कायाकल्प/३५
३५
पाँच साल गुजर गये; पर चक्रधर का कुछ पता नहीं। फिर वही गरमी के दिन हैं, दिन को लू चलती है, रात को अँगारे बरसते हैं, मगर अहल्या को न अब पंखे की जरूरत है, न खस की टट्टियों की। उस वियोगिनी को अब रोने के सिवा दूसरा काम नहीं है। विलास की किसी बात से अब उसे प्रेम नहीं है। जिन वस्तुओं के प्रेम में फँसकर उसने अपने प्रियतम से हाथ धोया, वे सभी उसकी आँखों में काँटे की भाँति खटकतीं और हृदय में शूल की भाँति चुभती हैं, मनोरमा से अब उसका वह बर्ताव नहीं रहा। मनोरमा ही क्यों, लौंडियों तक से वह नम्रता के साथ बोलती और शंखधर के बिना तो अब वह एक क्षण नहीं रह सकती। पति को खोकर उसने अपने को पा लिया है। अगर वह विलासिता में पड़कर अपने को भूल न गयी होती, तो पति को खोती ही क्यों? वह अपने को बार बार धिक्कारती है कि वह चक्रधर के साथ क्यों न चली गयी?
शंखधर उससे पूछता रहता है—अम्माँ, बाबूजी कब आयेंगे? वह क्यों चले गये, अम्माँजी? आते क्यों नहीं? तुमने उनको क्यों जाने दिया, अम्माँजी? तुमने हमको उनके साथ क्यों नहीं जाने दिया? तुम उनके साथ क्यों नहीं गयीं, अम्माँ? बताओ, बेचारे अकेले न जाने कहाँ पड़े होंगे। मैं भी उनके साथ जंगलों में घूमता! यों अम्माँ, उन्होंने बहुत विद्या पढ़ी है? रानी अम्माँ कहती हैं, वह आदमी नहीं, देवता हैं। क्यों अम्माँजी, क्या वह देवता हैं? फिर तो लोग उनकी पूजा करते होंगे। अहल्या के पास इन प्रश्नों का उत्तर रोने के सिवा और कुछ नहीं है। शंखधर कभी कभी अकेले बैठकर रोता है! कभी-कभी अकेले बैठा सोचा करता है कि पिताजी कैसे आयेंगे।
शंखधर का जी अपने पिता की कीर्ति सुनने से कभी नही भरता। वह रोज अपनी दादी के पास जाता है और वहाँ उनकी गोद में बैठा हुआ घण्टों उनकी बातें सुना करता है। चक्रधर की पुस्तकों को वह उलट-पुलटकर देखता है और चाहता है कि मैं भी जल्दी से बड़ा हो जाऊँ और ये किताबें पढ़ने लगूँ। निर्मला दिन-भर उसकी राह देखा करती है। उसे देखते हो निहाल हो जाती है। शंखधर ही अब उसके जीवन का आधार है। अहल्या का मुँह भी वह नहीं देखना चाहती। कहती है, उसी ने मेरे लाल को घर से विरक्त कर दिया। बेचारा न जाने कहाँ मारा-मारा फिरता होगा। भोला-भाला गरीब लड़का इस विलासिनी के पंजे में फँसकर कहीं का न रहा। अब भले रोती है। मुंशी वज्रधर उससे बार-बार अनुरोध करते हैं कि चलकर जगदीशपुर में रहो; पर वह यहाँ से जाने पर राजी नहीं होती। उससे अपना वह छोटा-सा घर नहीं छोड़ा जाता।
मुंशीजी को अब रियासत से एक हजार रुपए महीना वसीका मिला है। राजा साहब ने उन्हें रियासत के कामों से मुक्त कर दिया है। इसलिए मुंशीजी अब अधिकांश घर ही पर रहते हैं। शराब को मात्रा तो धन के साथ नहीं बढ़ी, बल्कि और घट गयी है; लेकिन संगीत प्रेम बहुत बढ़ गया है। सारे दिन उनके विशाल कमरे में गायनाचार्यों की बैठक रहती है। मुहल्ले में अब कोई गरीब नहीं रहा। मुंशीजी ने सबको कुछ न कुछ महीना बाँध दिया है। उनके हाथ में पैसा कभी नहीं टिका। अब तो और भी नही टिकता। उनकी मनोवृत्ति भक्ति की ओर नहीं है, दान को दान समझकर वह नहीं देते, न इसलिए देते हैं कि उस जन्म में इसका कुछ फल मिलेगा। वह इसलिए देते हैं कि उनकी यह आदत है। यह भी उनका राग है, इसमें उन्हें आनन्द मिलता है। वह अपनी कीर्ति भी नहीं सुनना चाहते; इसलिए जो कुछ देते हैं, गुप्त रूप से देते हैं। वह अब भी प्रायः खाली-हाथ रहते हैं और रुपयों के लिए मनोरमा की जान खाते रहते हैं; बिगड़ बिगड़कर पत्र-पर पत्र लिखते हैं, जाकर खोटी-खरी सुना आते हैं और कुछ न कुछ ले ही आते हैं। मनोरमा को भी शायद उनकी कड़वी बातें मीठी लगती हैं। वह उनकी इच्छा तो पूरी करती है; पर चार बातें सुनकर। इतने पर भी उन्हें कर्ज लेना पड़ता है। उनके लिए सबसे आनन्द का समय वह होता है, जब वह शङ्खधर को गोद में लिये मुहल्ले भर के बालकों को मिठाइयाँ और पैसे बाँटने लगते हैं। इससे बड़ी खुशी की वह कल्पना ही नहीं कर सकते।
एक दिन शङ्खधर ९ बजे ही आ पहुँचा। गुरुसेवकसिंह उसके साथ थे। यह महाशय रियासत जगदीशपुर के तसले ये। जिस अवसर पर जो काम जरूरी समझा जाता था, वही उनसे लिया जाता था। निर्मला उस समय स्नान करके तुलसी को जल चढ़ा रही थी। जब वह जल चढ़ाकर आयी, तो शङ्खधर ने पूछा—दादीजी, तुम पूजा क्यों करती हो?
निर्मला ने शङ्खधर को गोद में लेकर कहा—बेटा, भगवान् से माँगती हूँ कि मेरी मनोकामना पूरी करें।
शङ्खधर—भगवान् सबके मन की बात जानते हैं?
निर्मला—हाँ बेटा, भगवान् सब कुछ जानते हैं।
शङ्खधर—दादीजी, तुम्हारी क्या मनोकामना है?
निर्मला—यही बेटा, कि तुम्हारे बाबूजी आ जायँ और तुम जल्दी से बड़े हो जाओ।
शंखधर बाहर मुंशीजी के पास चला गया और उनके पास बैठकर सितार की गतें सुनता रहा।
दूसरे दिन प्रातःकाल शंखधर ने स्नान किया; लेकिन स्नान करके वह जलपान करने न आया। गुरुसेवकसिंह के पास पढ़ने भी न गया। न जाने कहाँ चला गया। अहल्या इधर-उधर देखने लगी, कहाँ चला गया। मनोरमा के पास आकर देखा, वहाँ भी न था। अपने कमरे में भी न था। छत पर भी नहीं। दोनों रमणियाँ घबरायीं कि स्नान करके कहाँ चला गया। लौंडियों से पूछा तो उन सबों ने भी कहा, हमने तो उन्हें नहाकर आते देखा। फिर कहाँ चले गये, यह हमें नहीं मालूम। चारों ओर तलाश होने लगी। दोनों बगीचे की ओर दौड़ी गयीं। वहाँ भी वह न दिखायी दिया। सहसा बगीचे के पल्ले सिरे पर, जहाँ दिन को भी सन्नाटा रहता था, उसकी झलक दिखायी दी। दोनों चुपके चुपके वहाँ गयीं और एक पेड़ की आड़ में खड़ी होकर देखने लगीं। शंखधर तुलसी के चबूतरे में सामने आसन मारे, आँखें बन्द किये ध्यान-सा लगाये बैठा था। उसके सामने कुछ फूल पड़े हुए थे। एक क्षण के बाद उसने आँखें खोलीं, कई बार चबूतरे की परिक्रमा और तुलसी की बन्दना करके धीरे से उठा। दोनों महिलाएँ आड़ से निकल कर उसके सामने खड़ी हो गयीं। शंखधर उन्हें देखकर कुछ लज्जित हो गया और बिना कुछ बोले आगे बढ़ा।
मनोरमा—वहाँ क्या करते थे, बेटा?
शङ्खधर—कुछ तो नहीं। ऐसे ही घूमता था।
मनोरमा—नहीं, कुछ तो कर रहे थे।
शङ्खधर—जाइए, आप से क्या मतलब?
अहल्या तुम्हें न बतायेंगे। मैं इसकी अम्माँ हूँ, मुझे बता देगा। मेरा लाल मेरी कोई बात नहीं टालता। हाँ बेटे, बताओ क्या कर रहे थे? मेरे कान में कह दो। मैं किसी से न कहूँगी।
शंखधर ने आँखों में आँसू भरकर कहा—कुछ नहीं, मै बाबूजी के जल्दी से लोट आने की प्रार्थना कर रहा था। भगवान् पूजा करने से सबकी मनोकामना पूरी करते हैं।
सरल बालक की यह पितृ-भक्ति और श्रद्धा देखकर दोनों महिलाएँ रोने लगीं। इस बेचारे को कितना दुःख है। शङ्खधर ने फिर पूछा—क्यों अम्माँ, तुम बाबूजी के पास कोई चिट्ठी क्यों नहीं लिखतीं?
अहल्या ने कहा—कहाँ लिखूँ बेटा, उनका पता भी तो नहीं जानती!