कार्ल मार्क्स फ्रेडरिक एंगेल्स/मार्क्स के आर्थिक सिद्धान्त

कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एंगेल्स
लेनिन

मास्को: प्रगति प्रकाशन, पृष्ठ २२ से – ३६ तक

 

मार्क्स के आर्थिक सिद्धान्त

'पूंजी' के प्रथम खंड की भूमिका में मार्क्स ने लिखा था- "इस पुस्तक का अन्तिम ध्येय वर्तमान समाज" (अर्थात् पूंजीवादी , बुर्जुआ समाज) "की गति के आर्थिक नियम को प्रकट करना है।" किसी विशेष और ऐतिहासिक दृष्टि से निर्धारित समाज के उत्पादन-संबंधों की उत्पत्ति , विकास और ह्रास का अनुसंधान - यह है मार्क्स के आर्थिक सिद्धांत का अन्तरस्थ । पूंजीवादी समाज की प्रमुख विशेषता माल तैयार करना है और इस कारण से मार्क्स का विश्लेषण माल की छान-बीन से शुरू होता है।

मूल्य

माल उसे कहते हैं जिससे मनुष्य की कोई ज़रूरत पूरी होती हो ; इसके सिवा माल उसे कहते हैं जिसके बदले में कोई और चीज़ मिल सके। किसी वस्तु की उपयोगिता से वह उपयोग-मूल्य बनती है। विनिमय- मूल्य (अथवा केवल मूल्य ) सबसे पहले एक अनुपात के रूप में आता है। यह अनुपात एक तरह के कुछ उपयोग-मूल्यों से दूसरी तरह के कुछ उपयोग-मूल्यों के विनिमय में होता है। दैनिक जीवन हमें बताता है कि इस तरह के लाखों-करोड़ों विनिमयों से तमाम तरह के उपयोग-मूल्य जो परस्पर भिन्न और एक दूसरे के समकक्ष नहीं हैं, सारा वक्त एक दूसरे के बराबर कर दिये जाते हैं। सामाजिक संबंधों की किसी निश्चित व्यवस्था में इन तरह-तरह की चीज़ों में समान वस्तु क्या है, जो बराबर एक दूसरे से नापी-तौली जाती हैं ? उनमें समानता यह है कि वे श्रम की उपज हैं। इस तरह वस्तुओं का विनिमय करने में लोग अत्यंत विलगविलग कोटि के श्रम का सन्तुलन करते हैं। मालों का उत्पादन सामाजिक संबंधों की ऐसी व्यवस्था है जिसमें विभिन्न उत्पादक विभिन्न वस्तुओं का उत्पादन करते हैं (श्रम का सामाजिक विभाजन ), और जिसमें इन सभी वस्तुओं को विनिमय में एक दूसरे के बराबर रखा जाता है। फलतः इन सभी मालों में जो तत्व समान रूप से है, वह उत्पादन के किसी निश्चित विभाग का ठोस श्रम नहीं है, न किसी विशेष प्रकार का श्रम है, वरन् भाववाचक मानव-श्रम है, साधारण रूप से मानव-श्रम। सभी मालों के संपूर्ण मूल्य के रूप में किसी भी समाज की सम्पूर्ण श्रम-शक्ति एक ही मानवीय श्रमशक्ति है। विनिमय के लाखों-करोड़ों कार्यों से यह सिद्ध होता है। फलतः प्रत्येक माल श्रम के उस समय के एक अंश का ही प्रतिरूप है जो सामाजिक दृष्टि से आवश्यक होता है। किसी उपयोग- मूल्य के , या किसी माल के उत्पादन के लिए सामाजिक दृष्टि से श्रम का जो समय आवश्यक है, या सामाजिक दृष्टि से श्रम की जितनी मात्रा आवश्यक है, उसी से मूल्य की मात्रा आंकी जा सकती है। “जब भी विनिमय द्वारा हम विभिन्न वस्तुओं का सन्तुलन करते हैं तब इस क्रिया से ही उन पर व्यय किये हुए विभिन्न प्रकार के श्रम का भी सन्तुलन करते हैं। हम इसके प्रति सजग नहीं होते , फिर भी उसे करते हैं।" जैसा कि पहले के एक अर्थशास्त्री ने कहा था, मूल्य दो व्यक्तियों के बीच का संबंध है; केवल उसे यह भी जोड़ देना चाहिए था कि यह संबंध एक भौतिक आवरण के भीतर है। मूल्य क्या है,- इसे हम तभी समझेंगे जब हम उसे किसी निश्चित ऐतिहासिक समाज में सामाजिक उत्पादन-संबंधों की व्यवस्था के दृष्टिकोण से देखें, और ऐसे उत्पादन-संबंधों की व्यवस्था के दृष्टिकोण से जो सामूहिक रूप में प्रकट होते हैं, जहां विनिमय-चक्र के लाखों-करोड़ों आवर्तन होते हैं। “मूल्यों के रूप में, सभी माल केवल जड़ीभूत श्रम-समय के निश्चित ढेर हैं।" मालों में निहित श्रम की दोहरी विशेषता का सांगोपांग विश्लेषण करके मार्क्स ने मूल्य के स्वरूप और मुद्रा का विश्लेषण किया है। यहां उनका मुख्य कार्य मूल्य के मुद्रा-रूप के उद्गम का अध्ययन करना है; विनिमय के विकास के ऐतिहासिक क्रम का अध्ययन करना है। इस

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विकास-क्रम में सबसे पहले वह विनिमय के इक्का-दुक्का , अलग-अलग कार्यों

को लेते हैं (“ साधारण , विलग या आकस्मिक मूल्य-रूप", जिसमें किसी माल की एक मात्रा का दूसरे माल की एक निश्चित मात्रा से विनिमय किया जाता है)। इसके बाद वह मूल्य के सार्वजनीन रूप की ओर बढ़ते हैं, जिसमें कई भिन्न-भिन्न मालों का एक ही विशेष माल से विनिमय होता है। अंत में वह मूल्य के मुद्रा-रूप का विवेचन करते हैं जहां स्वर्ण ही यह विशेष माल और सार्वजनीन अनुरूप साधन बन जाता है। विनिमय के विकास और मालों के उत्पादन की उच्चतम उपज होने के कारण, मुद्रा सारे व्यक्तिगत श्रम की सामाजिकता पर पर्दा डालती है और उसे छिपाती है ; वह विभिन्न उत्पादकों के सामाजिक बन्धन को छिपाती है जिन्हें बाज़ार एक-दूसरे से मिलाता है। मार्क्स ने मुद्रा की विभिन्न क्रियाओं का विस्तृत ढंग से विश्लेषण किया है। यहां विशेष रूप से इस बात की ओर ध्यान देना आवश्यक है (और साधारणतः ‘पूंजी' के आरम्भ के अध्यायों में) कि जो व्याख्या की भाववाचक और कभी-कभी केवल निष्कर्ष-प्रधान पद्धति मालूम होती है, वह वास्तव में विनिमय और मालों के उत्पादन के विकास के इतिहास के सम्बन्ध में तथ्य के विशाल संकलन का प्रतिरूप है। यदि मुद्रा पर हम विचार करें, तो उसके अस्तित्व से मालों के विनिमय की एक निश्चित अवस्था लक्षित होती है। मुद्रा के जो विशेष उपयोग हैं चाहे मालों की बराबरी के धन के रूप में, चाहे प्रचलन के साधन के रूप में, अथवा भुगतान के लिए , चाहे जोड़े हुए धन के रूप में या विश्व मुद्रा के रूप में,- उन उपयोगों से एक न एक उपयोग के प्रसार की मात्रा और उसके न्यूनाधिक प्राधान्य के अनुरूप , सामाजिक उत्पादन-क्रम में बहुत ही भिन्न कोटि की अवस्थाओं का पता लगता है।" ( 'पूंजी', खंड १)

अतिरिक्त मूल्य

माल के उत्पादन में एक अवस्था ऐसी आती है जब मुद्रा पूंजी में बदल जाती है। माल के आदान-प्रदान का सूत्र था, माल - मुद्रा - माल , अर्थात् एक तरह का माल खरीदने के लिए दूसरी तरह का माल बेचना।

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लेकिन इसके विपरीत पूंजी का साधारण सूत्र है मुद्रा - माल - मुद्रा , अर्थात् ( मुनाफ़े पर) बेचने के लिए खरीदना। जो मुद्रा आदान-प्रदान के लिए निकाली जाती है, उसकी असली कीमत के ऊपर जो बढ़ती होती है, उसे मार्क्स ने अतिरिक्त मूल्य का नाम दिया है। पूंजीवादी आदान- मुद्रा की इस "बढ़ती" को सभी लोग जानते हैं। वास्तव में यह “बढ़ती" ही एक विशेष , इतिहास द्वारा निश्चित उत्पादन के सामाजिक सम्बन्ध के रूप में मुद्रा को पूंजी में परिवर्तित करती है। मालों के आदान-प्रदान से अतिरिक्त मूल्य नहीं उत्पन्न हो सकता, क्योंकि इसमें केवल बराबर की चीज़ों का विनिमय होता है; क़ीमतों के बढ़ने से भी उसकी उत्पत्ति नहीं हो सकती क्योंकि ख़रीदने और बेचनेवालों का परस्पर हानि-लाभ बराबर हो जायेगा। और यहां पर हमारा विषय इक्की-दुक्की घटनाओं से सम्बन्धित न होकर सामूहिक रूप से औसत सामाजिक घटना- क्रम से है। अतिरिक्त मूल्य पाने के लिए थैलीशाहों को बाजार में ऐसा माल मिलना ही चाहिए जिसके उपयोग-मूल्य में यह विशेष गुण है कि वह मूल्य का उद्गम है"। यह ऐसा माल होता है जिसका प्रत्यक्ष उपयोग-क्रम मूल्य का भी निर्माण-क्रम है। ऐसे माल का अस्तित्व है। वह है मनुष्य की श्रम-शक्ति। उसका उपयोग श्रम है और श्रम से मूल्य बनता है। पैसेवाला श्रम-शक्ति को उसके मूल्य पर खरीद लेता है। हर माल के मूल्य की तरह श्रम-शक्ति का मूल्य भी उसके उत्पादन के लिए सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम के समय द्वारा (अर्थात् मजदूर और उसके परिवार के भरण-पोषण के लिए आवश्यक धन द्वारा निश्चित होता है। श्रम-शक्ति को ख़रीद लेने के बाद पैसेवाले का हक़ होता है कि वह उसका उपयोग करे यानी उसे दिनभर - मान लीजिये बारह घंटे- काम में लगाये रहे। इसी बीच छः घंटों में ही (“आवश्यक" श्रम समय में ) मज़दूर इतना उत्पादन कर लेता है जिससे उसके भरण-पोषण का ख़र्च निकल सके। इसके बाद के छः घंटों में (“अतिरिक्त" श्रम समय में) वह "अतिरिक्त" माल या अतिरिक्त मूल्य पैदा करता है जिसके लिए पूंजीपति उसे कुछ नहीं देता। इसलिए उत्पादन-क्रम के विचार से हमें पूंजी के दो भागों में भेद करना चाहिये : पहली , स्थिर पूंजी ( कौंस्टेंट

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कैपिटल ) जो उत्पादन के साधनों पर ( मशीनों, औज़ारों, कच्चे माल

वगैरा पर ) ख़र्च की जाती है, जिसका मूल्य (एकबारगी अथवा क्रमशः) बिना किसी परिवर्तन के तैयार माल में बदल दिया जाता है ; दूसरी , अस्थिर पूंजी ( वेरियेबल कैपिटल ) जो श्रम-शक्ति पर खर्च की जाती है। इस अस्थिर पूंजी का मूल्य एक सा नहीं रहता वरन् श्रम करने के साथ बढ़ता है और अतिरिक्त मूल्य का निर्माण करता है। इसलिए पूंजी द्वारा श्रम-शक्ति के शोषण का हिसाब करने के लिए हमें अतिरिक्त मूल्य की तुलना संपूर्ण पूंजी से नहीं वरन् केवल अस्थिर पूंजी से करनी चाहिए। इस प्रकार ऊपर के उदाहरण में, अतिरिक्त मूल्य की दर - जैसा कि मार्क्स ने इस संबंध का नामकरण किया है - छः छः के अनुपात में, अर्थात् शतप्रतिशत होगी।

पूंजी की उत्पत्ति के लिए ऐतिहासिक आवश्यकताएं इस प्रकार थीं : पहले , साधारण रूप से मालों के उत्पादन के अपेक्षाकृत उच्च विकास की परिस्थितियां और व्यक्तियों के हाथों में विशेष मात्रा में धन का इकट्ठा हो जाना ; दूसरे ऐसे मजदूरों का अस्तित्व जो दो अर्थों में "स्वाधीन" - अपनी श्रम-शक्ति के बेचने में किसी तरह की बाधा , या नियंत्रण से स्वाधीन और धरती या साधारण रूप से उत्पादन के साधनों से स्वाधीन; अर्थात् संपत्तिहीन मजदूरों का अस्तित्व , उन "सर्वहारा" लोगों का अस्तित्व जो अपनी श्रम-शक्ति को बेचे बिना अपना अस्तित्व बनाये नहीं रख सकते।

अतिरिक्त मूल्य को बढ़ाने के दो प्रधान साधन हैं - कार्य-दिवस लम्बा करने से (“निरपेक्ष अतिरिक्त मूल्य") और आवश्यक कार्य- दिवस छोटा करने से (“ सापेक्ष अतिरिक्त मूल्य" )। पहले साधन का विश्लेषण करते हुए मार्क्स ने एक प्रभावशाली चित्र प्रस्तुत किया , कि मजदूर वर्ग ने काम के घंटे कम करने के लिए कैसे संग्राम किया और सरकार ने मजदूरी के घंटे बढ़ाने के लिए ( चौदहवीं सदी से सत्रहवीं तक) और उन्हें घटाने के लिए ( उन्नीसवीं सदी का फ़ैक्टरी विधान ) कैसे हस्तक्षेप किया। 'पूंजी' के प्रकाशित होने बाद सभी सभ्य देशों के

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मज़दूर आंदोलन का इतिहास इस चित्र को भरने के लिए काफ़ी नयी

सामग्री देता है।

सापेक्ष अतिरिक्त मूल्य के उत्पादन का विश्लेषण करते हुए मार्क्स ने उस क्रम की तीन प्रधान और ऐतिहासिक मंजिलों की खोज की जिससे पूंजीवाद ने श्रम की उत्पादकता को बढ़ाया है,- (१) साधारण सहयोग ; (२) श्रम-विभाजन और कारखानों में उत्पादन ; ( ३ ) मशीनें और बड़े पैमाने पर उद्योग-धन्धे। मार्क्स ने किस गंभीरता से पूंजीवादी विकास के आधारभूत और विशेष लक्षणों को प्रकट कर दिया है, वह संयोगवश इस बात से मालूम हो जाता है कि रूस के तथाकथित "घरेलू” उद्योग-धंधों की जांच से पहली दो मंज़िलों का निदर्शन करने के लिए ढेर सारी सामग्री मिल जाती है। १८६७ में मार्क्स ने बड़े पैमाने के मशीन वाले उद्योग-धंधों के जिस क्रान्तिकारी प्रभाव का वर्णन किया था, वह कई “नये" देशों में, जैसे रूस, जापान आदि में, पिछले पचास साल में स्पष्ट हो गया है।

लेकिन आगे चलिये। मार्क्स ने पूंजी के संचय का जो विश्लेषण किया है - अर्थात् अतिरिक्त मूल्य के एक भाग का पूंजी में परिवर्तन और इस भाग का पूंजीपति की अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताओं या इच्छाओं की पूर्ति के लिए उपयोग न करके उसे अधिक उत्पादन में लगाना - वह अत्यन्त महत्वपूर्ण और मौलिक है। मार्क्स ने पहले के क्लासिकल राजनीतिक अर्थशास्त्र की (ऐडम स्मिथ से लेकर) धारणाओं को भ्रमपूर्ण बताया था जिनके अनुसार सभी अतिरिक्त मूल्य, जो पूंजी में परिवर्तित होता था, अस्थिर पूंजी बन जाता था। वास्तव में वह अस्थिर पूंजी तथा उत्पादन के साधनों में बंट जाता है। पूंजी के संपूर्ण भण्डार में अस्थिर पूंजी की अपेक्षा स्थिर पूंजी का ज्यादा तेज़ी से बढ़ना पूंजीवाद के विकास-क्रम में और पूंजीवाद से समाजवाद के परिवर्तन-क्रम में अत्यन्त महत्वपूर्ण है।

पूंजी के संचय से मशीनों का मज़दूरों की जगह लेने का काम तेज़ी से बढ़ चलता है ; एक सिरे पर सम्पत्ति इकट्ठी होती है तो दूसरी ओर निर्धनता का राज होता है। इस प्रकार पूंजी के संचय से तथाकथित " मजदूरों की रिज़र्व फ़ौज" पैदा होती है, मजदूरों का "अपेक्षाकृत

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बाहुल्य" अथवा "जनसंख्या की पूंजीवादी अतिवृद्धि" होती है। इसके अनेक और विभिन्न रूप होते हैं और इससे उत्पादन को अभूतपूर्व शीघ्रता से बढ़ाने के लिए पूंजी को एक अवसर मिलता है। हम इस बात को ध्यान में रखें और उसके साथ उधार पाने की सुविधाओं और उत्पादन के साधनों में पूंजी के संचय को भी ध्यान में रखें तो हमें वह कुंजी मिल जाती है जिससे पूंजीवादी देशों में समय-समय पर होनेवाले अति-उत्पादन के संकटों को हम समझ सकते हैं। ये संकट औसतन पहले प्रायः प्रति दस वर्ष में होते हैं, बाद में बीच का समय ज्यादा लम्बा और अनिश्चित हो जाता है। पूंजीवादी आधार पर जो पूंजी का संचय होता है, उससे हमें तथाकथित आदिम संचय का भेद करना चाहिए, जिसमें उत्पादन के साधनों से मजदूर बरबस हटा दिया जाता है, किसान ज़मीन से भगा दिये जाते हैं, पंचायती जमीन चुरा ली जाती है, औपनिवेशिक व्यवस्था और राष्ट्रीय कर्ज़ , व्यापार-रक्षा के विशेष नियम , आदि पाये जाते हैं। "आदिम संचय" से एक ओर "स्वाधीन" सर्वहारा का निर्माण होता है, दूसरी ओर पैसे के स्वामी , पूंजीपति का।

मार्क्स ने "पूंजीवादी संचय को ऐतिहासिक प्रवृत्ति” को बड़े सुन्दर ढंग से व्यक्त किया है: प्रत्यक्ष उत्पादकों की निर्मम दस्युता से, और अति निम्न कोटि की , जघन्य , क्षुद्र और पतित आकांक्षाओं की प्रेरणा से लूट-खसोट की जाती है। किसान और दस्तकार की स्वअर्जित व्यक्तिगत सम्पत्ति, कहना चाहिए , एकान्त और स्वतंत्र श्रमजीवी व्यक्ति के अपने श्रम के औज़ारों और साधनों के साथ एकीभूत हो जाने पर आधारित होती है। उसकी जगह पूंजीवादी व्यक्तिगत सम्पत्ति ले लेती है जो दूसरों के नाममात्र स्वाधीन श्रम पर, अर्थात् दूसरों की मजूरी पर, निर्भर है.. अब जिसका सम्पत्तिहरण करना है, वह अपने लिए काम करने वाला मजदूर नहीं है वरन् बहुत से मजदूरों का शोषण करनेवाला पूंजीपति है। यह अपहरण पूंजीवादी उत्पादन में निहित नियमों की क्रिया से , पूंजी के केन्द्रीकरण से सम्पन्न होता है। एक पूंजीपति हमेशा कई औरों की जान लेता है। इस केन्द्रीकरण अथवा कुछ पूंजीपतियों द्वारा बहुतों के अपहरण किये जाने के साथ-साथ नित बढ़ते हुए पैमाने पर श्रम

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का सहकारिता वाला रूप भी विकसित होने लगता है ; विज्ञान का सचेत

रूप से प्राविधिक प्रयोग होता है, धरती में नियमपूर्वक खेती होने लगती है; श्रम-साधनों का ऐसे श्रम-साधनों में परिवर्तन हो जाता है जो सामूहिक रूप से ही प्रयुक्त हो सकें , साथ ही संयुक्त समाजगत श्रम के उत्पादन-साधनों के रूप में सभी उत्पादन-साधनों का उपयोग करके उनकी संख्या में कमी की जाती है; दुनिया के बाज़ार के जाल में सभी लोग फंस जाते हैं और इसके साथ पूंजीवादी शासन की अन्तर्राष्ट्रीयता बढ़ती जाती है। पूंजीशाहों की संख्या - जो इस परिवर्तन-क्रम के सभी लाभों को हथियाकर उनपर अपना एकाधिकार कर लेते हैं- जैसे-जैसे लगातार कम होती जाती है, वैसे-वैसे ही दैन्य, अत्याचार, दासता, पतन और शोषण में वृद्धि होती है। परन्तु इसके साथ उस मज़दूर वर्ग का विद्रोह भी बढ़ता जाता है जिसकी संख्या लगातार बढ़ती जाती है , और जिसमें स्वयं पूंजीवादी उत्पादनक्रम के यान्त्रिक स्वरूप से ही अनुशासन , एकता और संगठन उत्पन्न होता है। पूंजी का एकाधिकार उस उत्पादन-पद्धति के लिए शृंखल बन जाता है जो उसके साथ और उसकी अधीनता में पनपी और फली-फूली थी। उत्पादन के साधनों का केन्द्रीकरण और श्रम का समाजीकरण एक बिन्दु पर जा पहुंचता है जहां पूंजीवादी खोल में उनका रहना असम्भव हो जाता है। वह खोल फट जाती है। पूंजीवादी व्यक्तिगत सम्पत्ति की अन्तिम घड़ी आ पहुंचती है। अपहरण करनेवालों का अपहरण हो जाता है।' ( 'पूंजी', खंड १)

'पूंजी' के दूसरे खंड में मार्क्स का समूची सामाजिक पूंजी के पुनरुत्पादन का विश्लेषण अतिशय महत्व का है और बिल्कुल नया है। यहां भी मार्क्स ने किसी विलग घटना की चर्चा न करके एक सामूहिक घटना-क्रम पर विचार किया है। उन्होंने समाज की आर्थिक व्यवस्था के किसी अंश पर नहीं, वरन् इस सम्पूर्ण व्यवस्था पर ही विचार किया है। क्लासिकल अर्थशास्त्रियों की उपरोक्त भूल को सुधारते हुए मार्क्स ने समूचे सामाजिक उत्पादन को दो बड़े भागों में बांटा है : (१) उत्पादन-साधनों का उत्पादन और (२) उपभोगवस्तुओं का उत्पादन। अंकों द्वारा उदाहरण देते हुए उन्होंने समूची सामाजिक पूंजी के परिचालन की- जब अपने

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पिछले अनुपात-क्रम से उसका पुनरुत्पादन होता है और जब उसका संचय होता है , दोनों दशाओं में विस्तृत जांच की है। 'पूंजी' के तीसरे खंड में यह समस्या सुलझायी गयी है कि मूल्य के नियम के आधार पर मुनाफ़े को औसत दर कैसे बनती है। आर्थिक विज्ञान में एक बहुत बड़ी प्रगति यह है कि मार्क्स ने सामूहिक अर्थ संबंधी घटनावली और सम्पूर्ण सामाजिक अर्थ-व्यवस्था को ध्यान में रखकर अपना विश्लेषण किया है, न कि इक्का-दुक्का घटनाओं को लेकर या प्रतियोगिता के बिल्कुल छिछले पहलुओं को लेकर। इस तरह का संकुचित दृष्टिकोण निम्न कोटि के राजनीतिक अर्थशास्त्र में और उस समय के “सीमान्त उपयोग के सिद्धान्त'¹¹ ( थियरी ऑफ़ मार्जिनल युटिलिटी) में मिलता है। पहले मार्क्स ने अतिरिक्त मूल्य के उद्गम का विश्लेषण किया है ; उसके बाद वह मुनाफ़े , ब्याज और भूमि-कर (ग्राउंड रेण्ट) के रूप में उसके विभाजन पर विचार करते हैं। अतिरिक्त मूल्य तथा किसी काम में लगायी हुई समस्त पूंजी के अनुपात का नाम मुनाफ़ा है। "उच्च आर्गेनिक बनावट की पूंजी (अर्थात् जिसमें सामाजिक औसत से ऊपर अस्थिर पूंजी से स्थिर पूंजी ज्यादा होती है ) से मुनाफ़े की औसत से कम दर मिलती है। 'निम्न आर्गेनिक बनावट" की पूंजी से मुनाफ़े की औसत से ज्यादा दर मिलती है। पूंजीपति उत्पादन के एक विभाग से पूंजी को हटाकर उसे दूसरे विभाग में लगाने के लिए स्वच्छन्द हैं; उनकी परस्पर प्रतियोगिता से दोनों ही दशाओं में मुनाफ़े की दर कम होकर औसत पर आ जाती है। किसी भी समाज में सभी मालों का कुल मूल्य सभी मालों की कुल कीमत (प्राइसेज़) के बराबर होता है। लेकिन अलग-अलग कारबार में और उत्पादन के अलग-अलग विभागों में प्रतियोगिता के फलस्वरूप मालों का विक्रय उनके मूल्य के अनुसार नहीं होता वरन् उत्पादन की कीमतों के अनुसार होता है। ये कीमतें लगायी हुई पूंजी और औसत मुनाफ़े के जोड़ के बराबर होती हैं।

इस प्रकार मार्क्स ने मूल्य संबंधी नियम के आधार पर ही इस बात की व्याख्या की है कि कीमत और मूल्य में जो असंदिग्ध और अविवादास्पद भेद है, वह क्यों होता है और मुनाफे में समानता क्यों

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होती है - क्योंकि सारे मालों के मूल्यों का जोड़ क़ीमतों के जोड़ से मेल

खाता है। फिर भी मूल्य (जो सामाजिक होता है ) और क़ीमत (जो अलग-अलग होती है) का परस्पर सामंजस्य सीधे साधारण ढंग से नहीं होता वरन् उसका क्रम बहुत ही टेढ़ा-मेढ़ा होता है। इसलिए ऐसे समाज में जहां माल के पैदा करने वाले लोग अलग-अलग हों, और जो केवल बाजार के ही माध्यम से एक-दूसरे के साथ जुड़े हों, यह स्वाभाविक है कि नियम एक औसत, आम और सामूहिक नियम के रूप में प्रकट हो, जिसमें कभी इधर और कभी उधर होनेवाली पथ-विच्युति एक दूसरे की कमी को पूरा करे।

श्रम की उत्पादकता में बढ़ती का अर्थ है अस्थिर पूंजी के मुकाबले स्थिर पूंजी की और भी तेज़ बढ़ती। अतिरिक्त मूल्य का केवल संबंध अस्थिर पूंजी से ही होता है, इसलिए यह स्पष्ट है कि मुनाफ़े की दर में ( अतिरिक्त मूल्य तथा सम्पूर्ण पूंजी, न पूंजी के एक अस्थिर भाग के ही अनुपात में ) गिरने की प्रवृत्ति होती है। मार्क्स ने इस प्रवृति और इसे छिपाने अथवा निष्फल करनेवाली कुछेक परिस्थितियों का विस्तृत विश्लेषण किया है। 'पूंजी' के जिस अत्यंत रोचक तीसरे भाग में महाजनी पूंजी , व्यापारी पूंजी और मुद्रा पूंजी की विवेचना की गई है, उसका यहां पर विवरण न देकर मैं उसके सबसे महत्वपूर्ण भाग भूमि-कर के सिद्धान्त को लूंगा। ज़मीन नाकाफ़ी होने से और पूंजीवादी देशों में सारी ज़मीन पर अलग-अलग मालिकों का निजी स्वामित्व होने से, खेती की पैदावार की उत्पादन-क़ीमत उत्पादन की लागत से निश्चित होती है। परन्तु इस उत्पादन की लागत का हिसाब औसत दर्जे की जमीन को ध्यान में रखकर नहीं लगाया जाता , उसका हिसाब माल को बाज़ार ले आने की औसत परिस्थितियों को ध्यान में रखकर नहीं लगाया जाता , वरन् सबसे ख़राब धरती और सबसे अधम परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए यह हिसाब लगाया जाता है। इस क़ीमत में और अच्छी ज़मीन ( या अच्छी परिस्थितियों) के उत्पादन की कीमत में जो अन्तर होता है, वह भेदकारी भूमि-कर कहलाता है। उसका विस्तृत विश्लेषण करते हुए और यह दिखाते हुए कि खेतों की उर्वरता में अन्तर होने से और धरती पर

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पूंजी की जो मात्रा लगायी जाती है, उसमें अन्तर होने से यह कैसे उत्पन्न

होता है, मार्क्स ने पूरी तरह रिकार्डो की भूल को प्रकट कर दिया है जिसका विचार था कि भेदकारी भूमि-कर तभी मिलता है जब अच्छी से बुरी धरती की ओर क्रमशः संक्रमण होता । ('अतिरिक्त मूल्य के सिद्धान्त' भी देखिये जिसमें रोडबर्टस के मत की समालोचना विशेष ध्यान देने योग्य है।) इसके विपरीत कृषि-विद्या में उन्नति होने से , नगरों की वृद्धि आदि कारणों से प्रतिकूल संक्रमण हो सकते हैं, धरती की एक श्रेणी बदल कर दूसरी हो सकती है। "धरती की नित-न्यून उर्वरता का नियम" जो दुष्टता से प्रकृति पर पूंजीवाद के दोषों , संकीर्णता और असंगति का दोषारोपण करता है, भारी भूल है। इसके सिवा सभी उद्योग-धंधों और साधारण रूप से राष्ट्रीय अर्थ-व्यवस्था में मुनाफ़े की समानता पहले ही प्रतियोगिता करने की स्वाधीनता को, एक धंधे से दूसरे धंधे में पूंजी की स्वतंत्र गति को मान लेती है। परन्तु भूमि पर निजी स्वामित्व एकाधिकार को जन्म देकर, इस स्वतंत्र गति में बाधक होता है। इस एकाधिकार के कारण जहां पूंजी की निम्न आर्गेनिक बनावट होती है और फलतः अलग-अलग मुनाफ़े की ऊंची दर मिल सकती है, वहां खेती की पैदावार में मुनाफ़े की दर निद्वंद्व रूप से बराबर नहीं की जा सकती। अपने हाथ में एकाधिकार रखने से जमींदार अपनी पैदावार की कीमत औसत से ऊंची रख सकता है और यह एकाधिकार से निश्चित होने वाली क़ीमत निरपेक्ष भूमि-कर का उद्गम है। जब तक पूंजीवाद है, तब तक भेदकारी भूमि-कर का अन्त नहीं हो सकता। लेकिन निरपेक्ष भूमि-कर का तो पूंजीवाद के रहते हुए भी अन्त किया जा सकता है ; उदाहरण के लिए भूमि के राष्ट्रीयकरण से, भूमि को राष्ट्र की सम्पत्ति बनाकर। भूमि पर राष्ट्र का अधिकार होने से निजी ज़मींदारों के एकाधिकार का अन्त हो जायेगा। इसका फल यह होगा कि कृषि में भी अधिक संगतरूप से और अधिक पूर्णता से मुक्त प्रतियोगिता चल सकेगी। इसीलिए, जैसा कि मार्क्स ने कहा है, इतिहास में आमूल-परिवर्तनवादी पूंजीपति बार-बार इस प्रगतिशील पूंजीवादी मांग को लेकर आगे आये हैं कि भूमि पर राष्ट्र का अधिकार हो । लेकिन इससे अधिकांश

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पूंजीपतियों को डर लगता है क्योंकि यह एक दूसरे एकाधिकार को भी

निकट से "स्पर्श" करती है, जो आजकल विशेष रूप से महत्वपूर्ण और "कोमल" है - साधारण रूप से उत्पादन के साधनों पर एकाधिकार। ( एंगेल्स के नाम अपने २ अगस्त १८६२ के पत्र में मार्क्स ने पूंजी पर मुनाफ़े की औसत दर और निरपेक्ष भूमि-कर के सिद्धान्त की बहुत ही सरल , सुस्पष्ट और संक्षिप्त व्याख्या की है। देखिये ‘पत्र-व्यवहार', खंड ३, पृष्ठ ७७-८१ ; साथ ही मार्क्स का ६ अगस्त १८६२ का पत्र, वहीं, पृष्ठ ८६-८७ । ) भूमि-कर के इतिहास के सम्बन्ध में मार्क्स के विश्लेषण की ओर ध्यान देना आवश्यक है। इस संबंध में यह बताना भी बड़े महत्व का है कि श्रम-कर (जब किसान ज़मींदार की जमीन पर काम करके अतिरिक्त पैदावार करता है) वस्तु या धान्य-कर का रूप किस तरह लेता है (किसान अपनी भूमि पर अतिरिक्त पैदावार करके उसे “आर्थिक से इतर नियंत्रण" द्वारा बाध्य होकर ज़मींदार को सौंप देता है )। उसके बाद यह वस्तु-कर मुद्रा-कर में परिवर्तित होता है ( वही वस्तु-कर जो माल उत्पादन के विकास के कारण पैदावार के रूप में जो पुराने रूस का कर था, उसी की कीमत मुद्रा में निश्चित कर दी जाती है )। अन्त में वह पूंजीवादी कर में परिवर्तित होता है जब किसान की जगह वह पूंजीपति आ जाता है जो पैसे पर मजूरी करनेवालों की सहायता से खेती करता है। “पूंजीवादी भूमि-कर की उत्पत्ति" के विश्लेषण के साथ-साथ कृषि में पूंजीवाद के विकास के संबंध में मार्क्स ने कुछ बड़े मार्के के विचार प्रकट किये थे, उनपर भी ध्यान देना चाहिए। रूस जैसे पिछड़े हुए देशों पर वे विशेष रूप से लागू होते हैं। “अपने को मजूरी पर उठा देनेवाले , दिन में काम करनेवाले , संपत्तिहीन मजदूरों का वर्ग बनने के साथ साथ ही धान्य रूप में कर मुद्रा-कर में बदलता है, बल्कि पहले से उसकी आशा होने लगती है। उनके इस अभ्युदय-काल में, जब यह वर्ग जहां-तहां अनियमित ढंग से प्रकट होता है, तो यह प्रथा भी अवश्य चल पड़ती है कि धान्य या मुद्रा के रूप में कर देने वाले धनी किसान अपने लाभ के लिए खेतिहर मजूरों का शोषण करते हैं, जैसे कि सामन्त-युग में धनी कम्मी अपने लाभ के लिए कम्मियों से काम लेते थे। इस प्रकार

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वे धीरे-धीरे इस योग्य बन जाते हैं कि कुछ धन इकट्ठा कर सकें और अपने को भावी पूंजीपतियों में परिवर्तित कर सकें। इस प्रकार स्वयं खेती करनेवाले पुराने भू-स्वामियों के भीतर ही पूंजीवादी पट्टेदारों के लिए परिस्थितियां तैयार होती हैं। इन काश्तकारों का विकास खेती के बाहर के पूंजीवादी उत्पादन के विकास पर निर्भर होता है।' ('पूंजी', खंड ३, पृष्ठ ३३२)... "खेतिहरों के एक भाग के अपहरण किये जाने से और उनके बेदखल होने से प्रौद्योगिक पूंजी के लिए मजदूर, उनकी जीविका के साधन , और श्रम के औज़ार ही खाली नहीं हो गये वरन् उससे घर का बाज़ार भी बना।” ( 'पूंजी', खंड १, पृष्ठ ७७८ ) इसके बाद खेतिहर जनता की ग़रीबी और तबाही से पूंजी के लिए मजदूरों की रिज़र्व फ़ौज बनती है। हर पूंजीवादी देश में “खेतिहर जनता का एक भाग शहर के या कारखाने में काम करने वाले सर्वहारा वर्ग में परिवर्तित होने की सीमा पर सदा ही तैयार रहता है (कारखानों से यहां सभी गैर-खेतिहर धंधों से मतलब है)। इस प्रकार अपेक्षाकृत अतिरिक्त जनसंख्या का यह स्रोत सदा बहा करता है ... इसलिए खेतिहर मजूर को कम से कम पैसा मिलता है और उसका एक पैर निराश्रयता के दलदल में बना ही रहता है।” ('पूंजी', खंड १, पृष्ठ ६६८) जिस भूमि को किसान जोतता-बोता है, उसपर उसका निजी स्वामित्व ही छोटे पैमाने के उत्पादन का आधार है और इस उत्पादन की बढ़ती, उसके क्लासिकल रूप प्राप्त करने के लिए आवश्यक है। परन्तु इस तरह का टुटपुंजिया उत्पादन समाज और उत्पादन के संकुचित और पुराने ढांचे में ही संभव है। पूंजीवाद में “किसानों के शोषण का केवल रूप ही औद्योगिक सर्वहारा वर्ग के शोषण से भिन्न है। शोषक एक ही है : पूंजी। अलग-अलग पूंजीपति रेहन और ब्याज से अलग-अलग किसानों का शोषण करते हैं ; पूंजीवादी वर्ग राजकीय करों द्वारा किसान वर्ग का शोषण करता है।" ('फ्रांस में वर्ग-संघर्ष' ) "अब किसान की थोड़ी सी ज़मीन उससे मुनाफ़ा , ब्याज और कर लेने के लिए पूंजीपति के पास बहाने भर का काम देती है; ज़मीन से किसान अपनी जीविका कैसे वसूल करता है, यह जिम्मा उसका है।" ( 'अठारहवीं ब्रूमेयर') किसान अपनी

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कमाई का एक भाग भी नियमित रूप से पूंजीवादी समाज को अर्थात्

पूंजीवादी वर्ग के हवाले कर देता है और “निजी स्वामित्व के बहाने आयरिश काश्तकार के दर्जे तक पहुंच जाता है"। ('फ्रांस में वर्ग-संघर्ष') ऐसा क्यों होता है कि “जिन देशों में छोटे-छोटे काश्तकारों की संख्या अधिक होती है, वहां पूंजीवादी उत्पादन-पद्धति वाले देशों की अपेक्षा अनाज की कीमत कम होती है" ? ( 'पूंजी', खंड ३, पृष्ठ ३४०) इसका उत्तर यह है कि अपनी अतिरिक्त पैदावार का एक भाग किसान समाज को (अर्थात् पूंजीवादी वर्ग को) यों ही दान कर देता है। (अनाज और खेती से पैदा होनेवाली दूसरी चीज़ों की ) 'यह कम क़ीमत उत्पादकों की निर्धनता का भी परिणाम है और उनके श्रम की उत्पादिता का परिणाम किसी भी तरह नहीं है।" (वहीं।) पूंजीवाद में टुटपुंजिया खेती , जो टुटपुंजिया उत्पादन का साधारण रूप है, निर्जीव होकर मुरझा जाती है और समाप्त हो जाती है। "छोटे किसानों की सम्पत्ति स्वभाव से ही इस संभावना को दूर रखती है कि श्रम के उत्पादन की सामाजिक शक्तियों का विकास हो, श्रम के सामाजिक रूप हों, पूंजियों का सामाजिक केन्द्रीकरण हो, बड़े पैमाने पर गोरू पाले जायं और कृषि में विज्ञान का अधिकाधिक उपयोग किया जाय। ब्याज और कर-व्यवस्था उसे हर जगह निर्धन बनाएगी। जमीन खरीदने में पूंजी के ख़र्च के कारण खेती से यह पूंजी खिंच आती है उसके साथ उत्पादन के साधनों का विराट ह्रास और स्वयं उत्पादकों का अलगाव पैदा होता है।" ( सहकारी-संस्थाएं अर्थात् छोटे किसानों की जमातें असाधारण रूप से प्रगतिशील पूंजीवादी भूमिका पूरी करती हुई भी इस प्रवृत्ति को निर्बल बनाती हैं, उसका नाश नहीं करतीं। इसके सिवा यह न भूलना चाहिए कि ये सहकारी संस्थाएं धनी किसानों के लिए बहुत कुछ करती हैं, और आम गरीब किसानों के लिए बहुत कम , प्रायः कुछ नहीं करतीं। यह भी न भूलना चाहिए कि ये संस्थाएं स्वयं खेत मजदूरों की शोषक हो जाती हैं। ) “मनुष्य की शक्ति का भारी अपव्यय भी होता है। उत्पादन की परिस्थितियों में ह्रास की निरन्तर वृद्धि और उत्पादन साधनों की

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क़ीमत में बढ़ती छोटे किसानों की संपत्ति का आवश्यक नियम है।"

उद्योग-धंधों की भांति कृषि में भी “उत्पादकों की शहादत" की कीमत देकर ही पूंजीवाद उत्पादन-क्रम को बदलता है। “खेतिहर मजूरों के बड़े- बड़े इलाकों में फैल जाने से उनकी विरोध करने की शक्ति टूट जाती है जब कि केन्द्रीकरण से शहर के कमकरों की शक्ति बढ़ती है। जैसे शहर के उद्योग-धंधों में, वैसे ही वर्तमान पूंजीवादी कृषि में श्रम-शक्ति को ही नष्ट करने और निर्बल किये जाने से ही चालू श्रम की बढ़ी हुई उत्पादकता और गतिशीलता प्राप्त की जाती है। इसके सिवा पूंजीवादी कृषि में सभी उन्नति मजदूरों को ही लूटने की नहीं, वरन् धरती को भी लूटने की कला में उन्नति है इसलिए पूंजीवादी उत्पादन सभी तरह की सम्पत्ति के मूल स्रोत - धरती और मजूर-को निचोड़ कर ही टेकनोलाजी का विकास करता है और विभिन्न क्रमों को एक ही सामाजिक क्रम में मिलाता है।" ( 'पूंजी', खंड १, अध्याय १३ का अन्त )