कोड स्वराज/डिजिटल युग में सत्याग्रहःएक व्यक्ति क्या कर सकता है?

कोड स्वराज
कार्ल मालामुद

पृष्ठ ६५ से – ७२ तक

 

डिजिटल युग में सत्याग्रहःएक व्यक्ति क्या कर सकता है?

कार्ल मालामुद, नेशनल हेराल्ड, 8 जुलाई, 2017, विशेष 75-वर्षीय स्मारक संस्करण

इंटरनेट ने हमारी पीढ़ी को मुक्त और सुलभ ज्ञान देने का अनूठा अवसर प्रदान किया है। अमेरिका और भारत की सरकारों से क्षुब्ध होकर लेखक इंटरनेट की उपयोगिता की बात करते हैं।

आज पूरी दुनिया में अशांति फैली है। विश्व में हर तरफ अनिश्चित हिंसा और आंतक फैला हुआ है। यदि हम इस पर कोई कदम नहीं उठाते हैं (वास्तव में हम कुछ नहीं कर रहे हैं तो विश्व को जलवायु परिवर्तन से होने वाली आपदा का सामना करना होगा। आमदनी में असमानता बढ़ती जाएगी। भूखमरी और अकाल बढ़ता जाएगा। इस तरह के संकट का सामना करने के लिए कोई क्या कर सकता है?

मुझे इसका जवाब उन महापुरूषों द्वारा दी गई शिक्षाओं में मिला जिन्होंने संसार में हुए अनुचित कार्यों को देखा और उसे सुधारने और उसमें बदलाव लाने के लिए कई दशकों तक संघर्ष किया। इस बात को हम भारत और अमेरिका में देख सकते हैं जहाँ आधुनिक दुनिया का सबसे बड़ा और महान लोकतंत्र है। भारत में गांधी, नेहरू और अन्य स्वतंत्रता सेनानियों की शिक्षाएं प्रेरणा देती हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में मार्टिन लूथर किंग, थर्गुड मार्शल (Thurgood Marshall) और उन सभी लोगों को देख सकते हैं, जिन्होंने नागरिकों के अधिकारों के लिए लंबे समय तक संघर्ष किया।

व्यक्ति विशेष के रूप में, दृढ़ता और लगन हमारे कार्य करने की कुंजी है। दृढ़ता से तात्पर्य है, विश्व में बदलाव लाने के लिए तत्पर रहना है। यह मात्र फेसबुक या ट्वीट पर की गई। क्षणिक गतिविधि नहीं है अपितु उससे कहीं अधिक है। दृढ़ रहने का अर्थ है, अनुचित को सुधारने में, स्वयं को शिक्षित करने में, एवं नेताओं को शिक्षित करने में लगे रहना जिसमें दशकों लग सकते हैं। आत्म-शिक्षा क्या है, गांधी जी ने इसकी सीख दक्षिण अफ्रीका में। अपने अनुयायियों को और भारत में, कांग्रेस पार्टी में दी। उन्होंने नैतिकता, आचार एवं चरित्र पर ध्यान केंद्रित करने की सीख दी। ऐसे लोग जो वर्तमान समय को अपने कमान में लेना चाहते हैं उन्हें गांधी जी की दी गई सीख को आत्मसात करना चाहिए।

गांधी जी और अमेरिका के मार्टिन लूथर किंग ने ध्यान को केंद्रित रखने को भी महत्वपूर्ण माना है। किसी खास मुद्दे को लेकर, उसे बदलने की कोशिश करें। कार्य धरातल पर करें। अपने लक्ष्य को विशिष्ट बनाएं। उदाहरण के तौर पर है, नमक पर लगे कर को हटाना, काउंटर पर दोपहर का खाना खाने का अधिकार, विद्यालय में पढ़ने का अधिकार, चुनाव में वोट देने का अधिकार, बटाईदारी पर खेती को समाप्त करना, इत्यादि। मैंने एक दशक तक अपने एक विशिष्ट लक्ष्य 'कानून के सिद्धांत को विस्तृत करने' पर ध्यान केंद्रित किया है। जॉन एफ कैनेडी ने कहा है कि यदि हम शांतिपूर्ण तरीके से क्रांति करने नहीं देंगे तो अनिवार्य रूप से क्रांति हिंसा का रूप ले लेगी। एक न्यायसंगत समाज और विकसित लोकतंत्र में हमलोग उन नियमों को जानते हैं जिसके द्वारा हम स्वयं को नियंत्रित करते हैं। विश्व को उन्नत बनाने के लिए हम उन नियमों को बदलने की क्षमता भी रखते हैं।

सार्वजनिक सुरक्षा कोडों तक की पहुंच सीमित क्यों है?

आधुनिक विश्व में कई विशेष प्रकार के नियम हैं, जिन्हें सार्वजनिक सुरक्षा कोड कहते हैं। ये तकनीकी मानक हैं जो विभिन्न कार्यों को नियंत्रित करते हैं। जैसे, हम सुरक्षित घरों और कार्यालयों का निर्माण कैसे करते हैं, कारखानों में मशीनरी से श्रमिकों की रक्षा कैसे करते हैं, कीटनाशकों का उचित प्रयोग कैसे करते हैं, ऑटोमोबाइल की सुरक्षा, नदियों और महासागरों की शुद्धता की सुरक्षा, इत्यादि। ये हमारे महत्वपूर्ण कानूनों में से हैं।

कुछ अपवादों को छोड़कर पूरे विश्व में 'फोर्स आफ लॉ वाले सार्वजनिक सुरक्षा कोड जान- बूझ कर प्रतिबंधित कर दिए गए हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में गैर-सरकारी संगठनों की ऐसी शृंखला है जो इमारत एवं अग्नि के कोड का निर्धारण करती है। पुनः उन कोडों को कानून में अभिनीत किया जाता है। उन कोड़ों की लागत प्रति कॉपी सैकड़ों डॉलर होती है। महत्वपूर्ण बात यह है कि इनपर कॉपीराइट लगाया जाता है ताकि कोई व्यक्ति, एक निजी पार्टी से लाइसेंस लिए बिना, किसी को यह कानून नहीं बता सके।

भारत में भी यही हो रहा है लेकिन यहां महत्वपूर्ण सार्वजनिक सुरक्षा सूचना के वितरण को सरकार प्रतिबंधित करती है। भारतीय मानक ब्यूरो (Bureau of Indian Standards) इन कोड़ों पर कॉपीराइट लगाता है। नेशनल बिल्डिंग कोड ऑफ इंडिया की किताब के लिए 13,760 रूपये लेता है। ब्यूरो का कहना है कि ये महत्वपूर्ण सार्वजनिक सुरक्षा मानक उनकी निजी संपत्ति हैं और इस को पढ़ने या इस पर बोलने के लिए लाइसेंस लेना होगा एवं शुल्क का भुगतान करना पड़ेगा। अति महत्वपूर्ण बात यह है कि ब्यूरो का कहना है कि उसके अनुमति के बिना कोई व्यक्ति इन कोडों का इससे अधिक उपयोगी संस्करण भी नहीं बना सकता है।

मेरी जानकारी में यह बात आई है कि सरकारी आपदा निर्माण टास्क फोर्स की बैठक हुई थी। उसमें यह सुझाव दिया गया था कि जिन सरकारी अधिकारी पर आपातकालीन सुरक्षा का दायित्व है उन्हें इस महत्वपूर्ण सुरक्षा कोड की प्रतियाँ दी जाएं। परंतु ब्यूरो ने । अधिकारियों को सूचित किया कि यह कॉपीयाँ तभी दी जाएंगी जब प्रत्येक अधिकारी। इसके लिये लाइसेंस-समझौता करेगा है और 13,760 रूपये की कीमत अदा करेगा। प्रतियाँ लेने की अनुमति नहीं दी जायेगी।

एक दशक से मैं इस स्थिति को बदलने में लगा हूँ। मैंने एक छोटा सा गैर सरकारी संगठन शुरू किया। मैं इसके जरिए विश्व के सभी जगहों से कानूनन सुरक्षा कोड खरीदना शुरू कर दिया। अमेरिका में मैंने 1,000 से अधिक संघीय अनिवार्य सुरक्षा मानकों को खरीदा। उन्हें स्कैन किया और पोस्ट किया। भारत में मैंने 19,000 भारतीय मानक खरीदे और उन्हें इंटरनेट पर पोस्ट किया।
डिजिटल युग में सत्याग्रह

हमारा काम उन पेपरों को खरीद कर उन्हें कॉपी और स्कैन करने तक सीमित नहीं रहा। हुमने कई प्रमुख दस्तावेज़ों का पुनर्लेखन किया। उन्हें आधुनिक वेब पेजों में डाला। आकृतियों को पुनः बनाया। पाठ का मुद्रण (टाइपोग्राफी) आधुनिक तरीके से किया। हमने इन कोडों का मानकीकरण किया जिससे दृष्टिहीन लोग इन दस्तावेज़ों पर आसानी से कार्य कर सकें। हमने इन कोडों को ईबुक के रूप में उपलब्ध कराया। ऐसी सुविधा दी कि । पूरे पाठ को सर्च किया जा सके। हमने बुकमाक्र्स दिये एवं वेब साइट को सुरक्षित भी किये।

अमेरिका और भारत की सरकारें इससे खुश नहीं हैं।

अधिकारीगण खुश नहीं है। अमेरिका में हमारे ऊपर छह अभियोगों के साथ मुकदमा चलाया गया है। कानून बताने के अधिकार के लिए हमारा मामला अमेरिका के कोर्ट ऑफ अपील्सू में पेश है। भारत में ब्यूरो ने, हमें अन्य कोई दस्तावेज बेचने से इनकार कर दिया है। मंत्रालय में रिलीफ' की याचिका को खारिज कर दिया गया है। फिर हमने भारत में अपने सहयोगियों के साथ मिलकर एक जनहित याचिका दायर कीं, जो वर्तमान समय में माननीय उच्च न्यायालय दिल्ली में दर्ज है। हमारे वकील निःशुल्क अपना समय देते हैं। वे निःस्वार्थ कार्य करते हैं यानि कि इस कार्य के लिए रूपये नहीं लेते हैं। बल्कि उन्होंने हमारे कार्य का समर्थन करते हुए कानूनी सेवा (Self-Employed Women 's Association of India) शुल्क के रूप में करीब 1 करोड़ डॉलर से अधिक की निःशुल्क कानूनी मदद की है।

हम न्यायालय से न्याय मांग रहे हैं साथ ही प्रत्येक वर्ष इन दस्तावेजों को इंटरनेट पर लाखों दर्शकों के लिए उपलब्ध कराने का काम भी कर रहे हैं। भारतीय मानक भारत के प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग संस्थानों में विशेष रूप से लोकप्रिय हैं। यहाँ के छात्र और प्रोफेसर खुश हैं कि उनकी शिक्षा के लिए आवश्यक महत्वपूर्ण मानक आसानी से मुफ्त मिल सकते हैं।

प्रत्येक पीढ़ी को अवसर प्राप्त होता है। वास्तव में इंटरनेट ने विश्व को अदभुत अवसर प्रदान किया है। इसके जरिए प्रत्येक व्यक्ति सार्वभौमिक रूप से ज्ञान प्राप्त कर सकता है। मैं बड़े लोकतंत्र के कानून, सरकार के अध्यादेशों तक लोगों की पहुंच बनाने पर ध्यान केंद्रित करता हूँ। परंतु यह एक वृहत कार्य का केवल एक सूक्ष्म भाग है।

हमारी सोच ऊंची होनी चाहिए। आधुनिक दुनिया में, विद्वानों के साहित्य, तकनीकी दस्तावेजों, कानून या ज्ञान के अन्य भंडारों तक पहुंचने की प्रक्रिया को प्रतिबंधित करने का कोई बहाना नहीं है। जैसा कि भर्तृहरि ने नीतिशतकम् में लिखा है, “ज्ञान एक ऐसा खज़ाना है। जिसे चुराया नहीं जा सकता।” ज्ञान, बिना किसी शुल्क के सभी के लिए मुफ्त उपलब्ध होना चाहिए।

ज्ञान और कानून तक की पहुंच को सार्वभौमिक बना कर, शायद हम संसार की उन बाधाओं को दूर कर सकते हैं जिन्हें हम आज देख रहे हैं। लेकिन यह तभी संभव है जब हम सामाजिक कार्य करें जिसकी चर्चा गांधी जी अक्सर किया करते थे। और यह तभी होगा जब हम विशिष्ट लक्ष्यों पर लगातार और व्यवस्थित रूप से ध्यान केंद्रित करते रहेंगे। मार्टिन लूथर किंग ने हमें सिखाया है कि बदलाव अनिवार्यता के पहियों पर स्वयं चलकर नहीं आता, यह केवल निरंतर संघर्ष के साथ आता है। हम दनिया को बदल सकते हैं, लेकिन उसके लिए हमें संघर्ष करना होगा। यदि हम ऐसा करते हैं, तो हम उस पथ पर होंगें जो हमें ज्ञान तक ले जाता है। और हम ऐसा शहर बसा पाएंगे जहां न्याय और धर्म की कमी नहीं होगी।

28 अक्तूबर, 1954 को शंघाई में ‘यंग पायनियर्स पैलेस' की यात्रा
16 दिसंबर, 1956, पेन्सिलवेनिया में राष्ट्रपति आइजेनहावर के फार्म में
14 नवंबर, 1957 को नई दिल्ली में बाल दिवस समारोह में प्रधान मंत्री नेहरू
16 सितंबर 1958 को प्रधान मंत्री ने श्रमिकों के साथ जिन्होने उनकी भटान की यात्रा के लिए एक सड़क बनाई।
सी.डब्ल्यू.एम.जी, भाग 73 (1940-1941), फ्रेंटिसपीस, वाईसरॉय से मिलने के रास्ते पर, शिमला।
सी.डब्ल्यू.एम.जी, भाग 84 (1946), पृष्ठ 81, जवाहरलाल नेहरू के साथ

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।