगोपल के कटाक्ष को समझ कर स्वामीजी ने मुसकराते हुए कहा— "इसका कारण गृहस्थों की सिद्धान्त-शून्यता है। साधुओं का निकास तो वहीं से है। तुम लोगों में कितने आदमी पारमार्थिक विषयों के लिए न सही, अपनी जाति या देश के लिए ही अपने सुखों का त्याग कर सकते हैं? फिर साधु होकर तुम विश्व-प्रेम में रँग जाओगे और उसके लिए अपने सुखों का ध्यान छोड़ दोगे- इस बात की तुमसे आशा करना व्यर्थ नहीं, तो कुछ अधिक जरूर है।"

गञ्जे गोपाल चुप हुए। मन्नूलाल उर्फ मस्तराम ने हाथ जोड़ कर कहा-

“जब कोई भोला-भाला यात्री धोखे से ड्योढ़े दरजे में आ बैठता है, तब हम उसकी भत्स्ना करके उसको गन्तव्य पथ दिखा देते हैं, और इस तरह, उसके कुछ पैसे बचाने का अक्षय पुण्य प्राप्त कर लेते हैं। इसलिए हमें एकदम उपकार शून्य कहना, कुछ बहुत सङ्गत प्रतीत नहीं होता।"

स्वामीजी इस बात पर खिलखिलाकर हँस पड़े। उनकी खिलखिलाहट में परितृप्ति और सन्तोष की मात्रा खूब अधिक थी। वासना-तप्त पुरुषों के हृत्कमल में परितृप्ति का यह भाव कहाँ मिल सकता है?

गङ्गाजी का प्रवाह अनन्त के मार्ग में अनन्त से मिलने के लिए भागा जा रहा था। हमारी बातें भी अनन्ताकाश के गर्भ में छिपी चली जाती थी। बातें भी अनन्त-रूप धारण कर रही थीं। स्वामीजी भी खूब दत्तचित्ततता से बातें कर रहे थे। बड़ी मौज का समय था। गृहस्थ ने देखा कि लड़कों की मण्डली स्वामीजी को जल्द छोड़नेवाली नहीं। इसलिए उसने स्नान के लिए स्वामीजी से आज्ञा माँगी। वे लोग निकट ही गङ्गातट पर स्नान करने लगे। वृद्ध ने सबसे पहले स्नान करके सन्ध्योपासना शुरू की। उसकी स्त्री और लड़की ने स्नान के लिए गङ्गा में प्रवेश किया। एक ही क्षण के बाद वृद्ध की स्त्री ने चिल्लाकर कहा—"दौडिए! दौडिए!! शारदा डूबी जाती है।" उसकी बात हम लोगों ने भी सुनी। स्वामीजी और हम सब तत्काल ही तट पर पहुँच गये। वृद्ध का चेहरा सूख गया था। उसका शरीर काँप रहा था। उसने बड़ी वेदना और निराशा-भरी दृष्टि से स्वामीजी को देखा। शारदा गङ्गा के तरंग-जाल में बेतरह फँस गई थी। उसका चेहरा विकृत होने पर भी, गङ्गा-गर्भ में अपूर्व रूप-राशि विकीर्ण कर रहा था। निस्सन्देह उसकी दृष्टि में उदासीनता और नैराश्य के चिह्न स्पष्ट दिखाई दे रहे थे। हम सब किंकर्त्तव्य विमूढ़ हुए चित्र की तरह खड़े थे। स्वामीजी ने बड़ी जोर से छलाँग मारी। वे एक ही छलाँग में शारदा के बहुत पास पहुँच गये। इसी समय फिर छपाक का शब्द हुआ। हम लोगों ने देखा कि नवीन भी तैरता हुआ स्वामीजी के पीछे जा रहा है। स्वामीजी ने बड़ी सफ़ाई से शारदा को उठा लिया। शारदा ज्ञान-शून्य हो गई थी। गङ्गा का प्रवाह खूब तेज था। स्वामीजी बहुत चेष्टा करने पर भी गङ्गा की बलवती तरंगों को, शारदा को, लिए हुए, न काट सके। हम लोगों ने देखा कि स्वामीजी बलहीन होकर गङ्गा के प्रवाहाभिमुख बहने लगे। ठीक इसी समय नवीन उनकी सहायता के लिए उनके पास पहुँच गया। उसने बड़ी वीरता से दोनों को सँभाला। शारदा को छोड़कर स्वामीजी फिर स्वस्थ हो गये। बड़ी मुश्किल से नवीन और स्वामीजी ने, अपनी जान पर खेलकर, शारदा को बाहर निकाला। वृद्ध और उसकी स्त्री स्वामीजी के चरण छूने के लिए दौड़े। पर उन्होंने उनको ऐसा करने से निषेध कर दिया। वे रो-रोकर स्वामीजी का गुण-गान करने लगे। स्वामीजी ने कहा—

"हमने कोई प्रशंसा-योग्य काम नहीं किया—किया है अपने कर्तव्य का पालन। नवीन-बाबू ने ज़रूर अपनी श्रेष्ठ-बुद्धि का परिचय दिया है। साधु का जीवन दूसरों के लिए ही है और फिर तुम तो ..."

कहकर स्वामीजी रुक गये। स्वामीजी की बात सुनकर हमारे हृदय की तन्त्री में त्याग का राग बजने लगा। स्वामीजी की निष्कपट और सरल मूर्ति में हमने सचमुच उस समय मूर्तिमान् त्याग के दर्शन किये।

वृद्ध ने स्वस्थ होकर नवीनचन्द्र की जाति-गोत्र के विषय में प्रश्न करने शुरू किये। उसी समय स्वामीजी ने सरलता की हँसी हँसते हुए कहा—

"बाबू कृष्णदास, विवाह का दूसरा नाम पाणि-ग्रहण है। नवीन-बाबू ने शारदा का पाणि-ग्रहण करके निश्चय ही तुमको कृतार्थ किया है। जिस समय थककर हम डूबने लगे थे, उस समय इच्छा न रखते हुए भी नवीन को शारदा का हाथ पकड़ने की आज्ञा हमने दे दी थी। सच यह है कि इसी के पुरुषार्थ से तुम्हारी कन्या के प्राण बचे हैं और साथ में हमारा पापी शरीर गङ्गा-लाभ करते-करते बच गया है। सिद्धान्त-दृष्टि से विवाह विधि सांग हो गई। अब लौकिक व्यवहार की रक्षा के लिए कोई शुभ दिन नियत करके इस संस्कार के बाह्य अंग की पूर्ति भी कर देनी चाहिए। नवीन-बाबू जैसे निष्ठावान् विद्वान् और सदाचारी जामाता के लिए हम तुन्हें हृदय से बधाई देते हैं।"

नवीन-बाबू "स्वामिन" कहकर कुछ कहा ही चाहते थे कि स्वामीजी ने अर्थ पूर्ण दृष्टि से उसकी ओर देखकर कहा—

"नवीन, विधि के विधान के विरुद्ध बोलने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं। बाबू कृष्णदास हमारे बाल्य-सखा हैं, यह बात इच्छा न रहते भी हमें आज कहनी पड़ी है। ये रिटायर्ड डिप्टी कलेक्टर हैं। बड़े सज्जन हैं। इनकी एक-मात्र कन्या शारदा को हमने गोद खिलाया है। इस निष्पृहावस्था में भी हमें उससे सन्तान की तरह स्नेह है। इसका कारण भारवि के शब्दों में यही है—भवन्ति भव्येषु हि पक्षपाताः।"

"जब से हम साधु-वेष में रहते हैं, तब से बराबर कृष्णदास बाबू साल में एक बार हमसे मिलने आते हैं। अपनी कन्या के सम्बन्ध के विषय में ये कई वर्षों से चिन्तित हैं। इन्होंने कल तुमसे बात-चीत करके बहुत आनन्द पाया था। हमसे यह जानकर कि तुम अनूढ़ हो, उन्होंने कल ही तुमसे यह प्रस्ताव करने का निश्चय कर लिया था। यदि आज यह घटना न होती, तो भी तुमसे यह प्रस्ताव किया ही जाता। किन्तु अब तो जिस रत्न का तुमने स्वयं उद्धार किया है, उस पर तुम्हारा स्वयं भी अधिकार हो गया है। शारदा बड़ी लजीली और शुभ गुण सम्पन्ना लड़की है। तुम-जैसे निष्ठावान् हिन्दू की पत्नी बनने के लिए यह सर्वथा योग्य है। हमारा-तुम्हारा कुछ ही दिनों का परिचय है। फिर भी तुम्हारी हम पर श्रद्धा न सही, तो कृपा ज़रूर ही है। इस छोटे-से रिश्ते से ही हम तुमसे यह प्रार्थना करने की धृष्टता कर कहे हैं। आशा है, हमारी प्रार्थना स्वीकार करके हमारे मित्र का उपकार करने में अब तुम आगा-पीछा न करोगे।"

नवीन ने—"मुझे आपकी आज्ञा अविचार्य रूप से मान्य है"—कहकर सिर झुका लिया। उस दिन शाम को "पण्डितजी" के ट्रंक का ताला तोड़ कर उसमें जितने रुपये थे निकाल लिये गये और उनको मिठाई और फलों से बदल कर मित्र-मण्डल ने गङ्गा-तट पर षोडशोपचार से पेट-भगवान की पूजा की। उस दिन पण्डितजी को भोजन बनाने की तकलीफ़ भी न उठानी पड़ी।

(३)

अगले सहालग मे ही सुलतानपुर में कृष्णदास बाबू के निवास-स्थान पर नवीन का विवाह बड़ी सादगी से सम्पन्न हो गया। मित्र-लण्डली उपस्थित थी। स्वामीजी भी पधारे थे। खूब सत्संग रहा। पण्डित मदनमोहन शास्त्री, एम॰ ए॰ को स्वामी चिद्घनानन्द के रूप में देखकर सुलतानपुर निवासी बड़े आश्चर्य्यान्वित हुए। हम लोगों के आश्चर्य्य की भी, यह जानकर कि स्वामी चिद्घनानन्द उस समय सुलतानपुर में डिप्टी कलेक्टर थे जिस समय बाबू कृष्णदास वहाँ के तहसीलदार थे, सीमा न रही। स्वामीजी ने तुलसी-कृत "रामायण" की एक प्रति शारदा को और अपने पढ़ने की "चित्सुखी" नवीन को उपहार-स्वरूप भेंट की। उस दिन से स्वामीजी का पता और किसी को तो क्या, उनके अभिन्न-हृदय मित्र कृष्णदास बाबू को भी न लगा।

बीस बरस हो गये, पर हरद्वार की वह यात्रा और शारदा का गोते खाया हुआ वह म्लान चेहरा, हमें आज भी खूब याद है। स्वामीजी का स्मरण आते ही उनके प्रति श्रद्धा का भाव हमारे हृदय में आज भी वैसा ही फिर हो जाता है। दिन चले गये, पर स्मृति-पट पर उस समय का चित्र वैसा ही खिंचा हुआ है।