कोविद-कीर्तन/४-पण्डित मथुराप्रसाद मिश्र

कोविद-कीर्तन
महावीर प्रसाद द्विवेदी

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ ५५ से – ८५ तक

 

४---पणिडत मथुराप्रसाद मिश्र

सुखदेव मिश्र का जीवनचरित पढ़कर हमारे कई मित्रों ने हमसे कहा कि हम अपनी तरफ़ के और भी दो-एक पुण्य- शील पुरुषो का चरित प्रकाशित करे। उनकी इच्छा को पूर्ण करने के लिए, आज, हम अपने पडोसी पण्डित मथुराप्रसाद मिश्र का चरित, थोड़े में, सुनाते हैं। मिश्रजी ३२ वर्ष तक बनारस के क्वीन्स कालेज मे अध्यापक थे। इस प्रान्त के लिखे-पढ़े आदमियों मे शायद ही कोई ऐसे हों जो उनको न जानते हों। हमारे पास-पड़ोस मे तो, दूर-दूर तक के देहाती आदमी तक, "मथुरा मास्टर" को जानते हैं।

चित्र देखने से चरित की योग्यता बढ़ जाती है; उसमे कुछ और ही शोभा आ जाती है। उसे पढ़ने से कुछ और ही आनन्द मिलता है। परन्तु खेद है इसको मिश्रजी का चित्र नहीं मिल सका। बहुत प्रयत्न करने पर भी हमको कामयाबी नही हुई। सुनते हैं, उन्होने अपना चित्र तैयार ही नही कराया। यह कोई आश्चर्य की बात नही। जो सादेपन का अवतार था, अँगरेज़ी भाषा के प्रकाण्ड पण्डित होने पर भी जिसे अँगरेज़ी सभ्यता छू तक नहीं गई थी; अपने पूर्वजों की चाल-ढाल पर हिमालय के समान अचल रहने ही मे

जिसे गर्व था वह अपने चित्र के लिए क्यों किसी फ़ोटोग्राफ़र को ढूँढ़ने का परिश्रम उठाता।

चित्र न मिला, न सही। पाठक, आप हमारे साथ, बनारस कालेज के हेडमास्टर के कमरे में एक मिनट के लिए चलिए और वहाँ एक व्यञ्च पर ध्यानस्थ हो जाइए। भावना कीजिए कि दस बजने मे कोई आध घण्टा बाक़ी है। इसी समय एक पालकी आती हुई देख पड़ी और वह कालेज के बरामदे में रख दी गई। पालकी दोनो तरफ़ से बन्द है। उसके एक तरफ का दरवाज़ा खुला। उससे एक पुरुष बाहर आया। उसके सिर पर बिलकुल पुरानी चाल की पगड़ी है; बदन मे बिलकुल पुरानी चाल का बालाबर अँगरखा है; उस पर एक काला चोगा है, कन्धे पर चोग़े के ऊपर घड़ी किया हुआ, बिलकुल पुरानी चाल का, सफ़ेद डुपट्टा रक्खा है। मारकीन की धोती लम्बी लटक रही है। सिर और डाढ़ी के बाल मुँड़े हुए हैं। मूँछे बड़ी-बड़ी हैं। ओठ कुछ मोटे हैं। नाक और आँखें बड़ी हैं। शरीर-लता लम्बी पर मोटी नहीं है। रङ्ग सॉवला है। ललाट पर सफ़ेद चन्दन की दो टिकलियाँ लगी हुई हैं। इस वेश और इस आकृति की वह मूर्ति कमरे के भीतर आई और अपनी कुरसी पर बैठ गई। अब तक, बिलकुल पुरानी चाल के उसके देशी जूते पालकी ही में थे। उन्हे एक चपरासी, या दफ़्तरी, उठा लाया और मेज़ के नीचे उसने रख दिया। आप यह न समझिए कि

पालकी से कमरे तक इस माननीय मूर्ति को नङ्गे पैरो चलना पड़ा। नहीं पैरो मे मोज़े हैं। बस, आपने, अँगरेज़ी-सभ्यता के साथ इतनी ही रियायत की है। परन्तु कहाँ ? पैरों मे। पाठक, भावना के बल से यदि आपने इस शब्द-चित्र को देख लिया है तो आप पण्डित मथुराप्रसाद मिश्र के चित्र को देख चुके।

पण्डितजी, कान्यकुब्ज-ब्राह्मण, हिमकर के मिश्र, थे। जिस वंश को हमारे सुखदेवजी ने अपने जन्म से पवित्र किया उसी वंश की शोभा मयुराप्रसादजी ने भी बढ़ाई। कानपुर के पास काकूपुर एक गाँव है। मिश्रजी के पूर्वज वहाँ रहते थे। उनके पिता ने काकूपुर छोड़ दिया और उनाव के ज़िले में, भगवन्तनगर के पास, हमीरपुर में जाकर रहने लगे। बहुत दिनों तक वे वहा रहे। हमीरपुर से गङ्गातट कोई छ: सात मील था। उनाव ही के ज़िले मे एक गॉव बकसर है। वह गड्गा के बिलकुल किनारे है। वहाँ चण्डिका-देवी का एक बहुत पुराना मन्दिर है। मिश्रजी के एक सम्बन्धी वहा रहते थे। अतएव उनकी सलाह से, १८७० ईसवी मे, मिश्रजी ने हमीरपुर छोडा और बकसर मे घर बनवाया। मिश्रजी के पिता ने अपने पिता का गॉव छोड़ा। क्या इसी से पण्डितजी ने भी अपने पिता का गॉव छोड़ दिया? जब से मिश्रजी बकसर आये तब से वे हमारे पड़ोसी हुए। हमारे जन्म-ग्राम से यह ग्राम केवल दो मील है। पण्डित मथुराप्रसाद के पितामह का

नाम वैद्यनाथ था। उनका विवाह उनाव के ज़िले मे, सुमेरपुर नामक गाँव में, हुआ था। यह गाँव भगवन्तनगर और हमीरपुर से थोड़ी ही दूर है। इसी योग से मिश्रजी के पिता, पण्डित सेवकराम, कानपुर का ज़िला छोड़कर उनाव के ज़िले में आये। वहाँ, हमीरपुर मे, २० जुलाई, १८२६ ईसवी को, पण्डित मथुराप्रसाद का जन्म हुआ।

पण्डित मथुराप्रसाद के पिता बनारस में नौकर थे। बनारस कालेज के अध्यक्ष, ग्रिफ़िथ साहब, के समय के पुराने चपरासियों का कथन है कि पण्डितजी के पिता बनारस मे किसी बहुत छोटे काम पर थे। परन्तु एक और मार्ग से जो बाते हमको मालूम हुई हैं उनसे जान पड़ता है कि वे किसी बङ्गाली राजा के यहाँ कारिन्दा थे। शायद पीछे से वे कारिन्दा हुए हों। कुछ भी हो, यह सिद्ध है कि वे बहुत अच्छी दशा में न थे।

पण्डितजी की उम्र पाँच वर्ष की थी जब वे अपने पिता के पास बनारस गये। वहाँ जाने के दो ही वर्ष बाद उनके बड़े भाई का शरीरपात हुआ और उनकी माता भी परलोक पधारी। इतनी छोटी अर्थात् सात वर्ष की उम्र मे मातृहीन होना बड़ी दुःसह विपत्ति है। पर ऐसी दुर्व्यवस्था होने पर भी, अपने पिता की प्रेरणा से, मिश्रजी ने विद्याभ्यास आरम्भ किया। कुछ समय के अनन्तर उन्होने गवर्नमेंट कालेज में प्रवेश किया। यद्यपि उनको कई तरह के सुभीते न थे, तथापि उन्होने सब

बाधाओ को तुच्छ समझकर अध्ययन मे चित्त लगाया। सुनते हैं, ये सदैव अपने दरजे मे सबसे ऊँचे रहते थे और जितनी परीक्षायें होती थीं, सबमे, इनको पारितोषिक मिलता था। उस समय यूनीवर्सिटो की स्थापना न हुई थी, एम० ए०, वी० ए० का कहो नाम न था। एन्ट्रन्स, अर्थात् प्रवेशिका, परीक्षा तक जारी न हुई थी। कालेज मे केवल दो विभाग थे---एक जूनियर, दूसरा सीनियर। १८४६ ईसवी मे पण्डित मथुराप्रसाद सीनियर क्लास मे पहुँच गये। उसमे उनका आसन सब विद्यार्थियों के ऊपर हुआ। बनारस-कालेज के भूतपूर्व अध्यक्ष डाक्टर वालेटाइन ने अपनी दी हुई सरटीफ़िकट मे ऐसा ही लिखा है। मिश्रजी ने अपनी तीव्र-बुद्धि, विद्याभिरुचि और योग्यता से अपने अध्यापकों को सदा प्रसन्न रक्खा।

पण्डितजी ने १८४६ ईसवी, अर्थात् २० वर्ष की उम्र, मे विद्याध्ययन समाप्त किया। समाप्त उन्होने क्या किया, उन्हें करना ही पड़ा। उससे आगे अध्ययन का प्रबन्ध ही न था। यदि पण्डितजी ने सात वर्ष की उम्र मे पढ़ना आरम्भ किया तो १३ वर्र्ष मे उसकी समाप्ति हुई। इससे यह अनुमान होता है कि पहले यदि हिन्दी और संस्कृत पढ़ने मे उनको ६ वर्ष लगे तो ७ वर्ष तक उन्होने अँगरेज़ी पढी। उस समय इतना पढ़ना बहुत काफ़ी था। और इस बात को अपनी विद्वत्ता से पण्डितजी ने अच्छी तरह सिद्ध भी कर दिखाया। कालेज की शिक्षा समाप्त होने पर पण्डितजी को गवर्नमेट से यञ्जिनियरी का काम सीखने के लिए ग़ाज़ीपुर भेजा। वहाँ एक यञ्जिनियर के पास रहकर उन्होने वह काम सीखा। वहाँ से लौट आने पर उन्होंने क़ानून का अभ्यास आरम्भ किया। इसी बीच से बनारस-कालेज में थर्ड (तीसरे) मास्टर की जगह ख़ाली हुई। कालेज की कमिटी पण्डितजी की योग्यता को अच्छी तरह जानती थी। इसलिए उसने उनको, ७५ रुपये महीने पर, परीक्षा के तौर पर, थर्ड मास्टर नियत किया। १८४७ ईसवी के एप्रिल में इस जगह पर उनकी नियुक्ति हुई। इससे स्पष्ट है कि यञ्जिनियरी और कानून का अभ्यास उन्होंने केवल वर्ष ही डेढ़ वर्ष किया। थर्ड मास्टरी पर उनकी परीक्षा बहुत दिनों तक होती रही। दिनों नहीं, वर्षों तक कहना चाहिए। सात वर्ष के बाद गवर्नमेट ने उनको इस पद पर दृढ़ रूप से नियुक्त किया। ३१ मई १८५४ ईसवी को वे पूरे थर्ड मास्टर हुए और उनका वेतन ७५ से १५० रुपये हो गया।

थर्ड मास्टरी पर काम करते मिश्रजी को तीन वर्ष भी न होने पाये थे कि १८५७ ईसवी के आरम्भ मे, इस प्रान्त के तत्कालीन लफ्टिनेट गवर्नर माननीय कालविन साहब के मन मे बनारस-कालेज के अध्यापकों की परीक्षा लेने की धुन समाई। सुनते हैं, यह बात मिश्रजी को बहुत नागवार हुई। यहाँ तक कि लफ्टिनेंट गवर्नर के सेक्रेटरी को उन्होंने दो-चार कड़ी कड़ी

बातें भी सुनाईं। परन्तु परीक्षा किसी तरह टली नहीं। देनी पडी। उनको कालविन साहब के डेरे पर जाना पड़ा। वहाँ साहब ने जो कुछ उनसे पूछा उसका उन्होंने ऐसा अच्छा उत्तर दिया कि साहब उन पर बहुत ही प्रसन्न हुए। इस प्रसन्नता के उपलक्ष्य मे उन्होने मिश्रजी को उनका नाम खुदवाकर एक घड़ी पुरस्कार मे दी। यही नहीं, किन्तु १८ जनवरी, १८५७, से मिश्रजी को साहब ने सेकेन्ड (दूसरा) मास्टर करके उनका वेतन १५० से २०० रुपये कर दिया। दैवयोग से उस समय यह जगह खाली थी।

पण्डित मथुराप्रसादजी ११ वर्ष तक सेकेन्ड मास्टर रहे। १८६८ ईसवी के मई महीने मे हेडमास्टरी ख़ाली हुई। उस समय डाइरेक्टर साहब की तजवीज़ यह हुई कि बरेली के स्कूल से एक मास्टर क्वीन्स-कालेज मे लाये जायँ और उन्ही को हेडमास्टरी मिले। परन्तु, उस समय, ग्रिफ़िथ साहब कालेज के प्रधान अध्यापक थे। पण्डितजी पर उनकी बेहद कृपा थी। उन्होंने प्रयाग के छोटे लाट, सर विलियम म्योर, से पण्डितजी की सिफ़ारिश करके उन्ही को हेडमास्टरी दिला दी। पण्डितजी इस पद के सर्वथा योग्य थे; और ग्रिफ़िथ साहब और गवर्नमेट ने जो कुछ किया सर्वथा न्याय्य किया। तब से पण्डितजी का मासिक वेतन ४०० रुपये हो गया।

पण्डितजी ने दस वर्ष तक बड़ी ही योग्यता से हेडमास्टरी की। जब उनको नौकरी करते ३२ वर्ष हो चुके तब, अर्थात्

१८७८ ईसवी मे, उन्होंने २००) मासिक पर पशन ले ली। तब से उनका समय विशेष करके भजन-पूजन ही में व्यतीत होने लगा।

मिश्रजी समय के बड़े पाबन्द थे। सदैव ठीक समय पर कालेज जाते थे। समय पर क्या, उसके पहले ही वे पहुँच जाते थे। एक मिनट की देरी नहीं होती थी। उनके समय में लडके क्या मास्टर तक सब समय पर आते और अपना-अपना काम करते थे। जो लड़के देर से आते थे उन पर उनकी बड़ी तीव्र दृष्टि रहती थी। पण्डितजी के अधीन जो मास्टर थे वे तक उनसे डरते थे। स्कूल में उनका आतड्क सा जमा था। कोई लड़का या मास्टर सिर खोलकर क्लास में न बैठने पाता था। उनके समय मे जानदास नामक एक किरानी मास्टर थे। उनको पण्डितजी ने साफ़ा बाँधने के लिए मजबूर किया। जानदास ने ग्रिफ़िथ साहब से शिकायत की। साहब ने मिश्रजी के पक्ष में फ़ैसला किया। उन्होंने जान से कहा कि तुम्हारा धर्म क्रिश्चियन है; परन्तु तुम्हारा देश हिन्दुस्तान है। इसलिए तुमको हिन्दुस्तानी पहनाव पहनना चाहिए।

पण्डितजी के अनेक छात्र इस समय बड़े-बड़े पदों पर हैं। परलोकवासी सैयद महमूद ने बहुत दिनों तक उनसे पढ़ा था। उनके विद्यार्थियों मे से हमारे एक मित्र पण्डित युगलकिशोर वाजपेयी हैं। वे इस समय चरखारी-राज्य मे एक अच्छे

ओहदे पर हैं। उनका कथन है कि जहाँ तक वे जानते हैं, मिश्रजी ने कालेज से कभी छुट्टी नहीं ली; कभी वे बीमार नही हुए; और कभी वे देरी से नही आये। उनकी याद मे एक बार मिश्रजी को कालेज में जाड़ा देकर ज्वर आ गया। इससे जब अपनी चौकी पर उनसे किसी तरह न बैठे रहा गया तब वे बाहर बरामदे मे चले गये। वहाँ अपनी पालकी के भीतर वे सिकुड़कर बैठ गये। इधर लड़के यह जानकर ख़ुश हुए कि आज इनसे पिण्ड छुटा। परन्तु केवल १५ मिनट हुए थे कि मिश्रजी फिर अपनी कुरसी पर आकर डट गये।

सुनते हैं, पण्डितजी के मिज़ाज मे सख्ती बहुत थी। इसी से कालेज से सम्बन्ध रखनेवाले लोग उनको ज़रा कम पसन्द करते थे। पहले पण्डितजी घर से कालेज तक अपनी पालकी के दरवाज़े खोलकर पाते थे। परन्तु पीछे से पालकी के दरवाज़े बन्द करके वे कालेज जाने लगे। यह परिवर्तन शायद उनकी किसी सख्ती ही के परिणाम का सूचक हो।

पण्डितजी कायदे के भी सख्त पाबन्द थे। इसी से वे चाहते थे कि और लोग भी उन्ही का अनुकरण करे। परन्तु सब लोग "मथुराप्रसाद" न थे। उनसे सख्ती न होती थी। वे थोड़ी-थोड़ी बात के लिए लड़को की रिपोर्ट न करते थे। यह बात मिश्रजी को पसन्द न थी। पण्डित दीनदयालु तिवारी, इस समय, इस प्रान्त मे, मदरसों के असिस्टंट इन्सपेक्टर हैं। मिश्रजी के समय मे वे उनके अधीन

क्वीन्स-कालेज में मास्टर थे। उनके किसी काम से अप्रसन्न होकर मिश्रजी ने प्रधान अध्यापक से उन पर दण्ड कराया। परन्तु पण्डित दीनदयालुजी ने साहब से मिलकर वह दण्ड माफ़ करा लिया। इस पर मिश्रजी बहुत नाराज़ हुए और इस घटना को वे जन्म भर नहीं भूले । उनकी मृत्यु के कुछ ही समय पहले, एक दिन, असिस्टंट इन्सपेक्टरी की दशा मे, पण्डित दीनदयालुजी ने मिश्रजी से अपने उस अपराध की क्षमा मॉगकर उनको सन्तुष्ट किया। इससे जान पड़ता है कि मिश्रजी कुछ क्रोधी भी थे।

पण्डित युगलकिशोर वाजपेयी चरखारी जाने के पहले एक बार पण्डित मथुराप्रसाद के पास गये और उनसे उन्होने कुछ उपदेश चाहा। आपने बहुत सूक्ष्म उपदेश दिया। आपने अँगरेज़ी के तीन शब्द कहे "satisfy your conscinence' अर्थात् अन्तःकरण को सन्तुष्ट करो। मतलब यह कि जो काम करने को तुम्हारा दिल गवाही दे उसी को करो। जिसे करने को दिल न गवाही दे उसे कभी मत करो। उपदेश बहुत अच्छा दिया।

पण्डितजी की अँगरेज़ी-विद्वत्ता बहुत बढ़ी-चढ़ी थी। वे बड़े ही अध्ययनशील थे। इसी से ग्रिफ़िथ साहब उन पर सबसे अधिक प्रसन्न थे। वे ऐसी अच्छी अँगरेज़ी बोलते थे---उनका उच्चारण ऐसा अच्छा था---कि यदि वे एक कमरे के किवाड़े बन्द करके भीतर से बोलें तो बाहर से सुननेवाले अँगरेज़ी
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पण्डित मथुराप्रसाद मिश्र

को भी कभी स्वप्न में भी यह सन्देह न हो कि कोई हिन्दुस्तानी बोल रहा है। ऐसा अद्वितीय वक्ता हेडमास्टर पाने का ग्रिफ़िथ साहब को बड़ा गर्व था। वे बहुधा पण्डितजी के कमरे में आते थे; परन्तु सुनते हैं पण्डितजी उनके कमरे में बिना बुलाये कभी न जाते थे। जब कोई अँगरेज अधिकारी कालेज से आता था तब ग्रिफ़िथ साहब उसे पण्डितजी से अवश्य मिलाते थे और उनकी विलक्षण वक्तृता उसे सुनाते थे।

उनके एक विद्यार्थी का कथन है कि एक बार मिश्रजी लड़कों को पढ़ा रहे थे कि अध्यापक केबुल साहब ने अपने कमरे मे उनको बुलाया। उस समय, शीघ्रता मे, पण्डितजी के मुँँह से निकल गया-Let the boys be explained the passage पर कहना चाहिए था-Let the passage be explained to the boys. इसका पण्डितजी को बहुत दिनों तक रञ्ज रहा।

विलायत जाने के पहले बनारस-कालेज के भूतपूर्व प्रधाना- ध्यापक (प्रिसपल ) जेम्स आर० बालेटाइन साहब, एल-एल० डी० ने पण्डितजी को जो सरटीफिकट दिया है उसमे उन्होने मानों पण्डितजी का जीवनचरित थोड़े मे कह सुनाया है। उसमे और-और वातो के सिवा पण्डितजी की नियम-निष्ठा, विद्या-प्रेम, कार्य-दक्षता और सचरित्रता की भी ख़ूब प्रशंसा की है। उसकी यथातथ्य नक़ल हम आगे देते हैं—

Ever since I first joined the Benares College, I have known Babu Mathura Prasad
Misra. He was then a senior scholar, in the last year of his pupilage, and at the top of his class.

In 1846 he was sent, under the orders of Government, to Ghazipur to study Civil Engineering with the Engineer then there. On his return from Ghazipur he studied law and the Government regulations Afterwards the third mastership of the College becoming Vacant and no quite suitable person being found to fill it, the Local Committee appointed him in April, 1847, to officiate as third master. After nearly seven years' trial the Government confirmed him in the appointment. In the beginning of 1857 the late Honourable Mr. Colvin, the Lieutenant Governor of the North-Western Provinces, summoned him to his camp, put him through an examination and as a mark of approbation presented him with a watch, at the same time promoting him to the second mastership which was then vacant He has been punctual and zealous in the discharge of his duties and as a teacher, he has always given great satisfaction to the Head-master, Professor Griffith. I have been glad to observe that he has always continued to show himself singularly fond
of study and I believe his labours, as a teacher, have not been confined to school hours.

He is a polite and well-bred man and his conduct and character are, to the best of my belief, unimpeachable.

I give him this testimonial on my leaving India finally

(Sd) James R Ballantyne,

Principal and Secretary, L. C P. J

Benares College,

The 13th December, 1860

इस सरटीफ़िकट की तारीख १३ दिसम्बर १८६० ईसवी है। पण्डित मथुराप्रसाद ने कई पुस्तके लिखी हैं। उनमे से कुछ के नाम हम नीचे देते हैं––

नम्बर
समाप्त होने का समय
नाम

१––लघुकौमुदी का हिन्दी-अनुवाद...१४ आक्टोबर, १८५६ ई०

२––बाह्यप्रपञ्च-दर्पण...............१८५९ ई०

३––Trilingual Dictionary अर्थात् त्रैभाषिक कोश (हिन्दी, उर्दू, अँगरेज़ी)......दिसम्बर, १८६५ ई०

४––तत्त्वकौमुदी (व्याकरण) का हिन्दी-अनुवाद...... एप्रिल, १८६८ ई०

५––प्राइमर..................२५ जुलाई, १८६८ ई०
नम्बर
समाप्त होने का समय
नाम

६--प्रैक्टिकल इँगलिश.........दिसम्बर १८७३ ई०

७--सिलेक्ट रूट्स......
८--मन्त्रोपदेश-निर्णय.....
६--चाणक्य-नीतिदर्पण....


नहीं मालूम

इन पुस्तकों में से प्रेकटिकल इंगलिश और त्रैभाषिक कोश बड़े काम की पुस्तकें हुईं। प्रैकटिकल इँगलिश तो बहुत दिनों तक स्कूलों में जारी थी । उसमें अँगरेज़ी लिखने के नियम और वाक्यों के उदाहरण बहुत ही अच्छे हैं। इस पुस्तक का संशोधन स्वयं ग्रिफ़िथ साहब ने किया था । अँगरेज़ी भाषा के प्रचार में इस पुस्तक ने बड़ी सहायता पहँचाई। स्कूल में हमने भी इसे पढ़ा था। उसका बीज अभी तक हमारे हृदय में है---Little boys often lose their lives by going into deep water. इत्यादि वाक्य अभी तक हमको याद हैं। यह पुस्तक यद्यपि इस समय स्कूलों में नहीं पढ़ाई जाती, तथापि अँगरेज़ी भाषा में शीघ्र प्रवेश पाने की इच्छा रखनेवाले इसे अब भी बड़े प्रेम से पढ़ते हैं।

परन्तु त्रैभाषिक कोश लिखकर पण्डितजी ने सबसे अधिक नाम पैदा किया। उससे सर्वसाधारण को लाभ भी ख़ूब पहुँचा। इस कोश को देखकर इस प्रान्त की गवर्नमेट इतनी खुश हुई कि उसने पण्डितजी को ५००) की क़ीमत की ख़िलत दी और यह सनद भी भेजी---
To
Sunud.

Baboo Mathura Prasad, second master, Benares College, Benares.

Sir,

The Honourable the Lieutenant Governor, North-Western Provinces, having been informed of the accuracy and scholarship displayed in the Trilingual Dictionaly, on the preparation of which you have expended the labour of several years, has been pleased, in order to mark his approbation of the service rendered by you to the cause of education, to confer a Khillut upon you of the ralne of Rs. 500, which will be presented to you by the Commissioner of the Benares Division

(Sd) R. Simson,

Secretary to the Government

of N W. P, Allahabad.

The 2nd of April, 1866

गवर्नमेट ने पण्डितजी की विद्वत्ता की प्रशंसा उत्कीर्ण कराकर एक सोने का पदक उनको पुरस्कार मे दिया और उसके साथ ही हीरा लगी हुई सोने की एक क़लम भी। यही ख़िलत थी। इस कोश की रचना मे पण्डितजी को बड़ा

परिश्रम पड़ा। पर ग्रन्थ बहुत अच्छा बना। उन्होंने इसमे अँगरेज़ी भाषा के शब्दों की उत्पत्ति और उनके अर्थ अँगरेज़ी, हिन्दी और उर्दू मे बड़ी ही योग्यता से लिखे हैं। इसकी प्रशंसा उस समय के प्रायः सभी अँगरेज़ी-अख़बारो ने की थी। इसकी समालोचना जिसे देखना हो वह १३ फ़ेब्रुअरी, १८६६ का देहली-गज़ट, १५ फ़ेब्रुअरी, १८६६ का फ्रेंड आफ़ इंडिया, २४ फ़ेब्रुअरी, १८६६ का वीकली न्यूज़ और २६ फ़ेब्रुअरी, १८६६ का पायनियर देखे । इँगलेंड के अख़बारो ने भी इसकी खूब प्रशंसा की थी। सचमुच पण्डितजी ने इस कोष में अपनी अपार विद्वत्ता का परिचय दिया है। यह पुस्तक उन्होंने बनारस के मेडिकल हाल-प्रेस के मालिक, डाक्टर लाज़-रस, को दे दी। उन्ही ने इसे छापा। वही प्रेस इसे अब तक बेचता है। कोशों में इसका बड़ा आदर और प्रचार है।

पण्डित मथुराप्रसाद मिश्र हिन्दी के बड़े पक्षपाती थे। यह बात उन्होने अपने कोश मे अच्छी तरह स्पष्ट कर दी है। हिन्दी के विषय मे उनकी कितनी पूज्य बुद्धि थी, उसके प्रचार को वे कहाँ तक अच्छा समझते थे और उसे वे कितने विस्तार और कितनी योग्यता का जानते थे यह बात उन्होंने अपने कोश की भूमिका मे, साफ़-साफ़, लिखी है। उनके अँगरेज़ी लेख का कुछ अंश हम नीचे देते हैं----

The easiest common Hindi should be em-ployed, wherever it will suffice. But when its

resources fail, preference should decidedly be given to Sanskrit over a foreign tongue. There may be instances in which the reverse will hold good But these instances must form the exception, not the rule In cases in which the stores of Hindi would answer well, exotic words should not be used in writings professedly Hindi With very regard for those that differ from me, I aver that their favourite jargon--by no better name can I call their language--the farrago of Arabic, Persian, Urdu, Sanskrit and Hindi--serves, at best, only to provoke a Contemptuous smile in men of taste But some would perhaps kill Hindi They think it is dismissed from society, and is, therefore, synonymous with rusticity, that it leads to no practical good, hence it must needs be discouraged They should bear in mind that Hindi has retired from the court and general society by the force of circumstances.

The encroachments of Persian and Urdu have proved too much for it. Its case is analo- gous to that of English immediately after the Norman conquest. The language of the conquerors became the language of law and like-wise, of society, to a very large extent. But

though Hindi, like a modest maid, has with-drawn from the public gaze in towns and cities, yet it has ever been present around our hearths and amid our family circles. Our mothers and sisters, our wives and daughters, exchange ideas only in genuine forms of Hindi Gentlemen in the highest walks of life, while in the public audience, do hold converse in elegant Urdu. But when they are by themselves, with their dependents among their female relations, the scene is changed Good home-bred expres- sion of Hindi then almost exclusively escapes their lips or charms their ears. I now ask, why should Hindi spoken at home by the greatest and most learned be described as barbarous? Again, on the ground of utility too, Hindi merits encouragement Beyond the pale of law, Hindi is found more useful than Urdu. In ordinaly life, the former is more serviceable to Hindus than the latter It is needed in the pettiest grocer's shop as well as in the most respectable firm In the rural districts, its use is more general It does not indeed help us to good situations, but that does not warrant us in desiring its extinction.

There are far higher ends to be served.
The character of the mass of the people is to be raised. They must be taught to read and write--must be made to learn the truths of the West--not in the language of those by whom they were ill-treated, abused and oppressed for successive generations, but in the genial speech of then ancestors, which is their invaluable inheritance National education must be conducted through the proper Vernacular, if we desire success

जो लोग अँगरेजी जानते हैं हम उनसे प्रार्थना करते हैं कि वे इस कोश की भूमिका को अवश्य पढ़ें। इससे हिन्दी के विषय मे पण्डितजी की राय अच्छी तरह मालूम हो जायगी और उनकी अँगरेज़ी का नमूना भी देखने को मिल जायगा।

पण्डितजी की तत्त्वकौमुदी और उनका किया हुआ लघुकौमुदी का हिन्दी-अनुवाद भी हमने देखा है। दोनों बहुत अच्छी पुस्तके हैं। उनकी और पुस्तकें देखने का सौभाग्य हमे नही प्राप्त हुआ। अतः हम नही जानते कि बाह्य-प्रपञ्च-दर्पण, मन्त्रोपदेश-निर्णय और चाणक्य-नीति-दर्पण संस्कृत मे हैं या हिन्दी मे। ये पुस्तकें क्यों लिखी गईं, कितनी बड़ी है और कैसी हैं, यह भी हम नहीं जानते। पण्डितजी का वृत्तान्त बतलानेवाले ऐसे हैं कि शिव, शिव!

पण्डित मथुराप्रसादजी के पिता, पण्डित सेवकरामजी, पुत्र के पेशन लेने के कई वर्ष पीछे तक जीवित थे। १८८७

ईसवी में, ९६ वर्ष के होकर, वे परलोकगामी हुए। उनकी और्ध्वदैहिक क्रिया मिश्रजी ने विधिपूर्वक की और अन्त तक वे श्राद्ध तथा तर्पण करते रहे।

पण्डितजी बड़े ही कर्मठ ब्राह्मण थे। उनके बराबर धर्मभीरु और पुरानी चाल-ढाल का आदमी शायद ही कोई और हो। उनको छुवाछूत का बड़ा विचार था। कालेज मे ऐसे-वैसे आदमी उनके कमरे में न आने पाते थे। वे बरामदे में रहते थे और आप अपने कमरे के भीतर से उनसे बातें करते थे। पीछे से तो वे हिन्दुओं तक को छूने में हिचकते थे। एक बार हमारे एक मित्र उनसे मिलने गये। उनके डाढ़ी थी। उसे देखकर मिश्रजी ने उन्हे बाहर ही रोका; भीतर आने ही न दिया। जब उनको मालूम हुआ कि आगन्तुक व्यक्ति हिन्दू है और उनका विद्यार्थी है तब आपने उन्हें भीतर बुलाया। आगन्तुक ने भीतर जाकर भक्ति के उद्रेक मे मिश्रजी के चरणस्पर्श किये। मिश्रजी ने आशीर्वाद तो दिया, परन्तु तत्काल ही अपने सिर पर गङ्गाजल छिड़का!

मिश्रजी जब तक कालेज मे थे तब तक प्रातःकाल ४ बजे उठते थे और शौच से निवृत्त होकर, गङ्गास्नान करते थे। फिर सन्ध्योपासन और विष्णु-सहस्रनाम का पाठ करके वे लेखन और पुस्तकावलोकन में लग जाते थे। ९ बजे भोजन करके वे कालेज जाते थे और वहाँ से ४ बजे आते थे। आकर कालेज के कपड़े उतारकर उन्हें अलग रख देते थे। तब गङ्गाजल

ऊपर छिड़ककर वे धोये हुए कपड़े पहनते थे और फिर पुस्तकावलोकन मे मग्न हो जाते थे। अनन्तर सायंसन्ध्योपासन करके फिर भी वे पुस्तक हाथ में ले लेते थे। रात को वे केवल दूध पीते थे। यह दिनचर्या उनकी बराबर ३२ वर्ष तक बनी रही। परन्तु उनके एक विद्यार्थी का कहना है कि पण्डितजी भ्रमण के लिए भी जाया करते थे और शाम को लोगों से मिलते भी थे। वे यह भी कहते हैं कि सवेरे मिश्रजी केवल जलपान करके कालेज जाते थे; भोजन वे नित्य सायङ्काल ही करते थे।

पेंशन लेने पर पण्डितजी की दिनचर्या बदल गई थी। उस समय वे सबेरे उठकर गड्डास्नान करते थे। फिर गायत्री का जप। गीता-पाठ और तर्पण इत्यादि करते ११ बजते थे। तब वे अपने हाथ से भोजन बनाते थे। कभी-कभी वे महीनों तक केवल दूध पीकर रह जाते थे। दोपहर से चार बजे तक वेदान्त का विचार करते थे; फिर लोगो से मिलते थे। सायड्काल, सन्ध्योपासन के अनन्तर, वे फिर कुछ जप इत्यादि करते थे। ८ बजे वे दूध पीते थे। तब एकान्त मे बैठकर वे माला फेरते थे। रात को १० बजे वे सोते थे। इस प्रकार १६ वर्ष तक अपनी दिनचर्या रखकर, १८ नवम्बर १८९७ ईसवी को, ७२ वर्ष की उम्र मे, काशी मे, गङ्गा के तट पर, उन्होंने शरीरत्याग किया। उस दिन उनके सम्मान मे बनारस- कालेज बन्द रहा। पण्डितजी हिन्दी, उर्दू, संस्कृत, अँगरेज़ी और बँगला ये पॉच भाषायें जानते थे। संस्कृत आप अच्छी जानते थे। अच्छी यदि न जानते तो व्याकरण का हिन्दी-अनुवाद कैसे कर सकते? उनमे अँगरेज़ी की विद्वत्ता बहुत बड़ी थी। उसका उल्लेख ऊपर हो चुका है; आगे भी कुछ होगा। सुनते हैं, आप फ़ारसी भी जानते थे।

बनारस के बाबू श्यामाचरण, सब-जज, गवर्नमेट कालेज के प्रधानधर्माध्यक्ष पण्डित देवदत्त और पण्डित शिवनारायण मिश्र, पण्डित मथुराप्रसाद के आभ्यन्तरिक मित्र थे।

पण्डित मथुराप्रसाद बड़े संयमी, बड़े नियमनिष्ठ और बड़े ही सञ्चयशील थे। संयम का यह हाल था कि उनके गॉव बकसर मे लोगो ने उनको भोजन की सामग्री तौलकर खाते देखा है। नियम-निष्ठा उनकी ऐसी थी कि जो समय उन्होने मिलने का रक्खा था उसका अतिक्रम करके और किसी समय किसी से वे न मिलते थे, मिलनेवाला चाहे कैसा ही बड़ा आदमी क्यों न हो। सञ्चयशीलता भी उनकी बहुत ही बढ़ी-चढ़ी थी। उन्होंने बहुत धन इकट्ठा किया। सुनते हैं, वे अपना रुपया रियासतों को सूद पर देते थे। इस कारण बहुत सा रुपया डूब भी गया। उनके पुत्र ने कोई व्यापार किया था; उसमे भी शायद कुछ रुपया बरबाद गया। परन्तु मिश्रजी ने अपने रुपये का बहुत कुछ सद्व्यय भी किया। कुछ समय से वे अपने वंशज हिमकर के मिश्रों की असहाय विधवाओं को दो

रुपया महीना वृत्ति देने लगे थे। निर्धनता के कारण जिन हिमकर-वंशीय उपवर कन्याओं का विवाह न हो सकता था उनके विवाह के लिए भी वे रुपया देते थे। यह प्रबन्ध मिश्रजी के पुत्र पण्डित शिवनन्दनप्रसाद भी, सुनते हैं, थोड़ा-बहुत चलाये जाते हैं।

पण्डित मथुराप्रसाद बड़े ही दृढ़प्रतिज्ञ थे। आज्ञाभड़्ग से क्रोध भी उनको महाकाल ही का जैसा आता था। पढ़ने-लिखने या शायद और किसी विषय मे अपनी आज्ञा का उल्लड्घन करने के अपराध मे, उन्होने अपने एकमात्र पुत्र, शिवनन्दनप्रसाद, को अलग कर दिया और शायद अन्त तक पिता-पुत्र से प्रत्यक्ष बातचीत नहीं हुई! मिश्रजी के पिता और मिश्रजी की पत्नी ने पण्डित शिवनन्दनप्रसाद का साथ छोड़ना न चाहा। इसलिए मिश्रजी उनसे भी अलग हो गये। ये अलग रहते रहे और वे अलग। परन्तु मिश्रजी ने कमी किसी बात की नहीं होने दी। उनके आराम से रहने का प्रबन्ध आपने बहुत अच्छा किया, पीछे से उन्होने अपना यह पृथकत्व कुछ शिथिल कर दिया था।

पण्डितजी के अनन्तर उनकी जायदाद के पूरे मालिक उनके पुत्र पण्डित शिवनन्दनप्रसाद हुए हैं। वे भी सज्जन हैं; संस्कृत जानते हैं, और अँगरेज़ी मे भी उनकी कुछ गति है। वे क्या करते हैं, हम ठीक-ठीक नही जानते। सम्भव है, उन्होने कुछ ज़मीदारी इत्यादि मोल ली हो; या लेन-देन का

सिलसिला जारी किया हो; और उसी में लगे रहते हों। उनकी इच्छा थी कि अपने पिता के नाम से एक छोटी सी वैदिक पाठशाला बनारस मे जारी करें। शायद यह पाठशाला खुल भी गई है। दशाश्वमेध-घाट पर, ठीक गङ्गाजी के किनारे, पण्डित मथुराप्रसाद का बनाया हुआ एक मकान है। उसी मे शायद यह पाठशाला खुली है । क्या पढ़ाया जाता है, कितने अध्यापक हैं, कितने छात्र हैं, क्या नियम हैं, यह हमे मालूम नहीं।

दशाश्वमेध-घाटवाले मकान के सिवा बनारस मे पण्डितजी के और भी दो-एक मकान हैं। उनके गाँव बकसर में भी उनका एक मकान है। पण्डितजी के जीवन-काल मे बकसरवाला मकान बिलकुल कच्चा था और बुरी हालत में था। पर पण्डित शिवनन्दनप्रसाद ने उसका जीर्णोद्धार करके उसे अच्छा बना दिया है।

पण्डित शिवनन्दनप्रसाद के कोई सन्तति नहीं। इस कारण उन्होंने एक युवक को गोद लिया है। हम नहीं जानते कि सुयोग्य पण्डित शिवनन्दनप्रसाद ने अपने दत्तक पुत्र की शिक्षा-दीक्षा का क्या प्रबन्ध किया है। उनसे हमारी प्रार्थना है कि यह समय सिर्फ़ सामगायन का नहीं। कुछ और भी करना चाहिए, जिसमे पण्डित मथुराप्रसाद जैसे विख्यात विद्वान् के वंश मे विद्या का ह्रास न हो। मिश्रजी बहुत बड़े विद्वान थे। बड़े से बड़े आदमी तक उनको आदर की दृष्टि से देखते थे। प्रसिद्ध विद्वान् हाल साहब ने हिन्दी रीडर नाम की एक पुस्तक बना-

प्रौढ़िप्रकर्षेण पुराणरीतिव्यतिक्रमः श्लाध्यतम. पदानाम्।

अत्युन्नतिस्फोटितकञ्च कानि वन्द्यानि कान्ताकुचमण्डलानि॥

इसके अर्थ का विचार करके आप बेतरह हँस पड़े। तब से, जब कभी हम जाते थे, दो-एक श्लोक हमसे सुने बिना आप न रहते थे। मिश्रजी को एक बात की बड़ी शिकायत थी। वे कहते थे कि हमारी तरफ़ के संस्कृतज्ञ पण्डितों का उच्चारण प्राय: बहुत ही अशुद्ध होता है। यह बात बहुधा है भी ठीक। इसी से शुद्धोच्चारणपूर्वक कहे गये श्लोक सुनकर वे बहुत प्रसन्न होते थे। उच्चारण मे वे दाक्षिणात्य पण्डितों की प्रशंसा करते थे। इसी से, वे कहते थे कि पण्डित शिव-नन्दनप्रसाद को पढ़ाने के लिए उन्होने एक दक्षिणदेशीय पण्डित को रक्खा था।

पूछने पर मालूम हुआ कि तकिये के नीचे जो पुस्तक थी वह गीता थी; परन्तु थी वह अँगरेज़ी मे। इस पर हमने आक्षेप किया। आपने उत्तर दिया कि लड़कपन से हम अँगरेज़ी के प्रेमी हैं; हमारी रग-रग मे अँगरेज़ी भाषा घुसी हुई है। इस अवस्था में हमने अँगरेज़ी की और पुस्तकें देखना बन्द कर दिया है। अब सिर्फ़ गीता मे अँगरेज़ी पढ़कर हम समाधान मानते हैं।

पण्डितजी देहात मे देहातियों के साथ ऐसी अच्छी ग्रामीण भाषा बोलते थे कि सुनकर आश्चर्य होता था। जान पड़ता था कि वे महा अपढ़ और पूरे देहाती हैं। हमने "तरुणोपदेश" नामक एक पुस्तक लिखी है। पुस्तक बडी है। उसे लिखे गये कोई १० वर्ष हुए। किसी कारण से उसे हमने प्रकाशित नहीं किया। उसे हमने पण्डित मथुरा- प्रसादजी को दिखलाया। गीता और उस पुस्तक के विषय से बहुत विरोध था। तथापि आपने उसे कृपा-पूर्वक साद्यन्त देखा, और बनारस जाकर, उसकी समालोचना हमारे पास भेजी। उसमे उर्दू और अँगरेज़ी के जो शब्द आ गये थे उनको आपने पसन्द न किया। इस सम्बन्ध में आपने हमको एक पोस्टकार्ड भेजा। उसकी नक़ल हम नीचे देते हैं---

श्रीरामः

दशाश्वमेध-घाट बनारस ( जुलाई १८९५ ई०)

नमस्ते,

आपका दयापत्र और देवीरतुतिशतक आज पाकर मैं बहुत आनन्दित हुआ। मैं आपको धन्यवाद देता हूँ।

२---अपनी पुस्तक की भूमिका अर्थात् प्रस्तावना मे आपने नाम नीचे लिखा है इस निमित्त बहुवचन मेरी आँखों मे गड़ने लगा और जिन विदेशीय शब्दों के स्थान मे भाषा के शब्द नहीं हैं उनका व्यवहार तो अवश्य ही करना पड़ता है जैसे कोतवाल इन्सपेक्टर पुलीस रेलवे कमिश्नर मजिस्ट्रेट जज आदि परन्तु जहाँ भाषा भली भॉति काम दे सकती है वहाँ यावनी शब्दों को लाना मैं सर्वथा अनुचित समझता हूँ। ३----आपकी पुस्तक उपयोगी और मनोहर है---आपका लेख अत्युत्तम है। काशी संस्कृत का घर है परन्तु आपकी सी भाषा लिखनेवाले यहाँ क्कचित् निकलेंगे---पुस्तक छपनी चाहिये जिसमे लोगों का उपकार हो । व्यय का विचार कर लीजिये।

आपका शुभचिन्तक

श्रीमथुराप्रसाद मिश्र

Mathura Prasad Misra.

जान पड़ता है पण्डितजी को अपना नाम अँगरेज़ी में लिखने का बड़ा शौक था। क्योंकि इस पोस्टकार्ड के नीचे हिन्दी में अपना नाम एक बार लिखकर दुबारा उसे आपने अँगरेज़ी से भी लिख दिया है। आप अनावश्यक "यावनी" शब्दों के पक्षपाती न थे। पर इस पोस्टकार्ड के ऊपर हमारा पता लिखते समय गॉव दौलतपुर न लिखकर, जल्दी में आप "मौज़ा दौलतपुर" लिख गये हैं!

पण्डितजी को हमने बहुत सी चिट्ठियाँ लिखी होंगी। उनमे से कोई-कोई बहुत बड़ी और महत्त्व की थीं। परन्तु हमको उत्तर सदैव आपने पोस्टकार्ड ही पर दिया। आप कार्ड मे भी पाराग्राफ़ अलग-अलग लिखते थे और सबके पहले नम्बर देते थे। नीचे आप अपना नाम हिन्दी मे "श्रीमथुरा-प्रसाद मिश्र लिखकर अँगरेज़ी में "M P. M" या Mathura Prasad Misra लिख दिया करते थे। एक बार हमने धृष्टता से इस अनावश्यक M. P. M. के लिखे जाने का कारण पूछा।
उत्तर मिला, कि "आप हमसे हिन्दी मे चिट्ठी लिखवाते हैं, तो क्या हम अपने नाम के आदि अक्षर भी अँगरेजी में न लिखें? हमे इनको लिखने का इतना अभ्यास है कि आपसे आप ये हमारी लेखनी से निकल जाते हैं।"

हम ऊपर लिख पाये हैं कि मिश्रजी अपने वंश की निर्धन कन्याओं के विवाह के लिए धन-सम्बन्धिनी सहायता देते थे। एक बार हमने आपसे एक कन्या के विवाह के विषय मे कहा। यह कन्या उनके वंश की न थी; पर कुलीनता में उससे बढ़कर थी। परन्तु आपने सहायता देने से इनकार कर दिया। आपने कहा कि हम अपने ही वंशवालों की सहायता करना अपना पहला कर्त्तव्य समझते हैं। पहले घरवालों की सहायता की जाती है। फिर बाहरवालो की। इस पर हमने उनके सिरहानेवाली गीता की पुस्तक के "पण्डिताः समदर्शिनः" वाले श्लोक का उनको स्मरण दिलाया। इस पर आप चुप हो रहे। परन्तु यह बात हम यहाँ पर स्वीकार करना चाहते हैं कि, इस विषय मे, भूल हमारी ही थी, उनकी नहीं।

पण्डित मथुराप्रसादजी ने अपने विषय में, अपने ही मुँह से, जो दो-एक बातें हमसे कही हैं उनको लिखकर हम इस लेख को पूरा करना चाहते हैं।

पण्डितजी के छात्रों मे अनेक ऐसे हुए जिन्होंने बहुत ऊँचे-ऊँचे पद पाये। सैयद महमूद और कुँअर भारतसिंह इत्यादि

उन्हीं के छात्रो मे से हैं। जिस समय सैयद महमूद इलाहाबाद मे हाईकोर्ट के जज थे उस समय पण्डितजी एक बार उनसे मिलने गये। सैयद महमूद के पिता सैयद अहमद भी वहाँ मौजूद थे। सैयद महमूद के कमरे मे एक बहुमूल्य क़ालीन बिछा था। और पण्डितजी के देशी जूते धूल से लिपटे हुए थे। इससे उन्होंने जूतों को कमरे के बाहर ही उतार दिया। सैयद महमूद ने यह देखकर कुछ इशारा किया और उनके नौकर ने जूतियों को दरवाज़े के बाहर से लाकर, कमरे मे क़ालीन के ऊपर, मिश्रजी के पैरो के पास, रख दिया। इस पर पण्डितजी ने कालीन के मैले हो जाने की बात कही। तब सैयद महमूद ने यह कहकर पण्डितजी को प्रसन्न किया कि आपके इस धूल-धूसर जूते की धूल ही के प्रसाद से यह क़ालीन मुझे मय्यसर हुआ है। सैयद साहब, पिता-पुत्र दोनों, ने मिश्रजी का इतना आदर किया जितना कोई किसी देवता का करता है। उनके सत्कार से पण्डितजी बहुत ही प्रसन्न हुए। जान पड़ता है, सैयद महमूद के इतने ऊँचे पद पाने पर मिश्रजी विशेष प्रसन्न थे। यदि ऐसा न होता तो उनके घर जाने की आप कृपा न करते।

इस प्रान्त के शिक्षा-विभाग के भूत-पूर्व प्रधान अफ़सर ( डाइरेक्टर ) नेस्फ़ील्ड साहब ने अँगरेज़ी में एक व्याकरण बनाया है। उसे उन्होंने पण्डित मथुराप्रसाद को दिखलाया और उनसे उसकी समालोचना चाही। पण्डितजी ने इस

व्याकरण के कुछ अंश की समालोचना की। समालोचना बहुत लम्बी हुई। उसमे उन्होंने साहब के अनेक प्रमाद सप्रमाण सिद्ध किये। इस पर दोनों में बहुत वाद-विवाद हुआ। जब नेस्फ़ोल्ड साहब प्रत्यक्ष मिले तब पण्डितजी ने, अनेक प्रामाणिक अँगरेज़ी ग्रन्थ उनके सामने रखकर, अपने पक्ष का समर्थन किया। उन्होंने कहा कि जहाँ-जहाँ हमने भ्रम बतलाया है वहाँ-वहाँ या तो आप दोषी हैं या आपके पूर्ववर्ती ग्रन्थकार। दोनों निर्दोष नहीं हो सकते। यह झगड़ा फैसले के लिए ग्रिफ़िथ साहब के पास गया। उन्होंने पण्डितजी का पक्ष सही और नेस्फ़ील्ड साहब का पक्ष ग़लत बतलाया!

एक बार पण्डितजी ने स्वयं ग्रिफ़िथ साहब के लेख मे व्याकरण-सम्बन्धिनी एक शङ्का की। यह शङ्का वाल्मीकि-रामायण के अनुवाद मे, एक जगह, उनको हुई थी। परन्तु इसका जो समाधान ग्रिफ़िथ साहब ने किया उससे पण्डितजी को पूरा-पूरा सन्तोष हो गया। ग्रिफ़िथ साहब पण्डितजी पर बहुत प्रसन्न थे; पण्डितजी पर उनकी पूरी कृपा थी। जिस समय नीलगिरि मे ग्रिफिथ साहब वेदों का अँगरेज़ी अनुवाद करते थे उस समय, कभी-कभी, पत्रद्वारा, अनुवाद के विषय में वे पण्डितजी से सलाह लेते थे।

[ जूलाई १९०५

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