कायाकल्प
प्रेमचंद

पृष्ठ ३१४ से – ३२० तक

 

में किसी पक्षी की भाँति चक्कर लगा रहा था। 'शङ्खधर।' यही एक स्मृति थी, जो उस प्राण शून्य दशा में चेतना को संस्कारों में बाँधे हुई थी।


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राजा विशालसिंह ने जिस हौसले से अहल्या का गौना किया, वह राजाओं रईसो में भी बहुत कम देखने में आता है। तहसीलदार साहब के घर में इतनी चीजों को रखने की जगह भी न थी। बर्तन, कपड़े, शीशे के सामान, लकड़ी की अलभ्य वस्तुएँ मेवे, मिठाइयाँ, गाय, भैंसे—इनका हफ्तों तक ताँता लगा रहा। दो हाथी और पाँच घोड़े भी मिले, जिनके बाँधने के लिए घर में जगह न थी। पाँच लौंडियाँ अहल्या के साथ आयीं। यद्यपि तहसीलदार साहब ने नया मकान बनवाया था, पर वह क्या जानते थे कि एक दिन यहाँ रियासत जगदीशपुर की आधी सम्पत्ति आ पहुँचेगी? घर का कोना-कोना सामानों से भरा हुआ था। कई पड़ोसियों के मकान भी अँट उठे। उसपर लाखों रुपया नगद मिले वह अलग। तहसीलदार साहब लाने को तो सब कुछ लाये, पर अब उन्हें देख देख रोते और कुढ़ते थे। कोई भोगनेवाला नहीं! अगर यही सम्पत्ति आज के पचीस साल पहले मिली होती, तो उनका जीवन सफल हो जाता, जिन्दगी का कुछ मजा उठा लेते, अब बुढापे में इनको लेकर क्या करें? चीजो को बेचना अपमान की बात थी। हाँ, यार-दोस्तों को जो कुछ भेंट कर सकते थे, किया। अनाज की कई गाड़ियाँ मिली थीं, वह सब उन्होंने लुटा दीं। कई महीने सदाबत सा चलता रहा। नौकरों को हुक्म दे दिया कि किसी आदमी को कोई चीज मँगनी देने से इन्कार मत करो। सहालग के दिनों में रोज ही हाथी, घोड़े, पालकियाँ, फर्श आदि सामान मँगनी जाते। सारे शहर में तहसीलदार साहब की कीर्ति छा गयी। बड़े-बड़े रईस उनसे मुलाकात करने आने लगे। नसीब जगे, तो इस तरह जगे। रोटियाँ भी न मयस्सर होती थीं, आज द्वार पर हाथी झूमता है। सारे शहर में यही चर्चा थी।

मगर मुंशीजी के दिल पर जो कुछ बीत रही थी, वह कौन जान सकता है? दिन में बीसों ही बार चक्रधर पर बिगड़ते—नालायक! आप तो आप गया, अपने साथ लड़के को भी ले गया। न जाने कहाँ मारा-मारा फिरता होगा, देश का उपकार करने चला है। सच कहा है—घर की रोयें, बन की सोयें। घर के आदमी मरे, परवा नहीं, दूसरों के लिए जान देने को तैयार। अब बताओ, इन हाथी, घोड़े, माटरों और गाड़ियों को लेकर क्या करूँ? अकेले किस किस पर बैठूँ? बहू है, उसे रोने से फुरसत नहीं। बच्चा की माँ हैं, उनसे अब मारे शाक के रहा नहीं जाता, कौन बैठे। यह सामान तो मेरे जी का जंजाल हो गया। पहले बेचारे शाम-सवेरे कुछ गा बजा लेते थे, कुछ सरूर भी जमा लिया करते थे, अब इन चीजों की देख भाल ही में भोर हो जाता। क्षण-भर भी आराम से बैठने की मुहलत न मिलती। निर्मला किसी चीज की ओर आँख उठाकर भी न देखती, मुंशीजी ही को सबकी निगरानी करनी पड़ती थी।

अहल्या यहाँ आकर और भी पछताने लगी। यह रनिवास के विलासमय जीवन से विरक्त होकर यहाँ प्रायश्चित्त करने के इरादे से आयी थी; पर वह विपत्ति उसके साथ यहाँ भी आयी। वहाँ उसे घर-गृहस्थी से कोई मतलब न था, यहाँ वह विपत्ति भी सिर पड़ी। जिन वस्तुओं से उसे वहाँ जरा भी मोह न था, उन्हीं के खो जाने की खबर हो जाने पर उसे दुःख होता था। वह माया को जीतना चाहती थी, माया ने उसी को परास्त कर दिया। सम्पत्ति से गला छुड़ाना चाहती थी; पर सम्पत्ति उससे ओर चिमट गयी थी। वहाँ वह कुछ देर शान्ति से बैठ सकती थो, कुछ देर हँस-बालकर जी बहला लेती थी। किसी के ताने मेहने न सुनने पड़ते थे, यहाँ निर्मला बाणों से छेदती और घाव पर नमक छिड़कती रहती थी। बहू के कारण वह अपने पुत्र से वंचित हुई। बहू ही के कारण पोता भी हाथ से गया। ऐसी बहू को वह पान-फूल से पूज न सकती थी। सम्पत्ति लेकर वह क्या करे? चाटे? पुत्र और पौत्र के बदले में इस अतुल धन का क्या मूल्य था? भोजन वह अब भी अपने हाथों ही पकाती थी। अहल्या के साथ जो महाराजिनें आयी थीं, उनका पकाया हुआ भोजन वह ग्रहण न कर सकती थी। अहल्या से भी वह छूत मानती थी। इन दिनों मंगला भी आयी हुई थी। उसका जी चाहता था कि यहाँ की सारी चीजें समेट ले जाऊँ। अहल्या अपनी चीजों को तीन-तेरह न होने देना चाहती थी। इससे ननद-भावज में कभी-कभी खटपट हो जाती थी।

बर्तनों में कई बड़े बड़े कण्डाल भी थे। एक कण्डाल इतना बड़ा था कि उसमें ढाई सौ कलसे पानी आ जाता था। मंगला ने एक दिन यह कण्डाल अपने घर भेजवा दिया। कई दिन बाद अहल्या को यह खबर मिली, तो उसने जाकर सास से पूछा—अम्माँजी, वह बड़ा कण्डाल कहाँ है, दिखायी नहीं देता?

निर्मला ने कहा—बाबा, मैं नहीं जानती, कैसा कण्डाल था। घर में है, तो कहाँ जा सकता है?

अहल्या—जब घर में हो तब न?

निर्मला—घर में से कहाँ गायब हो जायगा?

अहल्या—घर की चीज घर के आदमियों के सिवा और कौन छू सकता है?

निर्मला—तो क्या इस घर में सब चोर ही बसते है।

अहल्या—यह तो मैं नहीं कहती; लेकिन चीज का पता तो लगना ही चाहिए।

निर्मला—तुम चीजें लादकर ले जाओगो, तुम्हीं पता लगाती फिरो। यहाँ चीजों को लेकर क्या करना है? इन चीजों को देखकर मेरी तो आँखें फटती हैं। इन्हीं के लिए तो तुमने मेरे बच्चे को बनवास दे दिया। इन्हीं के पीछे अपने बेटे से हाथ धो बैठी। तुम्हें ये चीजें प्यारी होंगी। मुझे तो नहीं प्यारी हैं।

बात कड़वी थी; पर यथार्य थी। अगर धन-मद ने अहल्या का बुद्धि पर परदा न डाल दिया होता, तो आज उसे क्यों यह दिन देखना पड़ता? दरिद्र रहकर भी सुखी होती। मोह ने उसका सर्वनाश कर दिया। फिर भी वह मोह को गले लगाये हुए है। नैहर में उसकी लायी हुई चीज अपनी न थी, सब कुछ अपना होते हुए भी उसका कुछ न था। जो कुछ अधिकार था, वह पुत्र के नाते। जब पुत्र की कोई आशा न रही, तो अधिकार भी न रहा, पर यहाँ की सब चीजें उसी की थीं। उनपर उसका नाम खुदा हुआ था। अधिकार में स्वयं एक आनन्द है, जो उपयोगिता की परवा नहीं करता। उन वस्तुओं को देख-देखकर उसे गर्व होता था। लेकिन आज निर्मला के कठोर शब्दों ने उसमें ग्लानि और विवेक का सञ्चार कर दिया। उसने निश्चय किया, अब इन चीजों के लिए कभी न बोलेगी। अगर अम्माँजी को किसी चीज का मोह नहीं है, तो मैं ही क्यों करूँ? कोई आग लगा दे, मेरी बला से।

जब घर में कोई किसी चीज की चौकसी करनेवाला न रहा, तो चारों ओर लूट मच गयी। कुछ मालूम न होता कि घर में कौन लुटेरा आ बैठा है; पर चीजें एक एक करके निकलती जाती थीं। अहल्या देखकर अनदेखी और सुनकर अनसुनी कर जाती थी; पर अपनी चीजों को तहस-नहस होते देखकर उसे दुःख होता था। उसका विराग मोह का दूसरा रूप था—वास्तविक रूप से भी भयंकर और दाहक।

इस तरह कई महीने गुजर गये; अहल्या का आशा दीपक दिन-दिन मन्द होता गया। वह कितना ही चाहती थी कि मोह बन्धन से अपने को छुड़ा ले, पर मन पर कोई वश न चलता था। उसके मन में बैठा हुआ कोई नित्य कहा करता था जब तक मोह में पड़ी रहोगी, पति-पुत्र के दर्शन न होंगे। पर इसका विश्वास कौन दिला सकता था कि मोह टूटते ही उसके मनोरथ पूरे हो जायँगे। तब क्या वह भिखारिणी होकर जीवन व्यतीत करेगी? सम्पत्ति के हाथ से निकल जाने पर फिर उसके लिए कौन आश्रय रह जायगा? क्या वह फिर अपने पिता के घर जा सकती थी? कदापि नहीं। पिता ने इतनी धूम-धाम से उसे विदा किया, इसका अर्थ ही यह था कि अब तुम इस घर से सदा के लिए जा रही हो। अहल्या बार-बार व्रत करती कि अब अपने सारे काम अपने हाथ से करूँगी, अब सदा एक ही जून भोजन किया करूँगी, मोटा-से-मोटा अन्न खाकर जीवन व्यतीत करूँगी, लेकिन उसमें किसी व्रत पर स्थिर रहने की शक्ति न रह गयी थी। जब उसके स्नान कर चुकने पर लौंडी उसकी साड़ी छाँटने चलती, तो वह उसे मना न कर सकती थी। जो काम आज १६ वर्षों से करती आ रही थी, उसके विरुद्ध आचरण करना उसे अब अस्वाभाविक जान पड़ता था, मोटा अनाज खाने का निश्चय रहते हुए भी वह स्वादिष्ट भोजन को सामने से हटा न सकती थी। विलासिता ने उसकी क्रिया-शक्ति को निर्बल कर दिया था।

यहाँ रहकर वह अपने उद्धार के लिए कुछ न कर सकेगी, यह बात शनैः-शनैः अनुभव से सिद्ध हो गयी।

लेकिन अब कहाँ जाय? जब तक मन की वृत्ति न बदल नाय, तीर्थ यात्रा पाखण्ड सा जान पड़ती थी। किसी दूसरी जगह अकेले रहने के लिए कोई बहाना न था, पर यह निश्चय था कि अब वह यहाँ न रहेगी; यहाँ तो वह बन्धनों में और भी जकड़ गयी थी।

अब उसे वागीश्वरी की याद आयी। सुख के दिन वही थे, जो उसके साथ कटे। असली मैका न होने पर भी जीवन का जो सुख वहाँ मिला, वह फिर न नसीब हुआ। अब उसे याद आता था कि मैं वहाँ से दुःख झेलने ही के लिए आयी थी। वह स्नेहसुख स्वप्न हो गया। सास मिली वह इस तरह की, ननद मिली वह इस ढंग की; माँ थी ही नहीं, केवल बाप को पाया; मगर उसके बदले में क्या क्या देना पड़ा। जिस दिन मालूम हुआ था कि वह राजा की बेटी है, वह फूली न समायी थी, उसके पाँव जमीन पर न पड़ते थे; पर आह! क्या मालूम था कि उस क्षणिक आनन्द के लिए उसे सारी उम्र रोना पड़ेगा।

अब अहल्या को रात दिन यही धुन रहने लगी कि किसी तरह वागीश्वरी के पास चलूँ, मानो वहाँ उसके सारे दुःख दूर हो जायँगे। इधर कई महीनों से वागीश्वरी का पत्र न आया था; पर मालूम हुआ था कि वह आगरे ही में है। अहल्या ने कई बार बुलाया था; पर वागीश्वरी ने लिखा था—मैं बड़े आराम से हूँ, मुझे अब यहीं पड़ी रहने दो। अब अहल्या का मन वागीश्वरी के पास जाने के लिए अधीर हो उठा। वागीश्वरी भी उसी की भाँति दुःखिनी है। सारी आशाओं एवं सारे माया-मोह से मुक्त हो चुकी है। वही उसके साथ सच्ची सहानुभूति कर सकती है, वही अपने मातृस्नेह से उसका क्लेश हर सकती है।

आखिर एक दिन अहल्या ने सास से यह चर्चा कर ही दी। निर्मला ने कुछ भी आपत्ति नहीं की। शायद वह खुश हुई कि किसी तरह यह यहाँ से टले। मंगला तो उसके जाने का प्रस्ताव सुनकर हर्षित हो उठी। जब वह चली जायगी, तो घर में मंगला का राज हो जायगा। जो चीज चाहेगी, उठा ले जायगी, कोई हाथ पकड़ने वाला या टोकनेवाला न रहेगा। दो महीने भी अहल्या वहाँ रह गयी, तो मंगला अपना घर भर लेगी। ज्यादा नहीं, तो आधी सम्पदा तो अपने घर पहुँचा ही देगी।

अहल्या जब यात्रा की तैयारियाँ करने लगी, तो मंगला ने कहा—भाभी, तुम चली जाओगी, तो यहाँ बिलकुल अच्छा न लगेगा। वहाँ कब तक रहोगी?

अहल्या—अभी क्या कहूँ बहन, यह तो वहाँ जाने पर मालूम होगा।

मंगला—इतने दिनों के बाद जा रही हो, दो तीन महीने तो रहना ही पड़ेगा। तुम चली जा रही हो, तो मैं भी चली जाऊँगी। अब तो रानी साहबा से भी भेंट नहीं होती, अकेले कैसे रहा जायगा? तुम्हीं दोनों जनों से मिलने तो आयी थी। रानी साहबा ने तो भुला ही दिया, तुम छोड़े चली जाती हो। यह कह कर मंगला रोने लगी।

दूसरे दिन अहल्या यहाँ से चली। अपने साथ कोई साज-सामान न लिया। साथ की लौंडियाँ चलने को तैयार थीं; पर उसने किसी को साथ न लिया। केवल एक बुड्ढे कहार को पहुँचाने के लिए ले लिया। और उसे भी आगरे पहुँचने के दूसरे ही दिन बिदा कर दिया।

आज २० साल के बाद अहल्या ने इस घर में फिर प्रवेश किया था, पर आह। इस घर की दशा ही कुछ और थी। सारा घर गिर पड़ा था। न आँगन का पता था, न बैठक का। चारों ओर मलबे का ढेर जमा हो रहा था। उस पर मदार और धतूर के पौधे उगे हुए थे। एक छोटी सी कोठरी बच रही थी। वागीश्वरी उसी में रहती थी। उसकी सूरत भी उस घर के समान ही बदल गयी थी। न मुँह में दाँत, न आँखों में ज्योति, सिर के बाल सन हो गये थे, कमर झुककर कमान हो गयी थी। दोनों गले मिलकर खूब रोयीं। जब आँसुओं का वेग कम हुआ, तो वागीश्वरी ने कहा—बेटी, तुम अपने साथ कुछ सामान नहीं लायीं—क्या दूसरी ही गाड़ी से लौट जाने का विचार है? इतने दिनों के बाद आयी थीं, तो इस तरह! बुढ़िया को बिलकुल भूल ही गयी। खँड़हर में तुम्हारा जी क्यों लगेगा।

अहल्या—अम्माँ, महल में रहते रहते जी ऊब गया, अब कुछ दिन इस खँड़हर में ही रहूँगी और तुम्हारी सेवा करूँगी। जब से तुम्हारे घर से गयी, तब से एक दिन भी सुख नहीं पाया। तुम समझती होगी कि मैं वहाँ बड़े आनन्द से रहती हूँगी, लेकिन अम्माँ, मैने वहाँ दुःख-ही-दुख पाया, आनन्द के दिन तो इसी घर में बीते थे।

वागीश्वरी—लड़के का अभी कुछ पता न चला?

अहल्या—किसी का पता नहीं चला, अम्माँ! मैं राज्य सुख पर लट्टू हो गयी थी। उसी का दण्ड भोग रही हूँ। राज्य सुख भोगकर तो जो कुछ मिलता है, वह देख चुकी, अब उसे छोड़कर देखूँगी कि क्या जाता है, मगर तुम्हें तो बड़ा कष्ट हो रहा है, अम्माँ?

वागीश्वरी—कैसा कष्ट बेटी? जब तक स्वामी जीते रहे, उनकी सेवा करने में सुख मानती थी। तीर्थ, व्रत, पुण्य, धर्म सब कुछ उनकी सेवा ही में था। अब वह नहीं है, तो उनकी मर्यादा की सेवा कर रही हूँ। आज भी उनके कितने ही भक्त मेरी मदद करने को तैयार हैं, लेकिन क्यों किसी की मदद लूँ? तुम्हारे दादाजी सदैव दूसरों की सेवा करते रहे। इसी में अपनी उम्र काट दी। तो फिर मैं किस मुँह से सहायता के लिए हाथ फैलाऊँ?

यह कहते कहते वृद्धा का मुखमण्डल गर्व से चमक उठा। उसकी आँखों में एक विचित्र स्फूर्ति झलकने लगो! अहल्या का सिर लज्जा से झुक गया। माता, तुझे धन्य है! तू वास्तव में सती है, तू अपने ऊपर जितना गर्व करे, वह थोड़ा है।

वागीश्वरी ने फिर कहा—ख्वाजा महमूद ने बहुत चाहा कि मैं कुछ महीना ले लिया करूँ। मेरे मैकेवाले कई बार मुझे बुलाने आये। यह भी कहा कि महीने में कुछ ले लिया करो। भैया बड़े भारी वकील हैं, लेकिन मैंने किसी का एहसान नहीं लिया। पति की कमाई को छोड़कर और किसी की कमाई पर स्त्री का अधिकार नहीं होता। चाहे कोई मुँह से न कहे; पर मन में जरूर समझेगा कि मैं इन पर एहसान कर रहा हूँ। जब तक आँखें थीं, सिलाई करती रही। जब से आँखें गयीं, दलाई करती हूँ। कभी-कभी उनपर जी झुँझलाता है। जो कुछ कमाया, उड़ा दिया। तुम तो देखती ही थीं। ऐसा कौन सा दिन जाता था कि द्वार पर चार मेहमान न आ जाते हों? लेकिन फिर दिल को समझाती हूँ कि उन्होंने किसी बुरे काम में तो धन नहीं उड़ाया। जो कुछ किया, दूसरों के उपकार ही के लिए किया। यहाँ तक कि अपने प्राण भी दे दिये। फिर मैं क्यों पछताऊँ और क्यों रोऊँ? यश खेत में थोड़े ही मिलता है, मगर मैं तो अपनी बातों में लग गयी। चलो, हाथ-मुँह धो डालो, कुछ खा-पी लो, तो फिर बातें करूँ।

लेकिन अहल्या हाथ-मुँह धोने न उठी। वागीश्वरी की आदर्श पति भक्ति देखकर उसकी आत्मा उसका तिरस्कार कर रही थी। अभागिनी! इसे पति-भक्ति कहते हैं। सारे कष्ट झेलकर स्वामी की मर्यादा का पालन कर रही है। नैहरवाले बुलाते हैं और नहीं जाती, हालाँकि इस दशा में मैके चली जाती, तो कोई बुरा न कहता। सारे कष्ट झेलती है और खुशी से झेलती है। एक तू है कि मैके की सम्पत्ति देखकर फूल उठी, अन्धी हो गयी। राजकुमारी और पीछे चलकर राजमाता बनने की धुन में तुझे पति की परवा ही न रही, तूने सम्पत्ति के सामने पति को कुछ न समझा, उसकी अवहेलना की। वह तुझे अपने साथ ले जाना चाहते थे, तू न गयी, राज्य सुख तुझसे न छोड़ा गया! रो, अपने कर्मों को।

वागीश्वरी ने फिर कहा—अभी तक तू बैठी ही है। हाँ, लौडी पानी नहीं लायी न, कैसे उठेगी। ले, मैं पानी लाये देती हूँ, हाँथ-मुँह धो डाल। तब तक मैं तेरे लिए गरम रोटियाँ सेकती हूँ। देख, तुझे अब भी भाती है कि नहीं। तू मेरी रोटियों का बहुत बखान करके खाती थी।

अहल्या ये स्नेह में सने शब्द सुनकर पुलफित हो उठी। इस 'तू' में जो सुख था; वह 'आप' और 'सरकार' में कहाँ। बचपन के दिन आँखों में फिर गये। एक क्षण के लिए उसे अपने सारे दुख विस्मृत हो गये। बोली—अभी तो भूख-प्यास नहीं है अम्माँजी, बैठिए कुछ बातें कीजिए। मैं आपसे अपने दुःख की कथा कहने के लिए व्याकुल हो रही हूँ। बताइए, मेरा उद्धार कैसे होगा?

वागीश्वरी ने गम्भीर भाव से कहा—पति-प्रेम से वंचित होकर स्त्री के उद्धार का कौन उपाय है, बेटी? पति ही स्त्री का सर्वस्व है। जिसने अपना सर्वस खो दिया, उसे सुख कैसे मिलेगा? जिसको लेकर तूने पति का त्याग किया, उसको त्यागकर ही पति को पायेगी। तू इतनी कर्त्तव्य-भ्रष्ट कैसे हो गयी, यह मेरी समझ में ही नहीं आया। यहाँ तो तू धन पर इतना जान न देती थी। ईश्वर ने तेरी परीक्षा ली और तू उसमें चूक गयी। जब तक धन और राज्य का मोह न छोड़ेगी, तुझे उस त्यागी पुरुष के, दर्शन न होंगे।

अहल्या—अम्माँजी, सत्य रहती हूँ, मैं केवल शंखधर के हित का विचार करके उनके साथ न गयी। वागीश्वरी—उस विचार में क्या तेरी भोग लालसा न छिपी थी? खूब ध्यान करके सोच, तू इससे इन्कार नहीं कर सकती!

अहल्या ने लज्जित होकर कहा—हो सकता है, अम्माँजी, मैं इन्कार नहीं कर सकती।

वागीश्वरी—सम्पत्ति यहाँ भी तेरा पीछा करेगी, देख लेना।

अहल्या—अब तो उससे जी भर गया, अम्माँजी।

वागीश्वरी—जभी तो वह फिर तेरा पीछा करेगी। जो उससे भागता है, उसके पीछे दौड़ती है। मुझे शङ्का होती है कि कहीं तू फिर लोभ में न पड़ जाय। एक बार चूकी, तो १४ वर्ष रोना पड़ा, अबकी चूकी तो बाकी उम्र रोते ही गुजर जायगी।