कुरल-काव्य/परिच्छेद १९ चुगली से घृणा

कुरल-काव्य
तिरुवल्लुवर, अनुवादक पं० गोविन्दराय जैन

पृष्ठ १४६ से – १४७ तक

 

 

परिच्छेद १९
चुगली से घृणा

'खाता यह चुगली नहीं', पर की ऐसी बात।
सुनकर खल भी फूलता, जिसे न नीति सुहात॥१॥
परहित तज, पर का अहित, करना निन्दित काम।
मधुमुख पर उससे बुरा पीछे निन्दाधाम॥२॥
मृषा, अधम जीवन बुरा, उससे मरना श्रेष्ठ।
कारण ऐसी मृत्यु से, बिगहें कार्य न श्रेष्ठ॥३॥
मुख पर ही गाली तुम्हें, दीहो बिना विचार।
तो भी उसकी पीठ पर, बनो न निन्दाकार॥४॥
मुख से कितनी ही भली, यद्यपि बोले बात।
पर जिह्वा से चुगल का, नीचहृदय खुल जात॥५॥
निन्दाकारी अन्य के, होगे तो स्वयमेव।
खोज खोज चिल्लायेंगे, वे भी तेरे एँव॥६॥
मैत्रीरस-अनभिज्ञ जो, उक्ति माधुरीहीन।
वह ही बोकर फूट को, करता तेरह-तीन॥७॥
खुल कर करते मित्र की, जो अकीर्ति का गान।
वे कब छोड़ें शत्रु का, अपयश का व्याख्यान॥८॥
धैर्य सहित उर में सहे, निन्दक पादप्रहार।
धर्म ओर फिर फिर तके, भू, उतारचे भार॥९॥
अन्य मनुज के दोष सम, जो देखे निज दोष।
उस समान कोई नहीं, भू-भर में निर्दोष॥१०॥

 

परिच्छेद १९
चुगली से घृणा

१—जो मनुष्य सदा अन्याय करता है और न्याय का कभी नाम भी नहीं लेता, उसको भी प्रसन्नता होती है, जब कोई कहता है—देखो, यह आदमी किसी की चुगली नहीं खाता।

२—सत्कर्म से विमुख हो जाना और कुकर्म करना निस्सन्देह बुरा है, पर मुख पर हँस कर बोलना और पीठ पीछे निन्दा करना उससे भी बुरा है।

३—झूठ और चुगली के द्वारा जीवन व्यतीत करने से तो तत्काल ही मर जाना अच्छा है, क्योंकि इस प्रकार मर जाने से शुभकर्म का फल मिलेगा।

४—पीठ पीछे किसी की निन्दा न करो, चाहे उसने तुम्हारे मुख पर ही तुम्हे गाली दी हो।

५—मुख से चाहे कोई कितनी ही धर्म कर्म की बाते करे पर उसकी चुगलखोर जिह्वा उसके हृदय की नीचता को प्रगट कर ही देती है।

६—यदि तुम दूसरे की चुगली करोगे तो वह तुम्हारे दोषों को खोज कर उनमे से बुरे से बुरे दोषो को प्रगट कर देगा।

७—जो मधुर बचन बोलना और मित्रता करना नहीं जानते वे चुगली करके फूट का बीज बोते है और मित्रो को एक दूसरे से जुदा कर देते है।

८—जो लोग अपने मित्रो के दोषों को स्पष्ट रूप से सबके सामने कहते हैं, वे अपने वैरियों के दोषों को भला कैसे छोड़ेगे?

९—पृथ्वी अपनी छाती पर निन्दा करने वाले के पदाघात को धैर्य के साथ किस प्रकार सहन करती है। क्या चुगलखोर के भार से अपना पिण्ड छुडाने के लिए ही धर्म की ओर बार बार ताकती है?

१०—यदि मनुष्य अपने दोषों की विवेचना उसी प्रकार करे जिस प्रकार कि वह अपने वैरियों के दोषों की करता है, तो क्या उसे कभी कोई दोष स्पर्श कर सकेगा?