कोविद-कीर्तन/२-विष्णु शास्त्री चिपलूनकर
२——विष्णु शास्त्री चिपलूनकर
गुणाधिके पुंसि जनाऽनुरज्यते
जनानुरागप्रभवा हि सम्पदः।
––भारवि
साहित्य के जितने अङ्ग हैं उनमे इतिहास प्रायः सबसे श्रेष्ठ समझा जाता है। परन्तु किसी किसी का मत है कि जीवनचरित का महत्त्व इतिहास से भी बढ़कर है। जीवन-चरित से मनोरञ्जन भी होता है; व्यवहारज्ञान भी होता है; चरित-नायक के उत्कर्ष के कारणो का विचार करके उसके गुण-ग्रहण करने का उत्साह भी बढ़ता है; और साथ ही उसके किये हुए प्रमादों से बचने की सद्बुद्धि भी मनुष्य में सहज ही उत्पन्न होती है। सद्गुण किसी देश-विशेष अथवा जाति-विशेष में नहीं वास करते। सब देशो मे और सब जातियों में सद्गुणी मनुष्य और स्त्रियाँ हुआ ही करती हैं। यह ईश्वरीय नियम है। सद्गुणी पुरुष चाहे जिस देश का हो, और चाहे जिस जाति का हो उसके चरित से शिक्षा अवश्य ही मिलती है। अतएव जो लोग किसी जाति-विशेष के पुरुषों से घृणा करते हैं, अथवा उनके चरित पर अनास्था प्रकट करते हैं, उनको अपने संकुचित
जिस पुरुष मे गुणाधिक्य होता है उसी पर सब लोग अनुरक्त होते है और जनानुराग ही की कृपा से सम्पदाओं की प्राप्ति होती है। हृदय से इस प्रकार के विचार दूर कर देने चाहिए। किसी के जीवन-चरित को पढ़कर उससे लाभ उठाने का यत्न करना उचित है। यदि किसी बङ्गाली के, अथवा महाराष्ट्र के, अथवा मदरासी के, अथवा अँगरेज़ के अथवा और किसी अन्य जाति या देश के पुरुष से हमको अधिक उपदेश मिलने की आशा हो तो हमको उचित है कि हम आदरपूर्वक उसके चरित को पढ़ें, उस पर विचार करे और उससे लाभ उठावे। जिस प्रान्त में जो रहता है उस प्रान्त के सत्पुरुषों की चरितावली पढ़ने की ओर उसकी विशेष प्रवृत्ति होती है। ऐसा होना स्वाभाविक है और स्वदेश-प्रीति का लक्षण भी है। परन्तु उसके साथ ही दूसरी जाति अथवा दूसरे देश के सद्गुणी पुरुषों के जीवन की घटनाओं का वृत्तान्त सुनने और उनसे शिक्षा ग्रहण करने के लिए भी उसे सर्वदा सज्ज रहना चाहिए, क्योकि ऐसे चरितों के परिशीलन से निन्ध नाटक और असत्य-मूलक कहानियों की अपेक्षा, सहस्रगुणित लाभ होने की सम्भावना रहती है। लार्ड बेकन ने अपनी एक पुस्तक मेक्षजीवनचरित लिखे जाने की बड़ी आवश्यकता बतलाई है, और उसकी प्रशंसा में बहुत कुछ कहा है। उसके लेख का कुछ अंश हम नीचे अँगरेज़ी मे उद्धृत करते हैं––
But lives, if they be well-written, propounding to themselves a person to represent, in whom actions––both greater and smaller, public and
private, have a commixture, must of necessity contain a more true native and lively representation---Advancement of learning
जो मनुष्य स्वतन्त्रताप्रिय है; जिसमे अपने देशवासियों के कल्याण की इच्छा सर्वदा जागृत है; जो अपनी मातृ-भाषा से निःसीम प्रेम रखता है वह धन्य है। वह अवश्य सब का प्रेम-भाजन होता है; उसे सब लोग अवश्य आदर की दृष्टि से देखते हैं, उसकी विमल कीर्ति का अवश्य प्रसार होता है और उससे जनसमूह को लाभ भी अवश्य ही पहुँचता है। स्वतन्त्रता, मातृ-भाषा का प्रेम और लोकोपकार, इन तीनो मे से एक भी गुण जिस पुरुष मे वास करता हो, वह भी सर्वसाधारण के आदर का पात्र होता है। फिर, जिसमे ये तीनो ही गुण पूर्णरूप से विद्यमान हों, उसके जन्म से उसके देशवासी अपने देश को धन्य और अपने को कृतार्थ मानें तो क्या आश्चर्य! विष्णु शास्त्री चिपलूनकर, जिनका संक्षिप्त जीवन-वृत्तान्त नीचे लिखा जाता है, ऐसे ही थे। उनमे ये तीनो गुण एक ही साथ जागरूक थे।
दक्षिण मे रत्नागिरी ज़िले के अन्तर्गत चिपलून नामक एक क़सबा है। विष्णु शास्त्री के पूर्वज पहले वही के निवासी थे। इसी लिए उनका उपनाम चिपलूनकर पड़ गया। वे दाक्षिणात्य कोकणस्थ ब्राह्मण थे। पूना के पेशवाओं के द्वारा विद्वानों का जब विशेष आदर होने लगा तब उनके पूर्वज चिप-
लून से पूने चले आये और वहीं रहने लगे। उनके पिता का नाम कृष्ण शास्त्री था। कृष्ण शास्त्री पहले थोड़ी सी वेद-विद्या सीखकर विश्राम-बाग़ में नवीन स्थापित हुई एक पाठशाला में न्याय
और साहित्य पढ़ने लगे और थोड़े ही दिनों मे इन दोनों शास्त्री में
उन्होंने दक्षता प्राप्त कर ली। उस पाठशाला मे मोर शास्त्री नामक एक महाविद्वान् पण्डित थे; उन्ही से कृष्ण शास्त्री अध्ययन करते थे। कृष्ण शास्त्री की कुशाग्रबुद्धि और विद्या-प्रियता को देखकर मोर शास्त्री ने उन्हे "बृहस्पति" की पदवी दी थी। संस्कृत का अभ्यास समाप्त करके कृष्ण शास्त्री ने अँगरेज़ी पढ़ना आरम्भ किया और उसमे भी शीघ्र ही बहुत कुछ प्रवेश पाकर शिक्षा विभाग में वे शिक्षक का काम करने लगे। उस समय तक उनकी धन-सम्बन्धी दशा अच्छी न थी। परन्तु जब से शिक्षक का काम उनको मिला तब से उनकी वह दशा सुधर गई और वे सुख से कालक्षेप करने लगे। उन्होंने अपना काम ऐसी योग्यता से किया कि बहुत शीघ्र उनकी उन्नति हो गई। कुछ दिनों में शिक्षकों को शिक्षा देने की "ट्रेनिग स्कूल" नामक पाठशाला में वे अध्यापक नियत किये गये। अधिकारियों को कृष्ण शास्त्री की योग्यता और विद्वत्ता का साक्ष्य मिलते ही उन्होंने उन्हें मराठी-भाषा के समाचारपत्रों और
पुस्तकों का रिपोर्टर नियत किया, जिस काम को उन्होने बड़ी ही चतुरता से सम्पादन किया। "शालापत्रक" नामक एक सामयिक पत्र भी वे पाठशालाओं के लिए सरकारी आज्ञा से
निकालने लगे। यह पत्र बहुत दिनों तक प्रचलित रहा; परन्तु
अन्त में उनके सुयोग्य पुत्र, विष्णु शास्त्री, के कारण बन्द हो
गया। क्यों बन्द हो गया, इसका कारण हम आगे चलकर बतलावेंगे।
१८५० ईसवी मे विष्णु शास्त्री का जन्म हुआ। उनके पिता कृष्ण शास्त्री ने पहले उनको पूने के 'इन्फ़ैण्ट स्कूल' में पढ़ने भेजा। वहाँ कुछ दिन रहकर हरिपन्त नामक एक पण्डित की पाठशाला में वे मराठी पढ़ने लगे। वहीं उन्होने दो-एक पुस्तकें अँगरेज़ी की भी सीखीं। तदनन्तर वे पूने के गवर्नमेण्ट हाईस्कूल में भरती हुए और अँगरेज़ी का अभ्यास करने लगे। १८६६ ईसवी मे, अर्थात् जिस समय विष्णु शास्त्री का वय केवल १५ वर्ष का था, उन्होने प्रवेशिका ( इन्ट्रेन्स ) परीक्षा पास की और पास करके पूने के डेकन कालेज मे वे प्रविष्ट हुए। लड़कपन ही से विष्णु शास्त्री को पढ़ने-लिखने का अनुराग था। उनकी बुद्धि और धारणा-शक्ति बहुत ही विलक्षण थी। वे भली भॉति चित्त लगाकर विद्याभ्यास करते थे; इसलिए स्कूल के विद्यार्थी और शिक्षकों ने उनका नाम "अभ्यासी" रक्खा था। उनका स्वभाव गम्भीर था; स्कूल मे वे कभी किसी प्रकार की गड़बड़ न करते थे। यथासमय वे सीधे स्कूल जाते और छुट्टी होने पर सीधे घर आते थे। पाठशाला में प्रवेश करने के दिन से छोड़ने तक कभी उन्होने अपना पाठ याद करने मे किञ्चिन्मान भी शिथिलता नहीं की। एक ही दो बार पढ़ने से
उनको उनके पाठ कण्ठ हो जाते थे; उन्हें कण्ठ करके वे पाठशाला जाते थे और वहाँ शान्त-चित्त बैठे हुए अध्यापक के मुख से निकली हुई शिक्षाओ को सुनते थे। पाठशाला की पुस्तकों
को पढ़ने के अनन्तर जो समय उन्हे मिलता था उसे वे कभी
व्यर्थ न जाने देते थे। मराठी भाषा के नाटक, उपन्यास और
समाचारपत्र इत्यादि पढ़ने मे उसे वे लगाते थे। उनको पुस्तका-
वलोकन की बड़ी अभिरुचि थी। उसमे उनको विशेष आनन्द
मिलता था। पढ़ने से उनको कभी भी विरक्तता न होती थी। जब तक उनके पास कोई भी पुस्तक पढ़ने के लिए रहती थी तब तक वे दूसरा काम न करते। पढ़ने मे निमग्न देखकर कभी-कभी लड़के उनको तङ्ग किया करते थे; परन्तु वे इसका बुरा न मानते थे और न किसी लड़के को बुरा शब्द कहते थे। लड़कों की इस नटखटता को चुपचाप सहन करके वे पढते रहते थे, पढ़ना वे कभी बन्द न करते थे।
विष्णु शास्त्री का प्रेम जैसा सराठी भाषा पर था वैसा ही संस्कृत पर भी था। जब तक वे स्कूल मे थे तब तक अँगरेज़ी के साथ उनकी दूसरी भाषा मराठी थी; परन्तु सस्कृत का अभ्यास भी वे घर पर करते थे। छोटे ही वय मे संस्कृत का बहुत कुछ ज्ञान उन्होने सम्पादन कर लिया था; यहाँ तक कि मराठी की प्रथम तीन पुस्तकों का संरकृत मे अनुवाद तक उन्होंने कर डाला था। यह अनुवाद उनके वय और उनकी नियमित विद्या के विचार से बुरा न था। प्रवेशिका परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर विष्णु शास्त्री ने पूने के डेकन-कालेज में प्रवेश किया और सन् १८७२ ईसवी मे बी० ए० पास करके कालेज छोड़ा। अर्थात् बी० ए० मे उत्तीर्ण होने के लिए उनको लगभग ६ वर्ष लगे। यदि वे बीच की साधारण वार्षिक परीक्षाओ में उत्तीर्ण होते जाते तो बी० ए० होने के लिए उनको केवल ४ वर्ष लगते। परन्तु ऐसा नही हुआ; जितना चाहिए था उससे ड्योढ़ा समय उन्हें लगा। इसका कारण उनका पुस्तकावलोकन था। उन्होंने स्वयं लिखा है कि जिस समय वे कालेज मे थे और विद्या-पर्वत के उच्च शिखर तक पहुँचने के लिए शिक्षा विभाग के बनाये हुए मार्ग से जा रहे थे, उस समय मार्ग के दोनों ओर लगे हुए वृत्तो और लताओ के पुष्पों को देख, आकर्षितान्त:करण होकर, बीच ही मे वे रुक जाते थे। इस समय उनकी दूसरी भाषा संस्कृत थी। अतः मराठी और अँगरेज़ी के ग्रन्थावली- कन के अतिरिक्त वे संस्कृत भाषा के भी ग्रन्थों का अवलोकन, पहले की अपेक्षा अधिक, करते थे। इतिहास, साहित्य, संस्कृत और तर्कशास्त्र उनको विशेष प्रिय थे। गणित में उनकी रुचि अधिक न थी। सम्भव है, इसी अनभिरुचि के कारण उनको ६ वर्ष तक कालेज में रहना पडा हो।
विष्णु शास्त्री की स्कूल और कालेज की दिनचर्या मे कोई अन्तर नहीं हुआ। जैसे स्कूल मे विद्याध्ययन करने के समय वे शान्त और गम्भीर थे, वैसे ही कालेज में प्रवेश पाने पर भी
वे बने रहे। कालेज के विद्यार्थियों को बहुधा अनेक दुर्गुण
घेर लेते हैं; परन्तु विष्णु शास्त्री उनसे सदा दूर रहे। अपने
सहाध्यायियों के साथ बातचीत करने मे अथवा उनके साथ घूमने-फिरने मे उन्होंने कभी अपना समय व्यर्थ नहीं खोया; न कभी उन्होंने कोई ऐसा अनुचित व्यवहार किया जिसके कारण उनको, अपने अध्यापकों के सम्मुख, सिर नीचा करना पड़ता, अथवा पिता को उन पर क्रोध आता। हाँ, एक बार कालेज के लड़कों ने वेणीसंहार-नाटक, संस्कृत मे, खेला था; उस समय विष्णु शास्त्री धर्मराज बने थे। इस पात्र का काम शोक-रस-प्रधान था, जिसे उन्होने बड़ी ही योग्यता से निर्वाह किया। यह भूमिका उनके शान्त शील और गम्भीर स्वभाव के अनुकूल भी थी। सुनते हैं, जिस समय यह प्रयोग हो रहा था उस समय दर्शकों में शास्त्रीजी के पिता भी विद्यमान थे; परन्तु उनके सम्मुख ही, सब सङ्कोच छोड़कर, विष्णु शास्त्री ने तर्पण किया! इस बात से उनके पिता को किञ्चिन्मात्र भी अप्रसन्नता नहीं हुई। कारण यह था कि डेकन-कालेज के लड़के प्रतिवर्ष कोई न कोई संस्कृत-नाटक खेलते थे। उनमे और मुम्बई के एलफ़िन्स्टन कालेज के विद्यार्थियों मे परस्पर स्पर्धा सी थी। दोनों कालेजों के लड़के अपने-अपने खेल को अधिक अच्छा करके दिखलाना चाहते थे। ऐसी दशा मे
प्रत्येक पात्र को अपना-अपना काम योग्यता से सम्पादन करना ही उचित था। कालेज मे विष्णु शास्त्री का यद्यपि नाम नहीं हुआ, यद्यपि उनकी तेजस्विता का प्रकाश नही पड़ा; और यद्यपि एक-आध को छोड़कर उन्हे कोई छात्रवृत्ति नहीं मिली; तथापि उनकी
विशाल बुद्धि का अंकुर गूढरूप से उस समय उनके हृदय में
उगकर धीरे-धीरे बढ़ रहा था। राजा दशरथ के विषय मे
कालिदास ने कहा है---
अतिष्ठत्प्रत्ययादेपसन्तति. स चिरं नृप.।
प्राड् मन्थनादनभिव्यक्तरत्नोत्पत्तिरियार्णवः॥
---रघुवंश
समुद्र को मथने के पहले यह कौन जानता था कि उससे इतने रत्न निकलेगे। विद्यार्थी की दशा मे विष्णु शास्त्री के बुद्धि-वैभव का भी पता किसी को नही लगा। उनकी बुद्धि शान्त थी; परन्तु सांसारिक व्यवहारो के घर्षण का संस्कार होते ही वह जग उठी और अपना विकास दिखलाने लगी। हॉ, उनके कालेज मे रहने के समय एक भविष्यद्वाद अवश्य हुआ था और वह सर्वथा सत्य निकला। जिस समय विष्णु शास्त्री डेकन-कालेज मे थे उस समय डाक्टर कीलहार्न वहाँ अध्यापक थे। एक बार उनके एक परिचित विद्वान् जर्मनी से इस देश मे आये और उन्होंने डेकन-कालेज की देख-भाल की। उस समय विष्णु शास्त्री के विशाल सिर, भव्य कपाल और उनकी विलक्षण बनावट को देखकर उन्होने यह कहा कि "यह युवक विद्वान्, प्रतिष्ठित और कीर्तिमान होगा"। उस समय किसी
ने इस भविष्यद्वाद पर ध्यान नहीं दिया; परन्तु पीछे से उसकी सत्यता के सम्बन्ध मे किसी को शङ्का न रही।
कठिन से कठिन परीक्षाओं में उत्तीर्ण होना, बड़ी-बड़ी छात्र- वृत्तियॉ मिलना; सहस्रशः पुस्तकों को साद्यन्त पढ़ जाना और अन्त मे सेवा-वृत्ति स्वीकार करके आमरण लेखनी रगडते रहना कोई प्रशंसा की बात नहीं। इस प्रकार के अनेक पुरुषे हुए हैं, और होते रहेगे; परन्तु उनसे देश को क्या लाभ? धन्य वही पुरुष है जिस से जगत् का उपकार हो। यद्यपि विष्णु शास्त्री चाणाक्ष विद्यार्थी न थे और यद्यपि उन्होंने उस दशा से अनेक पुरस्कार प्राप्त करके नाम नहीं कमाया, तथापि उन्होंने पीछे से जो कुछ अपने देश और अपनी मातृभाषा के लिए किया उसके लिए उनके देशवासी चिरकाल तक उनके ऋणी रहेगे। हज़ार तीव्र और तेजस्वी विद्यार्थियों की अपेक्षा हम उनको अधिक महत्ता देते हैं।
विष्णु शास्त्री के पिता स्वयं विद्वान् और ग्रन्थकार थे। उनके यहाँ अनेक प्रकार के ग्रन्थ थे। यह भी हम कह आये हैं कि मराठी भाषा की पुस्तकों और उसके समाचार-पत्रो के रिपोर्टर भी वे थे। इसलिए कोई भी नवीन पुस्तक उनके यहाँ आये बिना न रहती थी। उनके घर पर विद्वान् लोग भी आया करते थे और अनेक विषयों पर उनके पिता के साथ वार्तालाप किया करते थे। उनके वार्तालाप को विष्णु शास्त्री एकान्त मे बैठकर सुनते और उस पर विचार किया करते थे।
विविध विषय की पुस्तकों के अवलोकन और विद्वानों के वार्तालाप के श्रवण से उनका ज्ञान-भाण्डार प्रतिदिन बढतख गया;
पुस्तकस्थ विषयों के अतिरिक्त देश की दशा की भी उनको
बहुत कुछ ज्ञान हो गया। अतएव जब उन्होने बी० ए० पास करके कालेज छोड़ा तब और विद्यार्थियों को समान उनका ज्ञान आकुञ्चित न था। वे विशेष विद्वान, बुद्धिमान और ज्ञान-सम्पन्न होकर कालेज से निकले।
१८७२ ईसवी मे जब विष्णु शास्त्री ने कालेज छोड़ा तब उनका वय २२ वर्ष का था। वे उस समय हष्ट-पुष्ठ और नीरोग थे। उनके ओठ मोटे थे; उनकी दृष्टि स्तब्ध थी; उनकी भौंहे बड़ी और स्थिर थीं; उनका शरीर श्यामल और सुदृढ़ था। उनके रूप-रड्ग को देखकर यह कोई न कह सकता था कि वे इतने प्रसिद्ध लेखक, देश-भक्त और स्वातन्त्र्य-प्रिय होगे।
कालेज छोड़कर विष्णु शास्त्री ने बाबा गोखले की पाठशाला मे अध्यापक का काम स्वीकार किया, परन्तु कुछ ही दिनों के
अनन्तर पूने के हाई स्कूल मे उनको तृतीय अध्यापक का पद मिल गया। इस प्रकार व्यवसाय-प्राप्ति होने पर उनको अपनी प्रिय मातृभाषा मराठी की सेवा करने का सुअवसर मिला। जब वे विद्यार्थी थे तभी से वे अपने पिता के सम्पादित "शालापत्रक" में लेख लिखा करते थे। जब से वे कालेज से बाहर निकले तब से उन्होने उस ओर विशेष ध्यान देना आरम्भ किया और क्रम-क्रम से "शालापत्रक" को अपने ही अधिकार मे कर
लिया। उसमे सब लेख उन्हीं के आने लगे। उनके प्रसिद्ध
ग्रन्य "कविपञ्चक" में जो कालिदास, भवभूति, बाण, सुबन्धु
और दण्डी के विषय मे पॉच निबन्ध हैं वे दो वर्ष तक इसी "शालापत्रक' मे छपते रहे थे। यह पत्र गवर्नमेंट की सहायता से प्रकाशित होता था। इसमे कविता के विषय में लिखते समय, विष्णु शास्त्री ने, क्रिश्चियन धर्म और उसके आचार्यों के प्रतिकूल बहुत कुछ लिखा। यह बात उन आचार्यों को बहुत बुरी लगी। गवर्नमेट ही का पत्र और गवर्नमेट ही के गृहीत धर्म पर आघात! अतएव १८७३ के अन्त मे गवर्नमेंट ने "शालापत्रक" की समाप्ति कर डाली।
"शालापत्रक' को तो गवर्नमेट ने बन्द कर दिया, परन्तु विष्णु शास्त्री की विशाल लेखनी से उत्पन्न हुई विचार-धाराओं को रोकने मे वह समर्थ न हुई। क्षुब्ध हुए सिन्धु-प्रवाह को कौन रोक सकता है? "शालापत्रक" बन्द होते ही, १८७४ से, शास्त्रीजी ने क्रिश्चियन-धर्माचार्यों का एक और विशेष प्रबल शत्रु उत्पन्न किया। उसका नाम उन्होंने "निबन्धमाला" रक्खा। इसे वे प्रतिमास, मासिक पुस्तक के रूप मे, बड़ी ही योग्यता से निकालने लगे। इसमें भी उन्होने अपना पहला क्रम नहीं छोडा; दूसरों पर तीव्र कटाक्ष किये बिना वे नही रह सके। चाहे स्वदेशाभिमान की मात्रा अपने मे बहुत ही अधिक जागृत रहने के कारण उन्होंने ऐसा किया हो, चाहे और किसी कारण से किया हो, इतने कड़े लेख लिखने की
तादृश आवश्यकता न थी। दूसरो के धार्मिक विचारों पर
आघात न करके, और दूसरो को मर्म-भेदी वाक्य न कहकर भी, मनुष्य अपने हृद्गत भावों को प्रकट कर सकता है और अपने को अच्छा लेखक सिद्ध कर सकता है। इतिहास पर लिखते-लिखते विष्णु शास्त्री ने मेकाले और मिल इत्यादि इतिहासकारो को अनेक दुर्वचन कहे और अँगरेज़ी भाषा पर लिखते-लिखते, स्वदेशियों के साथ अँगरेज़ों के उद्धत व्यवहार पर तथा पादरी लोगो के द्वारा अनेक युक्तियों से क्रिश्चियन धर्म के प्रचार पर भी, उन्होने बड़ी ही तीक्ष्ण आलोचना की। यह बात क्रिश्चियन धर्मोपदेशकों और गवर्नमेट के अधिकारियों को अच्छी न लगी और ऐसा भासित होने लगा कि शास्त्रीजी पर राजद्रोह का आरोप लगाया जायगा। परन्तु यह न हुआ। हुआ यह कि थोड़े ही समय मे शास्त्रीजी की बदली पूने से सैकडों कोस दूर रत्नागिरी की हो गई। यह आयोजना इस निमित्त शायद की गई कि रत्नागिरी में छापेखाने इत्यादि का प्रबन्ध न होने के कारण "निबन्धमाला" का निकलना बन्द हो जाय; परन्तु इसमे शास्त्रीजी के विपक्षियों को कृतकार्यता न हुई।
बाल्यावस्था से विष्णु शास्त्री पूने ही मे रहे। वह नगर उन्हे अतिशय प्रिय था। उसे छोड़कर वे रत्नागिरी जाना न चाहते थे परन्तु अपने पिता कृष्ण शास्त्री के आज्ञानुसार उन्होंने वहाँ के लिए प्रस्थान किया। वहाँ से भी वे अपनी प्रिय
"निबन्धमाला" को निकालते ही गये। वे उसे लिखते रत्ना-
गिरी में और छपाते पूने मे थे। इस बदली के कारण उनका चित्त और भी अधिक कलुषित हो गया और पहले से भी विशेष तीव्र लेख 'निबन्धमाला" मे निकलने लगे। जिस वर्ष उनकी बदली रत्नागिरी को हुई उसी वर्ष अर्थात् १८७८ मे, उन पर एक और ईश्वरीय कोप हुआ। उनके पिता का शरीरान्त हो गया। इस दुर्घटना के कारण उनको बहुत खेद हुआ और साथ ही गृहस्थाश्रम का भार भी उन पर आ पड़ा। इन्हीं कई कारणों से सेवा-वृत्ति से वे पहले से भी अधिक घृणा करने लगे और अपनी रजत-श्रृङ्खला को तोड़कर स्वतन्त्र होने का विचार करले लगे। ऐसा न करने से देशोपकार करने और मातृभाषारूपी मन्दिर के ऊपर अपनी यश:पताका उड़ाने का अवसर आना उन्होने दुर्घट समझा। अतएव पिता के परलोकवासी होने के अनन्तर वे बहुत दिन रत्नागिरी में नहीं रहे। पहले उन्होंने छुट्टी ली और पीछे से शीघ्र ही सेवा-वृत्ति को तिलाब्जलि दे दी।
रत्नागिरी के स्कूल मे विष्णु शास्त्री को १००), मासिक वेतन मिलता था। इस वेतन को तृणवत् समझकर उन्होने सेवा-वृत्ति पर लत्ता-प्रहार किया। इस बात को सुनकर लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि विष्णु शास्त्री धनी न थे। न उनके यहाँ कोई व्यापार होता था; न जीविका का दूसरा और कोई मार्ग था। अतएव १००) रुपये की नौकरी छोड़ना
आश्चर्य की बात ही थी। उनकी मित्र-मण्डली उनको वैसा न
करने के लिए बहुधा उपदेश देती रही; परन्तु उन्होंने उस विषय मे किसी की बात न सुनी। उनका उत्तर यह था कि "प्राणरक्षा के लिए मुझे दिन मे एक बार रूखा-सूखा अन्न चाहिए। वह चाहे जहाँ मैं रहूँ और चाहे जो काम मैं करूँ, मुझे मिलेगा। मुझे अधिक की इच्छा नहीं। फिर मैं क्यों दूसरों की सेवा करूँ" धन्य सन्तोष! धन्य स्वातन्त्र्य-प्रियता!
विष्णु शास्त्री यदि अन्य अँगरेज़ी के पदवीधर विद्वानों के समान सेवा-प्रिय होते और शिक्षा-विभाग मे बने रहकर अधिकारियो को प्रसन्न रखने का प्रयत्न करते तो शीघ्र ही उनके वेतन की वृद्धि हो जाती; उनको उच्च पद भी मिल जाता; और किसी समय वे धन-सम्पन्न भी हो जाते। परन्तु इन बातों की उन्होने कुछ भी परवा न की। बाल्यावस्था ही से उन्होंने अपनी मातृभाषा की सेवा करने का प्रण कर लिया था। उस प्रण को धन और पद-सम्बन्धी हानि-लाभ का विचार न करके उन्होने पूरा करना चाहा और मराठी भाषा मे उत्तमोत्तम निबन्ध लिखकर उसे समृद्धि-शालिनी करने के लिए वे शीघ्र ही बद्धपरिकर हुए। वे अँगरेज़ी मे भी पारङ्गन्त थे, यदि चाहते तो उस भाषा मे भी वे अच्छे-अच्छे लेख लिख सकते थे। इण्डियन ऐण्टिक्वेरी अथवा एशियाटिक सोसाइटी के जर्नल मे पुरातत्त्व विषयक प्रबन्ध लिखकर वे सुलेखकों मे अपना नाम कर सकते थे। परन्तु मराठी के सामने अँगरेज़ी को उन्होने
तुच्छ समझा। स्वतन्त्रता के सामने परतन्त्रता को उन्होने
रौरव-नरक के समान दुःखद जाना और सेवा-वृत्ति से सुखी होने के लिए अधिकारियों की चाटुकारिता करने की अपेक्षा एक ही बार भोजन करके जीवन-निर्वाह करना उन्होने अधिक सुखकर निश्चित किया। किसी जाति-विशेष अथवा देश-विशेष की उन्नति के जो-जो कारण होते हैं उनमे उस जाति अथवा उस देश की भाषा का उन्नत होना भी एक कारण है। इस बात को विष्णु शास्त्री भली भॉति समझते थे। इसी लिए सेवावृत्ति से पृथक होने पर "अध्ययन, अध्यापन, और महाराष्ट्रग्रन्थ-लेखन" मे अपना जीवन व्यतीत करने का उन्होने प्रण किया। जिस जाति में ऐसे-ऐसे उन्नताशय, ऐसे-ऐसे स्वभाषाप्रेमी और ऐसे-ऐसे अध्ययनशील पुरुष हुए, उस जाति के साहित्य की क्यों न उन्नति हो। हमारे युक्तप्रान्त के विद्वानों को ऐसे-ऐसे पुण्य पुरुषों का चरित सुनकर लज्जा आनी चाहिए। माता और मातृभाषा से उदासीन लोगो को हम समान दोषी समझते हैं। जिस भाषा को हम बाल्यकाल से बोलते हैं; जिसमे अपनी मा, अपनी स्त्री, अपनी कन्या और अपने पुत्रपौत्रादि से बातचीत करते हैं; अँगरेज़ी में पराकाष्ठा के विद्वान् होकर भी विपत्ति में जिस भाषा को छोड़ दूसरी भाषा मुख से नहीं निकलती; उससे बहिर्मुख होना बड़ी भारी कृतघ्नता है। कृतघ्नता क्या, घोर पाप है। अँगरेज़ी पढ़कर जो हिन्दी की मासिक पुस्तकों और समाचार-पत्रों से दूर भागते हैं; परन्तु पायनियर
का आदर करते हैं, उनको उनकी प्रिय अँगरेज़ी के कविशिरोमणि मिल्टन के वचनों का स्मरण करके भी तो लज्जित होना चाहिए। लैटिन भाषा मे विशेष प्रवीण होकर भी अपने देश की भाषा अँगरेज़ी ही की सेवा करना मिल्टन ने अपना धर्म्म समझा। यह बात उसने अपनी एक पुस्तक मे स्पष्ट लिखी है। उसे हम फुटनोट मे अविकल उद्धृत करते हैं[१]।
विष्णु शास्त्री ने समझ-बूझकर सेवा-वृत्ति को छोड़ा, अविचार से नहीं। अपने मन का निश्चय उन्होंने पहले ही से
दृढ़ कर लिया था। सेवा और स्वतन्त्रता का अन्तर वे भलीभाँति समझ गये थे। लापलैंड के रेन-डियर नामक अतिशय शीतप्रिय हरिण को आफ़्रिका का जलता हुआ वालुकामय प्रदेश जैसा कष्टदायक होता है, स्वतन्त्रता के अभिमानी पुरुष को दूसरे के अधीन होकर रहना भी वैसा ही असह्य होता है। रत्नागिरी से चले आने पर विष्णु शास्त्री ने अपने एक मित्र को एक पत्र अँगरेज़ी मे भेजा था। उसमे उन्होने सेवा-धर्म्म को परित्याग करते समय अपने मन के विचारों को संक्षिप्त रीति पर प्रकट किया है। उस पत्र का सारांश हम नीचे देते हैं—"सरकारी सेवा बुद्धि-पुरस्सर छोड़ देना इस समय मनुष्यों को प्रत्यक्ष आत्मघात करना सा जान पड़ता है, परन्तु उस विषय मे मेरा मत बिलकुल निराला ही है। अन्यायी अधिकारियों के सामने मस्तक झुकाने की अपेक्षा उनसे सारा सम्बन्ध ही तोड़ डालना मैं अच्छा समझता हूँ। जिस समय मेरी रत्नागिरी को बदली हुई उसी समय मुझे सेवावृत्ति से पृथक् होना था। परन्तु कई कारणों से उस समय मैं वैसा नहीं
कर सका। इससे तुमको विदित हो जावेगा कि रजत-शृङ्खलाओं को बहुत दिन तक न पहने रहने का मेरा पहले ही से निश्चय हो चुका था।"
विष्णु शास्त्री के ये वचन हृदय मे अङ्कित कर रखने योग्य हैं। इस विषय मे उनको दक्षिण का विद्यासागर कहना चाहिए। कलकत्ते मे शिक्षा विभाग के अधिकारियों के अन्याय
से पीडित होकर जिस प्रकार ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने अपने
इतने बड़े माननीय पद को तृणवत् समझकर एक क्षण में छोड़
दिया उसी प्रकार पूने मे विष्णु शास्त्री ने शिक्षा-विभाग से
सम्बन्ध तोड़ने में किञ्चिन्मात्र भी आगा-पीछा नहीं किया। भारत-भूमि को ऐसे ही ऐसे दृढ़प्रतिज्ञ, स्वतन्त्रताभिमानी और स्वदेश-प्रिय पुरुषो की आवश्यकता है। खेद है, ऐसे-ऐसे महात्मा इस देश को अपने जन्म से यदाकदा ही भूषित करते हैं।
रत्नागिरी से आकर, अपने मित्रो की सलाह से, विष्णु शास्त्री ने, १८८० ईसवी मे, "न्यू इँगलिश स्कूल" नामक एक नवीन पाठशाला खोली। उस पाठशाला मे अध्यापन का काम शास्त्रीजी के साथ-साथ उनके मित्र पण्डित बाल गड्गाधर तिलक और महादेवराव नामजोशी करने लगे। कुछ दिनों के अनन्तर पण्डित गोपाल गणेश आगरकर और वामन शिवराम आपटे भी उनमे आ मिले। इन पॉच विद्वानों ने मिलकर इस नवीन शाला का काम इतनी योग्यता से करना आरम्भ किया कि थोड़े ही दिनों मे वह पाठशाला बहुत ही उन्नत अवस्था को पहुँच गई। वही इस समय "फ़रगुसन कालेज" के नाम से प्रसिद्ध है। खेद का स्थल है कि शास्त्रीजी को अपनी स्थापित की हुई पाठशाला का कालेज मे परिणत होना, जीवन दशा मे, देखने को न मिला।
विष्णु शास्त्री नवीन पाठशाला ही को स्थापन करके चुप नही बैठे। उन्होने "केसरी" नाम का समाचार-पत्र मराठी
में और "मराठा" नाम का समाचार-पत्र अँगरेज़ी में निकालना प्रारम्भ किया। इस काम के लिए एक छापेख़ाने की आवश्यकता हुई। इसलिए उन्होंने "आर्यभूषण" नाम का छापाख़ाना भी स्थापित किया। ये दोनों समाचार-पत्र दक्षिण के बड़े ही
प्रभावशाली पत्र हैं और अभी तक बराबर अपने कर्तव्य को
दक्षता से पालन करते जाते हैं। यह वही "केसरी" है जिसमे
कई वर्ष हुए, एक कविता प्रकाशित करने के अपराध मे पण्डित
बाल गङ्गाधर तिलक को विशेष कष्ट भोगना पड़ा। शास्त्रीजी
ने "आर्यभूषण" छापेखाने के साथ ही "चित्रशाला" नामक एक
और छापाख़ाना भी स्थापित किया। वह भी अभी तक विद्यमान है, और प्रतिदिन उन्नति के पद पर आरूढ़ होता जाता है। उससे अनेक प्रकार के प्राचीन और नवीन ऐतिहासिक चित्र निकलते हैं। विष्णु शास्त्री ने "काव्येतिहास-संग्रह" नामक एक मासिक-पुस्तक भी निकाली। इस संग्रह मे अनेक प्राचीन मराठी और संस्कृत के ग्रन्थ उन्होंने प्रकाशित किये। जितने कार्य शास्त्रीजी ने आरम्भ किये सबका यथासमय वे परिचालन और पर्यवेक्षण करते रहे। यह सब करके अपनी प्यारी "निबन्धमाला" को फिर भी वे नही भूले। उसको वे बराबर सात वर्ष तक बड़ी योग्यता से लिखते रहे। उनके
लेख ऐसे मनोरम, सरस और रोचक होते थे कि सब लोग
उनकी 'माला' का हृदय से आदर करते और उसे बड़े प्रेम से पढ़ते थे। शास्त्रीजी बड़े धैर्य्यवान् पुरुष थे। उनके स्थापित किये हुए समाचार-पत्रों मे कोलापुर के दीवान के प्रतिकूल लेख प्रकाशित होने पर उन पत्रों से सम्बन्ध रखनेवालों पर अभियोग चलाया गया। इस कारण उनके सहयोगी मित्र घबरा उठे; परन्तु शास्त्रीजी ने धैर्य नहीं छोड़ा। आये हुए सङ्कट का सामना करने के लिए उन्होंने सबको उद्यत किया और उसके लिए जो सामग्री आवश्यक थी उसका भी यथोचित प्रबन्ध कर दिया[२]
एक कवि ने कहा है कि ब्रह्मा बड़ा ही अन्यायी है, क्योंकि पहले तो वह अच्छे-अच्छे विद्वानो को उत्पन्न ही नहीं करता, और करता भी है तो वामन शिवराम आपटे के समान उन्हे बहुत दिन तक इस संसार में रहने नहीं देता। यह उक्ति बहुत सत्य जान पड़ती है। रत्नागिरी से आकर तीन-चार वर्षों मे जो उद्योग-परम्परा विष्णु शास्त्री ने उत्थापित की थी वह भली भॉति यथास्थित भी न होने पाई थी कि निष्ठुर काल ने, १८८२ ईसवी के मार्च महीने की १७ तारीख़ को, उन्हे इस लोक से उठा लिया। ऐसे उत्कृष्ट लेखक, निस्सीम देशभक्त, महारसिक और अत्यन्त सद्गुणी पुरुष का अवतार
केवल ३२ वर्ष मे समाप्त हो गया! हन्त ! ब्रह्मदेव सचमुच
ही महाअन्यायी जान पड़ता है!
शास्त्रीजी का स्वभाव बहुत ही सरल और दयालु था। लिखने मे वे यद्यपि इतने प्रवीण थे तथापि वाचालता उनमें न थी। एक बार एक विद्वान् पुरुष उनके लेखों से मोहित होकर उनसे मिलने आया। शास्त्रीजी ने उसे आदर-पूर्वक बुलाया और बिठाया; परन्तु उसके आसन ग्रहण करने पर उन्होंने अपनी ओर से कुछ पूछ-पाछ न की, और न उस आगन्तुक पुरुष ही ने कुछ कहा। इसका फल यह हुआ कि कुछ देर चुपचाप बैठे रहने के अनन्तर शास्त्रीजी ने एक पुस्तक हाथ मे ले ली और उसे वे देखने लगे। यह देखकर दो-चार मिनट मे वह आया हुआ गृहस्थ भी उनको नमस्कार करके उठ गया। शास्त्रीजी के रूप-रङ्ग को देखकर कोई नया मनुष्य यह नहीं विश्वास कर सकता था कि ऐसे अच्छे लेख उनकी लेखनी से निकलते होंगे। यद्यपि उनमे वाचालता न थी, तथापि अपने मित्रो के साथ वे प्रसन्नतापूर्वक वार्तालाप करते थे। स्वभाव के वे बड़े ही उदार थे। जिस पर उनका विश्वास जम जाता था उसे वे हृदय से चाहते थे। अपनी परिमित आमदनी मे से दान-पुण्य भी वे करते थे। दो-एक दीन ब्राह्मणों के कुटुम्ब का पालन भी उन्होंने यथा-साध्य किया है।
विष्णु शास्त्री अपने देश के पूरे भक्त थे। उनके समान देशाभिमानी होना कठिन है। परन्तु वे इतने सत्यप्रिय थे
कि अपने देश के दोषी को स्वीकार करने मे भी वे सङ्कोच न करते थे। उन्होने यह स्पष्ट कहा है कि "हमारा उद्देश सत्य के निरूपण करने का है। हम अपनी भूल प्रसन्नता-पूर्वक मानने को प्रस्तुत हैं। अपने देश की एक-आध बात अनुकरणीय
होने ही से उसकी प्रशंसा करना अथवा उसके वास्तविक दोषो
को छिपाना, दोनो बातें, हमको पसन्द नही। ये दोनो ही निन्द्य है। जो मनुष्य न्यायी और निष्पक्षपाती है उसे ऐसा व्यवहार कदापि सहन नही हो सकता"। सच है, अपनी भूल न स्वीकार करना मूर्खता का चिह्न है। उदारचेता और न्यायशील पुरुष कभी सत्य का अपलाप नही करते।
विष्णु शास्त्री ने यद्यपि आर्यसमाज, प्रार्थनासमाज और बाइबल के अनुयायियों पर अपनी "निबन्धमाला" मे ठौर-ठौर पर बड़े ही मर्मभेदी आघात किये हैं, तथापि उनके पूर्वोक्त वाक्यों और 'लोकभ्रम' तथा 'अनुकरण' इत्यादि निबन्धों से यह सूचित होता है कि उनके धार्मिक विचार सङ्कुचित न थे। क्या ही अच्छा होता यदि इस विषय पर वे अपना मत स्पष्टतापूर्वक प्रदर्शित कर देते। एक स्थल पर उन्होने इतना अवश्य लिखा है कि "धर्म के समान वादग्रस्त विषय पर व्यर्थ वाद-प्रतिवाद करते बैठना और परस्पर की न्यूनताओ को दिखलाते रहना अनुचित है। ऐसा करने की अपेक्षा जन्म से जो धर्म जिसे प्राप्त हुआ है उसी मे रहकर सदाचरण करना उत्तम है।" शास्त्रीजी बड़े ही उद्भट लेखक थे। उनकी सबसे अधिक प्रशंसा उनके ग्रन्थ लिखने के कौशल की है। परन्तु वे केवल लेखनी ही का परिचालन न करते थे; उनकी उद्योग-परम्परा भी प्रशंसनीय थी। उद्योग के बिना लेखन-कौशल अथवा वाचालता व्यर्थ है। विलायत के प्रसिद्ध वक्ता बर्क ने कहा है कि "क्रिया[३] वह भाषा है जिसके अर्थज्ञान में कभी भूल ही नहीं होती"। शास्त्रीजी की क्रिया के प्रत्यक्ष फल एक नहीं अनेक इस समय दृग्गोचर हो रहे हैं, परन्तु खेद इस बात का है कि उनका उपयोग करने के लिए इस समय वे नहीं हैं। उनके प्रचलित समाचारपत्र, "केसरी" और "मराठा", बड़ी ही योग्यता से अपने देश की सेवा कर रहे हैं। उनका "न्यू इँगलिश स्कूल" इस समय कालेज हो गया है। उनकी "चित्रशाला" में प्रतिवर्ष नये नये मनोरम चित्र बनते हैं और सुलभ होने के कारण सर्वसाधारण मनुष्यों के भी कमरों में स्थान पाते हैं।
विष्णु शास्त्री के ग्रन्थों में "निबन्धमाला" और संस्कृत कविपञ्चक मुख्य हैं। "निबन्धमाला" के सब ८४ अङ्क हैं। उन सबकी पृष्ठसंख्या अष्टपत्री १२०० से भी अधिक है। इन ८४ अड्कों में जितने निबन्ध हैं प्रायः सभी अच्छे हैं। शास्त्रीजी के विषय-प्रतिपादन करने की पद्धति ऐसी अद्भुत और उनकी भाषा ऐसी मनोरम है कि औरो को तो बात ही न्यारी है, उनके
प्रतिपक्षी भी उनके निबन्धो को पढ़कर उनके लेखन-कौशल की प्रशंसा किये बिना नहीं रह सकते। जिनके मतों अथवा लेखों
का खण्डन शास्त्रीजी ने किया है वे लोग स्वयं अपने ही मुख से
उनके प्रबन्धों को पढ़ते समय अपने भ्रम को बहुधा स्वीकार करके, शास्त्रीजी के कोटिक्रम और विलक्षण चातुर्य पर मोहित हो रहे हैं। वे इतने सत्यप्रिय थे कि अपने विपक्षियों के आक्षेप-पूरित
पत्रों को प्रसन्नतापूर्वक “निबन्धमाला" मे स्थान देकर उनका विचार करते थे और यदि कोई उनकी भूल को सिद्ध कर देता था तो उसे वे तुरन्त स्वीकार भी कर लेते थे। परन्तु उनके लेख प्रायः बड़े ही तीव्र होते थे। जिसके वे पीछे पड़ जाते थे उसके ऊपर ऐसे मर्म-कृन्तक वाक्य लिखते चले जाते थे कि उनको पढ़कर उनके लक्ष्यीकृत मनुष्य को समाज मे मुख दिखलाना कठिन हो जाता था। 'लोकहितवादी" नामक ग्रन्थकार पर जो उन्होंने बाण-वर्षा करनी आरम्भ की तो वर्षों तक उसकी झड़ी बाँध दी। वे प्राचीन मराठी कवियों के बड़े पृष्ठ-पोषक थे। प्रसिद्ध कवि मोरो पन्त पर उन्होंने अपनी "निबन्धमाला" में बहुत कुछ लिखा है, और अँगरेज़ी दृष्टि से उसकी कविता में दोष निकालनेवालो की खूब खबर ली है।
इतिहास, समालोचना, डाक्टर जान्सन, भाषा-पद्धति, भाषादूषण, गर्व, वक्तृत्व और भाषापरिज्ञान इत्यादि विषयों पर जो निबन्ध शास्त्रीजी ने "निबन्धमाला" मे लिखे हैं वे अवलोकन करने योग्य तो हैं ही; मनन करने योग्य भी हैं। वे जिस
निबन्ध को लिखते थे उसके ऊपर शिरोभाग मे किसी कवि,
पण्डित अथवा दार्शनिक की कोई ऐसी उक्ति रख देते थे जिसमे
उनके निबन्धान्तर्गत विषय का पूरा-पूरा प्रतिबिम्ब सा झलकने
लगता था। सात वर्षे तक प्रचलित रखने के अनन्तर जब उन्होंने "निबन्धमाला" को बन्द करना चाहा, तब उसके अन्तिम, अर्थात् ८४वे, अड़क् के प्रारम्भ में कालिदास के शाकुन्तल नाटक का यह श्लोक उन्होंने लिखा---
गाहन्तां महिषा निपानसलिल श्रृझैमुहस्ताडित
छायाबद्धकदम्बक मृगकुल रोमन्थमभ्यस्यतु ।
विश्रब्धं क्रियतां वराहपतिभिमुस्ताक्षतिः पल्वले
विश्रामं लभतामिदञ्च शिथिलज्याबन्धमस्मद्धनुः ।
यह पद्य उस समय का है जब राजा दुष्यन्त से कण्व मुनि के आश्रम मे मृगया न करने की प्रार्थना की गई है। उस प्रार्थना को मान देकर दुष्यन्त कहते हैं---"अपने सीगो से जल को ताड़ित करते हुए जङ्गली महिष प्रसन्नतापूर्वक सरोवरों में प्रवेश करे; वृक्षों की छाया मे बैठे हुए हरिणो के यूथ सुख से निगाली करें; बड़े-बड़े शूकर अल्प जलाशयों मे निडर होकर खाने के लिए मोथे को खोदें; और ढीली प्रत्यञ्चावाला मेरा यह धनुष भी अब विश्राम करे।" "निबन्धमाला" के इस अन्तिम अङ्क को आधा ही लिखकर विष्णु शास्त्री इस लोक को छोड़ गये। उनके परलोकवासी होने पर उनके छोटे भाई ने इस अङ्क को प्रकाशित करके यह सिद्ध सा कर दिया
कि महाधनुर्धारी दुष्यन्त के धनुष के समान शास्त्रीजी ने
अपनी लेखनी ही को शिथिल करने की सूचना इस अवतरण से नहीं दो थी; किन्तु उससे उन्होने अपने शरीर-बन्धनो को शिथिल करके सर्वदा के लिए विश्राम लेने की भी पहले ही से सूचना दे दी थी! विष्णु शास्त्री के कई निबन्धो का अनुवाद पण्डित गङ्गाप्रसाद अग्निहोत्री ने हिन्दी में किया है। क्या ही अच्छा हो यदि कोई शास्त्रीजी की समग्र निवन्धमाला का अनुवाद हिन्दी मे करके उनके प्रचण्ड पाण्डित्य से परिपूर्ण निबन्ध हिन्दी जाननेवालो के लिए भी सुलभ कर दे। परन्तु, करे कोई कैसे? हमारे प्रान्त के निवासियों को तो अपनी मातृ-भाषा का आदर अपमान-जनक सा जान पड़ता है। देश का दुर्भाग्य। और क्या ? निबन्धमाला का तो नहीं, परन्तु शास्त्रीजी के कविपञ्चक का अग्निहोत्रीजी ने पूरा अनुवाद कर डाला है। पॉच निबन्धों मे से कालिदास और भवभूति विषयक निबन्ध पुस्तकाकार छप भी गये हैं। बाण-विषयक निबन्ध
"सरस्वती" ही में प्रकाशित हो चुका है। शेष दो निबन्ध अभी
तक नही प्रकाशित हुए। इन निबन्धो को देखने से शास्त्रीजी की
रसिकता, मार्मिकता और मराठी के साथ-साथ संस्कृत की भी
विद्वत्ता का पूरा परिचय मिलता है। हे जगदीश्वर ! क्या हिन्दी
के साहित्य-जगत् मे भी कभी कोई विष्णु शास्त्री उत्पन्न होगा?
[जनवरी १९०३
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- ↑ I applied myself to that resolution which Ariosto followed against the persuasions of Bemho, to fix all the industry and art I could unite to the adorning of my native tongue, not to make verbal curiosities the end (that were a toilsome vanity) but to be an interpreter and relator of the best and sagest things among mine own citizens through out his island in the mother dialect. That what the greatest and choicest wits of Athens, Rome or modern Italy and those Hebrews of old, did for their country, I, in my portion, with this, over and above those of being a Christian, might do for mine; not caring to be once named abroad by writing in Latin (like Bacon) though perhaps I could attain to that, but content with these British Islands as my world––Reasons against Church Government
- ↑ इस अभियोग का फल यह हुआ कि विष्णु शास्त्री के मित्र आगरकर और तिलक को कुछ दिनों के लिए कारागार सेवन करना पड़ा। परन्तु इस दण्ड से वे किञ्चित् भी नहीं डगमगाते। अपना कर्त्तव्य पालन करने के लिए वे सदैव सजग बने रहे।
- ↑ *Action is the language that never errs––Burke.