कायाकल्प/७
७
चक्रधर की कीर्ति उनसे पहले ही बनारस पहुंच चुकी थी। उनके मित्र और अन्य । उनसे मिलने के लिए उत्सुक हो रहे थे । बार बार पाते थे और पूछकर लौट जाते जब वह पाँचवें दिन घर पहुंचे तो लोग मिलने और बधाई देने या पहुँचे । नगर सभ्य समाज मुक्तकंठ से उनकी तारीफ कर रहा था । यबपि चक्रघर गभीर आदमी पर अपनी कीति की प्रशंसा से उन्हें सच्चा अानन्द मिल रहा था । मुसलमानो की सख्या के विषय में किसी को भ्रम होता, तो वह तुरन्त उमे ठोक कर देते थे-एक हजार ? अजी, पूरे पाँच हजार श्रादमी ये पोर सभी को त्योरियाँ चढी हुई। मालूम देता था, मुझे खड़ा निगल जायेगे। नान पर खेल गया और क्या कहूँ। कुछ लोग ऐसे भी थे, जिन्हें चक्रधर की वह अनुनय-विनय अपमानजनक जान पढ़ती थी। उनका खयाल था कि इससे तो मुसलमान और भी शेर हो गये होंगे । इन लोगों से चक्रधर को घण्टों बहस करनी पडी, पर वे कायल न हुए । मुसलमानों में भी चक्रधर की तारीफ हो रही थी। दोचार श्रादमी मिलने भी अाये, लेकिन हिन्दुओं का जमघट देसकर 'लौट गये।
और लोग तो तारीफ कर रहे थे, पर मुशी वनधर लड़के की नादानी पर बिगड़ रहे थे। तुम्हीं को क्यों यह भूत सवार हो जाता है ? क्या तुम्हारी ही जान सस्ती है ? तुम्ही को अपनी जान भारी पड़ी है ? क्या वहाँ यार लोग न थे, फिर तुम क्यो अाग म कृदने गये ? मान लो, मुसलमानों ने हाय चला दिया होता, तो क्या करते ? फिर तो कोई साहब पास न फटकते ! ये हजारों यादमी, नो अाज खुशी के मारे फूले नहीं समाते, बात तक न पूछते । निर्मला तो इतनी विगढ़ी कि चक्रधर से बात न करना चाहती थी।
शाम को चक्रधर मनोरमा के घर गये । वह बगीचे में दौड़-दौड़कर हजारे से पौधों को सींच रही थी। पानी से कपड़े लथपथ हो गये थे। उन्हें देखते ही हजारा फेंककर दौड़ी और पास श्राकर बोली-पाप कर पाये, बाबूजी ? मैं पत्रों मे रोज वहाँ का समाचार देखती थी और मोचती थी कि ग्राप यहाँ पायेंगे, तो यापकी पूजा करूँगी । श्राप न होते तो वहाँ जरूर दगा हो जाता। पापको बिगडे हुए मुसलमाना के सामने अकेले जाते हुए जरा भी शका न हुई ?
चक्रधर ने कुरसी पर बैठते हुए कहा-जरा भी नहीं ! मुझे तो यही धुन थी कि इस वक्त कुरबानी न होने दूंगा, इसके सिवा दिल में और कोई खयाल न था। अब सोचता हूँ, तो अाश्चर्य होता है कि मुझमे इतना बल और साहस कहाँ से आ गया था। मैं तो यही कहूंगा कि मुसलमानों को लोग नाहक बदनाम करते हैं । फिसाद से वे भा उतना ही डरते हैं, जितना हिन्दू । शान्ति की इच्छा भी उनमें हिन्दुओ से कम नहा है । लोगों का यह खयाल कि मुसलमान लोग हिन्दुओं पर राज्य करने का स्वप्न देख रहे हैं बिलकुल गलत है। मुसलमानों को केवल यह शका हो गयी है कि हिन्दू उनस पुराना वैर चुकाना चाहते हैं, और उनकी हस्ती को मिटा देने की फिक्र कर रहे हैं। इसी भय से वे जरा-जरा सी बात पर तिनक उठते हैं और मरने मारने पर आमादा हो जाते हैं।
मनोरमा-मैंने तो जब पढा कि ग्राप उन बौखलाये हए आदमियों के सामन निःशक भाव से खड़े थे, तो मेरे रोंगटे खड़े हो गये। आगे पढने की हिम्मत न पड़ती थी कि कहीं कोई बुरी खबर न हो । क्षमा कीजिएगा, मैं उस समय वहाँ होती, तो श्रापको पकडकर खींच लाती । आपको अपनी जान का जरा भो मोह नहीं है।
चक्रधर-( हँसकर ) जान और हई किस लिए १ पेट पालने ही के लिए तो हम आदमी नही बनाये गये हैं। हमारे जीवन का अादर्श कुछ तो ऊँचा होना चाहिए, विशेषकर उन लोगों का, जो सभ्य कहलाते हैं । ठाट से रहना हो सभ्यता नहीं।
मनोरमा-(मुस्कराकर ) अच्छा, अगर इस वक्त आपको पाँच लाख रुपए मिल जायँ, तो श्राप लें या न लें।
चक्रधर-कह नहीं सकता, मनोरमा उस वक्त दिल की क्या हालत हो । दान तो न लूँगा, पड़ा हुआ धन भी न लॅगा; लेकिन अगर किसी ऐसी विधि से मिले कि उसे लेने मे आत्मा की हत्या न होती हो, तो शायद मैं प्रलोभन को रोक न सकूँ पर इतना अवश्य कह सकता हूँ कि उसे भोग-विलास मे न उड़ाऊँगा। धन की में निन्दा नहीं करता, उससे मुझे डर लगता है। दूसरों का आश्रित बनना तो लज्जा की बात है, लेकिन जीवन को इतना सरल रखना चाहता हूँ कि सारी शक्ति धन कमाने और अपनी जरूरतों को पूरा करने ही मे न लगानी पड़े।
मनोरमा--धन के बिना परोपकार भी तो नही हो सकता ?
चक्रधर-परोपकार में करना नहीं चाहता, मुझमे इतनी सामर्थ्य ही नहीं। यह तो वे ही लोग कर सकते हैं, जिन पर ईश्वर की कृपा दृष्टि हो । मै परोपकार के लिए अपने जीवन को सरल नहीं बनाना चाहता; बल्कि अपने उपकार के लिए, अपनी आत्मा के सुधार के लिए । मुझे अपने ऊपर इतना भरोसा नहीं है कि धन पाकर भी भाग में न पड़ जाऊँ । इसलिए मैं उससे दूर ही रहना चाहता हूँ।
मनोरमा--अच्छा, अब यह तो बतलाइए कि आपसे वधूजी ने क्या बातें की ? (मुस्कराकर ) मैं तो जानती हूँ, आपने कई बात-चीत न को होगी, चुपचाप लजाये बैठे रहे होंगे । उसी तरह वह भी आपके सामने आकर खड़ी हो गयी होगी और खड़ी-खड़ी चली गयी होंगी।
चक्रधर शरम से सिर मुकाकर बोले- हाँ, मनोरमा, हुआ तो ऐसा ही । मेरी समझ ही मे न पाता था कि क्या बातें करूँ। उसने दो एक बार कुछ बोलने का साहस भी किया।
मनोरमा-ग्रापको देखकर खुश तो बहुत हुई होगी।
चक्रधर--(शरमाकर ) किसी के मन का हाल मै क्या जानू ?
मनोरमा ने अत्यन्त सरल भाव से कहा- सब मालूम हो जाता है। पाप मुझसे बता नहीं रहे हैं । कम-से-कम उनकी इच्छा तो मालूम ही हो गयी होगी । मे तो सम-झती हूँ, जो विवाह लड़की की इच्छा के विरुद्ध किया जाता है वह विवाह ही नहीं है । आपका क्या विचार है ?
चक्रधर बड़े असमञ्जस में पड़े । मनोरमा से ऐसी बातें करते उन्हें सकोच होता था । डरते थे कि कहीं ठाकुर साहब को सबर मिल जाय-~सरला मनोरमा ही कह दे--तो वह समझेगे, मै इसके सामाजिक विचारो मे क्राति पैदा करना चाहता हूँ, श्रत्र तक उन्हें शात न था कि ठाकुर साहब किन विचारों के यादमी है। हाँ, उनके गङ्गा-स्नान से यह अाभास होता था कि वह सनातन धर्म के भक्त हैं। सिर झुकाकर बोले--मनोरमा, हमारे यहाँ विवाह का अाधार प्रेम यार इच्छा पर नहीं, धर्म और कर्तव्य पर रखा गया है । इच्छा चश्वल है, क्षण-क्षण में बदलती रहती है । कर्तव्य स्थायो है, उसमें कभी परिवर्तन नहीं होता।
मनोरमा-अगर यह बात है, तो पुराने जमाने में स्वयम्बर क्यों होते थे ?
चक्रधर--स्वयम्बर मे कन्या की इच्छा ही सर्व प्रधान नहीं है तो थी । वह वीर-युग था, और वीरता ही मनुष्य का सबसे उज्ज्वल गुण समझा जाता था । लोग अाजकन वैवाहिक प्रथा सुधारने का प्रयत्न तो कर रहे है।
मनोरमा-जानती हूँ, लेकिन कहीं सुधार हो रहा है ? माता पिता धन देखकर लट्ट हो जाते हैं | इच्छा अस्थायी है, मानती हूँ, लेकिन एक बार अनुमति देने के बाद फिर लड़की को पछताने के लिए कोई हीला नही रहता।
चक्रधर-~अपने मन को समझाने के लिए तों की कभी कमी नहीं रहती, मनोरमा कर्तव्य ही ऐसा श्रादर्श है, जो कभी धोसा नहीं दे सकता ।
मनोरमा--हाँ, लेकिन प्रादर्श अादर्श ही रहता है, यथार्थ नहीं हो सकता । (मुस्कराकर ) यदि आप ही का विवाह किसी कानी, काली-कलूटी स्त्री से हो जाय, तो क्या श्रापको दु ख न होगा? वोलिए । क्या आप समझते हैं कि लड़की का विवाह किसी खूसट से हो जाता है, तो उसे दु ख नही होता। उसका बम च ते तो वह पति का मुँह तक न देखे । लेकिन इन बातों को जाने दीजिए । वधूजी बहुत सुन्दर हैं ?
चक्रवर ने बात टालने के लिए कहा-सुन्दरता मनोभावों पर निर्भर होती है। माता अपने कुरूप बालक को भी सुन्दर समझती है ।
मनोरमा--श्राप तो ऐसी बातें कर रहे हैं, जैसे भागना चाहते हो । क्या माता किसी सुन्दर बालक को देखकर यह नहीं सोचती कि मेरा भी बालक ऐसा ही होता।
चक्रधर ने लजित होकर कहा- मेरा श्राशय यह न था। मै यही कहना चाहता था कि सुन्दरता के विषय में सब की राय एक-सी नहीं हो सकती
मनोरमा--श्राप फिर भागने लगे। मै जब आपसे यह प्रश्न करती हूँ, तो उसका साफ मतलब यह है कि आप उन्हें सुन्दर समझते हैं या नहीं?
चक्रवर लजा से सिर झुकाकर बोले--ऐसी बुरी तो नहीं है।
मनोरमा--तब तो श्राम उन्हें खूब प्यार करेंगे ?
चक्रधर-प्रेम केवल रूप का भक्त नहीं होता ।
सहसा घर के अन्दर से किसी के कर्कश शब्द कान में आये, फिर लौंगो का रोना सुनायी दिया । चक्रधर ने पूछा- यह तो लौंगी रो रही है ? मनोरमा-जी हॉ ! आपसे तो भाई साहब से भेंट नहीं हुई। गुरुसेवकसिह नाम है। कई महीनो से देहात में जमीदारी का काम करते हैं। हैं तो मेरे सगे भाई और पढ़े-लिखे भी खब है। लेकिन भलमनसी छ भी नहीं गयी। जब पाते है. लौंगी अम्मा से झूठ-मूठ तकरार करते हैं । न जाने उसमे इन्हें क्या अदावत है।
इतने में गुरुसेवकसिह लाल-लाल आँखें किये निकल पाये और मनोरमा से बोले-बाबूजी कहाँ गये हैं ? तुझे मालूम है कब तक पायेंगे ? मैं ग्राज ही फैसला कर लेना चाहता हूँ।
गुरुसेवेकसिंह की उम्र २५ वर्ष से अधिक न थी। लम्वे, छरहरे एवं रूपवान् थे, आँखों पर ऐनक थी, मुंह में पान का बीड़ा, देह पर तनजेब का कुरता, माँग निकली हुई । बहुत शौकीन आदमी थे ।
चक्रधर को बैठे देखकर वह कुछ झिझके और अन्दर लौटना ही चाहते थे कि लौंगो रोती हुई याकर चक्रधर के पास खड़ी हो गया और बोली-बाबूजी, इन्हें सम-झाइए कि में अब बुढ़ापे मे कहाँ जाऊँ ? इतनी उम्र तो इस घर में कटी, अब किसके द्वार पर जाऊँ ? जहाँ इतने नौकरों-चाकरो के लिए खाने को रोटियाँ हैं, क्या वहाँ मेरे लिए एक टुकड़ा भी नहीं ? बाबूजी, सच कहती हूँ, मैंने इन्हें अपना दूध पिलाकर पाला है: मालकिन के दूध न होता था, और अब यह मुझे घर से निकालने पर तुले हुए हैं। गुरुसेवकसिंह की इच्छा तो न थी कि चक्रधर से इस कलह के सम्बन्ध में कुछ कहें। लेकिन जब लौगी ने उन्हें पंच बनाने में सकोच न किया, तो वह भी खुल पड़े। बोले-महाशय, इससे यह पूछिए कि पात्र यह बुढ़िया हुई, इसके मरने के दिन आये, क्यों नहीं किसी तीर्थस्थान में जाकर अपने कलुधित जीवन के बचे हुए दिन काटती ? मैंने दादाजी से कहा था कि इसे वृन्दावन पहुँचा दीजिए, और वह तैयार भी हो गये थे, पर इसने सैकड़ों बहाने किये और वहाँ न गयी । आपसे तो अब कोई परदा नहीं है, इसके कारण मैने यहाँ रहना छोड़ दिया। इसके साथ इस घर में रहते हुए मुझे लजायाती है। इसे इसकी जरा भी परवाह नहीं कि जो लोग सुनते होंगे, तो दिल मे क्या कहते होंगे। हमे कही मुँह दिखाने की जगह नहीं रही। मनोरमा अव सयानी हुई। उसका विवाह करना है या नहीं। इसके घर में रहते हुए हम किस भले यादमी के द्वार पर ना सकते हैं। मगर इसे इन बातों की बिलकुल चिन्ता नही । वस मरते दम तक घर को स्वामिनी बनी रहना चाहती है। दादाजी भी सठिया गये हैं, उन्हें मानापमान की जरा भी फिक्र नहीं । इसने उनपर न जाने क्या मोहिनी डाल दी है कि इसके पीछे मुझमे लड़ने पर तैयार रहते हैं। श्राज मैं निश्चय करके पाया हूँ कि इसे घर के बाहर निकारकर ही छोडूंगा । या तो यह किसी दूसरे मकान में रहे, या किसी तीर्थ स्थान को प्रस्थान करे। लौगी-तो बच्चा सुनो, जब तक मालिक जीता है, लोंगी इसी घर में रहेगी भार इसी तरह रहेगी। जब वह न रहेगा, तो जो कुछ सिर पर पड़ेगी, झेल लॅगी । जो तुम चाहो कि लोगी गली गली ठोकरें खाये, तो यह न होगा ! मै लौडी नहीं हूँ कि घर से बाहर जाकर रहूँ। तुम्हें यह कहते लजा नहीं श्राती? चार भाँवरें फिर जाने से ही व्याइ नहीं हो जाता । मैंने अपने मालिक की जितनी सेवा की है और करने को तैयार हूँ, उतनी कौन ब्याहता करेगी ? लाये तो हो बहू, कभी उठकर एक लुटिया पानी भी देती है ? खायी है कभी उसकी बनायो हुई कोई चीन ? नाम से कोई व्याहता नहीं होती, सेवा और प्रेम से होती है।
गुरुसेवक-यह तो मैं जानता हूँ कि तुझे बातें बहुत करनी अाती हैं, पर अपने मुंह से जो चाहे बने, मैं तुझे लौंडो ही समझता हूँ।
लौंगी-तुम्हारे समझने से क्या होता है, अभी तो मेरा मालिक जीता है। भगवान्ठ से अमर करें ! जब तक जीती हूँ, इसी तरह रहूँगी, चाहे तुम्हें अच्छा लगे या बुरा । निसने जवानी में बाँह पकड़ी, वह क्या अब छोड़ देगा? भगवान् को कौन मुँह दिखायेगा?
यह कहती हुई लौंगी घर में चली गयी। मनोरमा चुपचाप सिर मुकाये दोनों को चातें सुन रही थी। उसे लौंगी से सच्चा प्रेम था । मातृ स्नेह का जो कुछ सुख उसे मिला था, लौंगी ही से मिला था। उसकी माता तो उसे गोद में छोड़कर परलोक सिधारी थी। उस एहसान को वह कभी न भूल सकती थी। अब भी लौंगी उसपर प्राण देती थी। इसलिए गुरुसेवकसिंह की यह निर्दयता उसे बहुत बुरी मालूम होती थी।
लौंगी के जाते ही गुरुसेवकसिंह बड़े शान्त भाव से एक कुरसी पर बैठ गये और चक्रघर से बोले-महाशय, आपसे मिलने की इच्छा हो रही थी और इस समय मेरे यहाँ आने का एक कारण यह भी था। आपने श्रागरे को समस्या जिस बुद्धिमानी से हल की उसकी जितनी प्रशसा की जाय, कम है।
चक्रधर-वह तो मेरा कर्तव्य ही था ?
गुरुसेवक-इसीलिए कि श्रापके कर्तव्य का अादर्श बहुत ऊँचा है। १०० में ६६ श्रादमी तो ऐसे अवसर पर लड़ माना ही अपना कर्तव्य समझते हैं। मुश्किल से एक आदमी ऐसा निकलता है, जो धैर्य से काम ले । शान्ति के लिए आत्म-समर्पण करनेवाला तो लाख-दो-लाख में एक होता है। श्राप विलक्षण धैर्य और साहस के मनुष्य हैं । मैंने भी अपने इलाके में कुछ लड़कों का खेल-सा कर रखा है, वहाँ पठानों के कई बड़े-बड़े गाँव हैं, उन्हों से मिले हुए ठाकुरों के भी कई गाँव हैं। पहले पठानों और ठाकुरों में इतना मेल था कि शादी-गमी, तील त्योहार में एक दूसरे के साथ शरीक होते थे, लेकिन अब तो यह हाल है कि कोई त्योहार ऐसा नहीं जाता, जिसमें खून-खच्चर या कम से कम मार पीट न हो । श्राप अगर दो-एक दिन के लिए वहाँ चले तो श्रापस में बहुत कुछ सफाई हो जाय ! मुसलमानों ने अपने पत्रों में श्रापका जिक देखा है और शौक से श्रापका स्वागत करेंगे । अापके उपदेशों का बहुत कुछ असर पड़ सकता है।
चक्रधर-बातों में असर डालना तो ईश्वर की इच्छा के अधीन है। हॉ, मैं श्रापके साथ चलने को तैयार हूँ। मुझसे जो सेवा हो सकेगी, वह उठा न रखूगा | कन चलने का इरादा है ? गुरुसेवक-चलता तो इसी गाडी से, लेकिन मै इस कुलटा को अबकी निकाल बाहर किये वगैर नहीं जाना चाहता। दादाजी ने रोक-टोक की, तो मनोरमा को लेता जाऊँगा और फिर इस घर में कदम न रखेगा। सोचिए तो, कितनी बड़ी बदनामी है।
चक्रधर बड़े संकट में पड़ गये। विरोध की कटुता को मिटाने के लिए मुस्कराते हुए बोले-मेरे और आपके सामाजिक विचारों में बड़ा अन्तर है। मैं बिल्कुल भ्रष्ट हो गया हूँ।
गुरुसेवक-क्या आप लौंगी का यहाँ रहना अनुचित नहीं समझते ?
चक्रधर-जी नहीं, खानदान की बदनामी अवश्य है; लेकिन मैं बदनामी के भय से अन्याय करने की सलाह नहीं दे सकता । क्षमा कीजिएगा, मैं बड़ी निर्भीकता से अपना मत प्रकट कर रहा हूँ।
गुरुसेवक-नहीं, नहीं: मैं बुरा नहीं मान रहा हूँ। (मुस्कराकर ) इतना उजड्ड नहीं हूँ कि किसी मित्र की सच्ची राय न सुन सकू। अगर श्राप मुझे समझा दें कि उसका यहाँ रहना उचित है, तो मैं श्रापका बहुत अनुगृहीत हूँगा । मैं खुद नहीं चाहता कि मेरे हाथों किसी को अकारण कष्ट पहुँचे ।
चक्रघर-जब किती पुरुष का एक स्त्री के साथ पति-पत्नी का-सा सम्बन्ध हो जाय, तो पुरुष का धर्म है कि जब तक स्त्री की ओर से कोई विरुद्ध प्राचरण न देखे, उस सम्बन्ध को निबाहे।
गुरुसेवक-चाहे स्त्री कितनी ही नीच जाति की हो ?
चक्रधर-हाँ, चाहे किसी भी जाति की हो ।
मनोरमा यह जवाब सुनकर गर्व से फूल उठी । वह आवेश में उठ खड़ी हुई और पुलकित होकर खिड़की के बाहर झॉकने लगी। गुरुसेवकसिंह वहाँ न होते, तो वह जरूर कह उठती-आप मेरे मुँह से बात ले गये।
एकाएक फिटन को श्रावाज आयी और ठाकुर साहब उतरकर अन्दर गये । गुरु- सेवकसिंह भी उनके पीछे-पीछे चले । वह डर रहे थे कि लौंगी अवसर पाकर कहीं उनके कान न भर दे।
जब वह चले गये, तो मनोरमा बोली-आपने मेरे मन की बात कही। बहुत सी बातों में मेरे विचार आपके विचारों से मिलते हैं।
चक्रधर-उन्हें बुरा तो जरूर लगा होगा!
मनोरमा-वह फिर वापसे बहस करने आते होंगे। अगर श्राज मौका न मिलेगा तो कल करेंगे । अबको वह शास्त्रों के प्रमाण पेश करेंगे, देख लीजिएगा!
चक्रधर-खैर, यह तो बताओ कि तुमने इन चार-पाँच दिनों में क्या काम किया !
मनोरमा-मैंने तो किताब तक नहीं खोली। वस, समाचार पढ़ती थी और वही चात सोचती थी । आप नहीं रहते, तो मेरा किसी काम में जो नहीं लगता। आप श्रन कमी बाहर न जाइएगा। चक्रधर ने मनोरमा की पोर देखा, तो उसकी श्रॉखें सजल हो गयी थी। सोचने लगे-बालिका का हृदय कितना सरल, कितना उदार, कितना के मल और कितना भावमय है!