कायाकल्प/३९
३९
रानी वसुमती बहुत दिनों से स्नान, व्रत, ध्यान तथा कीर्तन में मग्न रहती थीं, रियासत से उन्हें कोई सरोकार ही न था। भक्ति ने उनकी वासनाओं को शान्त कर दिया था। बहुत सूक्ष्म आहार करती और वह भी केवल एक बार। वस्त्राभूषण से भी उन्हें विशेष रुचि न थी। देखने से मालूम होता था कि कोई तपस्विनी हैं। रानी रामप्रिया उसी एक रस पर चली जाती थीं। इधर उन्हें संगीत से विशेष अनुराग हो गया था। सबसे अलग अपनी कविता कुटीर में बैठी संगीत का अभ्यास करती रहती थीं। पुराने सिक्के, देश-देशान्तरों के टिकट और इसी तरह की अनोखी चीजों का सग्रह करने की उन्हें धुन थी। उनका कमरा एक छोटा-मोटा अजायबखाना था। उन्होंने शुरू ही से अपने को दुनिया के झमेलों से अलग रखा था। इधर कुछ दिनों से रानी रोहिणी का चित्त भी भक्ति की ओर झुका हुआ नजर आता था। वही, जो पहले ईर्ष्या की अग्नि में जला करती थी, अब वह साक्षात् क्षमा और दया की देवी वन गयी थी। अहल्या से उसे बहुत प्रेम था, कभी-कभी प्राकर घण्टों बैठी रहती। शखघर भी उससे बहुत हिल गया था। राजा साहब तो उसी के दास थे, जो शखघर को प्यार करे। रोहिणी ने शखघर को गोद में खेला-खेलाकर उनका मनोमालिन्य मिटा दिया। एक दिन रोहिणी ने शखघर को एक सोने की घड़ी इनाम दी। शख धर को पहली बार इनाम का मजा मिला, फूला न समाया, लेकिन मनोरमा अभी तक रोहिणी से चौंकतो रहती थी। वह कुछ साफ-साफ तो न कह सकती थी, पर शखघर का रोहिणी के पास आना-जाना उसे अच्छा न लगता था।
जिस दिन मनोरमा अपने पिता की वसीयत लेकर लौंगी के पास गयी थी, उसी दिन की बात है—सन्ध्या का समय था। राजा साहब पाईबाग में होज के किनारे बैठे मछलियों को आटे की गोलियाँ खिला रहे थे। एकाएक पाँव की आहट पाकर सिर उठाया तो देखा, रोहिणी आकर खड़ी हो गयी है। आज रोहिणी को देखकर राजा साहब को बड़ी करुणा आयी! वह नैराश्य और वेदना की सजीव मूर्ति-सी दिखायी देती थी, मानो कह रही थी—तुमने मुझे क्यों यह दण्ड दे रखा है? मेरा क्या अपराध है? क्या ईश्वर ने मुझे सन्तान न दी, तो इसमें मेरा कोई दोष था? तुम अपने भाग्य का बदला मुझसे लेना चाहते हो? अगर मैने कटुवचन ही कहे थे, तो क्या उसका यह दण्ड था?
राजा साहब ने कातर स्वर में पूछा—कैसे चली रोहिणी? आओ यहाँ बैठो।
रोहिणी—आपको यहाँ बैठे देखा, चली आयी। मेरा आना बुरा लगा हो, तो चली जाऊँ?
राजा साहब ने व्यथित कण्ठ से कहा—रोहिणी क्यों लज्जित करती हो? मैं तो स्वयं लज्जित हूँ। मैंने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया है और नहीं जानता, मुझे उसका क्या प्रायश्चित करना पड़ेगा।
रोहिणी ने सूखी हँसी हँसकर कहा—आपने मेरे साथ कोई अन्याय नहीं किया। आपने वही किया, जो सभी पुरुष करते हैं। और लोग छिप-छिपे करते हैं, राजा लोग वही काम खुले खुले करते हैं। स्त्री कभी पुरुषों का खिलौना है, कभी उनके पाँव की जूती। इन्हीं दो अवस्थानों में उसकी उम्र बीत जाती है। यह आपका दोष नहीं हम स्त्रियों को ईश्वर ने इसी लिए बनाया ही है। हमें यह सब चुपचाप सहना चाहिए, गिला या मान करने का दण्ड बहुत कठोर होता है, और विरोध करना तो जीवन का सर्वनाश करना है।
यह व्यंग्य न था, बल्कि रोहिणी की दशा की सच्ची व निष्पक्ष आलोचना थी। राजा साहब सिर झुकाये सुनते रहे। उनके मुँह से कोई जवाब न निकला। उनकी दशा उस शराबी की-सी थी, जिसने नशे में तो हत्या कर डाली हो। किन्तु अब होश में आने पर लाश को देखकर पश्चात्ताप और वेदना से उसका हृदय फटा जाता हो।
रोहिणी फिर बोली—आज सोलह वर्ष हुए, जब मै रूठकर घर से बाहर निकल भागी थी। बाबू चक्रधर के आग्रह से लौट आयी। वह दिन है और आज का दिन है, कभी आपने भूलकर भी पूछा कि तू मरती है या जीती? इससे तो यह कहीं अच्छा होता कि आपने मुझे चले जाने दिया होता। क्या आप समझते हैं कि मैं कुमार्ग की ओर जाती? यह कुलटाओं का काम है। मैं गङ्गा की गोद के सिवा और कहीं न जाती। एक युग तक घोर मानसिक पीड़ा सहने से तो एक क्षण का कष्ट कहीं अच्छा होता; लेकिन आशा! हाय आशा! इसका बुरा हो। यही मुझे लौटा लायी। चक्रधर का तो चल बहाना था। यही अभागिन आशा मुझे लौटा लायी और इसी ने मुझे फुसला-फुसलाकर एक युग कटवा दिया, लेकिन आपको कभी मुझपर दया न पायी। आपको कुछ खबर है, यह सोलह वर्ष के दिन मैंने कैसे काटे हैं? किसी को संगीत में आनन्द मिलता हो, मुझे नहीं मिलता। किसी को पूजा-भक्ति में सन्तोष होता हो, मुझे नहीं होता। मे नैराश्य की उस सीमा तक नहीं पहुंची। मे पुरुष के रहते वैधव्य की कल्पना नहीं कर सकती। मन की गति तो विचित्र है। वही पीड़ा, जो बाल-विधवा सहती है और सहने मे अपना गौरव समझती है, परित्यक्ता के लिए असह्य हो जाती है। मैं राजपूत की वेटी है, मरना भी जानती हूँ। कितनी बार मैंने आत्मघात करने का निश्चय किया, वह आप न जानेगे। लेकिन हर दफे यही सोचकर रुक गयी थी कि मेरे मर जाने से तो आप और भी सुखी होंगे। अगर यह विश्वास होता कि आप मेरी लाश पर आकर आँसू की चार बूंदे गिरा देंगे, तो शायद मै कभी की प्रस्थान कर चुकी होती। मै इतनी उदार नहीं। मने हिंसात्मक भावों को मन से निकालने की कितनी चेष्टा की है, यह भी आप न जानेंगे, लेकिन अपनी सीतात्रों की दुर्दशा ही ने मुझे धैर्य दिया है, नहीं तो अब तक में न जाने क्या कर बैठती। ईर्ष्या से उन्मत्त स्त्री जो कुछ कर सकती है, उसकी अभी आप शायद कल्पना नहीं कर सकते, अगर सीता भी अपनी आँख से वह सब देखती, जो मैं आज १६ वर्ष से देख रही हूँ, तो सीता न रहती। सीता बनाने के लिए राम जैसा पुरुष चाहिए।
राजा साहब ने अनुताप से कम्पित स्वर में कहा-रोहिणी, क्या सारा अपराध मेरा ही है।
रोहिणी नहीं, आपका कोई अपराध नहीं है, सारा अपराध मेरे ही कर्मों का है। वह स्त्री सचमुच पिशाचिनी है, जो अपने पुरुष का अनमल सोचे। मुझे आपका अनभल सोचते हुए १६ वर्ष हो गये। मेरी हार्दिक इच्छा यही रही कि आपका बुरा हो और मैं देखूँ लेकिन इसलिए नहीं कि आपको दुखी देखकर मुझे आनन्द होता। नहीं, अभी मेरा इतना अधःपतन नहीं हुआ। मैं आपका अनभल केवल इसलिये चाहती थी कि आपकी आखोँ खुलें, आप खोटे और खरे को पहचाने। शायद तब आपको मेरी याद आती, शायद तब मुझे अपना खोया हुआ स्थान पाने का अवसर मिलता। तब मै सिद्ध कर देती कि आप मुझे जितनी नीच समझ रहे हैं, उतनी नीच नहीं हूँ। मैं आपको अपनी सेवा से लजित करना चाहती थी, लेकिन वह अवसर भी न मिला।
राना साहब को नारी-हृदय की तह तक पहुँचने का ऐसा अवसर कभी न मिला था। उन्हें विश्वास था कि अगर मैं मर जाऊँ, तो रोहिणी की आँखों में आँसू न आयेंगे। वह अपने हृदय से उसके हृदय को परखते थे। उनका हृदय रोहिणी की ओर से वज्र हो गया था। वह अगर मर जाती, तो निस्सन्देह उनकी आँखों में आँसू न पाते, पर आन रोहिणी की बातें सुनकर उनका पत्थर-सा हृदय नरम पड़ गया। आह। इस हिंसा में कितनी कोमलता है? मुझे परास्त भी करना चाहती है, तो सेवा के अस्त्र से। इससे तीक्ष्ण उसके पास कोई अस्त्र नहीं! उन्होंने गद्गद कराठ से पहा--क्या कहूँ रोहिणी, अगर मैं जानता कि मेरे अनभल हो से तुम्हारा उद्धार होगा, तो इसके लिए ईश्वर से प्रार्थना करता।
अहल्या को आते देखकर रोहिणी ने कुछ उत्तर न दिया। जरा देर वहाँ खदी रहकर दूसरी तरफ चली गयी। राजा साहब के दिल पर ने एक बोझा-सा उठ गया। उन्हें अपनी निष्ठुरता पर पछतावा हो रहा था। आज उन्हें मालूम हुआ कि रोहिणी का चरित्र समझने मे उनसे कैसो भयकर भूल हुई। यहाँ उनसे न रहा गया। जी यही चाहता था कि चलकर रोहिणी से अपना अपराध क्षमा कराऊँ। बात क्या थी और मैं क्या समझे बैठा था? यही बातें अगर इसने और पहले कही होती, तो हम दोनों में क्यों इतना मनोमालिन्य रहता? उसके मन की बात तो नहीं जानता; पर मुझसे तो इसने एक बार भी हँसकर बात की होती, एक बार भी मेरा हाथ पकड़कर कहती कि मैं तुम्हें न छोडूंगी, तो मै कभी उसकी उपेक्षा न कर सकता; लेकिन ली मानिनी होती है, वह मेरी खुशामद क्यों करती? सारा अपराध मेरा है। मुझे उसके पास जाना चाहिये था।
सहसा उनके मन मे प्रश्न उठा-आज रोहिणी ने क्यों मुझसे ये बातें कीं? जो काम करने के लिये वह अपने को बीस वर्ष तक राजी न कर सकी, वह आज क्यों किया? इस प्रश्न के साथ ही राजा साहब के मन मे शंका होने लगी। आज उसके मुख पर कितनी दीनता थी! बातें करते करते उसकी आँखें भर-भर आती थी। उसका कंठ-स्वर भी काँप रहा था। उसके मुख पर इतनी दीनता कमी न दिखायी देती थी। उसके मुखमण्डल पर तो गर्व की आभा झलकती रहती थी। मुझे देखते ही वह अभिमान त गर्दन उठाकर मुँह फेर लिया करती थी। आज यह कायापलट क्यों हो गई।
राजा साहव ज्यों ज्यों इस विषय की, मीमासा करते थे, त्यो त्यो उनकी शका बढ़ना जाती थी। रात आधी से अधिक बीत गई थी। रनिवास में सन्नाटा छाया हुआ था। नोकर-चाकर भी सभी सो गये थे; पर उनकी आँखों में नींद न थी। यह शंका उन्हें उद्विग्न कर रही थी।
आखिर राजा साहब से लेटे न रहा गया। वह चारपाई से उठे और आहिस्ता आहिस्ता रोहिणी के कमरे की ओर चले। उसकी ड्योढ़ी पर चौकीदारिन से भेंट हुई। उन्हें इस समय यहाँ देखकर वह अवाक रह गई। जिस भवन में इन्होंने बीस वर्ष तक कदम नहीं रखा, उधर आज कैसे भूल पड़े? उसने राजा साहब के मुख की ओर देखा, मानो पूछ रही थी-आप क्या चाहते हैं?
राजा साहब ने पूछा-छोटी रानी क्या कर रही हैं?
चौकीदारन ने कहा-इस समय तो सरकार सो रही होगी। महाराज को कोई सन्देश हो, तो पहुचा दूँ।
राजा ने कदा-नहीं, मैं खुद जा रहा हूँ, तू यहीं रह।
राजा साहब ने कमरे के द्वार पर खड़े होकर भीतर की ओर झाँका। रोहिणी मसहरी के अन्दर चादर ओडे सो रही थी। वह अन्दर कदम रखते हुए झिझके। भय हुआ कि कहीं रोहिणी उठकर कह न बैठे-आप यहाँ क्यों आये? वह इसी दुविधा में आध घण्टे तक वहाँ खड़े रहे। कई वार धीरे-धीरे पुकारा भी, पर रोहिणी न मिनकी। इतनी देर में उसने एक बार भी करवट न ली। यहाँ तक कि उसकी साँस भी न सुनायी दी। ऐसा मालूम हो रहा था कि वह मक्र किये पड़ी है ओर देख रही है कि राजा साहब क्या करते हैं। शायद परीक्षा ले रही है कि अब भी इनका दिल साफ हुआ या नहीं। गाफिल नींद में पड़े हुए प्राणी को श्वास क्रिया इतनी नि:शब्द नहीं हो सकती। जरूर बहाना किये पड़ी हुई है, मेरी आहट पाकर चादर ओढ़ ली होगी। मान के साथ ही इसके स्वभाव मे विनोद भी तो बहुत है। पहले भी तो इस तरह की नकले किया करती थी। मुझे पाते देखकर कहीं छिप जाती और जब मे निराश होकर बाहर जाने लगता, तो हँसती हुई न जाने किधर से निकल पाती। उसके चुहल और दिल्लगी की कितनी ही पुरानी बातें राजा साहब को याद आ गयीं। उन्होंने साहस करके कमरे में कदम रखा, पर अब भी किसी तरह का शब्द न सुनकर उन्हें खयाल आया, कहीं रोहिणी ने झूठ मूठ चादर तो नहीं तान दी है। मुझे चक्कर में डालने के लिए चारपाई पर चादर तान दी हो और आप किसी जगह छिपो हो। वह उसके धोखे में नहीं आना चाहते थे। उन्हें एक पुरानी बात याद आ गयी, जब रोहिणी ने उनके साथ इसी तरह को दिल्लगी की थी, और यह कहकर उन्हें खूब आडे हाथों लिया था कि आपकी प्रिया तो वह हैं, जिन्हें आपने जगाया है, मैं आपकी कोन होती हूँ? जाइए, उन्हीं से बोलिए-हँसिए। वह विनोदिनी आज फिर वही अभिनय कर रही है। इस अवसर के लिए कोई चुभती हुई बात गढ़ रखी होगी--बीस बरस के बाद सूरत क्या याद रह सकती है? राजा साहब का साठवॉ साल था, लेकिन इस वक्त उन्हें इस क्रीड़ा में यौवन-काल का-सा आनन्द और कुतूहल हो रहा था। वह दिखाना चाहते थे कि वह उसका कौशल ताड़ गये, वह उन्हें धोखा न दे सकेगी, लेकिन जब लगभग प्राध घण्टे तक खड़े रहने पर भी कोई आवान या आहट न मिली, तो उन्होंने चारों तरफ चौकन्नी आँखों से देखकर धीरे से चादर हटा दी। रोहिणी सोयी हुई थी, लेकिन जब झुककर उसके मुख की ओर देखा, तो चौंककर पीछे हट गये। वह रोहिणी न थी, रोहिणी का शव था। बीस वर्ष की चिन्ता, दुःख, ईर्ष्या और नैराश्य के सताप से जर्जर शरीर आत्मा के रहने योग्य कब रह सकता था। उन निर्जीव, स्थिर, अनिमेष नेत्रों में अब भी अतृप्त आकाक्षा झलक रही थी। उनमें तिरस्कार था, व्यग्य था, गर्व था। दोनों ज्योति-हीन आँखें परित्यक्ता के जीवन को ज्वलन्त आलोचनाएँ थीं। जीवन की सारी दशाएँ, सारी व्यथाएँ उनमें सार-रूप से व्यक्त हो रही थीं। वे तीक्ष्ण वाणों के समान राना साहब के हृदय में चुभी जा रही थीं, मानो कह रही थीं-अब तो तुम्हारा कलेजा ठण्ढा हुआ। अब मीठी नींद सोनो, मुझे परवा नहीं है।
राजा साहब ने दोनों आँखें बन्द कर ली और रोने लगे। उनकी आत्मा इस अमानुपीय निष्ठुरता पर उन्हें धिक्कार रही थी। किसी प्राणी के प्रति अपने कर्तव्य का ध्यान हमें उनके मरने के बाद ही आता है—हाय! हमने इसके साथ कुछ न किया। हमने इसे उम्र भर जलाया, रुलाया, बेधा। हाय! यह मेरी रानी, जिस पर एक दिन से अपने प्राण न्यौछावर करता था, इस दीन दशा में पड़ी हुई है, न कोई आगे, न पीछे! कोई एक घूँट पानी देनेवाला भी न था। कोई मरते समय परितोष देनेवाला भी न था। राजा साहब को ज्ञात हुआ कि रोहिणी आज क्यों उनके पास गयी थी। वह मुझे सूचना दे रही थी, लेकिन बुद्धि पर पत्थर पड़ गया था। उस समय भी मैं कुछ न समझा। आह! अगर उस वक्त उसका आशय समझ जाता, तो यह नौबत क्यों आती? उस वक्त भी यदि मैंने एक बार शुद्ध दृदय से कहा होता—प्रिये, मेरा अपराध क्षमा करो, तो इसके प्राण बच जाते। अन्तिम समय वह मेरे पास क्षमा का सन्देश ले गयी थी और मैं कुछ न समझा। आशा का अन्तिम आदेश उसे मेरे पास ले गया; पर शोक!
सहसा राजा साहब को खयाल आया—शायद अभी प्राण बच जायँ। उन्होंने चौकीदारिन को पुकारा और बोले—जरा जाकर दरबान से कह दे, डाक्टर साहब को बुला लाये। इनकी दशा अच्छी नहीं है। चौकीदारिन रानी देवप्रिया के समय की तो थी। रोहिणी के मुख की ओर देखकर बोली—डाक्टर को बुलाकर क्या कीजिएगा? अगर अभी कुछ कसर रह गयी हो, तो वह भी पूरी कर दीजिए। अभागिनी मरजाद ढोती रह गयी! उसके ऊपर क्या बीती, तुम क्या जानोगे? तुम तो बुढ़ापे में विवाह करके बुद्धि और लज्जा दोनों ही खो बैठे। उसके ऊपर जो बीती, वह मैं जानती हूँ। हाय! रक्त के आँसू रो रोकर बेचारी मर गयी और तुम्हें दया न आयी? क्या समझते हो, इसने विष खा लिया? इस ढाँचे से प्राण को निकालने के लिए विष का क्या काम था! उसके मरने का आश्चर्य नहीं, आश्चर्य यह है कि वह इतने दिन जीती कैसे रही! खैर, जीते जी जो अभिलाषा न पूरी की, वह मरने पर तो पूरी कर दी। इतनी ही दया अगर पहले की होती, तो इसके लिए वह अमृत हो जाती!
दम के दम में रनिवास में शोर मच गया और रानियाँ बाँदियाँ सब आकर जमा हो गयीं।
मगर मनोरमा न आयी।