कायाकल्प
द्वारा प्रेमचंद

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पाँच वर्ष व्यतीत हो गये! पर न शंखधर का कहीं पता चला, न चक्रधर का। राजा विशालसिंह ने दया और धर्म को तिलाञ्जलि दे दी है और खूब दिल खोलकर अत्याचार कर रहे हैं। दया और धर्म से जो कुछ होता है, उसका अनुभव करके अब वह यह अनुभव करना चाहते है कि अधर्म और अविचार से क्या होता है। रियासत में धर्मार्थ जितने काम होते थे, वे सब बन्द कर दिये गये हैं। मन्दिरों में दिया नहीं जलता, साधु-सन्त द्वार से खड़े-खड़े निकाल दिये जाते हैं, और प्रजा पर नाना प्रकार के अत्याचार किये जा रहे हैं। उनकी फरियाद कोई नहीं सुनता। राजा साहब को किसी पर दया नहीं आती। अब क्या रह गया है, जिसके लिये वह धर्म का दामन पकड़ें? वह किशोर अब कहाँ है, जिसके दर्शन मात्र से हृदय में प्रकाश का उदय हो जाता था? वह जीवन और मृत्यु की सभी आशाओं का आधार कहाँ चला गया? कुछ पता नहीं। यदि विधाता ने उनके ऊपर यह निर्दय आघात किया है, तो वह भी उसी के बनाये हुए मार्ग पर चलेंगे। इतने प्राणियों में केवल एक मनोरमा है, जिसने अभी तक धैर्य का आश्रय नहीं छोड़ा, लेकिन उसकी अब कोई नहीं सुनता। राजा साहब अब उसकी सूरत भी नहीं देखना चाहते। वह उसी को सारी विपत्ति का मूल कारण समझते हैं। वही मनोरमा, जो उनकी हृदयेश्वरी थी, जिसके इशारे पर रियासत चलती थी, अब भवन में भिखारिनी की भाँति रहती है, कोई उसकी बात तक नहीं पूछता। वह इस भीषण अन्धकार में अब भी दीपक की भाँति जल रही है। पर उसका प्रकाश केवल अपने ही तक रह जाता है, अन्धकार में प्रसारित नहीं होता।

आह अबोध बालक! अब तूने देखा कि जिस अभीष्ट के लिये तूने जीवन की सभी आकांक्षाओं का परित्याग कर दिया, वह कितना असाध्य है। इस विशाल प्रदेश में, जहाँ तीस करोड़ प्राणी बसते हैं, तू एक प्राणी को कैसे खोज पायेगा! कितना अबोध साहस था, बालोचित सरल उत्साह की कितनी अलौकि लीला!

सन्ध्या हो गयी है। सूर्यदेव पहाड़ियों की आड़ में छिप गये, इसलिए उन्ध्या से पहले ही अन्धेरा हो चला है। रमणियाँ जल भरने के लिये कुएँ पर आ गयी है। इसी समय एक युवक हाथ में खँजरी लिये आकर कुँए की जगत पर बैठ गया। [ २९८ ]यही शंखधर है। उसके वर्ण रूप और वेष में इतना परिवर्तन हो गया है कि शायद अहल्या भी उसे देखकर चौंक पड़ती। यह वह तेजस्वी किशोर नहीं, उसकी छाया मात्र है। उसका मास गल गया है, केवल अस्थि-पंजर-मात्र रह गया है, मानो किसी भयंकर रोग से ग्रस्त रहने के बाद उठा हो। मानसिक ताप, वेदना और विषाद की उसके मुख पर ऐसी गहरी रेखा है कि मालूम होता है, उसके प्राण अब निकलने के लिए अधीर हो रहे हैं। उसकी निस्तेज आँखों में आकांक्षा और प्रतीक्षा की झलक की जगह अब घोर नैराश्य प्रतिबिम्बित हो रहा था—वह नैराश्य जिसका परितोष नहीं। वह सजीव प्राणी नहीं, किसी अनाथ का रोदन या किसी वेदना की प्रतिध्वनि-मात्र है। पाँच वर्ष के कठोर जीवन संग्राम ने उसे इतना हताश कर दिया है कि कदाचित् इस समय अपने उपास्यदेव को सामने देखकर भी उसे अपनी आँखों पर विश्वास न आयेगा!

एक रमणी ने उसकी ओर देखकर पूछा—कहाँ से आते हो परदेसी, बीमार मालूम होते हो?

शंखधर ने आकाश की ओर अनिमेष नेत्रों से देखते हुए कहा—बीमार तो नहीं हूँ माता, दूर से आते आते थक गया हूँ।

यह कहकर उसने अपनी खँजरी उठा ली और उसे बजाकर यह पद गाने लगा—

बहुत दिनों तक मौन-मन्त्र
मन मन्दिर में जपने के बाद।
पाऊँगी जब उन्हें प्रतीक्षा—
के तप में तपने के बाद।
ले तब उन्हें अंक में नयनों—
के जल से नहलाऊँगी।
सुमन चढ़ाकर प्रेम-पुजारिन—
मैं उनकी कहलाऊँगी।
ले अनुराग आरती उनकी—
तभी उतारूँगी सप्रेम।
स्नेह सुधा नैवेद्य रूप में—
सम्मुख रक्खूँगी कर प्रेम।
ले लूँगी वरदान भक्ति-वेदी—
पर बलि हो जाने पर।
साध तभी मन की साधूँगी—
प्राणनाथ के आने पर।

इस क्षीणकाय युवक के कण्ठ में इतना स्वर लालित्य, इतना विकल अनुराग था। कि रमणियाँ चित्रवत् खड़ी रह गयीं। कोई कुएँ में कलसा डाले हुए उसे खींचना भूल गयी, कोई कलसे से रस्सी का फन्दा लगाते हुए उसे कुएँ में डालना भूल गयी और [ २९९ ]कोई कूल्हे पर कलसा रखे आगे बढ़ना भूल गयी—सभी मन्त्र-मुग्ध सी हो गयीं। उनकी हृदय-वीणा से भी वही अनुरक्त ध्वनि निकलने लगी।

एक युवती ने पूछा—बाबाजी, अब तो बहुत देर हो गयी है, यहीं ठहर जाओ न। आगे तो बहुत दूर तक कोई गाँव नहीं है।

शंखधर—आपकी इच्छा है माता, तो यहीं ठहर जाऊँगा। भला, माताजी, यहाँ कोई महात्मा तो नहीं रहते?

युवती—नहीं, यहाँ तो कोई साधु-सन्त नहीं है। हाँ, देवालय है।

दूसरी रमणी ने कहा—अभी कई दिन हुए, एक महात्मा आकर टिके थे, पर वह साधुओं के वेष में न थे। वह यहाँ एक महीने भर रहे। तुम एक दिन पहले यहाँ आ जाते, तो उनके दर्शन हो जाते।

एक वृद्धा बोली—साधु संत तो बहुत देखे; पर ऐसा उपकारी जीव नहीं देखा। तुम्हारा घर कहाँ है, बेटा?

शंखधर—कहाँ बताऊँ माता, यों ही घूमता-फिरता हूँ।

वृद्धा—अभी तुम्हारे माता-पिता है न बेटा?

शंखधर—कुछ मालूम नहीं, माता! पिताजी तो बहुत दिन हुए, कहीं चले गये। मैं तब दो तीन वर्ष का था। माताजी का हाल नहीं मालूम।

वृद्धा—तुम्हारे पिता क्यों चले गये? तुम्हारी माता से कोई झगड़ा हुआ था?

शंखधर—नही माताजी, झगड़ा तो नहीं हुआ। गृहस्थी के माया-मोह में नहीं पड़ना चाहते थे।

वृद्धा—तो तुम्हें घर छोड़े कितना दिन हुए?

शंखधर—पाँच साल हो गये, माता। पिताजी को खोजने निकल पड़ा था; पर अब तक कहीं पता नहीं चला।

एक युवती ने अपनी सहेली के कन्धे से मुँह छिपाकर कहा—इनका ब्याह तो हो गया होगा?

सहेली ने उसे कुछ उत्तर न दिया। वह शंखधर के मुख की ओर ध्यान से देख रही थी। सहसा उसने वृद्धा से कहा—अम्मा इनकी सूरत महात्मा से मिलती है कि नहीं, कुछ तुम्हें दिखायी देता है?

वृद्धा—हाँ रे, कुछ-कुछ मालूम तो होता है। (शंखधर से) क्यों बेटा, तुम्हारे पिताजी की क्या अवस्था होगी?

शंखधर—४० वर्ष के लगभग होगी और क्या।

वृद्धा—आँखें खूब बड़ी-बड़ी हैं?

शंखधर—हाँ माताजी, उतनी बड़ी आँखें तो मैंने किसी की देखी ही नहीं।

वृद्धा—लम्बे लम्बे गोरे आदमी हैं?

शंखधर का हृदय धक-धक करने लगा। बोला—हाँ माताजी, उनका रंग बहुत गोरा है। [ ३०० ] वृद्धा—अच्छा दाहिनी ओर माथे पर किसी चोट का दाग है?

शंखधर—हो सकता है, माताजी, मैंने तो केवल उनका चित्र देखा है। मुझे तो वह दो वर्ष का छोड़कर घर से निकल गये थे।

वृद्धा—बेटा, जिन महात्मा की मैंने तुमसे चर्चा की है, उनकी सूरत तुमसे बहुत मिलती है।

शंखधर—माता, कुछ बता सकती हो, वह यहाँ से किधर गये?

वृद्धा—यह तो कुछ नहीं कह सकती, पर वह उत्तर ही की ओर गये हैं। तुमसे क्या कहूँ बेटा, मुझे तो उन्होंने प्राण दान दिया है, नहीं तो अब तक मेरा न जाने क्या हाल होता। नदी में स्नान करने गयी थी। पैर फिसल गया। महात्माजी तट पर बैठे ध्यान कर रहे थे। डुबकियाँ खाते देखा तो चट पानी में तैर गये और मुझे निकाल लाये। वह न निकालते, तो प्राण जाने में कोई सन्देह न था। महीने भर यहाँ रहे। इस बीच में कई जानें बचायीं। कई रोगियों को तो मौत के मुँह से निकाल लिया।

शंखधर ने काँपते हुए हृदय से पूछा—उनका नाम क्या था, माताजी?

वृद्धा—नाम तो उनका था भगवानदास, पर यह उनका असली नाम नहीं मालूम होता था, असली नाम कुछ और ही था।

एक युवती ने कहा—यहाँ उनकी एक तसवीर भी तो रखी हुई है।

वृद्धा—हाँ बेटा, इसकी तो हमें याद ही नहीं रही थी। इस गाँव का एक आदमी बम्बई में तसवीर बनाने का काम करता है। वह यहाँ उन दिनों आया हुआ था। महात्मा जी तो 'नहीं-नहीं' करते रहे, पर उसने झट से अपनी डिबिया खोलकर उनकी तसवीर उतार ही ली। न-जाने उस डिबिया में क्या जादू है कि जिसके सामने खोल दो, उसकी तसवीर उसके भीतर खिंच जाती है।

शंखधर का हृदय शतगुण वेग से धड़क रहा था। बोले—जरा वह तसवीर मुझे दिखा दीजिए, आपकी बड़ी कृपा होगी।

युवती लपकी हुई घर गयी, और एक क्षण में तसवीर लिये हुए लौटो। आह! शंखधर की इस समय विचित्र ही दशा थी! उसकी हिम्मत न पड़ती थी कि तसवीर देखे। कहीं यह चक्रधर की तसवीर न हो। अगर उन्हीं की तसवीर हुई, तो शंखधर क्या करेगा? वह अपने पैरों पर खड़ा रह सकेगा? उसे मूर्छा तो न आ जायगी? अगर यह वास्तव में चक्रधर ही का चित्र, तो शङ्खधर के सामने एक नयी समस्या खड़ी हो जायगी। उसे अब क्या करना होगा? अब तक वह एक निश्चित मार्ग पर चलता आया था, लेकिन अब उसे एक ऐसे मार्ग पर चलना पड़ेगा, जिससे वह बिलकुल परिचित न था। क्या वह चक्रधर के पास जायगा? जाकर क्या कहेगा? उसे देखकर वह प्रसन्न होंगे, या सामने से दुत्कार देंगे? उसे वह पहचान भी सकेंगे? कहीं पहचान लिया और उससे अपना पीछा छुड़ाने के लिए कहीं और चले गये तो?

सहसा वृद्धा ने कहा—देखो, बेटा! यह तसवीर है। [ ३०१ ]

शंखधर ने दोनों हाथों से हृदय को सँभाले हुए तसवीर पर एक भय-कम्पित दृष्टि डाली और पहचान गया। हाँ, यह चक्रधर ही की तसवीर थी। उसकी देह शिथिल पड़ गयी, हृदय का धड़कना शान्त हो गया। आशा, भय, चिन्ता और अस्थिरता से व्यग्र होकर वह हतबुद्धि सा खड़ा रह गया, मानो किसी पुरानी बात को याद कर रहा हो।

वृद्धा ने उत्सुकता से पूछा—बेटा, कुछ पहचान रहे हो?

शंखधर ने कुछ उत्तर न दिया।

वृद्धा ने फिर पूछा—चुप कैसे हो भैया, तुमने अपने पिताजी की जो सूरत देखी है, उससे यह तस्वीर कुछ मिलती है?

शंखधर ने अब भी कुछ उत्तर न दिया, मानो उसने कुछ सुना ही नहीं।

सहसा उसने निद्रा से जागे हुए मनुष्य की भाँति पूछा—वह इधर उत्तर ही की ओर गये हैं न? आगे कोई गाँव पड़ेगा?

वृद्धा—हाँ बेटा, पाँच कोस पर गाँव है! भला-सा उसका नाम है, हाँ साईंगंज, साईंगंज; लेकिन आज तो तुम यहीं रहोगे?

शंखधर ने केवल इतना कहा—नहीं माता, आज्ञा दीजिए और खँजरी उठाकर चल खड़ा हुआ। युवतियाँ ठगी-सी खड़ी रह गयीं। जब तक वह निगाहों से छिप न गया, सब की-सब उसकी ओर टकटकी लगाये ताकती रहीं; लेकिन शंखधर ने एक बार भी पीछे फिरफर न देखा।

सामने गगनचुम्बी पर्वत अन्धकार में विशाल काय राक्षस की भाँति खड़ा था। शंखधर बड़ी तीव्र गति से पतली पगडण्डी पर चला जा रहा था। उसने अपने आपको उसी पगडण्डी पर छोड़ दिया है। वह कहाँ ले जायगी, वह नहीं जानता। हम भी उन जीवन-रूपी पतली, मिटी-मिटी पगडण्डी पर क्या उसी भाँति तीव्र गति से दौड़े नहीं चले जा रहे हैं? क्या हमारे सामने उनसे भी ऊँचे अन्धकार के पर्वत नहीं खड़े हैं।